Sunday, 20 December 2015

विश्व का साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाला है ट्रंप का बयान

    अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख दावेदार डोनाल्ड ट्रंप के अमरीका में मुस्लिमों के प्रवेश पर प्रतिबंध के आह्वान ने पूरे विश्व में हलचल पैदा कर दी है। ट्रंप के इस बयान को चुनावी प्रचार तक सीमित नहीं माना जा सकता है। यह बयान जहां एक ओर अमरीकियों के मन में मुस्लिमों की छवि का दर्शा रहा है वहीं इस तरह का बयान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने वाला है। राष्ट्रपति चुनाव के समय किसी उम्मीदवार का इस तरह का मुस्लिम विरोधी बयान अमेरिका में मुस्लिमों के लिए खतरे को भी इंगित कर रहा है। वैसे भी ट्रंप राष्ट्रपति बनने की स्थिति में दूसरे देशों के युवाओं के अमेरिका में नौकरी करने पर नियंत्रण की भी बात कर चुके हैं। यह भी कहा जा सकता है कि यूरोप में बढ़ रहे आतंकवाद को मुस्लिमों से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा हो। ट्रंप अमरीकियों की सहानुभूति बटोरने के लिए यूपोप में आईएस के क्रूर चेहरे को मुस्लिम का चेहरा बनाकर जीत दर्ज करने का घिनौना खेल खेलने की फिराक में हैं। हालांकि माहौल को भांपते हुए 34 मुस्लिम देशों ने आईएस के खिलाफ खड़े होकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने का बिगुल बजाकर माहौल को संभालने का प्रयास किया है। आज के हालात में यह जरूरी भी है।
    मुस्लिम संगठनों के लिए सोचने का विषय यह है कि अधिकतर आतंकी संगठन मुस्लिम समुदाय से जुड़े होने की वजह से ट्रंप जैसे नेताओं को इस तरह की बयानबाजी करने का मौका मिल रहा है। बात ट्रंप के बयान की भी नहीं है पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रति यूरोप में पनप रहे माहौल की है।  भले ही व्हाइट हाउस ने ट्रंप के बयान की निंदा की हो पर यह वही अमेरिका है जो भारत के तमाम कहने के बावजूद पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का समर्थन करता रहा। इसी अमरीका की शह पर ईराक, ईरान, सीरिया, सूडान में कत्लेआम का जो खेल खेला गया वह किसी से छिपा नहीं है। विश्व में लोकतंत्र के इस दौर में आईएस, अलकायदा, लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकी संगठन कैसे खड़े हुए बताने की जरूरत नहीं। आज जरूरत किसी समुदाय के किसी देश में जाने में प्रतिबंध की नहीं बल्कि आतंकवाद को खत्म करने की है आैर आतंकवाद इस तरह की हरकतों से खत्म होने वाला नहीं। इस तरह के बयान तो धार्मिक उन्मांद को बढ़ाने साबित होते हैं। जरूरत इस बात की है कि ऐसा आतंकी संगठन का क्या रहे हैं कि बड़े स्तर पर मुस्लिम युवा इन संगठनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। क्या आतंकी संगठनों का नेटवर्क विश्व की खुफिया एजेंसियों से भी बड़ा है। या फिर ये एजेंसियां भी ढुलमुल रवैया अपनाए हुए हैं। ट्रंप के बयान पर भले ही व्हाइट हाउस कितनी सफाई दे रहा हो  पर यह सच्चाई है कि अमेरिका आज भी साम्राज्यवाद को बढ़ावा दे रहा है। हालांकि बराक ओबामा ने अमेरिका में काफी सुधार की कोशिश की है। ट्रंप को बराक ओबामा से सीख लेनी चाहिए कि वह किस तरह से हर वर्ग व धर्म के समर्थन से दो बार राष्ट्रपति बने।
   इसमें दो राय नहीं कि विश्व समुदाय में ट्रंप के बयान की खुलकर आलोचना हो रही है पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ट्रंप ने यह बयान मुस्लिम को आतंकवाद से जोड़कर दिया है। वह बात दूसरी है कि व्हाइट हाउस ने इस बयान को अमेरिकी मूल्यों आैर संविधान के खिलाफ बताया है। व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जोश अर्नेस्ट के अनुसार ट्रंप का बयान सिर्फ राष्ट्रपति की प्राथमिकताओं के ही नहीं बल्कि इस देश की स्थापना के लिए जरूरी मूल्यों के भी खिलाफ है। इसमें दो राय नहीं कि ट्रंप के बयान के बाद उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट आई है। इससे पहले उन्होंने मस्जिदों की निगरानी की भी बात कही थी। ट्रंप के इन दोनों ही बयानों पर राजनीतिक दलों ने तीखी प्रतिक्रियाएं दी हैं। यह ट्रंप के बयान की आलोचना ही है कि व्हाइट हाउस ने ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति होने के लिए अयोग्य करार दे दिया है। माहौल को समझते हुए व्हाइट हाउस ने सफाई देते हुए अमेरिका को धर्मनिरपेक्ष देश दिखाने की कोशिश की है। कहा गया है कि  'अमेरिका की स्थापना ऐसे लोगों ने की थी, जो कि अत्याचारों से बचकर भाग रहे थे आैर एक ऐसे स्थान की खोज में थे, जहां वे स्वतंत्रता के साथ अपने धर्म का पालन कर सके। उनके अनुसार अमेरिका का मूल आधार यही है।
   ट्रंप के बयान का समाज पर ऐसा दुष्प्रभाव पड़ा कि अभिनेता विल स्मिथ तक विचलित हो उठे। उन्होंने कहा कि ट्रंप का यह बयान को उन्हें राजनीति में आने के लिए उकसा रहा है। फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग के बाद अब गुगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने ट्रंप के इस बयान में मुसलमानों का समर्थन किया है। ब्रिाटेन की सरकार भी इस बयान की आलोचना कर रही है।
    गौर करने वाली बात यह है कि एक ओर जहां पूरी दुनिया आतंकवाद व ट्रंप के बयान की आलोचना कर रही है वहीं मशहूर पत्रिका 'टाइम" ने इस साल 'पर्सन ऑफ द ईयर" के लिए अंतिम आठ दावेदारों में आईएस के सरगना अब बकर बगदादी के अलावा डोनाल्ड ट्रंप का नाम भी शामिल किया था। हालांकि बाद में पत्रिका ने जर्मनी की चांसलर एंजला मर्कल को 'पर्सन ऑफ द 2015" चुन लिया। यह भी बेशर्मी ही है कि भले ही दुनिया ट्रंप के बयान की आलोचना कर रही हो पर रिपब्लिकन पार्टी उनके बयान को सही साबित करने पर तुली है। रिपब्लिकन पार्टी के भारतीय मूल के बॉबी जिंदल ने डोनाल्ड ट्रंप के बयान का समर्थन किया है। उन्होंने अमेरिका में अवैध प्रवासियों से जन्मे बच्चों के लिए जन्म आधारित नागरिकता खत्म करने का भी समर्थन किया। यह ट्रंप का दुस्साहस ही है कि दुनिया की आलोचनाओं को अनदेखा करते हुए वह राष्ट्रपति बनने की स्थिति में अमेरिका में दूसरे देशों के नागरिकों के लिए नौकरी पर नियंत्रण करने की बात कर रहे हैं। यह ट्रंप का अति आत्मविश्वास ही है कि मुस्लिम विरोधी टिप्पणी के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम तरह की आलोचनाएं झेल रहे ट्रंप ट्विटर पर एक नए मामले में सऊदी के राजकुमार से भिड़ गए। ट्रम्प के इस बयान की निंदा करते हुए जब सऊदी राजकुमार और अरबपति अलवलीद बिन तलाल ने ट््वीट कर ट्रंप को कहा कि ट्रंप न सिर्फ रिपब्लिकन पार्टी, बल्कि सभी अमरीकियों के लिए एक कलंक हैं। राजकुमार ने उन्हंे राष्ट्रपति पद की रेस से हटने की सलाह दी तो ट्रंप ने ट््िवटर पर ही उन्हें जवाब दे दिया कि राजकुमार (तलाल) आप अपने पिता के पैसे से अमरीकी नेताओं को नियंत्रित करना चाहते हैं । लेकिन जब वह राष्ट्रपति बन जाएंगे तो यह सब नहीं होने देंगे। देखना यह भी हागा कि ट्रंप का मुस्लिम विरोधी बयान हाल ही में कैलिफोर्निया में हुई गोलीबारी की घटना के बाद आया है। इस गोलीबारी में 14 लोग मारे गए थे।  इसमें दो राय नहीं कि विश्व में मुस्लिमोंं के प्रति इस तरह के बयान आतंकी संगठनों को लेकर आ रहे हैं। विश्व में मुस्लिमों के प्रति जनमानस के भाव को भांपते हुए 34 मुस्लिम देशों ने आतंकवाद के खिलाफ जो मोर्चा खोला है वह सराहनीय है।  सऊदी अरब में इसका मुख्यालय बनाया गया है।  यहं नया'इस्लामी सैन्य गठबंधन" राजधानी रियाद में स्थित केंद्र के साथ मिलकर एक साझा अभियान चलाएगा।    बताया जा रहा है कि सऊदी अरब इसका नेतृत्व करेगा। आतंकवाद से मुकाबला करने वाले इस नए गठबंधन में पाकिस्तान, तुर्की, मिरुा, लीबिया, यमन जैसे देशों के अलावा अफ्र ीकी देश माली, चाड आैर सोमालिया आैर नाइजीरिया समेत कई देश शामिल हैं।
    उधर जहां ट्रंप जैसे नेता आतंकवाद को मुस्लिमों से जोड़कर देख रहे हैं वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आतंकवाद को जड़ से उखाड़ने की चेतावनी देते हुए गठबंधन सेनाओं से आतंकी संगठन आईएस के खिलाफ अपने अभियान में और तेजी लाने का आह्वान किया है।  पेंटागन में सोमवार को नेशनल सिक्योरिटी के उच्चाधिकारियों के साथ बैठक के बाद ओबामा ने चेतावनी भरे लहजे में कहा, आईएस अब अपना प्रोपोगंडा फैला नहीं सकता। हमने उसके जड़ से खत्मे के लिए अपने हमलों में तेजी ला दी है और आतंकी कहीं भी छिप नहीं सकते। अमेरिकी ने आतंकवाद के खिलाफ सक्रियता दिखाते हुए अमेरिका की सरजमीन पर हमला करने के लिए कथित तौर पर धन लेकर आतंकी समूह इस्लामिक स्टेट को साजो-सामान का सहयोग मुहैया कराने के आरोप में अमेरिका में 30 साल के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है। एफबीआई ने सोमवार को मोहम्मद अलशिनावी को गिरफ्तार किया है जो मेरीलैंड का रहने वाला है।

Friday, 27 November 2015

असहिष्णुता से खबरदार करने की जरूरत

    देश में इस समय असहिष्णुता को लेकर बवाल मचा हुआ है। जहां लेखक-साहित्यकार अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं, वहीं बालीवुड में भी भूचाल आ गया है। अभिनेता आमिर खान के  इस बयान के बाद कि 'असहिष्णुता से भयभीत मेरी पत्नी ने मुझे देश छोड़ने तक कह दिया था", वालीवुड की बड़ी हस्तियों के साथ ही भाजपा ने भी आमिर खान को निशाने पर ले लिया है। असहिष्णुता को लेकर प्रश्न उठता है कि जिस शब्द को लेकर देश का बड़ा वर्ग चर्चा में मशगूल है, उस शब्द को आम आदमी तो दूर की बात है, काफी संख्या में पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं। इन हालात में बवाल मचाने से ज्यादा असहिष्णुता के बारे में लोगों को जाग्रत करने की जरूरत है। जरूरत इस बात की है कि कैसे इस पर अंकुश लगाया जा सकता है ? कैसे यह समस्या बढ़ी है ? इस समस्या के बढ़ने में कौन-कौन से कारण व कौन लोग हैं?  असहिष्णुता के बढ़ने का दारोमदार किसी एक वर्ग या कौम पर नहीं है, यह बात साफ है। लोगों आैर सरकार को यह बताया भी जाना चाहिए कि इस ब्राहृपिशाच से मुक्ति कैसे आैर किस योजना के तहत मिल पाएगी।
   असहिष्णुता के विरोध के माध्यम से केंद्र सरकार बुद्धिजीवियों के निशाने पर है। यदि लेखकों व साहित्यकारों की बात करें तो उनके अनुसार गलत बात का विरोध करने पर समाज सेवकों, लेखकों व साहित्यकारों का दमन, उत्पीड़न व हत्या तक की जा रही है, जिसका जिम्मेदार ये लोग केंद्र सरकार को मानते हैं। एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दोभालकर आैर गोविंद पानसरे की हत्याओं को भी असहिष्णुता से जोड़कर देखा जा रहा है। असहिष्णुता देश में ऐसा मुद्दा बन गया है कि प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक को सफाई देने पड़ रही है। वैसे तो देश में अपने-अपने तरीके से असहिष्णुता का विरोध जताया जा रहा है पर सबसे अधिक मुखर वामपंथी लेखक व साहित्यकार हैं। स्थिति यह हो गई है कि गत दिनों बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विरोध जता रहे भारतीय लेखकों पक्ष में वाशिंगटन में लेखकों के वैश्विक संघ ने केंद्र सरकार से अपील की कि इन लोगों को बेहतर सुरक्षा, अभिव्यक्ति व स्वतंत्रता का संरक्षण प्रदान किया जाए।
   कनाडा के क्यूबेक सिटी में हुई पेन इंटरनेशनल की 81वीं कांग्रेस में भाग लेने वाले 73 देशों के प्रतिनिधियों ने प्रतिष्ठित पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों व साहित्यकारों के साथ एकजुटता दिखाई। पेन इंटरनेशनल के अध्यक्ष जॉन राल्स्टन सॉल ने हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आैर साहित्य अकादमी को पत्र लिखकर केंद्र  सरकार से लेखकों आैर कलाकारों समेत हर किसी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने की अपील की है। असहिष्णुता का विरोध करने वाले लेखक, साहित्यकार, अभिनेता व अन्य लोग जो केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं, यदि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने की बजाय समाज में असहिष्णुता को खत्म करने पर बल दें तो यह ज्यादा कारगर होगा। केंद्र सरकार को झुकना भी पड़ेगा। असहिष्णुता का विरोध करने वाले ये वे लोग हैं, जिनकी कलम व विचार से समाज परिवर्तित होता है। यह वर्ग  फिर क्यों केंद्र सरकार की ओर आशा भरी निगाह से देख रहा है? वैसे भी इस वर्ग की समाज के प्रति बड़ी जवाबदेही है -पुरस्कार लौटाने व बयानबाजी करने के बदले। यदि यह वर्ग इस काम को कर ले गया तो ये लोग जनता से असली रिवार्ड पाएंगे, जो कोई सरकार व संस्था नहीं दे सकती है।

