किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बुरी खबर
नहीं हो सकती कि उस देश के किसान अपने पेशे से पलायन करने लगें। जी हां, किसानों के
खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी। अब केन्द्रीय कृषि
मंत्रालय की स्थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यह बात मान ली है। इसे सरकार की उदासीनता
कहें या फिर बदलती परिस्थितियां कि
किसान अपनी उपज से लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं।
खेती
से किसानों का मोहभंग का हाल क्या है इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष
2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे जो 2011 में घट कर 11 करोड़ 87 लाख रह गए।
किसानों का खेती छोड़ने का कारण सरकारों का उपक्षित रवैया और योजनाओं में बढ़ती दलाली
तो है ही, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखे का
प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की खति तथा ॠणों का बढ़ता बोझ भी खेती से मोहभंग के बड़े
कारण हैं। वैसे तो किसान हर प्रदेश में खेती छोड़ रहे हैं पर गत दशक के दौरान महाराष्ट्र
में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार किसानों ने खेती छोड़ी है। राजस्थान में चार लाख 78
हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं।
उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्या कम हुई
है। सरकार रुपए की गिरती कीमत के चलते धान की फसल पर भले ही टकटकी लगाए बैठी हो पर
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार
घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080
तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की
कमी हो सकती है।
देश
में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है।
पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जम कर निचोड़ा।
अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद
होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें
किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने
के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या
तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्टर
का धब्बा हटने की रफ्तार में तेजी जरुर आ गई। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह
खुलासा हुआ है। 2008 में यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला
देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियों मिली
हैं। आंध्र के गई गरीब किसान किडनी बेच कर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए।
उत्तर प्रदेश का हाल यह है कि भले ही वह किसानों के ॠण माफ करने का दावा करती हो पर
नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में 225
लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ें देखें
तो एक बात साफ समझ में आती है। वह यह कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ॠण, ॠण माफी
योजनाएं किसानों के लिए बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा
रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी कर्जे के
बोझ तले दबता चला जा रहा है। देखने की बात यह है कि कर्ज माफी योजना में घोटाले का
मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। प्रधानमंत्री ने भी जांच कर
दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही। पर क्या हुआ?
अत्यन्त विचारणीय आलेख।
ReplyDeletekisano ko samarpit lekh. kafi aacha, gambhir aur vicaroteejak.
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