Thursday 11 June 2015

नसीहत देने के बजाय किसानों को समृद्ध बनाए सरकार

     कृषि प्रधान देश में  किसान दुखी है, दयनीय है, लाचार है। ऐसे में जब केंद्र सरकार को किसानों के घावों पर मल्हम लगाना चाहिए तब यह सरकार उन्हें नसीहत देने में लगी है। सरकार की नीति देखिए कि देश के विकास के लिए बनाया गया नीति आयोग ही किसानों को बरगलाने में लग गया है। जब देश में जोत की जमीन लगातार घट रही हो। अन्न उत्पादन घट रहा हो। तरह-तरह की आपदा के चलते खेती प्रभावित हो रही है। जब सरकार को अधिक अन्न उत्पादन के प्रयास करने चाहिए। किसानों को खेती करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसे में देश में महत्वपूर्ण पद पर बैठे नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या आयोग की वेबसाइट पर  ब्लाग लिखकर किसानों को खेती छोड़कर अन्य धंधों में लगने के लिए उकसा रहे हैं। उनके अनुसार किसान कृषि की अपेक्षा आैद्योगिक व सेवा क्षेत्र में लगकर ज्यादा समृद्ध हो सकते हैं। तो यह माना जाए कि वह किसानों को उनके पेशे से बरगला रहे हैं। जिस समय किसान बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से तबाह हुई फसल को लेकर दुखी हो, ऐसे समय में खेती से ज्यादा अन्य क्षेत्र में समृद्धि की बात करना किसानों के दुख को आैर बढ़ाना है।
    देश की विडम्बना देखिए कि केंद्र सरकार किसानों को तबाह कर विदेशी निवेश के दम पर देश का विकास करना चाह रही है, जबकि जगजाहिर है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। मेरा मानना है कि यदि सरकारें किसान को सम्पन्न कर दें तो देश अपने आप में समृद्ध हो जाएगा। किसानों को अन्य पेशे अपनाने की बात करने वालों से मेरा प्रश्न है कि जब किसान खेती नहीं करेगा, तो अन्न कहां से उपजेगा ? रोटी कहां से खाओगे ? यदि खेती से ज्यादा मुनाफा अन्य क्षेत्रो में हैं तो इसमें दोष किसान नहीं बल्कि सरकारों का है। सरकारों को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि खेती में अन्य क्षेत्रों से ज्यादा मुनाफा होने लगे। देश में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि किसान की फसल से जो मुनाफा बनिया कमाते हैं वह किसानों को मिले।  जब देश में बेेरोजगारी एक भीषण समस्या के रूप में उभर कर समाने आ रही है, ऐसे में किसानों के मनोबल को गिराने की बातें देश में नहीं होनी चाहिए। आज भी सत्तर फीसद जनसंख्या खेती पर निर्भर है। जब देश में तरह-तरह के भत्ते दिए जा रहे हों तो किसान को मेहनत भत्ता क्यों नहीं मिलता, जबकि जगजाहिर है कि किसान अन्य लोगों से कहीं ज्यादा मेहनत करता है। भले ही किसानों की आवाज उठाने के लिए देश में कितने संगठन बने हुए हों पर आज की तारीख में हर उस व्यक्ति को किसान के हक की आवाज उठानी चाहिए जो रोटी खाता हो। जो किसानों के बेटे विभिन्न विभागों में बैठे हैं उन्हें किसान को भटकाने के बजाय उनके हित में आगे बढ़कर काम करना चाहिए।
    सरकार की हठधर्मिता देखिए कि जब खेती को बढ़ावा देना चाहिए तब यह सरकार पूंजीपतियों के दबाव में किसानों की जमीन हथियाने में तुली है। तीसरी बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना इसका प्रमाण है। हमारे देश में अध्यादेश की व्यवस्था किसी आपदा आने की स्थिति में की गई है। देश में ऐसी कौन सी आपदा आ गई कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना पड़ रहा है। यह अध्यादेश जब लाया जा रहा है जब देश में बड़े स्तर पर अधिग्रहीत की गई जमीन बेकार पड़ी है। जब देश में जोत की जमीन घट रही हो। बड़े स्तर पर बंजर जमीन हो गई हो। बड़े स्तर पर जमीन पर बिल्डरों ने बिल्डिंग बनाकर डाल दी हो। बड़े स्तर पर जमीन पर पूंजीपतियों ने फार्म हाउस बना लिए हों। ऐसे में सरकार भूमि बचाओ अध्यादेश क्यों नहीं लाती ?
    सरकार तर्क दे रही है कि भूमि अधिग्रहण न हेाने के चलते बड़े स्तर पर सरकारी योजनाएं लंबित बड़ी हैं। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस सरकार से पहले किसानों की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया। क्या इससे पहले सरकारी योजनाओं पर काम नहीं हुआ ? क्या देश में किसान से बड़ा देशभक्त है। जग जाहिर है कि किसान तो देशहित में जमीन दान भी देते रहे हैं। जो हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत हुई पड़ी है उस भूमि का सरकार क्या कर रही है ?  