Tuesday, 17 November 2015

धर्मनिरपेक्षता का मजाक बनाना रहा बिहार चुनाव परिणाम

    लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में काबिज होने वाली भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सहारे कई प्रदेश कब्जाए पर अति उत्साह में दिल्ली के बाद बिहार में मिली जबर्दस्त शिकस्त ने केंद्र सरकार की विफलता को उजागर कर दिया। प्रधानमंत्री भी देशवासियों की उम्मीदों को दरकिनार कर विदेशी दौरे में व्यस्त रहें। सरकार महंगाई आैर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाय भावनात्मक से जुड़े मुद्दे उठाती रही आैर हिन्दुत्व में इतनी खो गई कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए मजाक बन रह गई।
   बात बिहार चुनाव की हो तो वह बिहार जहां से महात्मा गांधी से लेकर लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का बिगुल फूंका हो। जहां के गांधी मैदान ने कई समाजवादी नेता दिए हों। खुद नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक रैल की हो। वहां के चुनाव के बारे में देश की राजनीति की दिशा तय करने की बात कहना कहीं से गलत नहीं थी। जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस की 40 सीटों को अपनी ही झोली में आने की बात कर रहे हों, जब वह समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता को हल्के में ले रहे हों। ऐसे में ये परिणाम कहीं से आश्चर्यजनक नहीं लग रहे है। बिहार चुनाव के बारे में कहा जा रहा है कि आरएसएस सर संचालक मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान ने भाजपा की लूटिया डुबोई।
  आरक्षण हटने का डर दिखाकर लालू प्रसाद व नीतीश कुमार ने अति दलित व पिछड़ों को अपने पक्ष में लामबंद कर लिया। दादरी में हुए गो-मांस को लेकर हुई एक वृद्ध की हत्या के बाद नीतीश कुमार व लालू प्रसाद धर्मनिरपेक्ष माहौल बनाने में कामयाब रहे। ये सब बातें तो है ही साथ ही भाजपा देश में जो हिन्दुत्व का माहौल बना रही थी उसे लोगों ने नकारते हुए धर्मनिरपेक्षता में आस्था जताई है। दरअसल जनता सामाजिक संतुलन चाहती है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के भाजपा के हारने के बाद पाकिस्तान में जश्न मनाने के बयान ने भी लोगों को सोचने को मजबूर किया।
    मोदी यहां पर गलत रहे कि भाजपा के कई नेता उजूल-फिजूल बयान देते रहते हैं पर वह कुछ नहीं बोले। असहिष्णुता को लेकर सरकार के खिलाफ लेखक-साहित्याकार लामबंद हो गए। अपने अवार्ड लौटाने लगे पर प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे। उल्टे उनके मंत्री गैरजिम्ेमदोराना बयानबाजी करने लगे। यदि चुनाव प्रचार की बात की जाए तो इन्हीं नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में पटना गांधी मैदान में हो रही रैली में बम विस्फोट के बाद कहा था कि हिन्दू-मुस्लिम को एक-दूसरे से लड़ने के बजाय गरीबी से लड़ना चाहिए। जब भाजपा नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम को लेकर बयानबाजी की तो नरेंद्र मोदी चुप्पी साधे बैठे रहे। दादरी में गो मांस को लेकर हुए वृद्ध की हत्या पर मोदी ने यह मामला राज्य सरकार का है कहकर पल्ला झाड़ लिया। यह नरेंद्र मोदी जनता की जवाबदेही से बचना ही था। जब देश महंगाई व भ्रष्टाचार से जूझ रहा हो आैर सरकार भावनात्मक मुद्दों तक ही सिमट रह गई है।
   आज के दौर में भले ही समाजवादियों पर जातिवाद-परिवारवाद व अवसरवाद का आरोप लग रहा हो पर यह जमीनी हकीकत है कि देश आज भी समाजवाद के सहारे ही चल रहा है। समाजवाद किसी विशेष नेता के बजाय समाज में व्याप्त है। नरेंद्र मोदी विदेश में भी जाकर धर्मनिरपेक्षता का मजाक बनाने से नहीं माने। वह एक विशेष दल पर निशाना साधते हुए धर्मनिरपेक्षता को टारगेट बनाते रहे। सर्वविदित है कि देश की बुनियाद धर्मनिरपेक्ष है। इस ढांचे को यह हिलाने का प्रयास किया गया तो हलचल होना स्वाभाविक है। मोदी के अब तक के कार्यकाल में ऐसा कहीं से नहीं लगा तो उन्हें गरीब आदमी की फिक्र है। चाहे मोदी विदेश में घूम रहे हों या फिर देश में बैठकें कर रहे हों। अब तक के कार्यकाल में उन्होंने कोई बैठक किसान व मजदूरों के साथ नहीं की। इसमें दो राय नहीं कि नीतीश कुमार ने बिहार में काम किया है।

Sunday, 11 October 2015

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

                               (12 अक्टूबर-पुण्यतिथि पर विशेष)

    जब हमारे देश में समाजवाद की बात आती है तो डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम सबसे ऊपर आता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाते हुए 70 के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादियों ने कांग्रेस शासन की अराजकता के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई सालों तक उत्तर प्रदेश पर राज किया आैर आज उनके पुत्र अखिलेश यादव भी लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। वह बात दूसरी है कि अब उन पर परिवारवाद, जातिवाद व अवसरवाद का आरोप लग रहा है।
   आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरुआती दौर के समाजवादी जितने खुद्दार थे, उतने ही ईमानदार भी। जहां तक डॉ. राममनोहर लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह 'भारत छोड़ो आंदोलन" के चलते आगरा जेल में बंद थे आैर इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने ब्रिाटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छूटने से इनकार कर दिया। देशभक्ति व ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे। समाजवाद व संघर्ष उनमें बचपन से ही शुरू हो गया था। जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया आैर उनकी दादी व नाइन ने उनका पालन-पोषण किया। गांधी जी के विराट व्यक्तित्व का असर लोहिया पर बचपन से ही पड़ गया था, उनके पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे आैर जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते। वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया ने गांधी जी से सीखना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वे 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में की। 1921 में फैजाबाद किसान आंदोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी पहली मुलाकात हुई। युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता (अब कोलकाता) में अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता भी की।
    लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि समाज ने 1930 जुलाई को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेजा। लोहिया पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए आैर फिर वहां से बर्लिन। यह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लोहिया की बगावत ही थी कि 23 मार्च, 1931 को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में बर्लिन में हो रही 'लीग ऑफ नेशंस" की बैठक में सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से उन्होंने इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्थितियों में देश आैर समाज के लिए संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह मद्रास पहुंचे तो रास्ते में उनका सामान जब्त कर लिया गया। लोहिया समुद्री जहाज से उतरकर 'हिन्दू" अखबार के दफ्तर पहुंचे आैर दो लेख लिखकर 25 रुपए कमाए आैर इनसे कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता  से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की। मालवीय जी ने उन्हें रामेश्वर दास बिड़ला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नौकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिड़ला जी का निजी सचिव बनने से इनकार कर दिया।
   17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में इकट्ठे हुए, जहां समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा तैयार की आैर पार्टी के उद्देश्यों में उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया, बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई (अब मुंबई) के 'रेडिमनी टेरेस" में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए आैर पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया। दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी आैर बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
   दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए भाषण के कारण 11 मई 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत उन्हंे दो साल की सजा हुई। लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि 'जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं मैं खामोश नहीं रह सकता। उनसे ज्यादा बहादुर आैर सरल आदमी मुझे मालूम नहीं।" चार दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया।
   आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरू में मतभेद पैदा हो गए थे आैर 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया। इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा।
   1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन" छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लिया गया आैर लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। 1945 में लोहिया को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतनी घबराई हुई थी कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया। बाद में 11 अप्रैल, 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
   15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आंदोलन की पहली सभा की। लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आंदोलन के शुरूआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो नवाखाली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत कई जगहों पर लोहिया, गांधी जी के साथ मिलकर सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। 9 अगस्त, 1947 से हिंसा रोकने का काम युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात को 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर बिगड़ गया। गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए आैर उनके प्रयास से 'शांति समिति" की स्थापना हुई आैर चार सितम्बर को गांधी जी ने अनशन तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में भी लोहिया का विशेष योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आंदोलन समाजवादी चला रहे थे। दो जनवरी 1948 को रीवा में 'हमें चुनाव चाहिए विभाजन रद्द करो" के नारे के साथ आंदोलन किया गया।
   1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरू के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत के सवाल को उठाया। 1963 को फरुखाबाद के लोकसभा उप चुनाव में लोहिया 58 हजार मतों से चुनाव जीते।  लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही। उस समय उन्होंने 18 करोड़ आबादी के चार आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया। 9 अगस्त 1965 को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
   30 सितम्बर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, जो आजकल डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम से जाना जाता है में पौरुष ग्रंथि के ऑपरेशन के लिए भर्ती कराया गया, जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया।

Tuesday, 15 September 2015

पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने ने लिए खड़े हो जाओ

साथियों,
             लंबे समय से सरकारों के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रति चले आ रहे उपेक्षित रवैये के खिलाफ अब खड़ा होना जरूरी हो गया है। जब तक यह क्षेत्र अलग प्रदेश नहीं बनेगा तब तक यहां के लोगों का भला नहीं हो सकता। फाइट फॉर राइट व पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी ने यह बीड़ा उठाया है आैर हम लोग इस क्षेत्र को अलग प्रदेश बनवा कर ही दम लेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 28 जिले, 29 लोकसभा व 135 विधानसभा क्षेत्र हैं। एक विशेष क्षेत्र के लोग नहीं चाहते कि यह क्षेत्र अलग प्रदेश के रूप में जाना जाए। उसका कारण इस क्षेत्र को लूटकर अपना घर भरना तथा सरकार को मिलने वाला 70-80 फीसद राजस्व है। 24 हजार करोड़ तो अकेला गौतमबुद्धनगर जिला देता है। इतना राजस्व देने के बावजूद यहां पर मात्र 15-20 फीसद विकास होता है। रोजगार के नाम पर यहां के युवाओं को ठेंगा दिखाया रहा है। अब समय आ गया है कि हर वर्ग के लोग अलग प्रदेश बनवाने के लिए उठें आैर इस आंदोलन में शामिल हों।
     पहला स्वतंत्रता संग्राम हमारे क्षेत्र मेरठ से ही शुरू हुआ। स्वभाविक है कि हमारे पूर्वज खुद्दार, स्वाभिमानी पराक्रमी आैर अत्याचार का विरोध करने वाले थे। हम लोगों को दबाने के लिए तरह-तरह से हमें परेशान किया गया। एक षड¬ंत्र के तहत लंबी दूरी पर इलाहाबाद हाईकोर्ट आैर लखनऊ राजधानी बनाई गई थी। यह क्षेत्र अलग प्रदेश बन जाएगा तो हाईकोर्ट व राजधानी भी हमारे क्षेत्र में होंगे तथा जो वकील भाई हाईकोर्ट की ब्राांच की मांग कर रहे हैं उनकी समस्या अपनेआप खत्म हो जाएगी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश गन्ना किसानों के नाम जाना जाता है। गन्ना किसानों की बेबसी देखिए कि वह कर्जा लेकर रात-दिन मेहनत कर फसल तैयार करते हैं आैर उसे चीनी मिल पर डाल आते हैं। भुगतान के लिए उन्हें आंदोलन करना पड़ता है। लाठी खानी पड़ती है। इन सबके बावजूद किसानों को उनका बकाया भुगतान नहीं हो पा रहा है। खरबों रुपए ब्याजमुक्त कर्जा लेने के बावजूद चीनी मिल मालिक किसानों को चक्कर कटवा रहे हैं। किसानों के सामने ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई है कि सम्पन्न क्षेत्र के नाम से जाने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी किसान आत्म-हत्या करने लगे हैं। चौधरी चरण सिंह का अलग प्रदेश बनवाने का सपना रहा है। उनके पुत्र अजीत सिंह व पौत्र जयंती चौधरी उनके नाम से राजनीति कर रहे हैं, पर जब अलग प्रदेश की बात आती है तो वह सत्तामोह में फंस जाते हैं। चौधरी चरण सिंह का असली वारिश बताने वाले मुलायम सिंह यादव अलग प्रदेश का विरोध कर रहे हैं।
साथियों पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग बनवाने की मांग 1930 में गोलमेज सम्मेलन में भी उठी थी। महात्मा गांधी, अली जिन्ना व भाई परमानंद ने इसका समर्थन किया था। 1953 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो 97 विधायकों ने आयोग के सामने अलग राज्य की मांग उठाई थी। आयोग ने सहमति भी दी थी पर सत्तारूढ़ नेताओं ने निजी कारणों के चलते अलग राज्य नहीं बन पाया। 1978 में सोहनवीर तोमर ने अलग राज्य की मांग उठायी थी। भले ही आज सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनवाने का विरोध कर रहे हों पर 1995 में उन्होंने खुद इसकी पैरवी की थी। 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश को चार राज्य में बांटकर राज्य के पुनर्गठन का प्रस्ताव यूपीए सरकार को भेजा था पर कुछ स्वार्थी नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य नहीं बनने दे रहे हैं। अब हमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनवाने के लिए हर कुर्बानी को तैयार रहना है आैर हम लोग अलग राज्य बनवा का ही रहेंगे।
                                     आपका अपना
                                     चरण सिंह राजपूत
                                     राष्ट्रीय अध्यक्ष, फॉइट फॉर राइट
                    राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व प्रवक्ता, पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी

Sunday, 13 September 2015

नेताजी के गले की फांस बना यादव सिंह प्रकरण

   चौधरी चरण सिंह से राजनीति का पाठ सीखकर डॉ. राम मनोहर लोहिया का अनुयाई होने का दावा करते हुए एक पिछड़े गांव से राजनीति शुरू कर देश की राजनीतिक पटल पर छाने वाले मुलायम सिंह यादव पर लंबे समय से परिवारवाद आैर जातिवाद का आरोप तो लग ही रहा था अब नोएडा प्राधिकरण के यादव सिंह प्रकरण मामले में उनकी काफी फजीहत हुई। स्थिति यह हो गई थी कि जब यादव सिंह पर सीबीआई जांच बैठी तो उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई जांच के बदले एसआईटी बैठाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो उसे वहां से कड़ी फटकार पड़ी। वैसे भी मुलायम सिंह के भाई रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव का नाम यादव सिंह प्रकरण में आ गया है। ललित मोदी के वीजा मामले में रामगोपाल यादव का सुषमा स्वराज की पैरवी करना भी इससे जोड़कर देखा गया था। अब बिहार में पांच सीटों का हवाला देकर महागठबंधन से नाता तोड़ना यादव सिंह प्रकरण पर मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीबीआई जांच से डराना माना जा रहा है। वैसे भी मुलायम सिंह अचानक जहां नीतीश कुमार के खिलाफ बोलने लगे हैं वहीं जनाधारहीन हो चुके कांग्रेस को टारगेट बना रहे हैं। जदयू प्रमुख शरद यादव व राजद प्रमुख लालू प्रसाद के तमाम मनाने के बावजूद मुलायम सिंह टस से मस न होना इस संदेह आैर मजबूत कर रहा है।
    वैसे जनता परिवार के नाम पर समाजवादियों को एकजुट करने का दंभ भरने वाले महागठबंधन का मुखिया बनने के बावजूद मुलायम सिंह ने उसे कमजोर ही किया। जब मुलायम सिंह यादव को इस महागठबंधन की अगुआई सौंपी गई थी तो उन्हें बड़ा दिल रखकर फैसले लेना चाहिए था। बिहार चुनाव के नाम पर लालू प्रसाद व नीतीश कुमार अपने गिले-शिकवे भूलकर एक हो गए पर मुलायम सिंह चुप्पी साधे रहे।
    नरेंद्र मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए जब जनता परिवार के एकजुट करने के नाम पर महागठबंधन बना आैर इसकी अगुआई मुलायम सिंह यादव का सौंपी गई। इस गठबंधन में सपा, जदयू, राजद, इनेलो, जद (एस) के मिलने की बात की जा रही थी। बिहार चुनाव से पहले राजद व जदयू तो एक हो गए पर सपा के मिलने के नाम पर सपा महासचिव का यह बयान आ गया कि जनता परिवार में सपा के विलय का मतलब पार्टी का डेथ वारंट जारी करना होगा। जब सपा गठबंधन में शामिल होने से बचती रही तो फिर सीटें कम मिलने का मलाल क्यों ? दरअसल मुलायम सिंह यादव केंद्र सरकार के दबाव में माने जा रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि केंद्र सरकार के दबाव में उन्होंने महागठबंधन को कमजोर करने के लिए ऐसा किया। वैसे तो बिहार में खुद मुलायम सिंह यादव ने सपा का जनाधार बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। जब भी कुछ विधायक जीतकर आते तो या तो वह सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल हो जाते हैं या फिर समर्थन दे देते हैं।
   यादव सिंह मामले में ऐसा माना जा रहा था कि नेताजी के के इशारे पर उसे नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस प्राधिकरण की जिम्मेदारी दी गई। उसके पीछे यह माना जा रहा था कि वह मैनेज करने में माहिर है। मायावती सरकार में भी वह फुल पावरफुल था। कहा जाता है कि गौतमबुद्धनगर से पैसा उगाकर वह सरकार को भिजवाने में नोएडा प्राधिकरण का सबसे खिलाड़ी अधिकारी रहा है। इनकम टेक्स छापे में यह साबित हो गया कि वह कितना बड़ा दलाल है। उसके पास बेशकीमती हीरे जवाहरात के अलावा करोड़ों रुपए बरामद हुए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि एक इंजीनियर के पास इतनी संपत्ति कहां से आई। या फिर इस तरह के भ्रष्ट अधिकारी को सपा सरकार में तीनों प्राधिकरणें की जिम्मेदारी क्यों सौपी गई। कभी खांटी समाजवादी के नाम से जाने जाने वाले मुलायम सिंह यादव पर लगातार समाजवाद से भटकने के आरोप क्यों लग रहे हैं ?
ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह पर पहली बार संदेह व्यक्त किया जा रह है।   
   यूपीए सरकार में भी मुलायम सिंह यादव की ढुलमुल नीतियां रही हैं। वह यूपीए सरकार को समर्थन भी देते रहे आैर विरोध भी करते रहे। परमाणु करार मामले में जब वामपंथियों से यूपीए-एक सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह यादव ने यूपीए सरकार की सरकार बचाई। आय से अधिक संपत्ति मामले में मुलायम सिंह का बरी होना सरकार बचाने का रिवार्ड बताया जा रहा था। अब जब एनडीए सरकार प्रचंड बहुमत के साथ चल रही है तो मुलायम सिंह यादव कैसे दबाव बनाएं। भूमि अधिग्रहण विधेयक को राज्यसभा में पास कराने के मामले में मुलायम सिंह यादव एनडीए सरकार पर दबाव बनाने की फिराक में थे। एक तरह से उन्होंने संकेत दे भी दिए थे पर राजनीतिक के बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी ने भूमि अधिग्रहण बिल ही वापस ले लिया। अब ऐसे में मुलायम सिंह यादव के पास मोदी को खुश करने का बिहार चुनाव में महागठबंधन से नाता तोड़ने जैसा फैसले सबसे उपयुक्त लगा होगा।

