Friday 27 November 2015

असहिष्णुता से खबरदार करने की जरूरत

    देश में इस समय असहिष्णुता को लेकर बवाल मचा हुआ है। जहां लेखक-साहित्यकार अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं, वहीं बालीवुड में भी भूचाल आ गया है। अभिनेता आमिर खान के  इस बयान के बाद कि 'असहिष्णुता से भयभीत मेरी पत्नी ने मुझे देश छोड़ने तक कह दिया था", वालीवुड की बड़ी हस्तियों के साथ ही भाजपा ने भी आमिर खान को निशाने पर ले लिया है। असहिष्णुता को लेकर प्रश्न उठता है कि जिस शब्द को लेकर देश का बड़ा वर्ग चर्चा में मशगूल है, उस शब्द को आम आदमी तो दूर की बात है, काफी संख्या में पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं। इन हालात में बवाल मचाने से ज्यादा असहिष्णुता के बारे में लोगों को जाग्रत करने की जरूरत है। जरूरत इस बात की है कि कैसे इस पर अंकुश लगाया जा सकता है ? कैसे यह समस्या बढ़ी है ? इस समस्या के बढ़ने में कौन-कौन से कारण व कौन लोग हैं?  असहिष्णुता के बढ़ने का दारोमदार किसी एक वर्ग या कौम पर नहीं है, यह बात साफ है। लोगों आैर सरकार को यह बताया भी जाना चाहिए कि इस ब्राहृपिशाच से मुक्ति कैसे आैर किस योजना के तहत मिल पाएगी।
   असहिष्णुता के विरोध के माध्यम से केंद्र सरकार बुद्धिजीवियों के निशाने पर है। यदि लेखकों व साहित्यकारों की बात करें तो उनके अनुसार गलत बात का विरोध करने पर समाज सेवकों, लेखकों व साहित्यकारों का दमन, उत्पीड़न व हत्या तक की जा रही है, जिसका जिम्मेदार ये लोग केंद्र सरकार को मानते हैं। एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दोभालकर आैर गोविंद पानसरे की हत्याओं को भी असहिष्णुता से जोड़कर देखा जा रहा है। असहिष्णुता देश में ऐसा मुद्दा बन गया है कि प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक को सफाई देने पड़ रही है। वैसे तो देश में अपने-अपने तरीके से असहिष्णुता का विरोध जताया जा रहा है पर सबसे अधिक मुखर वामपंथी लेखक व साहित्यकार हैं। स्थिति यह हो गई है कि गत दिनों बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विरोध जता रहे भारतीय लेखकों पक्ष में वाशिंगटन में लेखकों के वैश्विक संघ ने केंद्र सरकार से अपील की कि इन लोगों को बेहतर सुरक्षा, अभिव्यक्ति व स्वतंत्रता का संरक्षण प्रदान किया जाए।
   कनाडा के क्यूबेक सिटी में हुई पेन इंटरनेशनल की 81वीं कांग्रेस में भाग लेने वाले 73 देशों के प्रतिनिधियों ने प्रतिष्ठित पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों व साहित्यकारों के साथ एकजुटता दिखाई। पेन इंटरनेशनल के अध्यक्ष जॉन राल्स्टन सॉल ने हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आैर साहित्य अकादमी को पत्र लिखकर केंद्र  सरकार से लेखकों आैर कलाकारों समेत हर किसी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने की अपील की है। असहिष्णुता का विरोध करने वाले लेखक, साहित्यकार, अभिनेता व अन्य लोग जो केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं, यदि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने की बजाय समाज में असहिष्णुता को खत्म करने पर बल दें तो यह ज्यादा कारगर होगा। केंद्र सरकार को झुकना भी पड़ेगा। असहिष्णुता का विरोध करने वाले ये वे लोग हैं, जिनकी कलम व विचार से समाज परिवर्तित होता है। यह वर्ग  फिर क्यों केंद्र सरकार की ओर आशा भरी निगाह से देख रहा है? वैसे भी इस वर्ग की समाज के प्रति बड़ी जवाबदेही है -पुरस्कार लौटाने व बयानबाजी करने के बदले। यदि यह वर्ग इस काम को कर ले गया तो ये लोग जनता से असली रिवार्ड पाएंगे, जो कोई सरकार व संस्था नहीं दे सकती है।