देश में भूमि अधिग्रहण इतना जरूरी है तो तो पूंजपीतियों द्वारा बनाए गए फार्म हाउसों का अधिग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? सरकारी कार्यालयों के लिए उद्योगपतियों के आफिसों का अधिग्रहण क्यों नहीं जाता। दरअसल सरकार सरकारी योजनाओं के नाम पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को देना चाहती है। यह खेल लंबे समय से चल रहा है। ग्रेटर नोएडा में भी स्थानीय लोगों को रोजगार देने का नाम पर उनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया आैर बाद में इस भूमि को बिल्डरों को बेच दिया गया। यह केंद्र सरकार ही नहीं प्रदेश सरकारें भी करती हैं। हर सरकार अपने को किसान हितैषी बताती है पर किसानों की समस्याओं को समझने को कोई तैयार नहीं। हर सरकार ने बस किसानों को ठगा है। मोदी सरकार विदेशी निवेश के नाम पर किसानों व मजदूरों को तबाह करने पर तुली है।
   देश में किसान-मजदूर के अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है। अब समय आ गया है कि किसान-मजदूर के पक्ष में सड़कों पर उतरा जाए आैर वातानुकूलित माहौल में रहने वाले लोगों को खेत-खलिहान की अहमियत बताई जाए।  किसानों की बिना सहमति के किसी भी हालत में उनकी भूमि का अधिग्रहण न होने दिया जाए। यदि भूमि का अधिग्रहण करना ही है तो किसानों को मालिकाना हक देना चाहिए।
   किसानों को उपेक्षित रखने वालों को समझना होगा कि गत दशक के  महाराष्ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी किसानों की संख्या भी कम हुई है। आने वाली फसल देश में धान की आने जाने जा रही है। भले ही सरकार इस फसल से उम्मीद लगाई बैठी हो पर हमें देखना होगा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसे में देश खाद्यान्न मामले में कैसे आत्मनिर्भर होगा।
   ऐसा भी नहीं कि देश में किसान हित की योजनाएं न चल रही हों। योजनाएं तो बहुत चल रही हैं पर उनका लाभ या तो अधिकारी उठा रहे हैं या फिर बिचौलिए। कागजी आंकड़े देखें तो किसानों को सब्सिडी पर खाद, बीज भी दिया जा रहा है, कर्जा भी दिया जा रहा है आैर उनके कर्जे माफ भी किये जा रहे हैं पर इन सबका फायदा जमीनी स्तर पर किसानों तक   नहीं पहुंच पा रहा है। किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है। बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए। सरकारी आंकड़ों की जुबान में बोलें तो प्रदेश की 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से खेती योग्य भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है। यह हिसाब कुल भूमि का 69.5 फीसद बैठता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग खेती करते हैं। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीट युक्त हो रही है। आंकड़े देखें तो कि प्रदेश की सालाना आय का लगभग 31.9 फीसद खेती से आता है, जबकि 1971 में यह प्रतिशत 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। तथ्य यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं। सपा सरकार भले ही किसान हितैषी का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। ऐसे में सरकारें क्या कर रही हैं ?
   यह किसान की बेबसी ही है कि उनका शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक को कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गर्इं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्टर का धब्बा हटने की रफ्तार में तेजी जरूर आ गई। गत दिनों कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 को यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली हैं। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा, पर क्या हुआ ? ठाक की तीन पात।
    किसानों के हालात को जानने के लिए यह समझना जरूरी हो गया है कि हमारे के लिए अन्न पैदा करने के लिए किसान को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। देश को चलाने का दावा करने वाले समाज के ठेकेदारों को यह समझने की जरूरत है कि जब वे वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बना रहे होते हैं तो किसान अपने खेतों मे मौसम की मार झेल रहा होता है। गर्मी, सर्दी, बरसात से किस तरह जूझते हुए किसान अन्न उपजाता है- इन सब परिस्थतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि में किसान अतिरिक्त मेहनत करता है। किसानों को खेती से जोड़ने के लिए एक मुश्त राशि के रूप में मेहनत भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए।

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