Tuesday, 25 August 2015

तो अब सुधर जाएगी उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था

   'गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काकू लागूं पायं, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय"। कबीरदास ने शायद यह दोहा इसलिए लिखा होगा क्योंकि हमारे समाज में गुरु का दर्जा भगवान से भी बड़ा माना गया है। इसलिए माना गया है क्योंकि बच्चे के भविष्य निर्माण में सबसे अधिक योगदान गुरु का होता है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में इस तरह की बातें फिट भी बैठती थीं पर जबसे गुरुकुल का रूप स्कूलों ने ले लिया, शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है तब से गुरु के बदले रूप शिक्षक पर उंगली उठनी भी शुरू हो गई है। शिक्षक पर उंगली उठी तो स्वभाविक है कि शिक्षा का स्तर गिरेगा ही। किसी समय लगभग सभी लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते थे आैर अब लगभग सभी के बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ने लगे हैं। यहां तक कि गरीब से गरीब आदमी भी किसी तरह से पैसों की व्यवस्था कर अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ाना चाहता है। इसका बड़ा कारण यह है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई नाम की कोई चीज रह नहीं गई। वेतन की बात की जाए तो सरकारी शिक्षकों का वेतन निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों से कई गुणा ज्याता होता है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने की बात लंबे समय से की जा रही है। सरकारी स्कूल अति गरीब बच्चों तक ही सिमट कर रह गए हैं। इस पीड़ा को महसूस किया उत्तर प्रदेश सुल्तानपुर जिले के एक शिक्षक शिव कुमार पाठक ने।
   उन्होंने सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा का मुद्दा उठाकर जब एक याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की तो हाईकोर्ट ने जनप्रतिनिधियों व सरकार से वेतन पाने वाले लोगों के बच्चों का सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य करने का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख सचिव को जारी कर दिया।
   हाईकोर्ट के इस आदेश से आम आदमी तो खुश है पर पैसे के दम पर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने वाले लोगों को दिक्कतें हो रही है। इस आदेश से उत्तर प्रदेश सरकार की बौखलाहट भी स्वभाविक है। क्योंकि 2017 में विधानसभा चुनाव है आैर हाईकोर्ट ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर उंगली उठाकर उसे दुरुस्त करने का आदेश दे दिया। ऐसे में याचिका दायर करने वाले शिक्षक शिव कुमार पाठक की बर्खास्तगी भी इस बौखलाहट का परिणाम माना जा रहा है। सरकार शिक्षक की अनुपस्थिति कारण बता रही है। यह निर्णय हाईकोर्ट के आदेश के बाद क्यों लिया गया ? मेरा मानना है कि प्रदेश सरकार का यह निर्णय उसके खिलाफ ही जाएगा। इस कार्रवाई से ऐसा लग रहा है कि प्रदेश सरकार की सरकारी स्तर पर शिक्षा के सुधार की नीयत साफ नहीं है। तो यह माना जाए कि जो व्यक्ति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाएगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। ये राजनेता समस्याओं को हल कराने का दंभ भरकर ही सत्ता हथियाते हैं। व्यवस्था सुधारने की बात करतेे हैं। अच्छे राज की बात करते हैं। लोगों का अच्छे कार्य करने का आह्वान करते हैं तो इस तरह के काम करने वाले लोगों पर कार्रवाई क्यों ?
   हालांकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मुजफ्फरनगर में हाईकोर्ट के आदेश का सख्ती से पालन करने की बात कही है। तो क्या सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि व नौकरशाह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएंगे ? यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से शिक्षा स्तर में सुधार होगा। जब प्रदेश के जनप्रनिनधि प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मियों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ने लगेंगे तो सरकारी विद्यालयों पर ध्यान देना उनकी मजबूरी हो जाएगी तो विद्यालयों का स्तर अपने आप सुधरने लगेगा। विद्यालयों में शिक्षकों का मापदंड योग्यता होगा तो बच्चों को अच्छी शिक्षा भी मिलनी शुरू हो जाएगी। शिक्षा का स्तर सुधरने से अन्य लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने लगेंगे। कोर्ट के इस आदेश से शिक्षा के व्यावसायीकरण पर अंकुश तो लगेगा ही साथ ही जो लोग निजी विद्यालयों की फीस का खर्चा नहीं उठा पा रहे हैं उन्हें भी काफी हद तक राहत मिल जाएगी। हाईकोर्ट ने आदेश न मानने वाले लोगों पर कार्रवाई की बात कही है। इन सबके बावजूद लोगों को इस बात पर संदेह है कि यह आदेश अमल में लाया जाएगा।
   जिस तरह से इन लोगों के बच्चों का सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया गया ठीक उसी तरह से इनका सरकारी अस्पतालों में भी इलाज की अनिवार्य होनी चाहिए। जब जनप्रतिनिधि व नौकरशाह व उनके परिजन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराएंगे तो सरकारी अस्पतालों का स्तर भी सुधरना शुरू हो जाएगा। जब जनप्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों व उनके परिजनों का इलाज सरकारी अस्पतालों में होने लगेगा तो निश्चित रूप से अस्पतालों का भी स्तर सुधरेगा। होना तो यह भी चाहिए कि जनप्रतिनिधि व नौकरशाहों को निजी स्कूलों व निजी अस्पतालों का लाइसेंस नहीं मिलना चाहिए। इन लोगों के प्रशासनिक व प्रशासनिक पकड़ के चलते ही निजी स्कूल व निजी अस्पताल फल-फूल रहे हैं। ये लोग सरकारी सरकारी स्कूलों व सरकारी अस्पतालों पर ध्यान न लगाकर निजी स्कूलों व निजी अस्पतालों पर अपना पूरा ध्यान लगाते हैं।
   सरकारी स्कूलों में जनप्रतिनिधियों व सरकारी कर्मियों के बच्चों के पढ़ने की अनिवार्यत: से प्रश्न उठता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस आदेश को मुख्य सचिव लागू कैसे कर सकते हैं। क्योंकि वह अपनी ओर से कोई व्यवस्था बनाने और करने में सक्षम नहीं हैं। मुख्य सचिव का काम संसद और विधान मंडलों द्वारा बनाये गये कानून या प्रतिनिधियों के बनाये गये नियमों के अनुसार कार्य करना है। इसमें यह परेशानी होगी कि कोर्ट को नियम और कानून बनाने का अधिकार तो है नहीं, कोर्ट विद्यमान कानूनों की समीक्षा ही कर सकते हैं और संवैधानिक परिधि के भीतर ही किसी मामले का निस्तारण भी कर सकते हैं। ऐसे में यह सरकार आदेश को अमल में लाने के लिए कैसे बाध्यकारी होगी समझ से परे है।
  शिक्षा का व्यवसायीकरण इस आदेश में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है।  इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्तर से सरकारी विद्यालयों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यही वजह है कि निजी स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ये लोग शिक्षित लोगों की बेरोजगारी का लाभ भी उठा रहे हैं। हालात यह है कि निजी विद्यालयों में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतनमान भी नहीं मिलता। यही वजह है कि सरकारी विद्यालयों में तो शिक्षा का स्तर गिरा ही है साथ ही निजी विद्यालयों में कोई खास पढ़ाई नहीं होती। सरकारी विद्यालयों में सरकारी उपेक्षा व शिक्षा के व्यवसायीकरण के बीच अभिभावक पिस रहा है। अभिभावक किसी तरह से पैसों की व्यवस्था कर निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं पर शिक्षा की कोई खास व्यवस्था नहीं। व्यवस्था यह भी होनी चाहिए कि नई नौकरी पर जाने वाले युवाओं से एक एग्रीमेंट लिखवाया जाए कि वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएगा तथा अपना व अपने परिजनों का इलाज सरकारी अस्पताल में कराएगा।
   ऐसे में प्रश्न उठता है कि संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत बच्चों की अनिवार्य शिक्षा के संबंध में ऐसे क्या कदम उठाये जाय कि यह संसद और विधान मंडलों को ही निर्धारित करना पड़ेगा पर उनका भी तो सरकारी शिक्षा के बारे में दृष्टिकोण बदले कि उनको सार्थक कैसे बनाया जाये। इसी के साथ ही यह भी बाधा आएगी कि किसी सरकारी स्कूल में शुरुआती शिक्षा लेने की आवश्यकता इसलिए भी अनुभव नहीं की जाती क्योंकि जूनियर और सेकेंडरी स्कूलों में भी इस घोषणा के कारण बच्चे का प्रवेश हो सकता है कि वह घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त करता रहा है। उसकी योग्यता का मूल्यांकन कर, निर्धारण के बाद इन स्कूलों की कक्षा में दाखिल किया जा सकता है।
  इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की लोगांे में जो स्वागत की भावना जागी है। उसे कैसे अमल में लाया जाए। इसके लिए सरकार स्थानीय निकायों और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा जो स्कूल चलाये जा रहे हैं। उनकी आवश्यकता और गुणवत्ता भी ऐसी बनानी होगी जिससे लोग स्वत: इन विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजने से कतराए नहीं।

Thursday, 13 August 2015

नेताजी की रणनीति है या हताशा मुख्यमंत्री को डांटना ?

