Sunday 13 September 2015

नेताजी के गले की फांस बना यादव सिंह प्रकरण

   चौधरी चरण सिंह से राजनीति का पाठ सीखकर डॉ. राम मनोहर लोहिया का अनुयाई होने का दावा करते हुए एक पिछड़े गांव से राजनीति शुरू कर देश की राजनीतिक पटल पर छाने वाले मुलायम सिंह यादव पर लंबे समय से परिवारवाद आैर जातिवाद का आरोप तो लग ही रहा था अब नोएडा प्राधिकरण के यादव सिंह प्रकरण मामले में उनकी काफी फजीहत हुई। स्थिति यह हो गई थी कि जब यादव सिंह पर सीबीआई जांच बैठी तो उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई जांच के बदले एसआईटी बैठाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो उसे वहां से कड़ी फटकार पड़ी। वैसे भी मुलायम सिंह के भाई रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव का नाम यादव सिंह प्रकरण में आ गया है। ललित मोदी के वीजा मामले में रामगोपाल यादव का सुषमा स्वराज की पैरवी करना भी इससे जोड़कर देखा गया था। अब बिहार में पांच सीटों का हवाला देकर महागठबंधन से नाता तोड़ना यादव सिंह प्रकरण पर मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीबीआई जांच से डराना माना जा रहा है। वैसे भी मुलायम सिंह अचानक जहां नीतीश कुमार के खिलाफ बोलने लगे हैं वहीं जनाधारहीन हो चुके कांग्रेस को टारगेट बना रहे हैं। जदयू प्रमुख शरद यादव व राजद प्रमुख लालू प्रसाद के तमाम मनाने के बावजूद मुलायम सिंह टस से मस न होना इस संदेह आैर मजबूत कर रहा है।
    वैसे जनता परिवार के नाम पर समाजवादियों को एकजुट करने का दंभ भरने वाले महागठबंधन का मुखिया बनने के बावजूद मुलायम सिंह ने उसे कमजोर ही किया। जब मुलायम सिंह यादव को इस महागठबंधन की अगुआई सौंपी गई थी तो उन्हें बड़ा दिल रखकर फैसले लेना चाहिए था। बिहार चुनाव के नाम पर लालू प्रसाद व नीतीश कुमार अपने गिले-शिकवे भूलकर एक हो गए पर मुलायम सिंह चुप्पी साधे रहे।
    नरेंद्र मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए जब जनता परिवार के एकजुट करने के नाम पर महागठबंधन बना आैर इसकी अगुआई मुलायम सिंह यादव का सौंपी गई। इस गठबंधन में सपा, जदयू, राजद, इनेलो, जद (एस) के मिलने की बात की जा रही थी। बिहार चुनाव से पहले राजद व जदयू तो एक हो गए पर सपा के मिलने के नाम पर सपा महासचिव का यह बयान आ गया कि जनता परिवार में सपा के विलय का मतलब पार्टी का डेथ वारंट जारी करना होगा। जब सपा गठबंधन में शामिल होने से बचती रही तो फिर सीटें कम मिलने का मलाल क्यों ? दरअसल मुलायम सिंह यादव केंद्र सरकार के दबाव में माने जा रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि केंद्र सरकार के दबाव में उन्होंने महागठबंधन को कमजोर करने के लिए ऐसा किया। वैसे तो बिहार में खुद मुलायम सिंह यादव ने सपा का जनाधार बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। जब भी कुछ विधायक जीतकर आते तो या तो वह सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल हो जाते हैं या फिर समर्थन दे देते हैं।
   यादव सिंह मामले में ऐसा माना जा रहा था कि नेताजी के के इशारे पर उसे नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस प्राधिकरण की जिम्मेदारी दी गई। उसके पीछे यह माना जा रहा था कि वह मैनेज करने में माहिर है। मायावती सरकार में भी वह फुल पावरफुल था। कहा जाता है कि गौतमबुद्धनगर से पैसा उगाकर वह सरकार को भिजवाने में नोएडा प्राधिकरण का सबसे खिलाड़ी अधिकारी रहा है। इनकम टेक्स छापे में यह साबित हो गया कि वह कितना बड़ा दलाल है। उसके पास बेशकीमती हीरे जवाहरात के अलावा करोड़ों रुपए बरामद हुए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि एक इंजीनियर के पास इतनी संपत्ति कहां से आई। या फिर इस तरह के भ्रष्ट अधिकारी को सपा सरकार में तीनों प्राधिकरणें की जिम्मेदारी क्यों सौपी गई। कभी खांटी समाजवादी के नाम से जाने जाने वाले मुलायम सिंह यादव पर लगातार समाजवाद से भटकने के आरोप क्यों लग रहे हैं ?
ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह पर पहली बार संदेह व्यक्त किया जा रह है।   
   यूपीए सरकार में भी मुलायम सिंह यादव की ढुलमुल नीतियां रही हैं। वह यूपीए सरकार को समर्थन भी देते रहे आैर विरोध भी करते रहे। परमाणु करार मामले में जब वामपंथियों से यूपीए-एक सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह यादव ने यूपीए सरकार की सरकार बचाई। आय से अधिक संपत्ति मामले में मुलायम सिंह का बरी होना सरकार बचाने का रिवार्ड बताया जा रहा था। अब जब एनडीए सरकार प्रचंड बहुमत के साथ चल रही है तो मुलायम सिंह यादव कैसे दबाव बनाएं। भूमि अधिग्रहण विधेयक को राज्यसभा में पास कराने के मामले में मुलायम सिंह यादव एनडीए सरकार पर दबाव बनाने की फिराक में थे। एक तरह से उन्होंने संकेत दे भी दिए थे पर राजनीतिक के बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी ने भूमि अधिग्रहण बिल ही वापस ले लिया। अब ऐसे में मुलायम सिंह यादव के पास मोदी को खुश करने का बिहार चुनाव में महागठबंधन से नाता तोड़ने जैसा फैसले सबसे उपयुक्त लगा होगा।

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