Saturday 29 May 2021

देश को चरण सिंह जैसे किसान नेता की जरुरत

(29 मई पुण्यतिथि जयंती पर विशेष )                      


आज की तारीख में जिस तरह से मोदी सरकार ने पूंजीपतियों को खेती कब्जाने के लिए किसान ही नहीं बल्कि पूरी जनता की बर्बादी के लिए नये किसान कानून बनाये हैं। जिस तरह से छह महीने से किसान देश की राजधानी के चारों ओर डेरा जमाये बैठे हैं पर मोदी सरकार उनकी मांग को अनदेखी कर रही है। उल्टे उन्हें ही गलत साबित कराने के लिए गोदी मीडिया को लगा दिया है। जिस तरह से कृषि प्रधान देश में किसानों को नक्सली, आतंकवादी, डकैत, देशद्रोही बताया जा रहा है। ऐसे में चौधरी चरण सिंह जैसे जमीनी किसान नेता की जरुरत महसूस की जा रही है। वैसे तो किसानों के नाम पर कई नेताओं ने राजनीति की है और कर भी रहे हैं पर यदि किसानों के लिए यदि किसी ने सच्चे मन से किया है तो वह चौधरी चरण सिंह ही थे। चरण सिंह किसानों के नेता के साथ ही खांटी समाजवादी थे। 
समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को जाता हो पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर लम्बे समय तक काबिज रहने वाली समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए, उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि हरियाणा और बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक पाठ पढ़ाया। चरण सिंह का किसानों के पार्टी समर्पण ही था कि समाजवादी नेताओं ने किसानों के लिए कुछ न कुछ जरूर किया। 
      आज भले ही उनके शिष्यों पर परिवाद और पूंजीवाद के आरोप लग रहे हों पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद और परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हां अजित सिंह को विदेश से बुलाकर पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन पर पुत्रमोह का आरोप जरूर लगा। तबके कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के पास भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। यह उनकी ईमानदारी का प्रमाण है कि मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन और मकान नहीं था।
    चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। चरण सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह मूर्ति पूजा, पाखंड और आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई और न ही मूर्ति पूजा की। चौधरी चरण सिंह की नस-नस में सादगी और सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया।शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चरण सिंह ने कहा था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे, चाहे कोई भी लीडर आ जाये, चाहे
कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ, वह देश तरक्की नहीं कर सकता।
वैसे तो चौधरी चरण सिंह छात्र जीवन से ही विभिन्न  सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे थे पर उनकी राजनीतिक पहचान 1951 में उस समय बनी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग संभाला।
    चरण सिंह स्वभाव से ही किसान थे। यह उनका किसानों के प्रति लगाव ही था कि उनके हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। उस समय तक वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे। उन्होंने किसान नेता की हैशियत से उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। किसानों में सम्मान होने के कारण चरण सिंह को किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हे भाषण देने में महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुट जाती थी। यह उनकी भाषा शैली ही थी कि लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। 1969 में कांग्रेस का विघटन हुआ तो चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडिकेट के प्रति रही। वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बने पर बहुत समय तक इस पद पर न रह सके।
    कांग्रेस विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा था। केंद्रीय स्तर पर हुआ विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे। इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बने रहे। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले मे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था। इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश होने का कारण एक वजह था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार न था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी ने दो अक्टूबर 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और बढ़ गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना संभव न था। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी नेता माने जाते हैं। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
   ईमरजेंसी लगने के बाद 1977 में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी जीती तो आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण के सहयोग मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया। सरकार बनने के बाद से ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। कांग्रेस और सीपीआई ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। प्रधानमंत्री बनने में इंदिरा गांंधी का समर्थन लेना राजनीतिक पंडित चरण सिंह की पहली और आखिरी गलती मानते हैं।
    दरअसल इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने ही चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी थी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली और प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने 20 अगस्त 1979 तक लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने को  कहा इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले । इसे चरण सिंह का दुर्भाग्य कहें या फिर समय की नजाकत कि इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असंभव ही है। यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगा दी थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमें कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए, चौधरी साहब इसके लिए तैयार न थे। इसलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गई। वह जानते थे कि जो उन्होंने ईमानदार और सिद्धांतवादी नेता की छवि बना रखी। वह सदैव के लिए खंडित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
   प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की तरह जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण उन्हें जनता की सहानुभूति मिलेगी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी कि वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजाÓ के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
   चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बत करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धांतवादी आरै अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पद पहुंचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी थे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लें तो फिर उसे पूरा करके ही दम लेते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद गांधी टोपी को कई दिग्गज नेताओं ने त्याग दिया था पर चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यंत धारण किए रखा।
    बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'आबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेंड प्रोपराटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एंड सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्वपूर्ण कारण बना।

Tuesday 25 May 2021

किसानों की आर-पार की लड़ाई है 26 मई को फिर से मोदी सरकार को ललकारना



इसे मोदी सरकार की मनमानी ही तो कहा जाएगा कि कोरोना कहर के बीच नरेन्द्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के दिन 26 मई को किसान काला दिवस मना रहे हैं। किसानों ने दिल्ली की सीमा पर एकत्र होकर फिर से मोदी सरकार को ललकारने की रणनीति बनाई है। कोरोना संक्रमण को झेलते हुए किसानों के इस जमावड़े को मोदी सरकार केे खिलाफ आरपार की लड़ाई के रूप में देखा जाना चाहिए। मोदी सरकार और उसका मीडिया भले ही कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए किसानों के इस कदम को देश के लिए घातक बता रहे हों पर क्या मोदी सरकार ने इन परिस्थितियों में किसानों को इस कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं किया है। जब लोग कोरोना संक्रमण के डर से अपने घरों से नहीं निकल रहे हैं तो ऐसे में किसान अपनी जान हथेली पर रखकर सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं तो यह माना जाए कि अब किसान निर्णायक मूड में आ गये हैं।

दरअसल मोदी सरकार लगातार किसानों की भावनाओं से खेल रही है। किसान अपनी मांगों को लकर चिल्लाते रहे पर सरकार के कानों पर जूं तक नहीं  रेंगी। बैठकों के नाम पर किसान संगठनों को मात्र बेवकूफ ही बनाया गया। 26 जनवरी प्रकरण के बाद किसान संगठन लगातार मोदी सरकार को वार्ता के लिए लिख रहे हैं पर सरकार ने चुप्पी साध ली है। ऐसे में यही कहा जाएगा कि मोदी सरकार ने कोरोना कहर के बीच फिर से किसानों को फिर से जमावड़ा करने के लिए मजबूर कर दिया है।  वैसे भी छह महीने से कोरोना को झेलते हुए किसान आंदोलन तो कर ही रहे हैं।
जो लोग किसानों के इस रुख को गलत ठहरा रहे हैं, उन्होंने इस आंदोलन में 200 से अधिक किसानों शहादत पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। किसान सर्दी, गर्मी और बारिश झेलते हुए अपनी आवाज बुलंद करते रहे किसी को उनकी बेबसी नहीं दखाई दी। क्या नये कानून किसान ही नहीं जनविरोधी नहीं हैं ? क्या इस देश में खाद्यान्न की छूट आत्मघाती कदम नहीं है ? क्या कांट्रेक्ट फार्मिंग किसानों की जमीन को हथियाने का षड्यंत्र नहीं है ? क्या इस कानून में किसानों से अदालत में भी जाने का अधिकार नहीं छीन लिया गया है ? मोदी सरकार इस कानून में किसानों को व्यापारी बनाने की बात कह रही है। उसके अनुसार इससे फसल खरीद में कम्पटीशन बढ़ेगा। यदि ऐसा है तो फिर एमएसपी खरीद पर कानून क्यों नहीं बनाया जा रहा है ? जिसे कम्पटीशन करना एमएसपी से ऊपर करे। मतलब इन नये कानूनों के माध्यम से न केवल किसान बल्कि जनता जनता के हाथ से भी रोटी उतारने की पूरी तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है। किसानों की खेती अडानी के हवाले करने का षड्यंत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रचे और किसान बोले भी न। आंदोलन भी न करें। वाह ही मोदी सरकार और गोदी मीडिया। यह आंदोलन मोदी सरकार को सबक सिखाने वाला माना जा रहा है।
किसानों इस ललकार के माध्यम से किसान प्रधानमंत्री को अपनी गलती का अहसास करा रहे हैं। अपना अहंकार छोड़कर जमीन पर आने का संदेश दे रहे हैं। हालांकि देश में विपक्ष के नाकारा होने की वजह से ही मोदी देश में नंगा नाच कर पा रही है फिर भी आंदोलन को कांग्रेस और सपा समेत 12 विपक्षी दलों का समर्थन मिलना आंदोलन को मजबूती देना ही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह का पंजाब में कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए किसानों से आंदोलन को खत्म करने की अपील उनकी अपनी सत्ता की मजबूरी है।
मोदी सरकार को इस ललकार पर किसान मोर्चा का कहना है कि उनके इस आंदोलन को शक्ति प्रदर्शन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह शक्ति दिखाना नहीं बल्कि गहरे असंतोष की सांकेतिक अभिव्यक्ति है। किसान संगठनों ने प्रदर्शन के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने की भी बात कही है।
किसान संगठनों के अनुसार 26 मई को दिल्ली की सीमा ही नहीं बल्कि पूरे देश में नये किसान कानूनों के विरोध में किसान विरोध प्रदर्शन करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य और क्रांतिकारी किसान यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष डॉ. दर्शन पाल का कहना है कि किसान गांवों में, शहरों में और दिल्ली की सीमा पर अपना विरोध प्रदर्शन करेंगे। प्रदर्शनकारी काली पगडिय़ां पहनेंगे, काले दुपट्टे ओढेंगे और काले कपड़े पहनकर विरोध दर्शाएंगे। किसान अपने घरों की छतों पर, अपने टैक्टरों पर काले झंड़े लगाएंगे। जगह-जगह मोदी सरकार के पुतले जलाए जाएंगे। किसान अलग-अलग स्थानों पर धरना देंगे। उनका कहना है कि इसमें कोई शक नहीं कि ये एक आंदोलन होगा, लेकिन इसमें लोगों को एकत्रित करने या संख्या बल बढ़ाने पर जोर नहीं होगा। इसका उद्येश्य शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अपना विरोध दर्ज कराना होगा। कोरोना संक्रमण के मुद्दे पर किसानों का कहना है कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी दुर्दशा की जिम्मेदारी लेने के कोई भी तैयार नहीं है। किसानों को अपनी जायज मांगों के लिए महामारी के काल में अपनी जान खतरे में डालकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वैसे भी आंदोलन में किसानों का बड़ा चेहरा बनते जा रहे भाकियू के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कह दिया है कि यह मोदी सरकार और किसानों के बीच कुश्ती है। इसमें एक जीतेगा और एक हारेगा।
आज भले ही मोदी सरकार के बनाये गये इस माहौल में आंदोलन किसानों को आतंकवादी, नक्सली, देशद्रोही नकली किसान की संज्ञा दी जा रही है पर यह भी जमीनी हकीकत है कि कृषि प्रधान देश में किसान हमेशा ही ठगे गये हैं। देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को किसान तो बेचारा ठगा ही जाता रहा है।

Monday 24 May 2021

उप्र पंचायत चुनाव में शिक्षकों को धकेलने से भी ज्यादा घातक होगा सीबीएसई 12वीं की परीक्षा का फैसला!




मोदी सरकार आखिरकार चाहती क्या है ? क्या अभी इतनी मौतों पर उसका मन नहीं भरा है। देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर का कहर अभी थमा नहीं है। ब्लैक फंगस की एक महामारी और आ गई है। ब्लैक फंगस से ज्यादा खतरनाक व्हाइट फंगस और इससे भी खतरनाक येलो फंगस के मामले सामने आ रहे हैं। कोरोना की तीसरी लहर के खतरे अंदेशा अलग से। वह बच्चों की जान को खतरा। इन सबके बावजूद केंद्र सरकार सीबीएसई बोर्ड 12वीं की परीक्षाएं कराने का फैसला लेने जा रही है। बस परीक्षा की तिथियों की आधिकारिक घोषणा होना अभी बाकी रहने की बात सामने आ रही है।15 जुलाई से 25 अगस्त के बीच परीक्षा कराने की सूचनाएं आ रही हैं। यह सब तब करने का दम भरा जा रहा है जब देशभर के स्टूडेंट्स और पैरेंट्स परीक्षा होने का विरोध कर रहे हैं।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, केंद्रीय शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंकÓ, शिक्षा राज्य मंत्री, अन्य केंद्रीय मंत्रियों और विभिन्न राज्यों के शिक्षा मंत्रियों व शिक्षा सचिवों की 23 मई को जो उच्च स्तरीय बैठक हुई है, उसमें से तो यही बातें निकल कर सामने आई हैं। हालांकि औचारिकता के लिए सुझाव भी मांगे गये हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब परीक्षा देने वाले विद्यार्थी और दिलाने वाले अभिाभावक परीक्षा रद्द करने की मांग कर रहे हैं तो सुझाव किससे मांगे जा रहे हैं ? क्या केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को पता नहीं है कि जो बच्चे कोरोना संक्रमण और उससे होने वाली मौतों का तांदव देख रहे हैं उनकी मनोस्थिति क्या होगी ?  क्या इन बच्चों में ऐसे कितने बच्चे नहीं होंगे जिनके अपने कोरोना की चपेट में आकर दम तोड़ गये होंगे। या फिर दम तोडऩे की स्थिति में होंगे। क्या इन सब में से कितने बच्चे ऐसे नहीं होंगे जिनके अपने ब्लैक, व्हाइट या फिर येलो फंगस के शिकार हो गये होंगे। ऐसी परिस्थिति में केंद्र सरकार 12वीं के बच्चों को  खतरे में डालकर आखिर क्या दिखाना चाहती है ?
 क्या परीक्षा केंद्रों पर विद्यार्थियों को एक दूसरे मिलने और बात करने से रोका जा सकेगा ? क्या जब बच्चे परीक्षा देकर बाहर निकलेंगे तो एक दूसरे से बात नहीं करेंगे ? क्या इस माहौल में परीक्षा में शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक सुरक्षित रह पाएंगे ? यदि 12वीं सीबीएसई की परीक्षा होती है तो केंद्र का यह फैसला उत्तर प्रदेश शिक्षकों को पंचायत चुनाव में धकेलने से भी ज्यादा घातक साबित होगा। जब एक प्रदेश के एक दिन के चुनाव में 1629 शिक्षक कोरोना संक्रमण से दम तोड़ सकते हैं तो कल्पना कीजिए कि पूरे देश में लाखों विद्यार्थी परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा देंगे और हजारों शिक्षक दिलाएंगे तो बच्चों के साथ ही शिक्षकों में भी संक्रमण और मौत होने का कितना अंदेशा पैदा हो जाएगा ?
 वैसे भी जब दसवीं की परीक्षा रद्द कर दी गई हैं तो 12वीं की परीक्षा रद्द करने करने में दिक्कतें क्या आ रही हैं ? 12वीं के बच्चे 10वीं के बच्चों से मात्र दो साल बड़े ही तो होते हैं। रही उनके भविष्य की बात तो कोरोना कहर ने तो देश में न कितने बच्चों का भविष्य प्रभावित कर दिया है। क्या 12वीं के विद्यार्थियों के अंक10वीं के बच्चों की तरह नहीं दिये जा सकते हैं हैं ? केंद्र सरकार ऐसी व्यवस्था बनाए कि जिस आधार पर 12वीं के विद्यार्थियों को अंक मिले, उसी आधार पर विश्वविद्यालयों में दाखिलों के साथ विदेश में जाने वाले विद्यार्थियों की भी व्यवस्था हो। मात्र अंकों के लिए बच्चों को एक बड़े खतरे में झोंक देना कहां की अकलमंदी है ? केंद्र सरकार इन सब बातों पर भी विचार कर ले कि यदि बच्चों और शिक्षकों में संक्रमण फैल गया तो परीक्षा देने वाले कितने विद्यार्थियों  और कितने शिक्षकों की मौत होगी ? अभिभावकों पर खतरा अलग से। यदि परीक्षा देने वाले बच्चों की मौत होती है तो ये सब  केंद्र सरकार द्वारा की जाने वाली हत्याएं कहलाएंगी।
गजब खेल है मोदी सरकार का। किसान नये कानूनों का विरोध कर रहे हैं तो उन पर जबर्दस्ती लादे जा रहे हैं। अब 12वीं के विद्यार्थी और उनके अभिभावक परीक्षा रद्द करने की मांग कर रहे हैं बच्चों के भविष्य को आधार बनाकरउन पर परीक्षा लादी जा रही है।  रही बात परीक्षा कराने वाले राज्यों की। तो भाजपा शासित प्रदेश तो मोदी सरकार का विरोध कर ही नहीं सकते। इन सब राज्य के मुख्यमंत्रियों को तो कोरोना महामारी में हुई मौतों पर भी कोई शर्मिंदगी नहीं है।  हालांकि दिल्ली, महाराष्ट्र और प. बंगाल ने पहले बच्चों को वैक्सीन लगाने की मांग की है। वैसे केंद्र सरकार बच्चों के भविष्य की चिंता करने का ड्रामा तो ऐसे कर रही है जैसे कि गत 7 साल में उसने विद्यार्थियों के भविष्य को संवारने के लिए बहुत कुछ कर दिया हो। कितने बच्चों को रोजगार छीन गया, कितने चलने जाने और कितने रोजगार न मिलने से फांसी के फंदे पर लटक गये, कितने डिप्रेशन में हैं। 