    यह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की रणनीति है या फिर हताशा जो बीच-बीच में वह अखिलेश सरकार की खिंचाई करते रहते हैं। मंत्रियों, विधायकों व कार्यकर्ताओं के काम-काज के तरीकों पर उंगली उठाते रहते हैं। विधानसभा चुनाव के परिणाम कमजोर आने की आशंका जताते रहते हैं। वजह कुछ भी हो पर यह बात नेताजी की समझ में आ चुकी है कि प्रदेश में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। भले ही आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर रही हो पर नेताजी को विश्वास था कि उत्तर प्रदेश में वह इतने कमजोर नहीं कि उनकी पार्टी पांच सीटों तक ही सिमट कर रह जाएगी। नेताजी की परेशानी का कारण यह भी था कि उड़ीसा, तमिलनाडु व पश्चिमी बंगाल में मोदी लहर कुछ खास करामात नहीं दिखा सकी तो उत्तर प्रदेश कैसे प्रभावित हो गया। इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं सरकार की खामियों का फायदा नरेंद्र मोदी ने उठाया। यही वजह है कि नेताजी आम चुनाव को याद कराते हुए कार्यकर्ताओं को विस चुनाव परिणाम के प्रति सचेत करते रहते हैं। सपा यही पार्टी है, जिसके सत्तारूढ़ के चलते 2005 के आम चुनाव में सपा ने 37 सीटें जीती थी।
   नेताजी की चिंता वेवजह नहीं है। एक ओर ढीला पड़ता संगठन, बिगड़ती कानून व्यवस्था का आरोप। यादव सिंह प्रकरण पर सीबीआई जांच के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद राहत न मिलने से हुई फजीहत। पार्टी में नेताजी के समय के नेताओं के साथ उपेक्षित व्यवहार, ये सब उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभावित होने के लिए पर्याप्त है। संगठन मामले में कार्यकर्ताओं पर पकड़ रखने वाले नेताजी नए समाजवादियों  की फौज में वह जान नहीं देख रहे हैं जिसके बल पर उन्होंने राजनीतिक कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
    बात 2017 के विधानसभा चुनाव के संदर्भ में चल रही है तो हमें 2012 के चुनाव पर भी निगाह डालनी होगी। जब नेताजी के सुपुत्र अखिलेश यादव ने साइकिल यात्रा के माध्यम से प्रदेश में माहौल बनाया तब प्रदेश की जनता ने सोचा था कि एक पढ़ा-लिखा युवा सरकार बनाएगा तो प्रदेश के लिए कुछ नया होगा। पर सरकार बनने के बाद मुजफ्फरनगर दंगा, कुंडा में पुलिस अधिकारी की हत्या, कई गैंगरेप के मामले। रोज-रोज मीडिया में कानून व्यवस्था की उड़ती धज्जियां पर आधारित खबरें। ये सब नेताजी की चिंता का कारण है। इसमें दो राय नहीं कि अखिलेश यादव ने अपने स्तर से उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर विकास कार्य कराए हैं पर पार्टी में खत्म होती जा रही विचारधारा व नीतियों से भटकते कार्यकर्ताओं के व्यवहार के चलते वे उपलब्धियां जनता तक नहीं पहुंच पा रही हैं।
    भले ही अब प्रदेश में सरकार की उपलब्धियों के बखान के लिए साइकिल यात्रा निकाली जा रही हो पर पिछले रिकार्ड पर नजरें डाली जाए तो सपा की साइकिल रैली में विचारधारा-नीतियां व सरकार की उपलब्धियां कम शोर-शराबा ज्यादा होता रहा है। साइकिल रैली के माध्यम से नेता शक्ति प्रदर्शन भर करते हैं। सरकार पर एक विशेष जाति के पदाधिकारियों व अधिकारियों का कब्जा भी सरकार की कमजोरी को दर्शाता रहा है।
   बात आज की समाजवादियों की जाए तो कुछ समय से नेताजी की अगुआई में जनता परिवार के एकजुट होने की बात चली थी। कहा तो यह भी जा रहा था कि बिहार चुनाव से पहले राजद, जदयू, जद (एस), इनेलो समेत कई संगठन मिलकर एक पार्टी बना लेंगे। इसकी जिम्मेदारी भी नेताजी को सौंपी गई थी। जदयू व राजद ने एकजुट होने की घोषणा भी कर दी थी। अन्य दलों ने सपा की मजबूती को देखते हुए पार्टी का चुनाव चिह्न भी साइकिल रखने का निर्णय ले लिया था। सपा के भी विलय की बात की जा रही थी पर अचानक सपा महासचिव रामगोपाल यादव का बयान आया कि जनता परिवार में सपा का विलय मतलब सपा का आत्मघाती निर्णय। उन्होंने बात को संभालते हुए बिहार चुनाव के बाद विलय की बात कही। मतलब साफ है कि यदि राजद व जदयू गठबंधन बिहार में सफल होता है तो सपा जनता परिवार में शामिल होगी वर्ना ऐसे ही चलता रहेगा। यह सब जनता देख रही है। यह भी नेताजी की चिंता का कारण है।
   नेताजी बार-बार अखिलेश यादव पर इसलिए भी नाराजगी व्यक्त कर देते हैं क्योंकि तमाम प्रयास के बावजूद वह प्रतीक यादव को राजनीति में नहीं ला पाए। साथ ही उनके चाहने के बावजूद वह अमर सिंह की सपा में वापसी नहीं करा पाए। इन सबके बीच नेताजी के अनुज शिवपाल सिंह यादव की नाराजगी भी नेताजी की परेशानी बढ़ाती रहती है।
  बात सपा में मुस्लिम वोटबैंक की जाए तो समय-समय पर मो. आजम खां नेताजी को अपनी ताकत का एहसास कराते रहते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि आजम खां ही हैं जिन्होंने अमर सिंह का पत्ता साफ कर अपनी पत्नी को राज्यसभा में भिजवा दिया। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने इस एहसान को न चुकाया हो। नेताजी के जन्म दिन पर आजम खां ने रामपुर में लंदन से बग्घी मंगाकर नेताजी को कालीन बिछाकर पूरे रामपुर की शहर कराई। वह बात दूसरी है कि नेताजी के समाजवाद पर जमकर उंगली उठाई गई। आजम खां नेताजी को कितना भी खुश करने का प्रयास करते हों पर समय-समय पर उनकी तुनकमिजाजी से मुख्यमंत्री का परेशान होना भी नेताजी की परेशानी का कारण रहा है।
   इसमें दो राय नहीं कि विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में असली टक्टर बसपा व सपा की मानी जाती रहती है पर आम चुनाव में भाजपा की एकतरफा जीत से नेताजी को भाजपा का भी डर सताने लगा है। ऊपर से उत्तर प्रदेश में ऑल इंडिया मजलिस-ए-एत्तेहाद उल मुस्लिमीन पाटी के मुस्लिमों के कट्टर नेता के रूप में जाने जाने वाले असदुद्दीन ओवेसी की एंट्री। कहा जा रहा है कि ओवेसी का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश में भाजपा कर रही है। यह भी नेताजी की परेशानी बढ़ाने वाली है। भड़काऊ भाषण देने के रूप में जाने जाने वाले ओवेसी से मुस्लिम काफी प्रभावित हो रहे हैं।
   उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों में मुलायम सिंह की बड़ी पकड़ मानी जाती है तो स्वभाविक है कि ओवेसी की एंट्री से नेताजी को चिंता होगी ही। भले ही छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर मिश्र की जयंती पर नेताजी ने पुराने समाजवादियों को सम्मानित किया हो पर पर नेताजी पर लगातार परिवारवाद, जातिवाद का आरोप लग रहा है। लंबे समय समय राजनीति के खिलाड़ी माने जाने वाले नेताजी के क्रियाकलाप पर उंगली उठती रही है। नेताजी यूपीए के दस साल के कार्यकाल में सरकार को समर्थन भी करते रहे आैर विरोध भी। इस बार भी नेताजी ने एनडीए सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश मामले में एक तरह से सरकार का समर्थन कर दिया जबकि वह अपने को समय-समय पर किसान हितैषी का भी दावा करते रहते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद पहले से ही उनकी परेशानी बढ़ाता रहा है। अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर एक नई पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी आैर बन गई।

Monday, 27 July 2015

राजनीतिक नपुंसक हैं किसानों को नपुंसक कहने वाले

   किसी कृषि प्रधान देश के लिए उससे शर्मनाक बात नहीं हो सकती कि उसका कृषि मंत्री किसानों का दुख-दर्द समझने के बजाय आत्महत्याओं का कारण नपुंसकता बताने लगे। दूसरों के लिए खाने की व्यवस्था करने वाले किसान को नपुंसक कहने वाले राजनीतिक नपुंसक हैं। ऐसे लोगों को किसानों का प्रतिनिधि करने का कोई अधिकार नहीं। देश का दुर्भाग्य देखिए कि जिस देश में एक प्रधनामंत्री ने 'जय जवान जय किसान" का नारा दिया वहीं उस देश का प्रधानमंत्री कृषि मंत्री के इस घिनौने बयान पर चुप्पी साधे बैठा है। यह संवेदनहीनता का पराकाष्ठा है। हिन्दुस्तान की राजनीति के इतिहास में सबसे घिनौना बयान है। यदि ऐसा नहीं है तो केंद्र सरकार बताए इस साल कितने नेताओं ने आत्महत्या की है। कितने पूंजीपतियों ने आत्महत्या की है आैर कितने नौकरशाहों ने आत्महत्या की है, जबकि किसानों ने हजारों की संख्या में आत्महत्या की है।
   जमीनी हकीकत यह है कि सरकारों ने किसान के सामने ऐसी परिस्थतियां पैदा कर दी हैं कि उसके सामने जान देने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है आैर राजनेता  देखिए कि उसकी मौत का भी मजाक बना रहे हैं। निर्लज्जता मामले में कृषि मंत्री से आगे पहुंच गए हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। जो अपने को चाय बेचने वाले का बेटा बताते हैं वह प्रधानमंत्री पूंजपीतियों के दबाव में किसान-मजदूर को तबाव करने पर तुले हैं।  सस्ते श्रम आैर सस्ती जमीन का ऑफर देकर विदेशी निवेशकों को आमंत्रित कर रहे हैं। भले ही उनकी इस योजना में देश के किसान व मजदूर का अस्तित्व ही मिट जाए।
   कृषि मंत्री जी अपने मंत्रालय के ही आंकड़े देखिए 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख हो गई। प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ऋणों के बोझ के कारण भी बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ रहे हैं। गत दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी कृषकों की संख्या कम है।  कृषि मंत्री जी किसानों ने खेती खुशी से नहीं छोड़ी है। परिस्थितियों से जूझते-जूझते वे इतने तंग आ चुके हैं कि उन्हें खेती छोड़नी पड़ी। आप भले ही आने वाली धान की फसल पर उम्मीद लगाए बैठे हों पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार प्रतिशत की, 2050 तक सात प्रतिशत तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस प्रतिशत की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज मे,ं 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है।
   बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए, सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो प्रदेश का 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से बुवाई वाली भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है, जो कुल भूमि का 69.5 फीसद बनता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग इस भूमि में खेती करते हैं।  सरकारी आंकड़ों को ही ले लीजिए। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। प्रदेश में हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीटयुक्त हो रही है। आज कल प्रदेश की सालाना आय का 31.9 फीसद खेती से आता है। जो फीसद 1971 में 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था।
    देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने भी किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश तो आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा भी नहीं कि सरकार किसानों की तंगहाली के लिए कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गर्इं। पर पता चला है कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलिये को। हां किसानों के नाम पर डिफाल्टर किसानों को जरूरत राहत मिली। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 को यूपीए सरकार द्वारा लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली हैं। आंध्र के कई गरीब किसान किडनी बेचकर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही थी। पर क्या हुआ ? मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ें तो यह ही बताते हैं कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ऋण, ऋण माफी योजनाएं किसानों के लिए सब बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर है।
   इसमें दो राय नहीं कि 90 के दशक तक जनता के बीच के लोग जनप्रतिनिधि बनते थे, जो विधानसभा आैर लोकसभा में किसान-मजदूर के हितों की लड़ाई लड़ते थे। कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समय तक आम आदमी का ख्याल रखा गया तो भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के समय तक। समाजवादियों में डॉ. राम मनोहर लोहिया व लोक नायक जयप्रकाश नारायण के बाद मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद व रामविलास पासवान ने कुछ समय तक किसानों के हितों की लड़ाई लड़ी पर आज के हालात में तो जैसे हर पार्टी की राजनीति वोटबैंक तक सिमट कर रह गई है।
   यह कहना गलत न होगा कि साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के 'जय जवान जय किसान" के नारे को आजकल झूठलाया जा रहा है। दरअसल किसानों से हमदर्दी दिखाने का दावा तो हर सरकार करती है पर सच्चाई यह है कि किसानों की मनोस्थिति समझने को कोई तैयार ही नहीं। किसानों के हालात को जानने के लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि हमारे के लिए अन्न पैदा करने के लिए किसान को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। देश को चलाने का दावा करने वाले नेताओं को यह समझने की जरूरत है कि जब वे वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बना रहे होते हैं तो किसान अपने खेतों मे मौसम की मार झेल रहा होता है। गर्मी, सर्दी, बरसात से किस तरह जूझते हुए किसान अन्न उपजाता है। इन सब परिस्थतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि में किसान अतिरिक्त मेहनत करता है। किसानों को खेती से जोड़ने के लिए एक मुश्त राशि के रूप में मेहनत भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि यदि सरकारें किसानों के हितों का इतना ही ख्याल रख रही हैं तो किसान खेती से पलायन क्यों कर रहे हैं ? खाद्यान्न के रेट बढ़ रहे हैं तो किसानों की हालत दयनीय क्यों होती जा रही है ? किसानों की खुशहाली के लिए बड़े स्तर पर कदम उठाए जा रहे हैं तो किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 लोग किसान थे।

Tuesday, 21 July 2015

तो अब आरटीआई के दायरे में आ जाएंगे राष्ट्रीय दल

   राजनीतिक दलों ने देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि राजनेता हर व्यवस्था को अपने अनुसार ढालना चाहते हैं। इनका ऐसा रवैया है कि ये लोग चाहते हैं कि हर संस्था में उनका हस्तक्षेप हो। हर एसोसिएशन में उनकी भागेदारी हो। हर विभाग उनकी निगरानी में हो। हर किसी से ये लोग हिसाब मांग सकें पर उन पर किसी संस्था का अधिकार न हो। उनके क्रियाकलापों पर किस की नजर न हो। उनकी संपत्ति के बारे में कोई जानकारी न ले सके। उनकी पार्टी के चंदे के बारे में कोई जानकारी लेना चाहे तो उन्हें आपत्ति है। सूचना के अधिकार के तहत भी उन्हें जानकारी देने में आपत्ति है। भले ही सभी सरकारी विभाग आरटीआई के दायरे में आते हैं। भले ही सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को आरटीआई के तहत जानकारी देनी होती हो। पर राजनीतिक दल अपने को आरटीआई के दायरे में लाने को तैया नहीं।
   राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के लिए कई बार मांग उठी पर नेताओं ने अपने वर्चस्व के चलते उसे दबा दिया। इस बार इस मांग ने बड़ा रूप धारण किया है। अब यह मांग देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। कोर्ट ने भी कड़ा रुख अपनाते हुए चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे संगठन एडीआर की याचिका पर कड़ा संज्ञान लिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार आैर चुनाव आयोग के साथ ही उन छह दलों (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई आैर बसपा) को नोटिस भेजकर छह हफ्ते में जवाब मांगा है। 2013 में इन दलों को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) करार देते हुए आरटीआई के तहत आने आैर अपने यहां सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि इस नोटिस से राजनीतिक दल तिलमिलाएंगे तो पर वे वैसा रवैया नहीं अपना सकते, जैसा उन्होंने सीआईसी के आदेश के समय दिखाया था। तत्कालीन यूपीए सरकार के समय जब यह आदेश आया तो सब दल एक हो गए आैर संसद के माध्यम से इसे बेअसर करने का प्रयास किया गया यही वजह रही कि राजनीतिक दलों ने एक अच्छे प्रयास को विफल कर दिया।
   यह बात जरूर है कि जब सीआईसी के आदेश को कोर्ट में चुनौती देने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पाया था तो सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ तो जाने का मतलब ही नहीं उठता। इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों को रियायती जमीन आैर कर में छूट जैसी सुविधाएं उनकी विशिष्टता के कारण मलती है। राजनीतिक दलों के लिए अच्छा यह होगा कि वे पुरानी गलती को सुधारते हुए खुद को आरटीआई के तहत आने का ऐलान कर दें, क्योंकि इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
  राजनीतिक दलों को यह भी समझना होगा कि उन्हें आरटीआई के दायरे में लाने की मांग ने अब जोर पकड़ लिया है। जनता की राय जानने के लिए लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम ने भ्आनलाइन सर्वे कराया है, जिसमें 44.74 फीसद लोगों ने दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की सहमति दी है। उनका तर्क है कि इससे राजनीतिक दलों का जनता से सीधा संबंध होता है। जनता के वोट से ही उनकी सरकारें बनती हैं। इसलिए उनको सूचना के अधिकार के तहत आना ही चाहिए। 39.47 फीसद लोगों का हां में तर्क है कि आरटीआई के दायरे में लाने से जनता इनका लेखा-जोखा जान सकेगी। सभी के बीच में ये खुलासा हो पाएगा कि आखिर पाटियां इतना खर्च कहां से कर रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं उनके पास विदेश से तो धन आ रहा हो।

Tuesday, 30 June 2015

... तो अब राज्य बन जाएगा पउप्र प्रदेश

    लंबे समय तक हरित प्रदेश के नाम पर राजनीति करने वाले अजीत सिंह जब इस मुद्दे को भूल गए। जब यह मुद्दा ठंडा पड़ने लगा। ऐसे में किसानों की उपेक्षा, बेरोजगारी व कानून व्यवस्था को लेकर लोगों की अलग प्रदेश की कुलबुलाहट को पहचानकर वरिष्ठ वकील देवेंद्र सिंह, पूर्व इंजीनियर केपी सिंह तोमर ने कुछ समाजसेवक व देहात मोर्चा से जुड़े रहे कुछ नेताओं को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी बनाई आैर शुरू कर दिया अलग प्रदेश बनाने के लिए आंदोलन। इस आंदोलन में फाइट फॉर राइट, जाट सभा के साथ ही कई किसान संगठन शामिल हो गए हैं।    इस आंदोलन की रूपरेखा उत्तर प्रदेश के 28 जिलों के मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन कर राष्ट्रपति से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग करने की रूपरेखा बनी है। वैसे 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश को चार भागों पश्चिमांचल, बुंदेलखंड, मध्य उत्तर प्रदेश व पूर्वांचल में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेज चुकी हैं। गत दिनों केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय भी उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के लिए सक्रिय हुआ था, तो यह माना जाए कि इस बार का संघर्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनवा देगा। वैसे भी  रालोद, कांग्रेस बसपा व भाजपा प्रदेश के बंटवारे के पक्ष में देखी जाती रही हैं।
    पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग स्वतंत्रता आंदोलन से ही उठती रही है। 1919 में लंदन में हुए गोलमेल सम्मेलन में भी यह बात प्रमुखता से उठी थी। इसमें दो राय नहीं कि यदि प्रदेश का बंटवारा हो जाता है तो अन्य प्रदेशों को तो इसका फायदा मिलेगा ही पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की चांदी कट जाएगी। सम्पन्नता के मामले में यह प्रदेश हरियाणा आैर पंजाब को भी पीछे छोड़ देगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश खेती के मामले में बहुत सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। तराई क्षेत्र होने की वजह से यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ हो है आैर यहां पर बड़े स्तर पर पैदावार उगाई जाती है। वैसे तो यह क्षेत्र गन्ने की फसल के नाम से जाना जाता है पर यहां पर गेहूं, चावल के साथ चना, दाल, बाजरा की पैदावार भी प्रमुखता से उपजाई जाती है। पर कुछ दिनों से जिस तरह से बकाया गन्ना भुगतान आैर सरकारों के उपेक्षित रवैये के चलते यहां के किसान टूटते जा रहे हैं। सीमांत किसानों का खेती से मोह भंग हो रहा है। यही वजह है कि ये लोग अब अपना अलग प्रदेश चाहते ।
    हरित प्रदेश के गठन नाम पर चौधरी अजित सिंह लंबे समय से इस क्षेत्र के लोगों को ठग रहे। कई बार मौके आए कि वह अलग प्रदेश के नाम पर अडे़ पर सत्तालोलुपता के चलते वह सत्ता में उलझ कर रहे गए। यही वजह रही कि इन लोकसभा चुनाव में लोगों ने उनकी निष्क्रियता से तंग आकर उन्हें नकार दिया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 70 फीसद राजस्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश देता है पर सरकारी स्तर पर यहां पर विकास के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जाता है। इसका कारण यहां पर राजनीतिक जागरूकता का अभाव माना जाता है। यही कारण है कि तमाम प्रयास आैर आंदोलन के बावजूद यहां पर हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो सकी। यहां के लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश इतनी आसानी से नहीं बनने वाला है, क्योंकि पूर्वांचल के नेता नहीं चाहते कि यह क्षेत्र प्रदेश से कटकर अलग पहचान बनाए। यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर बाहरी लोग सांसद बने हैं। अब समय आ गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को जांत-पांत-धर्म आैर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर 'किसान के बेटे" के रूप में एकजुट होना होगा आैर नई पीढ़ी के भविष्य के लिए अलग प्रदेश बनाने के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। ईमानदारी से करना होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गठन को लेकर सही नीयत न होने की वजह से अमर सिंह, अजित सिंह को नकार दिया गया। अमर सिंह ने लोकमंच के माध्यम से प्रदेश के पुनर्गठन की मांग उठाई थी। उसमें पूर्वांचल को अलग प्रदेश बनाने पर ज्यादा जोर दिया था पर उनकी इस मांग में वोटबैंक की बू आ रही थी।
    हमें यह देखना होगा कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना आजादी के शुरुआती दिनों में भाषाई आधार पर की गई थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थे पर हालात ऐसे बन गए कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास में हुई मौत आैर संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया। 22 दिसम्बर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। जस्टिस फजल अली, ह्मदयनाथ कुंजरू आैर केएम पाणिक्कर इस आयोग के सदस्य बनाए गए। आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। कुल 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
   राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। उस समय बंबई में गुजराती व मराठी लोग रहते थे तथा बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात बनाए गए। 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब में से हरियाणा व हिमाचल प्रदेश नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी आैर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत को महसूस किया। 1972 में मेघालय, मणिपुर आैर त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया आैर केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश आैर गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में भाजपा के प्रयास से उत्तराखंड, झारखंड आैर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना का  गठन किया तो उत्तर प्रदेश  की सर्जरी की मांग ने भी जोर पकड़ा है। अब देखना यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे दल अपनी मुहिम को अमली जामा पहना पाते हैं या फिर वोटबैंक की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाते हैं।

Tuesday, 23 June 2015

समाजवादी आंदोलन से निकलगा युवा नेतृत्व !

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता संभालते ही उन पर तानाशाह होने के आरोप लगनेगे थे। अभी तक विपक्ष ही उन पर इस तरह के आरोप लगा रहा था अब भाजपा के नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी देश में इमरजेंसी लगने से इनकार नहीं कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समाजवाद की धार खोते जा रहे पुराने समाजवादी आैर विरासत के बल पर राजनीति कर रहे नए समाजवादी कैसे नरंेद्र की मोदी की सटीक निशानों का जवाब देंगे। ऐसे माहौल में देश को जमीनी युवा नेतृत्व मिल सकता है। जिस तरह से आम आदमी पार्टी से निकाले गए योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण आैर प्रो. आनंद कुमार समाजवाद के सहारे स्वराज संवाद यात्रा के बाद जय किसान अभियान शुरू कर रहे हैं। भले ही ये समाजवादी कोई बड़ा कारनामा न कर पाएं पर मोदी सरकार के खिलाफ होने जा रहे इस आंदोलन से कई युवा नेता उभर कर सामने आ सकते हैं। बात युवा नेतृत्व की जाए तो आजादी के समय महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आैर मो. अली जिन्ना के सामने डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, सरदार भगत सिंह आैर सुभाष चंद्र बोस जैसे कई युवा नेता उभर कर सामने आए थे। आजादी के बाद कांग्रेस राज के विरोध में लोहिया जी व लोक नायक जयप्रकाश ने देश को चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, चौधरी देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, शरद यादव, नीतीश कुमार जैसा युवा नेतृत्व दिया। ये सब नेता कांग्रेस का विरोध करते-करते नेता बने थे। लगभग सभी आंदोलन में संघी इनके साथ रहे। इमरजेंसी में भी।
    देश की राजनीति देखिए कि जो संघी समाजवादियों का हाथ पकड़ राजनीति करते थे अब उन संघियों ने भी समाजवादियों को समेट कर रख दिया। यह स्थिति समाजवादियों की हाल ही में देश का प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने की है। स्थिति भी ऐसी कि जहां बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए, वहीं प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में पार्टी मजबूत करने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ रहे हैं। पश्चिमी बंगाल में तृमूकां, तमिलनाडु में एडीएमके आैर उड़ीसा में बीजद को छोड़ दें तो आम चुनाव में लगभग सभी दलों को समेट कर रख दिया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जिन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद आैर अवसरवाद हावी हो गया है वह कैसे नरेंद्र मोदी की सधी हुई चालों का मुकाबला करेंगे।
   नरेंद्र मोदी ने देश में ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि कांग्रेस की संसदीय दल की नेता बनी सोनिया गांधी ने संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की बात कही है वहीं समाजवादी जनता परिवार के नाम पर एकजुट हो रहे हैं।  नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को भी इस आंदोलन में साथ ले लिया है। भले ही बिहार विस चुनाव जनता परिवार के नाम पर न लड़ा जा रहा हो पर नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद का मिलना आने वाले समय में जनता परिवार के गठन को हवा दे रहा है। इन सबके बीच यह प्रश्न उठता है कि क्या अब जनता इन घिसे-पीटे चेहरों पर विश्वास करेगी। मेरा अपना मानना है कि देश में समाजवादी नरेंद्र मोदी परास्त करें या न करें पर देश में संघर्षशील नेता जरूर उभरकर सामने आएंगे।
   ऐसा नहीं  है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। वह जनता को यह समझा गए कि आज के इन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद, वंशवाद आैर अवसरवाद हावी है। ऐसे में ये समाजवादी कैसे अपने को साबित करेंगे यह समझ से बाहर है।
    सपा व बसपा की राजनीति देखिए कि दोनों ही दलों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रखा था आैर दोनों ही भ्रष्टाचार आैर महंगाई को लेकर लगातार यूपीए सरकार को कोस रहे थे। यही दो तरफा नीति इन दोनों दिग्गजों को ले डूबी। वाक-पटुता में माहिर नरेंद्र मोदी जनता को इन दोनों का दोहरा चेहरा दिखाने में कामयाब रहे। सपा उत्तर प्रदेश में सत्ताशीन होने के बावजूद जहां आम चुनाव में पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई वहीं विपक्ष में बैठी बसपा  खाता भी नहीं खोल पाई। यही हाल चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे चौधरी अजित सिंह का भी रहा। बिहार में लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार का भी यही हाल रहा। जदयू जहां दो सीटों पर सिमट कर रह गया वहीं  मोदी को रोकने का दावा कर रहे राजद को चार सीटें ही मिल पाई, जबकि दो सीटें पाए पप्पू यादव आैर उनकी पत्नी ने अलग पार्टी बना ली है। मोदी की लहर का असर किसी पर नहीं पड़ा तो उड़ीसा में बीजद पर तमिलनाडु में एडीएमके आैर पश्चिमी बंगाल में तृमूंका पर। फिर भी वजूद बनाए रखने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होना इनकी भी मजबूरी है।
   भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले समाजवादियों को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूल खर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी- तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूह रचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। इन सबके बीच नेताजी कैसे अपने कार्यकर्ताओं में ऊजा का संचार करेंगे। देश का किसान-मजदूर, नौकरीपेशा आदमी महंगाई से जूझता रहा। तरह-तरह के घोटाले सामने आते रहे  पर ये दल वोटबैंक की राजनीति में मशगूल रहे।
   समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार हो जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। आज जब नए समाजवादी विरासत के बल पर सत्ता का सुख भोग रहे हैं ऐसे में ये लोग कैसे दमनात्मक नीति का विरोध करेंगे। वैसे भी नरेंद्र मोदी जैसा राजनीतिक खिलाड़ी उन्हें कोई बड़ा मुद्दा देना वाला नहीं।
   यदि समाजवादी आंदोलन की बात करें तो हर आंदोलन के पीछे बड़ा मुद्दा रहा है। जेपी आंदोलन इमरजेंसी के खिलाफ हुआ था तो अस्सी के दशक में बोफोर्स मामले पर समाजवादी एकजुट हुए थे। बाफोर्स का मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी  देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे आैर 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था।
   देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।

Thursday, 11 June 2015

नसीहत देने के बजाय किसानों को समृद्ध बनाए सरकार

     कृषि प्रधान देश में  किसान दुखी है, दयनीय है, लाचार है। ऐसे में जब केंद्र सरकार को किसानों के घावों पर मल्हम लगाना चाहिए तब यह सरकार उन्हें नसीहत देने में लगी है। सरकार की नीति देखिए कि देश के विकास के लिए बनाया गया नीति आयोग ही किसानों को बरगलाने में लग गया है। जब देश में जोत की जमीन लगातार घट रही हो। अन्न उत्पादन घट रहा हो। तरह-तरह की आपदा के चलते खेती प्रभावित हो रही है। जब सरकार को अधिक अन्न उत्पादन के प्रयास करने चाहिए। किसानों को खेती करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसे में देश में महत्वपूर्ण पद पर बैठे नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या आयोग की वेबसाइट पर  ब्लाग लिखकर किसानों को खेती छोड़कर अन्य धंधों में लगने के लिए उकसा रहे हैं। उनके अनुसार किसान कृषि की अपेक्षा आैद्योगिक व सेवा क्षेत्र में लगकर ज्यादा समृद्ध हो सकते हैं। तो यह माना जाए कि वह किसानों को उनके पेशे से बरगला रहे हैं। जिस समय किसान बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से तबाह हुई फसल को लेकर दुखी हो, ऐसे समय में खेती से ज्यादा अन्य क्षेत्र में समृद्धि की बात करना किसानों के दुख को आैर बढ़ाना है।
    देश की विडम्बना देखिए कि केंद्र सरकार किसानों को तबाह कर विदेशी निवेश के दम पर देश का विकास करना चाह रही है, जबकि जगजाहिर है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। मेरा मानना है कि यदि सरकारें किसान को सम्पन्न कर दें तो देश अपने आप में समृद्ध हो जाएगा। किसानों को अन्य पेशे अपनाने की बात करने वालों से मेरा प्रश्न है कि जब किसान खेती नहीं करेगा, तो अन्न कहां से उपजेगा ? रोटी कहां से खाओगे ? यदि खेती से ज्यादा मुनाफा अन्य क्षेत्रो में हैं तो इसमें दोष किसान नहीं बल्कि सरकारों का है। सरकारों को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि खेती में अन्य क्षेत्रों से ज्यादा मुनाफा होने लगे। देश में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि किसान की फसल से जो मुनाफा बनिया कमाते हैं वह किसानों को मिले।  जब देश में बेेरोजगारी एक भीषण समस्या के रूप में उभर कर समाने आ रही है, ऐसे में किसानों के मनोबल को गिराने की बातें देश में नहीं होनी चाहिए। आज भी सत्तर फीसद जनसंख्या खेती पर निर्भर है। जब देश में तरह-तरह के भत्ते दिए जा रहे हों तो किसान को मेहनत भत्ता क्यों नहीं मिलता, जबकि जगजाहिर है कि किसान अन्य लोगों से कहीं ज्यादा मेहनत करता है। भले ही किसानों की आवाज उठाने के लिए देश में कितने संगठन बने हुए हों पर आज की तारीख में हर उस व्यक्ति को किसान के हक की आवाज उठानी चाहिए जो रोटी खाता हो। जो किसानों के बेटे विभिन्न विभागों में बैठे हैं उन्हें किसान को भटकाने के बजाय उनके हित में आगे बढ़कर काम करना चाहिए।
    सरकार की हठधर्मिता देखिए कि जब खेती को बढ़ावा देना चाहिए तब यह सरकार पूंजीपतियों के दबाव में किसानों की जमीन हथियाने में तुली है। तीसरी बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना इसका प्रमाण है। हमारे देश में अध्यादेश की व्यवस्था किसी आपदा आने की स्थिति में की गई है। देश में ऐसी कौन सी आपदा आ गई कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना पड़ रहा है। यह अध्यादेश जब लाया जा रहा है जब देश में बड़े स्तर पर अधिग्रहीत की गई जमीन बेकार पड़ी है। जब देश में जोत की जमीन घट रही हो। बड़े स्तर पर बंजर जमीन हो गई हो। बड़े स्तर पर जमीन पर बिल्डरों ने बिल्डिंग बनाकर डाल दी हो। बड़े स्तर पर जमीन पर पूंजीपतियों ने फार्म हाउस बना लिए हों। ऐसे में सरकार भूमि बचाओ अध्यादेश क्यों नहीं लाती ?
    सरकार तर्क दे रही है कि भूमि अधिग्रहण न हेाने के चलते बड़े स्तर पर सरकारी योजनाएं लंबित बड़ी हैं। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस सरकार से पहले किसानों की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया। क्या इससे पहले सरकारी योजनाओं पर काम नहीं हुआ ? क्या देश में किसान से बड़ा देशभक्त है। जग जाहिर है कि किसान तो देशहित में जमीन दान भी देते रहे हैं। जो हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत हुई पड़ी है उस भूमि का सरकार क्या कर रही है ?  देश में भूमि अधिग्रहण इतना जरूरी है तो तो पूंजपीतियों द्वारा बनाए गए फार्म हाउसों का अधिग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? सरकारी कार्यालयों के लिए उद्योगपतियों के आफिसों का अधिग्रहण क्यों नहीं जाता। दरअसल सरकार सरकारी योजनाओं के नाम पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को देना चाहती है। यह खेल लंबे समय से चल रहा है। ग्रेटर नोएडा में भी स्थानीय लोगों को रोजगार देने का नाम पर उनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया आैर बाद में इस भूमि को बिल्डरों को बेच दिया गया। यह केंद्र सरकार ही नहीं प्रदेश सरकारें भी करती हैं। हर सरकार अपने को किसान हितैषी बताती है पर किसानों की समस्याओं को समझने को कोई तैयार नहीं। हर सरकार ने बस किसानों को ठगा है। मोदी सरकार विदेशी निवेश के नाम पर किसानों व मजदूरों को तबाह करने पर तुली है।
   देश में किसान-मजदूर के अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है। अब समय आ गया है कि किसान-मजदूर के पक्ष में सड़कों पर उतरा जाए आैर वातानुकूलित माहौल में रहने वाले लोगों को खेत-खलिहान की अहमियत बताई जाए।  किसानों की बिना सहमति के किसी भी हालत में उनकी भूमि का अधिग्रहण न होने दिया जाए। यदि भूमि का अधिग्रहण करना ही है तो किसानों को मालिकाना हक देना चाहिए।
   किसानों को उपेक्षित रखने वालों को समझना होगा कि गत दशक के  महाराष्ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी किसानों की संख्या भी कम हुई है। आने वाली फसल देश में धान की आने जाने जा रही है। भले ही सरकार इस फसल से उम्मीद लगाई बैठी हो पर हमें देखना होगा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसे में देश खाद्यान्न मामले में कैसे आत्मनिर्भर होगा।
   ऐसा भी नहीं कि देश में किसान हित की योजनाएं न चल रही हों। योजनाएं तो बहुत चल रही हैं पर उनका लाभ या तो अधिकारी उठा रहे हैं या फिर बिचौलिए। कागजी आंकड़े देखें तो किसानों को सब्सिडी पर खाद, बीज भी दिया जा रहा है, कर्जा भी दिया जा रहा है आैर उनके कर्जे माफ भी किये जा रहे हैं पर इन सबका फायदा जमीनी स्तर पर किसानों तक   नहीं पहुंच पा रहा है। किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है। बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए। सरकारी आंकड़ों की जुबान में बोलें तो प्रदेश की 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से खेती योग्य भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है। यह हिसाब कुल भूमि का 69.5 फीसद बैठता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग खेती करते हैं। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीट युक्त हो रही है। आंकड़े देखें तो कि प्रदेश की सालाना आय का लगभग 31.9 फीसद खेती से आता है, जबकि 1971 में यह प्रतिशत 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। तथ्य यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं। सपा सरकार भले ही किसान हितैषी का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। ऐसे में सरकारें क्या कर रही हैं ?
   यह किसान की बेबसी ही है कि उनका शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक को कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गर्इं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्टर का धब्बा हटने की रफ्तार में तेजी जरूर आ गई। गत दिनों कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 को यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली हैं। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा, पर क्या हुआ ? ठाक की तीन पात।
    किसानों के हालात को जानने के लिए यह समझना जरूरी हो गया है कि हमारे के लिए अन्न पैदा करने के लिए किसान को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। देश को चलाने का दावा करने वाले समाज के ठेकेदारों को यह समझने की जरूरत है कि जब वे वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बना रहे होते हैं तो किसान अपने खेतों मे मौसम की मार झेल रहा होता है। गर्मी, सर्दी, बरसात से किस तरह जूझते हुए किसान अन्न उपजाता है- इन सब परिस्थतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि में किसान अतिरिक्त मेहनत करता है। किसानों को खेती से जोड़ने के लिए एक मुश्त राशि के रूप में मेहनत भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए।

