Saturday 15 February 2014

भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ अब खड़ा होना ही होगा

    एक अप्रैल से देश में होने जा रही गैस मूल्य वृद्धि को लेकर प्रमुख व्यवसायी मुकेश अम्बानी पर निशाना साधने के बाद दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल बिल पर भाजपा और कांग्रेस के मिलने को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफा देने बाद देश की राजनीति आंदोलन की ओर चल दी है। व्यवस्था बदलने निकली आप ने अब देश में चल रहे कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों के गठबंधन को जनता के बीच ले जाने का मन बना लिया है। अरविन्द केजरीवाल का यह निर्णय लोगों के दिलों को छुने वाला है। किसी भी तरह से पैसा कमाकर चुनाव लड़ना और जनप्रतिनिधि बन जाना यह राजनीति का चेहरा बन गया है। कॉरपोरेट घरानों से पैसा लेकर चुनाव लड़ना और सरकार बनाकर पूंजीपतियों के लिए काम करना यह राजनेताओं का आचरण हो गया है। अब समय आ गया है कि हम लोगों को इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना ही होगा।
     देश का किसान-मजदूर और आम आदमी जहां दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है वहीं एक तबका जनता के खून पसीने की कमाई एशोआराम और अय्यासी पर लगा रहा है। देश को चलाने का  ठेका लिए बैठे राजनेता आर्थिक स्थिति के गड़बड़ाने का रोना रो रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम चुनाव में लगे प्रमुख राजनीतिक दल पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। टीवी चैनलों और अख़बारों में अरबों रुपए प्रचार पर खर्च हो रहे हैं। यह पैसा कहां से आ रहा है, सोचने की जरूरत है। देखा जा रहा है कि बड़े स्तर पर लोग नरेंदर मोदी के प्रधानमंत्री बनने की पैरवी कर रहे हैं, मैं उन लोगों से चाहता पूछना हूं कि मोदी की रैलियों पर खर्च किया जा रहा अरबों रूपए कहां से आ रहा है ? यदि यह पैसा कारपोरेट घराने दे रहे हैं तो क्या सरकार बनने के बाद मोदी जनता के लिए काम कर पाएंगे ? क्या मोदी कारपोरेट घरानों के दबाव से बाहर निकल पाएंगे ? क्या निजी कंपनियों में हो रहा कर्मचारियों का आर्थिक और मानसिक शोषण किसी से छुपा हुआ है ? जगजाहिर है कि यह शोषण राजनीतिक दलों के साथ मिलकर ही हो रहा है। क्या यह सब चलता रहेगा ? क्या इसके खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए ? क्या इस भ्रष्ट व्यवस्था में आदमी सुरक्षित रह गया है ? देश की कानून व्यवस्था का यह हाल है कि बहु-बेटियां घर से निकलती हैं तो जब तक घर वापस नहीं आ जाती तब तक घर के बड़ों को चिंता लगी रहती है। क्या यह भ्रष्ट व्यवस्था बदलनी नहीं चाहिए ? क्या इस व्यवस्था में हमारे बच्चों का भविष्य और वे सुरक्षित हैं ?
   देश के मजबूत स्तम्भ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। कहना गलत न होगा कि बाढ़ ही फसल को खा रही है। ऐसे में यदि हम लोग इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ खडें नहीं हुए तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।

Thursday 6 February 2014

हो तो आर्थिक आधार पर हो आरक्षण

    कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने किसी तरह से साहस जुटाकर आरक्षण व्यवस्था जाति के आधार पर न होकर आर्धिक आधार पर होने की बात कही तो वोटबैंक की खातिर कांग्रेसियों ने उनकी आवाज को भी दबा दिया। पूरे दिन घमाशान चलने के बाद अंत में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जातिगत आधार पर ही आरक्षण होने की बात को जायज ठहराया। उनका कहना है कि दलितों और पिछड़ों के साथ लम्बे समय तक हुए भेदभाव की भरपाई के लिए जाति के आधार पर आरक्षण जरूरी है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या आरक्षण से उन लोगों को फायदा हुआ है, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत थी ? क्या इस व्यवस्था फायदा दलितों और पिछड़े वर्ग के सम्पन्न लोगों ने नहीं उठाया है ? क्या इस व्यवस्था से समाज में विषमता नहीं फैली है ? क्या अब इसका इस्तेमाल वोटबैंक की राजनीति के लिए नहीं हो रहा है ?
    मेरा मानना है कि वैसे तो आरक्षण होना ही नहीं चाहिए यदि हो तो आर्थिक आधार पर हो। क्या सवर्णों में गरीब नहीं हैं क्या ?  हर वर्ग में गरीब हैं पर व्यवस्था प्रभावशाली लोगों ने संभाल रखी है और हर व्यवस्था का फायदा भी ये ही लोग उठाते हैं। आरक्षण का फायदा भी। इसमें दो राय कि आर्थिक आधार पर आरक्षण होने से जायज लोगों को इस व्यवस्था का फायदा मिलेगा।
    आखिर वोटबैंक के लिए आरक्षण का खेल कब तक चलेगा ? कोई दल नोकरी के बाद अब प्रमोशन में भी दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कई पिछड़ों को दलितों के श्रेणी में लाने की पैरवी कर रहा है। कांग्रेस अब जाटों को भी केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दल इन जातियों का भला चाहते हैं। दरअसल ये सब वोटबैंक के लिए हो रहा है। ये दल इन जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आरक्षण नाम की बैसाखी इन लोगों के हाथों में थमा दे रहे हैं।
दरअसल आजादी के बाद समाज में ऐसा महसूस  किया गया कि दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। उस समय दलित दबे-कुचले माने जाते थे तो इन लोगों के लिए 10 साल के लिए दलितों के लिए आरक्षण कर दिया गया। आज के हालात में भले ही कुछ दल डा भीम राव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति कर रहे हों पर डा अम्बेडकर का भी मानना था कि  ज्यादा समय तक आरक्षण देने से दलितों के लिए यह बैसाखी का रूप धारण कर लेगा। पर इसके लागू होने के 10 साल बाद जब इसकी समय सीमा पर विचार करने का साय आया तो तब तक कांग्रेस के लिए आरक्षण ने वोटबैंक का रूप धारण कर लिया था।
     तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम व ब्राह्मणों के साथ आरक्षण के नाम पर दलितों को अपना वोटबैंक बना लिया। तब प्रख्यात समाजवादी डा राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण व दलित गठबंधन की तोड़ के लिए पिछड़ों का गठबंधन तैयार किया था।  हालांकि कुछ समाजवादी दल पिछड़ों के इस गठबंधन को आरक्षण का रूप देकर राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं। आरक्षण की समय सीमा पर निर्णय लेने का समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व समय में आया तो उन्होंने भी अपने पिता के पद चिह्नों पर  चलते हुए उसकी समय सीमा बढ़ा दी। उसके बाद 80  के दशक में वीपी सिंह ने पिछड़ों को अपना वोटबैंक बनाने ले लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी।
     आरक्षण की पैरवी करने वाले दलों से मेरा सवाल है कि क्या आरक्षण से देश का विकास प्रभावित नहीं हो रहा है ? क्या इस व्यवस्था से प्रतिभा का दमन नहीं हो रहा है ? क्या गरीब सवर्णों में नहीं हैं ? क्या दलितों व पिछड़ों में सभी को ही आरक्षण की जरूरत है ? मेरा तो मानना है कि आरक्षण का फायदा संपन्न लोग ही उठा रहे हैं  जिन लोगों को इसकी जरूरत है उन लोगों को आज भी इसका उतना फायदा नहीं मिल पा रहा है।