Sunday 23 May 2021

जनता मूर्ख बन रही है और मोदी बना रहे हैं!

 


वैसे तो हर सरकार ने किसी न किसी रूप में जनता को ठगा ही है, पर मोदी सरकार ने ऐसा बेवकूफ बनाया कि कहीं न छोड़ा। उनको भी जिनके बलबूते पर सत्ता का मजा लूटते रहे। क्या रोजी-रोटी स्वयंभू हिन्दुओं की नहीं गई है ? क्या कोरोना कहर से ये लोग अछूते रह गये हैं ? क्या आज के हालात में इन लोगों के बच्चों का भी भविष्य और जान खतरे में नहीं है ? जमीनी हकीकत तो यह है कि हिन्दुत्व का राग अलापने वाली मोदी सरकार ने सबसे अधिक हिन्दुओं की भावनाओं से ही खिलवाड़ किया है।  ये जो नदियों में शव बह रहे हैं किन लोगों के हैं ? ये जो शवों के आसपास कपड़े दिखाई दे रहे है किस धर्म के लोगों के हैं ?

शुक्र है कि धर्म के नाम पर सत्ता हथियाने वाले लोगों को मुस्लिम समाज के खिलाफ कुछ नहीं मिल रहा है नहीं तो गत साल की तरह इस बार भी कोरोना कहर के लिए मुस्लिमों को ही जिम्मेदार ठहरा देते। विपदा या महामारी में बड़े स्तर पर जान और माल का नुकसान होता है पर क्या कोरोना महामारी में लोग मरे हैं ? क्या उन लोगों की हत्या नहीं हुई है। कौन लोग हैं इन हत्याओं के जिम्मेदार ? क्या आक्सीजन की कमी मरने वालों की स्वभाविक मौत हुई है ? क्या उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में जबर्दस्ती धकेले गये शिक्षकों की मौत हत्या नहीं है ? क्या इन शिक्षकों ने इलाहाबाद कोर्ट और योगी सरकार से कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए चुनाव को टालने की गुहार नहीं लगाई थी। हां संक्रमण रोकने का सरकारों के पास बस एक ही उपाय है, वह है लॉक डाउन।


यह देश की विडंबना ही है कि इतना झेलने के बावजूद देश का एक बड़ा तबका जमीनी हकीकत समझने को तैयार ही नहीं। उसे देश और समाज के साथ ही अपने बच्चों के भविष्य और जान से चिंता  भाजपा के सत्ता के स्वंभू हिन्दुत्व की है। इन लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि तीसरी लहर का डर बच्चों में इतना बैठ गया है कि वे डिस्प्रेशन में आ रहे हैं। ये लोग समझने को तैयार नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिलाधिकारियों की बैठक में जिन गांवों में कोरोना को हराने की बात कर रहे हैं, वहां की स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह से चरमराई हुई हैं। क्या इसे न्यायिक प्रक्रिया कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के आदेश को योगी सरकार सुप्रीम कोर्ट पलटवा दिया। क्या आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के कोरोना संक्रमण से मरे लोगों के बारे में ‘मुक्त हो जाने’ वाले बयान को व्यवहारिक कहा जा सकता है।


लोग कह रहे हैं कि मोदी सरकार क्या करे। राज्य सरकारों की भी जिम्मेदारी बनती है अरे भाई प्रधानमंत्री तो वाहवाही लूटने के लिए सब कुछ हथियाकर रखना चाहते हैं। इन्हीं महाशय ने सांसदों से गांवों को गोद लेने की अपील की थी। तो इन सांसदों द्वारा गोद लिये गये गांवों ही स्वास्थ्य सेवाएं देख लीजिए। चलो प्रधानमंत्री के साथ ही सांसदों दूसरे मंत्रियों की ही बात छोड़ दीजिए। खुद स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्धवर्धन ने जिस गांवों को गोद लिया था, उनका ही हाल देख लीजिए।


2014 में प्रधानमंत्री के आह्वान पर डॉ. हर्षवर्धन ने दिल्ली के धीरपुर और घोगा गांव को गोद लिया था। 2018 में उन्होंने सिंघोला गांव को भी गोद ले लिया। वह बात दूसरी है कि गांवों को गोद लेना मात्र औपचारिकता ही रह गया है। डॉ. हर्षवर्धन ने गोद लेने के बाद उधर पलटकर भी नहीं देखा। आज सिंघोला गांव की स्थिति यह है कि वहां 90 फीसद लोग संक्रमित हुए और घर पर ही ठीक हो गये। जो लोग अस्पताल में भर्ती हुए उन्होंने से अधिकतर दम तोड़ गये। जहां तक जांच की बात तो इस गांव में न कोई जांच हुई और न कोई हाल जानने के लिए आया। यह हाल स्वास्थ्य मंत्री द्वारा गोद लिये गये गांव का है। फिर लोग कहते सुने जा रहे हैं कि देश में मोदी का विकल्प नहीं है। मतलब 130 करोड़ के देश में एक बेहरुपिया के सामने लोगों को देश चलाने वाला ही नहीं दिखाई दे रहा है। मैं मानता हूं कि देश में विपक्ष नाकारा है। अधिकतर स्थापित नेता वंशवाद या परिवारवाद के बल पर बड़े नेता बने हुए हैं पर क्या देश को ऐसे ही बर्बाद होते देखते रहें। क्या लोगों को ऐसे ही मरते देखते रहें। क्या ऐसे ही बच्चों का भविष्य बर्बाद होते देखते रहें। क्या ऐसे ही आने वाली पीढ़ी की बर्बादी को देखकर भी अनदेखा कर दें।