Friday, 29 May 2015

अजगर से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का आह्वान करने वाले चौधरी

                         पुण्यतिथि पर विशेष (29 मई)
    समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी  अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय जयप्रकाश नारायण आैर राममनोहर लोहिया को जाता है पर वर्तमान में प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक का पाठ पढ़ाया।
चरण सिंह की स्वीकार्यता व लोकप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यादव बहुल आजमगढ़ जिले से उनके भारतीय क्रांति दल को सन 1969 में 14 में से 14 विधानसभा सीटें प्राप्त हुई थी, जबकि उनके गृह जिले मेरठ में 14 में से एक विधायक ही विजय प्राप्त कर स
का था। चौधरी चरण सिंह ने अजगर शक्ति अहीर, जाट, गुज्जर आैर राजपूत का शंखनाद किया तथा कहा कि अजगर समूह किसान तबका है। उन्होंने अजगर जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का भी आह्वान किया तथा अपनी एक बेटी को छोड़ सारी बेटियों की शादी अंतरजातीय की। चरण सिंह की स्वीकार्यता का आलम यह था कि उन्हें तब के पूरब के कद्दावर नेता रामसेवक यादव बनारस, गाजीपुर आैर आजमगढ़ आदि में चौधरी चरण सिंह यादव कहकर नारे लगाते थे। सन 1969 में विधानसभा चुनाव में पश्चिम से चरण सिंह की बीकेडी से 11 विधायक गुर्जर बिरादरी से बने। वर्तमान की राज्य की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का दंभ भर  रही है तो उनके पुत्र आैर रालोद प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम पर राजनीति कर रहे हैं।
     चौधरी चरण सिंह राजनीति में पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हालांकि तब के कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन आैर मकान नहीं था। चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। उनके जमाने के मेरठ में वकालत करने वाले प्रतिष्ठित आैर वरिष्ठ अधिवक्ता तपसीराम भाटी का कहना है कि चरण सिंह का व्यक्तित्व आैर कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह पाखंड, आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई आैर न ही मूर्ति पूजा की। उनके अति घनिष्ठ रहे खादी ग्रामोद्योग आयोग के पूर्व अध्यक्ष यशवीर सिंह का कहना है चौधरी चरण सिंह की नस नस में सादगी आैर सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। प्रदेश के पंचायत राज्य मंत्री बलराम यादव बडे़ फख्र के साथ चौ. चरण सिंह के साथ बिताए लम्हो को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया तथा शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

Tuesday, 26 May 2015

प्रतिभाओं का दमन है आरक्षण की व्यवस्था

    आरक्षण नाम के कोढ़ ने देश को ऐसे चपेट में ले लिया है कि इस परिपाटी पर समय रहते अंकुश न लगा तो यह व्यवस्था देश की प्रतिभा को चाट जाएगी। जगह-जगह अयोग्य व्यक्ति योग्य पदों पर बैठा दिखाया देगा, तो स्वभाविक है कि देश का विकास तो प्रभावित होगा ही साथ ही देश में जातीय वैमनस्यता आैर बढ़ेगी। आरक्षण नामक इस कुप्रथा ने देश में वोटबैंक की राजनीति का रूप ले लिया है। इस व्यवस्था से देश की प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। आरक्षण को लेकर जाटों का आंदोलन अभी रुका नहीं कि गुर्जरों के कई संगठन भी  सड़कों पर उतर आए। ये लोग जगह-जगह रेलवे ट्रैक जाम कर रहे हैं। वह बात दूसरी है कि उनके इस आंदोलन से वे लोग भी प्रभावित हो रहे हैं जिनके हक की लड़ाई लड़ने की बात ये लोग कर रहे हैं। देश में स्थिति यह है कि हर किसी को आरक्षण चाहिए। पढ़ाई में भी, नौकरी में भी आैर प्रोन्नति में भी।
   इस व्यवस्था में योग्यता, प्रतिभा का जैसे कोई मतलब ही न रह गया हो। जहां राजनीतिक दल वोटबैंक के लिए आरक्षण की पैरवी करते रहे हैं वहीं जातीय आधार पर बने कुछ संगठन राजनीतिक चमकाने के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। ये लोग आरक्षण की मांग कर अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने की जगह पंगू बना रहे हैं। उनके मन में आरक्षण नाम की बैसाखी थमाने की बात कर रहे हैं। आरक्षण की मांग करने वाले लोगों से मुस्लिमों से सीखना चाहिए, सिंधियों से सीखना चाहिए भले ही राजनीतिक दल इन लोगों के लिए आरक्षण की बात करते हों पर ये लोग अपने दम पर आगे बढ़ रहे हैं। ये लोग कभी अपने लिए आरक्षण नहीं मांगते।
    देश में आरक्षण की बात की जाए तो 1949 में जातीय विषमता को दूर करने के लिए दलितों के लिए की गई आरक्षण की व्यवस्था ने वोटबैंक का ऐसा रूप लिया है कि अब यह व्यवस्था विषमता मिटाने की जगह उसे आैर बढ़ा रही है। यह सब आरक्षण के लिए बनाई गई प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीम राव अम्बेडकर ने भी महसूस किया था। यही वजह थी कि उन्होंने उस समय ही स्पष्ट कर दिया था कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति को आरक्षण का प्रावधान केवल दस वर्ष तक के लिए ही होगा। हालांकि इसी बीच डॉ. अम्बेडकर का निधन हो गया। वह राजनीति का बदलता स्वरूप ही था कि एक दशक बाद जब धारा 335 के नवीनीकरण का प्रस्ताव आया तब तक आरक्षण वोटबैंक का रूप ले चुका था, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू आरक्षण से मिल रहे कांग्रेस के फायदे को समझ चुके थे। अब मुसलमान अल्पसंख्यक व ब्रााह्मणों के साथ ही दलित भी कांग्रेस का वोटबैंक बन चुका था। इसलिए उन्होंने आरक्षण की समय सीमा आैर बढ़ा दी।
   आज के दौर में भले ही समाजवादी नेता पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति कर रहे हों पर जगजाहिर है कि 60 के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस की मुस्लिम, ब्रााह्मण व दलित वोटबैंक काट के लिए पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया था। वह आरक्षण आैर जातिवाद, परिवारवाद के घोर विरोधी थे।
   आरक्षण समय सीमा पर निर्णय लेने का समय फिर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में आया  तो उन्होंने भी अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के पदचिह्नों पर चलते हुए अनुसूचित जाति के आरक्षण वाली धारा 335 को अम्बेडकर की राय के खिलाफ जाकर फिर बढ़ा दिया। देश में आरक्षण का कार्ड खेला जाता रहा है। 1989 में जब समाजवादियों की सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने पिछड़ों को रिझाने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर दिया। वह बात दूसरी है कि यह पासा वीपी सिंह को उल्टा पड़ गया। आरक्षण के विरोध में लामबंद हुए सवर्ण छात्रों के आक्रोश ने ऐसा रूप लिया कि देश में बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। तब इस माहौल को भाजपा कैस करा ले गई। अब तक आरक्षण की मांग राजनीतिक दल ही करते रहे हैं अब कुछ जातीय संगठन भी आरक्षण की मांग की आड़ में अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं।
   हमें यह भी देखना होगा कि आज के हालात में भले ही वोटबैंक के चलते कुछ दल आरक्षण की पैरवी कर रहे हों पर आरक्षण को लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. भीम राव अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण एक बैसाखी है आैर लम्बे दौर में यह  आरक्षण का लाभ लेने वाले लोगों को पंगु बना डालेगी। आज भले ही अम्बेडकर के नाम पर कई दल राजनीति कर रहे हों पर वह बड़े तार्किक थे, यही वजह थी कि उन्होंने आरक्षण की समय सीमा तय की थी। वह नहीं चाहते थे कि देश में किसी भी तरह की विषमता पनपे, पर वह वोटबैंक की राजनीति ही थी कि नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस पार्टी ने अम्बेडकर के चिंतन को नकार कर आरक्षण को राजनीति का मुद्दा बना दिया। यह राजनीति का बदला हुआ रूप ही है कि महात्मा गांधी ने जिस आरक्षण को दलित कल्याणकारी योजना बनाया था, आजकल नेता इस पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। देश में अयोग्यता को बढ़ावा दे रहे हैं।
   आज के परिवेश में हम आरक्षण पर वैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो पूरा दृश्य समाने आ जाता है। दरअसल आजादी मिलने के बाद देश में ऐसा महसूस किया गया कि दलितों के साथ हुए अत्याचारों आैर अन्याय को रोका जाए। उस समय लोकशाही के लिए जरूरी था कि यह विषम स्थिति किसी भी तरह से खत्म की जाए आैर सभी जातियों की विकास करने के लिए समान अवसर प्रदान किए जाएं। यही सब कारण थे कि गणतीय संविधान में धारा 335 को सम्मिलित किया गया पर क्या पता था कि समानता के सोशलिस्ट प्रयास में ही विषमता का बीज छिपा हुआ था। आज स्थिति यह है जहां गरीब दलित आज भी आरक्षण का कोई खास फायदा नहीं उठा पा रहे हैं वहीं काफी सम्पन्न दलित परिवार आरक्षण का लाभ पाकर सर्वशक्ति मान हो गए हैं। इसके विपरीत सवर्णांे में बड़े स्तर पर लोग आर्थिक कमजोर होेते जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या गरीब दलितों व पिछड़ों में ही हैं, सवर्णांे में नहीं हैं क्या ? या क्या व्यवस्था से दलित, पिछड़ों व सवर्ण युवाओं में द्वेष भावना नहीं पनप रही है ?
    हमें यह भी देखना होगा कि आरक्षण के चलते अनुसूचित जातियों में सम्पन्नता तो आ गई पर उनमें पारस्पिरिक सामूहिक सामजस्य नहीं आ पाया है। जैसे मोची आज भी पासवान अथवा खटीक जाति के लोगों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखता है।  दलित समाज आज भी अनेक उप जातियों में विभक्त है आैर उनमें आपस में परस्पर है। आरक्षण की पैरवी करने वाले नेताओं को यह देखना चाहिए कि इतने वर्षांे बाद भी धारा 335 समतामूलक समाज बनाने में कारगर क्यों नहीं हुर्इं ? आज भी आरक्षण का फायदा संपन्न दलित व पिछड़े ही उठा रहे हैं। जरूरतमंद लोग तो आज भी आरक्षण से वंचित रह जा रहे हैं।
    हमें यह भी देखना होगा कि आजादी के बाद से ही मुस्लिमों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल कर रही कांग्रेस ने उनके लिए कितने आरक्षण की व्यवस्था की। इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस ने समय-समय आरक्षण का लॉलीपॉप दिखाकर मुस्लिमों का वोट हथियाया है, पर देने के नाम पर मात्र झुनझुना ही थमाया है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद गड़बड़ाए समीकरणों को कैस कराने के लिए कांग्रेस को केंद्रीय सेवाओं में भी जाटों आरक्षण देने की चिंता तो होने लगी थी पर मुस्लिमों को आरक्षण देने के उसके वादे का क्या हुआ ? जाटों को तो कई प्रदेश की नौकरियों में भी आरक्षण मिला हुआ है।
   यह देश की विडम्बना ही है कि जब आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की बात आती है तो कई दल दलितों व पिछड़ों के नाम पर सियासत करने लगते हैं। पिछले दशकों में आरक्षण के चलते कई जातियां विपन्न, असहाय आैर दरिद्र हो गई हैं। वैसे होना यह चाहिए कि यदि आरक्षण देना है हर जाति की दयनीय आर्थिक दशा पर भी विचार हो आैर उनकी मदद की जाए, जहां चयन की बात आए वहां मापदंड योग्यता ही होनी चाहिए, जबकि आरक्षण के चलते योग्य युवा पिछड़े जाते हैं आैर अयोग्यों को आगे बढ़ने का मौका मिल जाता है। क्या इससे व्यवस्था पर असर नहीं पड़ता ? क्या विकास प्रभावित नहीं होता ? देश में व्यवस्था ऐसी हो कि आकृष्ट बहुलतावादी समाज को सशक्त बनाया जाए न कि जातिगत, विषमता को भरमाया जाए। यह राजनीतिक का गंदा रूप ही है कि जातिवादी प्रकृति का यह विकृत आैर भोंडा स्वरूप हमारे इतिहास आैर संविधान की विभूतियों को भी उनके जातीय उपमान से पहचाना जा रहा है। जैसे महात्मा गांधी, डॉ. राम मनोहर लोहिया को बनिया, सरदार बल्लभ भाई पटेल को कुर्मी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आैर लोकनायक जयप्रकाश नारायण व राजेंद्र बाबू को कायस्थ, राजनारायण, चंद्रशेखर, वीपी सिंह को ठाकुर, चौधरी चरण सिंह जाट व भीम राव अंबेडकर को दलित नेता की संज्ञा दे दी गई है।

