Sunday 11 October 2015

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

                               (12 अक्टूबर-पुण्यतिथि पर विशेष)

    जब हमारे देश में समाजवाद की बात आती है तो डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम सबसे ऊपर आता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाते हुए 70 के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादियों ने कांग्रेस शासन की अराजकता के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई सालों तक उत्तर प्रदेश पर राज किया आैर आज उनके पुत्र अखिलेश यादव भी लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। वह बात दूसरी है कि अब उन पर परिवारवाद, जातिवाद व अवसरवाद का आरोप लग रहा है।
   आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरुआती दौर के समाजवादी जितने खुद्दार थे, उतने ही ईमानदार भी। जहां तक डॉ. राममनोहर लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह 'भारत छोड़ो आंदोलन" के चलते आगरा जेल में बंद थे आैर इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने ब्रिाटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छूटने से इनकार कर दिया। देशभक्ति व ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे। समाजवाद व संघर्ष उनमें बचपन से ही शुरू हो गया था। जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया आैर उनकी दादी व नाइन ने उनका पालन-पोषण किया। गांधी जी के विराट व्यक्तित्व का असर लोहिया पर बचपन से ही पड़ गया था, उनके पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे आैर जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते। वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया ने गांधी जी से सीखना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वे 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में की। 1921 में फैजाबाद किसान आंदोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी पहली मुलाकात हुई। युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता (अब कोलकाता) में अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता भी की।
    लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि समाज ने 1930 जुलाई को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेजा। लोहिया पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए आैर फिर वहां से बर्लिन। यह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लोहिया की बगावत ही थी कि 23 मार्च, 1931 को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में बर्लिन में हो रही 'लीग ऑफ नेशंस" की बैठक में सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से उन्होंने इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्थितियों में देश आैर समाज के लिए संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह मद्रास पहुंचे तो रास्ते में उनका सामान जब्त कर लिया गया। लोहिया समुद्री जहाज से उतरकर 'हिन्दू" अखबार के दफ्तर पहुंचे आैर दो लेख लिखकर 25 रुपए कमाए आैर इनसे कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता  से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की। मालवीय जी ने उन्हें रामेश्वर दास बिड़ला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नौकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिड़ला जी का निजी सचिव बनने से इनकार कर दिया।
   17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में इकट्ठे हुए, जहां समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा तैयार की आैर पार्टी के उद्देश्यों में उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया, बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई (अब मुंबई) के 'रेडिमनी टेरेस" में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए आैर पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया। दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी आैर बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
   दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए भाषण के कारण 11 मई 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत उन्हंे दो साल की सजा हुई। लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि 'जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं मैं खामोश नहीं रह सकता। उनसे ज्यादा बहादुर आैर सरल आदमी मुझे मालूम नहीं।" चार दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया।
   आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरू में मतभेद पैदा हो गए थे आैर 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया। इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा।
   1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन" छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लिया गया आैर लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। 1945 में लोहिया को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतनी घबराई हुई थी कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया। बाद में 11 अप्रैल, 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
   15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आंदोलन की पहली सभा की। लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आंदोलन के शुरूआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो नवाखाली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत कई जगहों पर लोहिया, गांधी जी के साथ मिलकर सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। 9 अगस्त, 1947 से हिंसा रोकने का काम युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात को 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर बिगड़ गया। गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए आैर उनके प्रयास से 'शांति समिति" की स्थापना हुई आैर चार सितम्बर को गांधी जी ने अनशन तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में भी लोहिया का विशेष योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आंदोलन समाजवादी चला रहे थे। दो जनवरी 1948 को रीवा में 'हमें चुनाव चाहिए विभाजन रद्द करो" के नारे के साथ आंदोलन किया गया।
   1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरू के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत के सवाल को उठाया। 1963 को फरुखाबाद के लोकसभा उप चुनाव में लोहिया 58 हजार मतों से चुनाव जीते।  लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही। उस समय उन्होंने 18 करोड़ आबादी के चार आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया। 9 अगस्त 1965 को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
   30 सितम्बर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, जो आजकल डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम से जाना जाता है में पौरुष ग्रंथि के ऑपरेशन के लिए भर्ती कराया गया, जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया।