Saturday 27 September 2014

देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा

                                        (जयंती पर विशेष)
     भले ही देश की सत्ता बदल चुकी हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है अौर देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। मेरा मानना है कि यह व्यवस्था बदल सकती है तो देशभक्ति से बदल सकती है। लोगों के मरते जा रहे जमीर को जगाकर कर बदल सकती है। जब देशभक्ति की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब पड़ोसियों के घर में भगत सिंह के पैदा होने की सोच से काम नहीं चलेगा। अब देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।
      भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने  जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।

     भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था।  लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित  कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
      सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Tuesday 16 September 2014

साम्प्रदायिक सोच पर भारी पड़ी समाजवादी विचारधारा

     आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें जीतने वाली भाजपा ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उप चुनाव में सपा उसे इस तरह से पटखनी देगी। एक लोकसभा और 11 विधान सभा सीटों में से सपा ने अपनी लोकसभा सीट के साथ ही आठ विधानसभा सीट जीतकर साबित कर दिया कि आज भी समाजवादी विचारधारा साम्प्रदायिक सोच पर भारी है।
    आम चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगो के बाद प्रदेश में हिन्दुत्व को भुनाते हुए भाजपा ने प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम चुनाव बना दिया था। यह भाजपा की उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित जीत ही थी कि तत्कालीन प्रभारी अमित शाह को भाजपा ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा इतनी उत्शाहित थी कि वह 2017 में सरकार बनाने की कवायद में जुट गई थी। भाजपा के दिग्गज अपने को मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल करने लगे थे। पहले मेनका गांधी ने अपने पुत्र वरुण गांधी को प्रस्तुत करना चाह पर उन्हें पार्टी ने राष्ट्रीय कार्यकारणी में ही नहीं लिया। उसके बाद योगी आदित्य नाथ ने सांप्रदायिक बयान जारी कर हिन्दुत्व वोटबैंक को ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया। भाजपाई अब आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे थे।
     भाजपा यह भूल गई थी कि जनता ने उसे विकास के मुद्दे पर वोट दिया था। महंगाई के मुद्दे पर वोट दिया था। लोग महंगाई से जूझते रहे, गन्ना किसान बकाया भुगतान के लिए आंदोलन करते रहे। आर्थिक तंगी के चलते परेशानी से लड़ते रहे पर भाजपाई धार्मिक भावनाओं पर भाषणबाजी करते रहे।
     उधर मुखयमंत्री अखिलेश यादव के किसी भी तरह माहौल न बिगड़ने देने के बयान ने सकारात्मक काम किया। भाजपाई बयानबाजी करते रहे और अखिलेश यादव काम के बलबूते लगातार जनता का विस्वास जीतने का प्रयास करते रहे, जिसका परिणाम यह हुआ कि फिर से जनता ने समाजवादी विचारधारा पर विस्वास किया। इस परिणाम से यह होगा कि जहां सपा कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार होगा वहीं भाजपा हवा में उड़ने के बजाय जमीन पर आकर जनता का विस्वास जितने का प्रयास करेगी।

Thursday 11 September 2014

देशभक्ति पैदा करने और जमीर जगाने की जरूरत

     किसी भी देश का भविष्य उसके युवाओं पर टिका होता है। इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्तर से युवाओं को आगे बढ़ाने के प्रयास बड़े स्तर से हो रहे हैं पर भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के चलते इसका फायदा युवाओं को नहीं हो पा रहा है। यही वजह है कि जहां युवाओं का सरकारों से विस्वास खत्म होता जा रहा है वहीं वे अपने पथ से भटक रहे हैं। देशभक्ति, संस्कारों, नैतिक शिक्षा के अभाव में बड़े स्तर पर युवाओं का नैतिक पतन हो रहा रहा है। इन सबके चलते बड़ी ताताद में युवा अपराध की कदम बड़ा रहे हैं। अब तक तो छेड़छाड़, रेप, लूटपाट, ठगी, धोखाधड़ी के मामले ही सुनने को मिल रहे थे। हैदराबाद के 15  युवाओं के ईराक में जाकर आईएस  में शामिल होने के लिए  घर से भागने की घटना ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। हालांकि ये लोग पश्चमी बंगाल से पकड़ लिए गए हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश के होनहार युवा इतने घातक कदम क्यों उठा रहे हैं।
     इसमें दो राय नहीं कि देश सत्ता बदल चुकी है पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्ज़ा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक कर रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती है। इसी व्यवस्था के चलते बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई चरम पर है। चारों ओर अपराधियों का राज है। जनता बेहाल है और देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। अवसरवाद की राजनीति करने में व्यस्त हैं। परिवारवाद की राजनीति करने में व्यस्त हैं। लूटपाट की राजनीति करने में व्यस्त हैं।
     कभी समाजसेवा के रूप में जाने जाने वाली राजनीति अब व्यापार बनकर रह गई है।  किसी भी तरह से पैसा कमाकर जनप्रतिनिधि बनना और जनता के पैसे पर ऐशोआराम की जिंदगी बिताना आज की राजनीति का मकसद रह गया है। पूंजीपतियों के पैसों से चुनाव लड़ना और उनके लिए ही काम करना राजनीतिक दलों की विचारधारा बनी हुई है। भले ही राजनेता चुनाव के समय किसान-मजदूर और आम आदमी के बात करते हों पर वह काम आम के लिए कम और विशेष के लिए ज्यादा करते हैं। किसी देश इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है की कृषि प्रधान देश का किसान खेती से मुंह मोड़ने लगा है। देश के युवा का सेना से मोहभंग होता जा रहा है। देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी गई कि देश को बनाने के लिए बनाए गए स्तंभ ही भ्रष्ट होते जा रहे हैं। मेरा मानना है कि देश में कितनी सरकारें बदल जाएं पर जब तक देश की भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था नहीं बदलगी तब तक देश का भला नहीं हो सकता है। यह व्यवस्था युवाओं में देशभक्ति पैदा कर और मर चुके लोगों के जमीर को जगाकर ही बदल सकती है। देश के नवनिर्माण के लिए युवाओं को मोह-माया छोड़कर सड़कों पर उतरना ही होगा।
     भले ही हम लोग भ्रष्ट व्यवस्था के लिए सरकारों को दोषी ठहरा देते हों पर इसके लिए कहीं कहीं दोषी समाज भी है। आदमी सामूहिक न सोचकर व्यक्तिगत सोचने लगा है। पैसा आदमी की जिंदगी पर इतना हावी हो गया है कि जैसे कि उसकी जिंदगी में रिश्ते-नाते, देश समाज की कोई अहमियत ही न रह गई हो। हकीकत तो यह है कि देश को फिर से एक और आजादी की लड़ाई की जरूरत है। पहले हमने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी अब हमें भ्रष्ट व्यवस्था के लड़ाई लड़ने की जरूरत है।