Thursday, 21 May 2015

देश का बंटाधार कर रही अयोग्यता को बढ़ावा देने की प्रवत्ति

    गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागो पाये, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय। यह दोहा संत गुरु कबीरदास ने शायद इसलिए लिखा होगा क्योंकि हमारे समाज में गुरु का दर्जा भगवान से बड़ा माना गया है। भगवान से बड़ा दर्जा होने का कारण शायद इसलिए माना जाता है कि क्योंकि शिक्षक ही है जो भगवान को पाने का रास्ता बताते हैं। बच्चों का भविष्य संवारते हैं। तो स्वभाविक है कि शिक्षक अपनी योग्यता के बल पर हमें संस्कारवान बनाने के साथ ही हमें योग्य बनाकर समाज में सम्मान दिलाते हैं। यह शिक्षक की योग्यता पर उंगली उठने लगे तो देश का भविष्य ही संकट में पड़ जाता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं यह बात जहां लगातार सुनने को मिलती रहती है वहीं हाल ही में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने खुली अदालत में एक अध्यापक जहां गाय पर निबंध नहीं मिल पाया वहीं वह चौथी कक्षा के गणित का सवाल भी हल नहीं कर पाया।
    दिलचस्प बात यह है कि उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड दिल्ली आैर ग्लोबल ओपन यूनिवर्सिटी, नगालैंड के जारी इस अध्यापक का प्रमाणपत्र मान्यता प्राप्त नहीं हैं, जबकि दिल्ली बोर्ड द्वारा जारी की गई अंकतालिका दर्शाती है कि मोहम्मद ने उर्दू, अंग्रेजी आैर गणित में क्रमश: 74 फीसद, 73 फीसद आैर 66 फीसद अंक हासिल किए थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस तरह के प्रमाणपत्र पाकर कितने अध्यापक बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। कितने लोगों का हक मार रहे हैं। कितने स्कूलों का माहौल खराब कर रहे हैं। हालांकि व्यथित नजर न्यायाधीश इस शिक्षक पर एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया पर उन लोगों के खिलाफ कौन कार्रवाई करेगा जिन्होंने इन शिक्षकों को प्रमाणपत्र जारी किये हैं, या जिनकी शह पर ये लोग स्कूलों में रख लिए जाते हैं। या जो लोग इनकी योग्यता को अनदेखा करते हुए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ होते देख रहे हैं।
     बात शिक्षकों की ही नहीं आज के हालात में देश के विभिन्न विभागों में अयोग्य लोग योग्य  पदों पर बैठकर देश का बंटाधार करने में लगे
हैं। एक ओर जहां आरक्षण देश को बर्बादी की ओर ले जा रहा है वहीं लोगों की नशों में दौड़ रहे भ्रष्टाचार से देश का विकास प्रभावित होता रहा है। इन सबके बीच प्रतिभा दम तोड़ रही है। कार्यपालिका, विधायिका की मिलीभगत से होनहारों का भविष्य चौपट करने का जो खेल में देश में चल रहा है यदि समय रहते इस पर अंकुश नहीं लगा तो वह दिन दूर नहीं जब हम लोग पिछड़ी पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे। बात शिक्षा क्षेत्र की ही नहीं है बल्कि देश को चलाने के लिए बनाए गए जिम्मेदार स्तंभ ही डगमगा गए हैं। काम कौन कर रहा है आैर श्रेय कोई ओर ले रहा है। दूसरों के हक की आवाज उठाने का दावा करने वाले मीडिया पर भी उंगली उठने लगी है। प्रकाशन का यह हाल है कि लेखों के मामले में छप किसी आैर के नाम से रहा है तो लिख कोई आैर रहा है। संसद का भी यही हाल है विचार किसी आैर के हैं आैर बोल कोई आैर रहा है। कितने संपादक हैं, जिनके नाम से हम लोग बड़े-बड़े लेख पढ़ते हैं पर पता चलता है वह लेख किसी आैर ने लिखे हैं। कितनी किताबें हैं कि लिखी किसी आैर ने आैर प्रकाशित हुई किसी आैर नाम से। कितने काम हैं कि किया किसी आैर ने आैर श्रेय कोई आैर ले गया।
     देश में मुट्ठीभर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि ये लोग योग्य लोगों की प्रतिभा का हनन कर रहे हैं। एक से बढ़कर एक योग्य व्यक्ति इस व्यवस्था में इन लोगों को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते देख रहा है आैर कुछ बोल भी नहीं पा रहा है। कुछ लोग तो इस व्यवस्था में ऐसे ढल गए हैं कि कुछ पैसों के लालच में अपनी प्रतिभा ही बेच दे रहे हैं। ऐसा लगने लगा है कि जैसे हर चीज का व्यवसायीकरण हो गया हो। नैतिकता, जिम्मेदारी, जवाबदेही, देशभक्ति, स्वाभिमान, खुद्दारी को ताक पर रख लोग पैसा कमाने की होड़ में दौड़े चले जा रहे हैं। वह बात दूसरी है कि इन लोगों को इसकी कीमत, जलालत, बीमारी, विघटन, अपमान से चुकानी पड़ती हो।
    इसी व्यवस्था के चलते देश का व्यवसाय चौपट होता जा रहा है। कंपनी मालिक अयोग्य अधिकारियों की हाथों में अपना व्यवसाय सौंप दे रहे हैं। ये लोग अपनी कमियां छिपाने के लिए योग्य लोगों को किसी न किसी बहाने परेशान करते रहते हैं, जिससे न केवल माहौल प्रभावित होता बल्कि उत्पादन भी प्रभावित होता है। ये लोग मालिक व श्रमिक के बीच की दूरी बढ़ाते हैं, श्रमिकों के प्रति मालिकों को भ्रमित करते हैं, मालिक को पता ही नहीं चलता कि  ये लोग श्रमिकों का शोषण तो कर ही रहे हैं साथ ही कंपनी को भी डेमेज कर रहे हैं। गंदे लोगों को बढ़ावा मिलने के चलते अच्छे लोग बैंकफुट पर चले जा रहे हैं।
    राजनीति के क्षेत्र में भी यही हाल है कि किसी भी तरह से पैसे कमाकर चुनाव लड़ना आैर जनप्रतिनिधि बनकर जनता के खून पसीने की कमाई पर एशोआराम की जिंदगी बिताना आज की विचारधारा रह गई है। न किसी नीति पर काम हो रहा है आैर न किसी दल के पास कोई  विचार है, बस प्रभावशाली लोग पैसे के दम पर सत्ता हथिया ले रहे हैं। बड़े स्तर पर प्रॉपर्टी डीलर, गुंडे, बदमाश टाइप के लोग जब विधानसभा व संसद में जा रहे हैं तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि अच्छे पदों पर अच्छे लोग बैठेंगे। योग्य लोगों को तो किसी तरह से इज्जत बचाकर रहना पड़ रहा है। हम लोग कहते हैं कि सच्चाई परेशान हो सकती है पर हार नहीं सकती। हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होता है। पर आज के दौर में सच्चाई परेशान ही नहीं हो रही बल्कि संघर्ष-संघर्ष करते दम तोड़ दे रही है। कहा जाता है हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। पर आज अच्छाई पर बुराई हावी है। जो जितना गिरकर प्रभावशाली लोगों को सुख कर दे रहा है वह उतना ही सफल आदमी बनता जा रहा है। जो व्यक्ति जितना ईमानदार आैर खुद्दार है वह उतना ही उपेक्षित हो जाता है। यहां तक किस न्याय पालिका पर भी उंगली उठ रही है।
   इस व्यवस्था को कायम करने वाले लोगों से मेरा प्रश्न है कि कौन सा व्यवसायी है जो बेईमान लोगों को अपने यहां नौकरी देगा। कौन सा व्यक्ति है जो अपना कारोबार किसी बईमान व्यक्ति को सौंप देगा। यदि हमें अपने काम के लिए ईमानदार आैर खुद्दार व्यक्ति चाहिए तो देश के लिए बेईमान लोगों को बढ़ावा क्यों ?

Tuesday, 5 May 2015

योगेंद्र 'स्वराज संवाद" से कैसे जगाएंगे आप से टूटा भरोसा ?

     आम आदमी पार्टी से निष्कासित नेता योगेंद्र यादव 'स्वराज संवाद" के लिए देश  में निकल चुके हैं। प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा के अलावा आप के असंतुष्ट नेता इस यात्रा में उन्हें सहयोग कर रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि अन्ना आंदोलन से निकली आप अपने रास्ते से भटक गई है। ये लोग उन मुद्दों को उठाएंगे जिसके लिए आम आदमी पार्टी बनी थी। आप की तर्ज पर अपना एकाउंट नंबर खोलना उनके इरादे जाहिर कर रहा है। इस आंदोलन में आप से जुड़े कई बड़े नेता भी जुड़ने जा रहे हैं। योगेंद्र यादव की अगुआई में जगह-जगह कार्यक्रम हो रहे हैं। गुड़गांव के बाद बेंगलुरु में हुए कार्यक्रम से तो यही लगा कि यह गुट आप में बड़े स्तर पर सेंध लगा रहा है। महाराष्ट्र में 376 कार्यकर्ताओं आप को छोड़कर योगेंद्र गुट में आस्था जताई है। इसमें दो राय नहीं कि इस गुट ने आप को स्थायित्व देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रशांत भूषण कानून के मामले में अरविंद केजरीवाल की ढाल तो बने ही रहे साथ ही उन्होंने देश व विदेश से पार्टी के लिए चंदे की व्यवस्था भी कराई। खुद उन्होंने पार्टी को खड़ा करने के लिए एक करोड़ रुपए दिए थे। उनका परिवार इस पार्टी के लिए कितना समर्पित होकर काम कर रहा था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश से उनकी बहन भी पार्टी के लिए चंदा जुटाने में आप की मदद कर रही थी। योगेंद्र यादव आैर प्रो. आनंद कुमार ने वैचारिक रूप से पार्टी को मजबूत किया। पार्टी का संविधान खुद योगेंद्र यादव ने लिखा। देश में वैकल्पिक राजनीति देना अपने आप में आने वाले समय में पार्टी बनने की ओर इशारा कर रहा है।
   योगेंद्र गुट स्वराज संवाद यात्रा पर निकल तो गए हैं पर उन्हें इस बात भी मंथन करना होगा कि अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी बनाने पर अरविंद केजरीवाल ने भी स्वराज की बात कही थी। उन्होंने भी देश को वैकल्पिक राजनीति देने का वादा जनता से किया था। उन्होंने भी आम आदमी को सुनहरे सपने दिखाए थे। इन्हीं मुद्दे पर उन्होंने दिल्ली की सत्ता कब्जाई। बात पार्टी के इन दो गुटों में बंटने की बात की जाए तो कि यह समझना होगा कि योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण पर अरविंद केजरीवाल गुट गद्दारी का आरोप लगा रहे हैं तो योगेंद्र यादव आप को अपने रास्ते से भटकना। इन सब आरोप-प्रत्यारोप के बीच ही ये लोग पार्टी से निकाले गए। वैसे योगेंद्र आैर प्रशांत भूषण गुट के आप से अलग होने के बाद आप में दिक्कतें बढ़नी शुरू  हो गई हैं।
   एक ओर जहां भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ जंतर-मंतर पर हुई रैली में किसान की आत्महत्या मामले में कुमार विश्वास, मनीष सिसोदिया घिरते दिख रहे हैं वहीं आप की एक महिला कार्यकर्ता ने कुमार विश्वास को उसके साथ अवैध संबंधों को लेकर चल रही चर्चा में अपने परिवार के उजड़ने की बात कही है। मामला महिला आयोग तक पहुंच गया है। इसमें दो राय नहीं कि देश को एक वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है। जनता परिवार में शामिल लगभग सभी दलों पर वंशवाद, परिवारवाद की दल में धंस चुके होने के आरोप लग रहे हैं। ये लोग भले ही अपने को लोहिया परिवार का बता रहे हों पर यह सर्वविदित है कि ये लोग लोहिया के समाजवाद से भटक चुके हैं। कांग्रेस से तंग आकर ही जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी, पर भाजपा भी जिस तरह से पूंजीपतियों के दबाव में किसान-मजदूर विरोधी सरकार साबित हो रही है उससे जनता का विश्वास इन सब पार्टियों से टूटता जा रहा है। आम आदमी पार्टी से लोगों को कुछ उम्मीद जगी थी पर सत्ता में आने के बाद जिस तरह से इन नेताओं का आचरण उभरकर सामने आया है, उससे लोगों को इन लोगों से भी निराशा होने लगी है। इन लोगों से तो लोग कुछ ज्यादा ही नाराज हैं, क्योंकि इस पार्टी ने लोगों को अच्छी राजनीति स्थापित करने का वादा किया था। ऐसे में योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण को लोगों को विश्वास में लेना मेढकों को तोलने के समान होगा। उनके सामने इस मामले में दो चुनौती हैं एक तो उन्हें आप को गलत साबित करना होगा तो दूसरी ओर अन्य दलों की खामियां गिनाते हुए अपने को सही साबित करना होगा।
     दरअसल यह लड़ाई योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के बीच की मानी जा रही है। अरविंद केजरीवाल ने पहले योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बनाया आैर उन्हें हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत भी किया गया। जब उन्होंने जमीन तैयार करने का प्रयास किया तो अरविंद केजरीवाल ने हरियाणा में चुनाव न लड़ने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं अरविंद केजरीवाल के विश्वसनीय माने जाने वाले नवीन जयहिंद ने योगेंद्र यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। केजरीवाल के अति विश्वसनीय माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र यादव पर केजरीवाल को कमजोर करने का आरोप लगाया। योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने की बात कर रहे थे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के बाद शपथ ग्रहण समारोह में ही अरविंद केजरीवाल ने अन्य राज्यों में चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया। यह स्वभाविक भी है क्योंकि उन्होंने अपने विश्वसनीय लोगों को दिल्ली में समायोजित कर लिया है।
      यह लड़ाई शुरू कहां से हुई यह भी देखना जरूरी है। प्रशांत भूषण का यह कहना कि अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के नाते संयोजक पद छोड़ देना चाहिए, केजरीवाल समर्थकों को बहुत खला था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब केजरीवाल मुख्यमंत्री बन ही गए तो उन्होंने खुद आगे आकर संयोजक पद क्यों नहीं छोड़ा था। हालांकि बाद में इन लोगों ने गोपाल राय को संयोजक बनाया पर वह सब नौटंकी करार दे दिया गया।
    आप की गतिविधयों पर नजर डाली जाए तो अब तक देखा गया है कि पार्टी में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के लिए गए निर्णय ही लागू होते रहे हैं। बताया जाता है कि इन तीनों लोगों ने ही 'परिवर्तन" नामक एक सामाजिक संगठन बनाया था। ये ही तीनों आप में सबसे मजबूत देखे गए। बात इस तिकड़ी की की जाए तो इन लोगों ने पार्टी में किसी चौथे नेता का कद बढ़ने ही नहीं दिया। भले ही आजकल कुमार विश्वास इन लोगों के खासमखास देखे जा रहे हैं पर याद करना होगा कि  उन्हें आम चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़ा कर अलग-थलग कर दिया गया था। साजिया इल्मी तिकड़ी के कहने पर नहीं चलीं तो उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। अब प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव ने अपनी आवाज उठाई तो उन्हंे भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अरविंद केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार मुकाबला प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव से है। एक कानून का विशेषज्ञ तो दूसरा विचार का। प्रशांत भूषण भले ही राजनीतिक संघर्ष न कर पाएं पर योगेंद्र राजनीतिक रूप से संघर्षशील व्यक्ति रहे हैं। वह न केवल राजनीतिक विश्लेषक बल्कि समाजवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। उनका यह बयान कि अब वह गांवों में जाकर किसानों के लिए संघर्ष करेंगे उन्हें बड़े नेता की ओर ले जा रहा है।
    जहां तक प्रशांत भूषण की बात है केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पार्टी को खड़ा करने में प्रशांत भूषण आैर शांति भूषण का बड़ा योगदान है। न केवल आर्थिक बल्कि कानूनी व मनोबल के मामले में भी इस परिवार ने पार्टी को बड़ा सहयोग दिया है। यह सहयोग यदि योगेंद्र यादव को मिल गया तो केजरीवाल के लिए बड़ी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पीएसी से बाहर करने के बाद सबसे ज्यादा विरोध उत्तर प्रदेश में देखा गया। दरअसल उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता 2017 के विधानसभा चुनाव में अपना भविष्य देख रहे हैं। यदि योगेंद्र यादव गुट ने पार्टी बनाकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ लिया तो उत्तर प्रदेश में एक बड़ा तबका योगेंद्र यादव के साथ आ सकता है। उससे पहले बिहार में भी चुनाव हैं। हरियाणा में तो बड़े स्तर पर कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के साथ हैं ही। अरविंद केजरीवाल दिल्ली तक सिमट कर रहना चाहते हैं तो योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं। ऐसे में यादव अन्य प्रदेशों में कार्यकर्ताओं की सहानुभूति बटोर सकते हैं। अरविंद केजरीवाल आैर योगेंद्र यादव में यह बड़ा अंतर देखा जा रहा है।
    बात अरविंद केजरीवाल की की जाए तो उन्हें भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के खिलाफ हुए आंदोलन का फायदा मिला। अरविंद केजरीवाल ने मूल्य पर आधारित आैर ईमानदारी व सच्चाई की राजनीति के नाम पर सभी दलों को निशाना बनाया। अन्ना आंदोलन के बल पर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। पहले 70 में से 28 सीटें तो दूसरी बार प्रधानमंत्री समेत केंद्र के कई मंत्रियों की शिरकत के बावजूद उनकी अगुआई में पार्टी ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। अब आप में भी अन्य दलों की तरह ही वाद-विवाद यह दर्शाता है कि केजरीवाल की संगठन पर पकड़ कमजोर होती जा रही है।
    अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार सरकार बनते ही पार्टी में ऐसी स्थिति क्यों आ गई कि दो दिग्गजों के खिलाफ इनता बड़ा निर्णय लेना पड़ा। याद कीजिए भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आप के आंदोलन के बल पर जब पहली बार  दिल्ली में आप की सरकार बनी तो देश का युवा नरेंद्र मोदी से ज्यादा प्रभावित अरविंद केजरीवाल से था, पर वोटबैंक की राजनीति कर अरविंद केजरीवाल ने यह सब माहौल खत्म कर दिया था। अब फिर से दिल्ली की जनता से उन पर विश्वास जताया है पर पार्टी में जो चल रहा है उससे केजरीवाल से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है।
   ऐसे में जब लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव के समाजवाद पर उंगली उठाई जा रही है तब योगेंद्र यादव का उभरना देश में नए समीकरण पैदा कर सकता है। यदि योगेंद्र यादव ने अपने को इस आंदेालन में पूरी तरह से सक्रिय कर लिया तो वह बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभर सकते हैं। यह आंदोलन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चलाया जा रहा है। किसानों से संबंधित होने की वजह से इस आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर छाने के पूरे आसार हैं।

