राजनीतिक दलों ने देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि राजनेता हर व्यवस्था को अपने अनुसार ढालना चाहते हैं। इनका ऐसा रवैया है कि ये लोग चाहते हैं कि हर संस्था में उनका हस्तक्षेप हो। हर एसोसिएशन में उनकी भागेदारी हो। हर विभाग उनकी निगरानी में हो। हर किसी से ये लोग हिसाब मांग सकें पर उन पर किसी संस्था का अधिकार न हो। उनके क्रियाकलापों पर किस की नजर न हो। उनकी संपत्ति के बारे में कोई जानकारी न ले सके। उनकी पार्टी के चंदे के बारे में कोई जानकारी लेना चाहे तो उन्हें आपत्ति है। सूचना के अधिकार के तहत भी उन्हें जानकारी देने में आपत्ति है। भले ही सभी सरकारी विभाग आरटीआई के दायरे में आते हैं। भले ही सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को आरटीआई के तहत जानकारी देनी होती हो। पर राजनीतिक दल अपने को आरटीआई के दायरे में लाने को तैया नहीं।
राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के लिए कई बार मांग उठी पर नेताओं ने अपने वर्चस्व के चलते उसे दबा दिया। इस बार इस मांग ने बड़ा रूप धारण किया है। अब यह मांग देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। कोर्ट ने भी कड़ा रुख अपनाते हुए चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे संगठन एडीआर की याचिका पर कड़ा संज्ञान लिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार आैर चुनाव आयोग के साथ ही उन छह दलों (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई आैर बसपा) को नोटिस भेजकर छह हफ्ते में जवाब मांगा है। 2013 में इन दलों को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) करार देते हुए आरटीआई के तहत आने आैर अपने यहां सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि इस नोटिस से राजनीतिक दल तिलमिलाएंगे तो पर वे वैसा रवैया नहीं अपना सकते, जैसा उन्होंने सीआईसी के आदेश के समय दिखाया था। तत्कालीन यूपीए सरकार के समय जब यह आदेश आया तो सब दल एक हो गए आैर संसद के माध्यम से इसे बेअसर करने का प्रयास किया गया यही वजह रही कि राजनीतिक दलों ने एक अच्छे प्रयास को विफल कर दिया।
यह बात जरूर है कि जब सीआईसी के आदेश को कोर्ट में चुनौती देने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पाया था तो सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ तो जाने का मतलब ही नहीं उठता। इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों को रियायती जमीन आैर कर में छूट जैसी सुविधाएं उनकी विशिष्टता के कारण मलती है। राजनीतिक दलों के लिए अच्छा यह होगा कि वे पुरानी गलती को सुधारते हुए खुद को आरटीआई के तहत आने का ऐलान कर दें, क्योंकि इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
राजनीतिक दलों को यह भी समझना होगा कि उन्हें आरटीआई के दायरे में लाने की मांग ने अब जोर पकड़ लिया है। जनता की राय जानने के लिए लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम ने भ्आनलाइन सर्वे कराया है, जिसमें 44.74 फीसद लोगों ने दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की सहमति दी है। उनका तर्क है कि इससे राजनीतिक दलों का जनता से सीधा संबंध होता है। जनता के वोट से ही उनकी सरकारें बनती हैं। इसलिए उनको सूचना के अधिकार के तहत आना ही चाहिए। 39.47 फीसद लोगों का हां में तर्क है कि आरटीआई के दायरे में लाने से जनता इनका लेखा-जोखा जान सकेगी। सभी के बीच में ये खुलासा हो पाएगा कि आखिर पाटियां इतना खर्च कहां से कर रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं उनके पास विदेश से तो धन आ रहा हो।
राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के लिए कई बार मांग उठी पर नेताओं ने अपने वर्चस्व के चलते उसे दबा दिया। इस बार इस मांग ने बड़ा रूप धारण किया है। अब यह मांग देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। कोर्ट ने भी कड़ा रुख अपनाते हुए चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे संगठन एडीआर की याचिका पर कड़ा संज्ञान लिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार आैर चुनाव आयोग के साथ ही उन छह दलों (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई आैर बसपा) को नोटिस भेजकर छह हफ्ते में जवाब मांगा है। 2013 में इन दलों को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) करार देते हुए आरटीआई के तहत आने आैर अपने यहां सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि इस नोटिस से राजनीतिक दल तिलमिलाएंगे तो पर वे वैसा रवैया नहीं अपना सकते, जैसा उन्होंने सीआईसी के आदेश के समय दिखाया था। तत्कालीन यूपीए सरकार के समय जब यह आदेश आया तो सब दल एक हो गए आैर संसद के माध्यम से इसे बेअसर करने का प्रयास किया गया यही वजह रही कि राजनीतिक दलों ने एक अच्छे प्रयास को विफल कर दिया।
यह बात जरूर है कि जब सीआईसी के आदेश को कोर्ट में चुनौती देने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पाया था तो सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ तो जाने का मतलब ही नहीं उठता। इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों को रियायती जमीन आैर कर में छूट जैसी सुविधाएं उनकी विशिष्टता के कारण मलती है। राजनीतिक दलों के लिए अच्छा यह होगा कि वे पुरानी गलती को सुधारते हुए खुद को आरटीआई के तहत आने का ऐलान कर दें, क्योंकि इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
राजनीतिक दलों को यह भी समझना होगा कि उन्हें आरटीआई के दायरे में लाने की मांग ने अब जोर पकड़ लिया है। जनता की राय जानने के लिए लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम ने भ्आनलाइन सर्वे कराया है, जिसमें 44.74 फीसद लोगों ने दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की सहमति दी है। उनका तर्क है कि इससे राजनीतिक दलों का जनता से सीधा संबंध होता है। जनता के वोट से ही उनकी सरकारें बनती हैं। इसलिए उनको सूचना के अधिकार के तहत आना ही चाहिए। 39.47 फीसद लोगों का हां में तर्क है कि आरटीआई के दायरे में लाने से जनता इनका लेखा-जोखा जान सकेगी। सभी के बीच में ये खुलासा हो पाएगा कि आखिर पाटियां इतना खर्च कहां से कर रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं उनके पास विदेश से तो धन आ रहा हो।
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