हमारे देश में एक कहावत प्रचलित है कि बेवकूफ बनाना वाला चाहिए बनने के लिए तो लोग तैयार बैठे हैं। देश के लोगों की इस कमजोरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बखूबी पहचाना है। वह भलीभांति जानते हैं कि देश के लोगों को सपने दिखाते जाओ और उन पर राज करते जाओ। प्रधानमंत्री को संक्रमण में आई कमी तो दिखाई दे रही है पर बढ़ती मौतों की संख्या नहीं दिखाई दे रही है। देश में कोरोना महामारी खत्म नहीं हुई कि ब्लैक फंगस महामारी आ गई पर प्रधानमंत्री को अब हालात सुधरते दिखाई दे रहे हैं। उनके द्वारा बनाये गये माहौल में उनके प्रवक्ता के रूप में स्थापित टीवी चैनल भी भरपूर साथ दे रहे है। मतलब लोगों को बरगलाकर जमीनी हकीकत से दूर ले जाओ। सुविधाओं कुछ मत दो बस बातों से ही उन्हें छका दो। जिनके घर में मौत हुई है, उन्हें मुक्ति का उपदेश देकर सकारात्मक सोचने के लिए कहो। मतलब किसी भी तरह से लोगों का बेवकूफ बनाते रहो।


वैसे भारतीय लोगों के बारे में उनकी यह धारणा एक तरह से ठीक भी है। नोटबंदी में कितने लोग परेशान हुए, सब भूल गये। जीएसटी की परेशानी को सब भूल गये। देश में प्रधानमंत्री कितने स्मार्ट सिटी बनवा रहे थे, कहां वे स्मार्ट सिटी ? सब भूल गये। कितने स्मार्ट विजेज बनवा जा रहे थे, सब भूल गये। भाजपा सांसदों ने कितने गांव गोद लिये और उनका कितना विकास किया, सब भूल गये।  2014 में इनता काला धन विदेश से लाने की बात कर रहे थे कि प्रत्येक आदमी के खाते में 15 लाख रुपये आ रहे थे, सब भूल गये। हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार दे रहे थे कि लोग सब भूल गये। नये किसान कानून लाकर किसानों ही नहीं बल्कि सभी लोगों के हाथ से रोटी छिनने की व्यवस्था प्रधानमंत्री ने कर दी है पर लोगों को जनता के लिए सर्दी, गर्मी और बारिश को झेलते हुए देश की राजधानी के चारों ओर लड़ाई लड़ रहे किसानों में भी आतंकवादी, नक्सली, देशद्रोही और नकली किसान नजर आ रहे हैं।


श्रम कानून में संशोधन कर नयी पीढ़ी को मानसिक रूप से बीमार बनाने की पटकथा प्रधानमंत्री लिख चुके हैं पर लोगों को अपने बच्चों का भविष्य और स्वास्थ्य देखने के बजाय मोदी में करिश्मा दिखाई दे रहा है। अब जब कोरोना की दूसरी लहर में डॉक्टर आक्सीजन की कमी से लाखों संक्रमित लोग दम तोड़ गये। लोग रेमडेसिविर इंजेक्शन और आक्सीजन के लिए दर-दर की ठोकरें खाते रहे। मोदी सरकार वैक्सीन लगाने की बात तो करती रही पर वैक्सीन बनाने की कंपनियों को पैसे देने के नाम पर ठेंगा दिखा दिया। अब जब वैक्सीन की किल्लत हो गई तो दूसरी दोज की मियाद बढ़ा दी गई। एक-दो महीने में शायद वैक्सीन लगवाने की जरूरत ही महसूस न की जाए। यदि लोगों ने देश की वैक्सीन विदेश में भेजने के पोस्टर छपवा कर चस्पा दिये तो उनकी गिरफ्तारी कर ली गई। इन सबके बावजूद लोगों को लगता है कि देश में सब कुछ ठीक चल रहा है तो फिर मोदी सरकार और भाजपा शासित सरकारों को कुछ करने की जरूरत ही क्या है ?