Friday, 17 April 2015

आखिर कब रुकेगा किसान की आत्महत्या का सिलसिला

जिस खेत से दहकां को मय्यसर न हो रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो
     सर मोहम्मद इकबाल का यह शेर आज के हालात में पूरी तरह से ठीक बैठ रहा है। एक ओर सरकार तो दूसरी ओर प्रकृति की मार से तबाह हुए किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारें हैं कि उनकी बेबशी पर मलहम लगाने के बजाय उनकी गरीबी का मजाक बना रही हैं। किसानों की रोजी-रोटी की कीमत मुआवजे से लगाई जा रही है वह भी ठेंगा दिखाकर। ऐसा नहीं है कि यह हालात किसानों के सामने नए हों। आदिकाल से किसान दयनीय हालत में है। यही वजह रही होगी कि सर मोहम्मद इकबाल ने शायद दहकां यानी किसानों की दुर्दशा पर झुंझलाकर कहा था, जो खेत उनको रोटी न खिला सके उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम अर्थात् गेहूं की बाली को जला दो। इकबाल से दौर से लेकर अब तक हालात वैसे ही बने हुए हैं। देश में काश्त, किसान आैर कर्ज एक-दूसरे के पर्यावाची सरीखे हो गए हैं। इसमें एक शब्द आैर जुड़ता है, कत्ल। यानी ऋण के बोझ तले दबकर या प्रकृति की मार से किसानों द्वारा जान दे देने की मजबूरी। कत्ल शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है कि साल-दर-साल केंद्र सरकार किसानों को बदतर हालात से उबारने के लिए ऋण सीमा में इजाफा करती रहती है।
    नई-नई घोषणाएं करती है। मनरेगा जैसी स्कीमें लाती है। अपने राजनीतिक फायदे आैर चुनाव को ध्यान में रखकर कर्ज माफी की घोषणाएं भी करती रहती है, लेकिन किसान हैं कि दयनीय हालत से उबर ही नहीं पा रहे हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। मौसम पर निर्भर देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी खुशहाल जिंदगी नहीं जी पा रहा है। खेती से मन उचाट होने के बाद किसान या शहर की ओर पलायन कर रहे हैं या फिर जान देकर जीवन से मुक्ति पाने का रास्ता तलाश रहे हैं।   
     दरअसल किसान सदियों से छला जा रहा है। जिस किसान की बदौलत भारत सोने की चिडि़या कहलाता था, उसे पहले भारतीय राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों आैर महाजनों ने निचोड़ा। फिर मुगल आए तो उन्होंने चूसा। अंग्रेजों ने तमाम हदें पार कर जमकर किसानों का शोषण किया। भारत में भले ही किसान दयनीय हालत में रहे पर उनका पसीना लंदन में महारानी विक्टोरिया के ताज में हीरे बनकर चमक में इजाफा करता रहा। देश आजाद हुआ, लेकिन कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से किसानों को आजादी नहीं मिली। 1950 के बाद महाजनों से किसानों को मुक्त कराने के लिए कोऑपरेटिव सोसायटियां शुरू की गर्इं। साठ की दहाई तक इन सोसायटियों की संख्या दो लाख बारह हजार तक पहुंच गई। इनसे लघु आैर सीमांत किसानों को फायदा भी हुआ, पर 1969 में बैंक के राष्ट्रीयकरण आैर ग्रामीण बैंकों के अस्तित्व में आने के बाद इन सोसायटियों को बेकार मान लिया गया। यह वह दौर था, जब भ्रष्टाचार पूरी तरह सीना तानकर भारत के आर्थिक मंच पर नमुदार हो चुका था। करप्शन के घुन आैर नौकरशाहों के नाकारेपन ने कोऑपरेटिव सोसायटियों को दीवालियापन के दरवाजे पर ला खड़ा किया। उधर, बैंक भी विश्व बाजार से काफी कुछ सीख-समझ चुके थे। उन्हें हर सूरत में क्लाइंट चाहिए था। किसान भी उनके लिए क्लाइंट से ज्यादा नहीं थे। बैंकों ने उन्हें भी दुहना शुरू कर दिया। महाजनों आैर कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटियों के मकड़जाल से निकलकर किसान बैंकों के गड़बड़झाले में फंस गए। तब से तरह-तरह कथित धरती पुत्रों को लूटने का दौर जारी है।
    हालांकि सरकारें समय-समय पर किसानों के हित में योजनाएं लाती हैं पर उनका फायदा या तो बैंक उठा लेते हैं या फिर बिचौलिए। यूपीए सरकार की खामिया उजागर कर केंद्र में काबिज हुए मोदी सरकार भी अन्य सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है। बात 2008 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई कृषि ऋण माफी योजना की ही ले लीजिए। इस योजना खुलासा सरकारी लेखा परीक्षक यानी सीएजी गत दिनों ही किया था। सरकार के खर्च पर बारीक नजर रखने वाली इस एजेंसी ने किसानों को राहत देने के लिए लाई गई 52,000 करोड़ की ऋण माफी योजना में भारी गड़बड़ी की बात उजागर की थी। किसान ऋण माफी योजना में जो बात उजागर हुई थी उसमें योजना फायदा या तो बैंकों को हुआ, या फिर डिफाल्टर किसानों को,  ईमानदार किसान मात्र छला गया। गत दिनों कैग के किए गए खुलासे में जो बात सामने आई थी उसमें उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश आैर महाराष्ट्र के हिस्से में 57 फीसद कर्ज आया था। आंध्र प्रदेश के हिस्से में 11,000 करोड़ की रकम आई। करीब 77 लाख किसानों के बीच यह रकम बांटी गई थी, लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे किसानों को फायदा पहुंचाया गया जो योजना के पात्र थे ही नहीं। छोटे आैर गरीब किसानों को इसका लाभ नहीं मिला आैर गुरबत आैर कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पाए।
     आंध्र प्रदेश ग्रमाीण बैंक ने कई किसानों की कैटेगरी बदलकर बड़े किसानों को सीमांत बना दिया आैर उनका कर्ज माफ हो गया। यह केवल आंध्र प्रदेश में नहीं हुआ था, बल्कि देश के 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली थी। यही सब वजह रही थी कि आंध्र प्रदेश को ऋण माफी का बड़ा हिस्सा मिलने के बावजूद कई गरीब किसान कर्जा उतारने के लिए किडनी बेचने को मजबूर हो गए थे। देश की व्यवस्था दोखिए कि कैग की रिपोर्ट के बाद  काफी हो-हल्ला मचाया गया था। मामले की जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही गई थी। गत दिनों इस मामले में किसानों के साथ न्याय करने की बात भी सामने आई थी पर क्या हुआ ? 'ढाक के तीन पात"।
सरकारी उपेक्षा के साथ ही यह भी जमीनी हकीकत है कि खेती की भूमि तो बढ़ नहीं रही पर परिवार बढ़ते जा रहे हैं। जाहिर है कि किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है।
     बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए, सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो प्रदेश का 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से बुवाई वाली भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है, जो कुल भूमि का 69.5 फीसद बनता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग इस भूमि में खेती करते हैं।  सरकारी आंकड़ों को ही ले लीजिए। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। प्रदेश में हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीटयुक्त हो रही है। आज कल प्रदेश की सालाना आय का 31.9 फीसद खेती से आता है। जो फीसद 1971 में 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। जाहिर है कि किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है। सोचने का विषय यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं।
      यह किसानों की न निपटने वाली समस्या ही है कि कृषि प्रधान देश में किसान ही अपने पेशे से पलायन करने लगे हैं। जी हां किसानों के खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक तो मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी, अब केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया है। आज के हालात में किसानों के सामने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि वे उपज से लागत भी नहीं निकल पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में पेश पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कोढ़ में खाज का काम कर रही है। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि लगातार हो रहे भू-क्षरण के चलते देश का एक चौथाई से ज्यादा भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थल में तब्दील होता जा रहा  है। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख हो गई। प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ऋणों के बोझ के कारण भी बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ रहे हैं। गत दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है।     
     उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी कृषकों की संख्या कम है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार प्रतिशत की, 2050 तक सात प्रतिशत तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस प्रतिशत की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसा नहीं है कि किसानों के दर्द को न समझा गया हो। डॉ. राम मनोहर लोहिया आैर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अलावा तमाम जमीनी नेताओं की राजनीति की केंद्रीय धुरी किसान ही रहे। उन्होंने किसान समस्याओं को जोरदारी से उठाया। उनके बाद 60-70 के दशक तक किसान नेता चौधरी चरण सिंह किसान आैर सिर्फ किसान चिंता से जूझते रहे। उनका 'देश के विकास का रास्ता खेत-खलिहान से होकर जाता है" जुमला बेहद प्रसिद्ध आैर लोकप्रिय रहा। चौधरी साहब के बाद जाने कितने नेताओं ने यह लकीर पीटने की कोशिश की लेकिन डंका किसी का नहीं बजा क्योंकि किसान उनके लिए वोट था आैर इस वोट को पटाने का उनका गुणा-गणित किसान बिरादरी समय रहते समझ गई थी।   जाने कितनों ने चरण सिंह की इस छवि को ओढ़ने की कोशिश की लेकिन कलई खुल गई क्योंकि किसान उनकी केंद्रीय चेतना के दायरे से बाहर, हाशिए तक पर नहीं था। सरकारें भी समय-समय पर किसानों के कल्याण से जुड़ी योजनाएं लाती रही हैं। यह बात दूसरी है कि किसानों को इसका कोई खास लाभ नहीं मिल पाता। यह समय का ही तकाजा था कि बोफोर्स मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 समाजवादियों ने केंद्र में सरकार बनाई तो किसानों के 10,000 रुपए तक के कर्जे माफ किए गए। पर योजना का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर डिफाल्टर किसानों को।
     बात अपने को किसानों की पार्टी बताने वाली सपा की ही ले लीजिए जो सभी चुनावी वादे पूरे करना का दावा करती फिर रही है। उत्तर प्रदेश में सपा सरकार ने चुनावी घोषणा का हवाला देते हुए किसानों का  50,000 हजार रुपए तक का कर्जा माफ किया। इस योजना का लाभ किसानों को कम, डिफाल्टर किसानों व सरकार के अधीन भूमि विकास बैंक को ज्यादा हुआ। योजना के लाभ लेने चक्कर में कर्जा न चुकाने पर काफी संख्या में किसानों को चार फीसदी ब्याज की जगह 12 फीसदी ब्याज भरना पड़ा। दरअसल  समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में 50 हजार रुपए तक कर्ज माफ करने की बात कहने पर किसानों ने कर्जा जमा नहीं किया था। जब कर्जा माफ करने की घोषणा की गई तो मुख्यमंत्री ने योजना में 10 फीसद मूलधन जमा करने वालों के ही आने की बात कहकर किसानों को संकट में डाल दिया, जबकि अक्सर देखने में आता है कि किसान या तो कर्ज का ब्याज जमा करते हैं या फिर पूरा भुगतान। उत्तर प्रदेश में किसानों की हालत क्या है इसके अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे।
     किसानों की समस्याओं को लेकर लगभग सभी दल चिंतित होने का दावा करते हैं पर धरातल पर उनकी चिंता कितनी दिखाई देती है, इसका अंदाजा तो किसानों की दयनीय हालत देखकर ही लगाया जा सकता है। सबसे बुरा हाल तो गन्ना किसानों का है। किसान कर्जा लेकर गन्ना उपजाता है आैर मिल पर डाल आता है आैर जब भुगतान के बात आती है तो उसे आंदोलन करना पड़ता है। कई-कई सालों में जाकर भुगतान किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि समय से कर्जे का भुगतान न करने  पर सरकार किसान से चार की जगह 12 फीसद ब्याज वसूलती है पर किसानों के लंबित भुगतान पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता है। निजी चीनी मिलों के प्रबंधन के नखरे अलग।
      प्रश्न यह उठता है कि यदि सरकारें किसानों के हित की इतना ही ख्याल रख रही हैं तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? खाद्यान्न के रेट बढ़ रहे हैं तो आर्थिक स्थिति किसानों की सुधरनी चाहिए पर मोटे हो रहे हैं साहूकार व किसानों से संबंधित अधिकारी। यह प्रश्न आम आदमी के जहन में कौंधता रहता है कि किसान का बेटा खेती क्यों नहीं करना चाहता ? दूसरों के लिए अन्न उपजाना वाले किसान के नाम के आगे गरीब क्यों लग रहा है ?