Tuesday 17 November 2015

धर्मनिरपेक्षता का मजाक बनाना रहा बिहार चुनाव परिणाम

    लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में काबिज होने वाली भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सहारे कई प्रदेश कब्जाए पर अति उत्साह में दिल्ली के बाद बिहार में मिली जबर्दस्त शिकस्त ने केंद्र सरकार की विफलता को उजागर कर दिया। प्रधानमंत्री भी देशवासियों की उम्मीदों को दरकिनार कर विदेशी दौरे में व्यस्त रहें। सरकार महंगाई आैर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाय भावनात्मक से जुड़े मुद्दे उठाती रही आैर हिन्दुत्व में इतनी खो गई कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए मजाक बन रह गई।
   बात बिहार चुनाव की हो तो वह बिहार जहां से महात्मा गांधी से लेकर लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का बिगुल फूंका हो। जहां के गांधी मैदान ने कई समाजवादी नेता दिए हों। खुद नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक रैल की हो। वहां के चुनाव के बारे में देश की राजनीति की दिशा तय करने की बात कहना कहीं से गलत नहीं थी। जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस की 40 सीटों को अपनी ही झोली में आने की बात कर रहे हों, जब वह समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता को हल्के में ले रहे हों। ऐसे में ये परिणाम कहीं से आश्चर्यजनक नहीं लग रहे है। बिहार चुनाव के बारे में कहा जा रहा है कि आरएसएस सर संचालक मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान ने भाजपा की लूटिया डुबोई।
  आरक्षण हटने का डर दिखाकर लालू प्रसाद व नीतीश कुमार ने अति दलित व पिछड़ों को अपने पक्ष में लामबंद कर लिया। दादरी में हुए गो-मांस को लेकर हुई एक वृद्ध की हत्या के बाद नीतीश कुमार व लालू प्रसाद धर्मनिरपेक्ष माहौल बनाने में कामयाब रहे। ये सब बातें तो है ही साथ ही भाजपा देश में जो हिन्दुत्व का माहौल बना रही थी उसे लोगों ने नकारते हुए धर्मनिरपेक्षता में आस्था जताई है। दरअसल जनता सामाजिक संतुलन चाहती है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के भाजपा के हारने के बाद पाकिस्तान में जश्न मनाने के बयान ने भी लोगों को सोचने को मजबूर किया।
    मोदी यहां पर गलत रहे कि भाजपा के कई नेता उजूल-फिजूल बयान देते रहते हैं पर वह कुछ नहीं बोले। असहिष्णुता को लेकर सरकार के खिलाफ लेखक-साहित्याकार लामबंद हो गए। अपने अवार्ड लौटाने लगे पर प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे। उल्टे उनके मंत्री गैरजिम्ेमदोराना बयानबाजी करने लगे। यदि चुनाव प्रचार की बात की जाए तो इन्हीं नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में पटना गांधी मैदान में हो रही रैली में बम विस्फोट के बाद कहा था कि हिन्दू-मुस्लिम को एक-दूसरे से लड़ने के बजाय गरीबी से लड़ना चाहिए। जब भाजपा नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम को लेकर बयानबाजी की तो नरेंद्र मोदी चुप्पी साधे बैठे रहे। दादरी में गो मांस को लेकर हुए वृद्ध की हत्या पर मोदी ने यह मामला राज्य सरकार का है कहकर पल्ला झाड़ लिया। यह नरेंद्र मोदी जनता की जवाबदेही से बचना ही था। जब देश महंगाई व भ्रष्टाचार से जूझ रहा हो आैर सरकार भावनात्मक मुद्दों तक ही सिमट रह गई है।
   आज के दौर में भले ही समाजवादियों पर जातिवाद-परिवारवाद व अवसरवाद का आरोप लग रहा हो पर यह जमीनी हकीकत है कि देश आज भी समाजवाद के सहारे ही चल रहा है। समाजवाद किसी विशेष नेता के बजाय समाज में व्याप्त है। नरेंद्र मोदी विदेश में भी जाकर धर्मनिरपेक्षता का मजाक बनाने से नहीं माने। वह एक विशेष दल पर निशाना साधते हुए धर्मनिरपेक्षता को टारगेट बनाते रहे। सर्वविदित है कि देश की बुनियाद धर्मनिरपेक्ष है। इस ढांचे को यह हिलाने का प्रयास किया गया तो हलचल होना स्वाभाविक है। मोदी के अब तक के कार्यकाल में ऐसा कहीं से नहीं लगा तो उन्हें गरीब आदमी की फिक्र है। चाहे मोदी विदेश में घूम रहे हों या फिर देश में बैठकें कर रहे हों। अब तक के कार्यकाल में उन्होंने कोई बैठक किसान व मजदूरों के साथ नहीं की। इसमें दो राय नहीं कि नीतीश कुमार ने बिहार में काम किया है।