प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता संभालते ही उन पर तानाशाह होने के आरोप लगने लगे थे। अभी तक विपक्ष ही उन पर इस तरह के आरोप लगा रहा था अब भाजपा के नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी देश में इमरजेंसी लगने से इनकार नहीं कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समाजवाद की धार खोते जा रहे पुराने समाजवादी आैर विरासत के बल पर राजनीति कर रहे नए समाजवादी कैसे नरंेद्र की मोदी की सटीक निशानों का जवाब देंगे। ऐसे माहौल में देश को जमीनी युवा नेतृत्व मिल सकता है। जिस तरह से आम आदमी पार्टी से निकाले गए योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण आैर प्रो. आनंद कुमार समाजवाद के सहारे स्वराज संवाद यात्रा के बाद जय किसान अभियान शुरू कर रहे हैं। भले ही ये समाजवादी कोई बड़ा कारनामा न कर पाएं पर मोदी सरकार के खिलाफ होने जा रहे इस आंदोलन से कई युवा नेता उभर कर सामने आ सकते हैं। बात युवा नेतृत्व की जाए तो आजादी के समय महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आैर मो. अली जिन्ना के सामने डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, सरदार भगत सिंह आैर सुभाष चंद्र बोस जैसे कई युवा नेता उभर कर सामने आए थे। आजादी के बाद कांग्रेस राज के विरोध में लोहिया जी व लोक नायक जयप्रकाश ने देश को चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, चौधरी देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, शरद यादव, नीतीश कुमार जैसा युवा नेतृत्व दिया। ये सब नेता कांग्रेस का विरोध करते-करते नेता बने थे। लगभग सभी आंदोलन में संघी इनके साथ रहे। इमरजेंसी में भी।
देश की राजनीति देखिए कि जो संघी समाजवादियों का हाथ पकड़ राजनीति करते थे अब उन संघियों ने भी समाजवादियों को समेट कर रख दिया। यह स्थिति समाजवादियों की हाल ही में देश का प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने की है। स्थिति भी ऐसी कि जहां बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए, वहीं प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में पार्टी मजबूत करने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ रहे हैं। पश्चिमी बंगाल में तृमूकां, तमिलनाडु में एडीएमके आैर उड़ीसा में बीजद को छोड़ दें तो आम चुनाव में लगभग सभी दलों को समेट कर रख दिया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जिन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद आैर अवसरवाद हावी हो गया है वह कैसे नरेंद्र मोदी की सधी हुई चालों का मुकाबला करेंगे।
नरेंद्र मोदी ने देश में ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि कांग्रेस की संसदीय दल की नेता बनी सोनिया गांधी ने संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की बात कही है वहीं समाजवादी जनता परिवार के नाम पर एकजुट हो रहे हैं। नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को भी इस आंदोलन में साथ ले लिया है। भले ही बिहार विस चुनाव जनता परिवार के नाम पर न लड़ा जा रहा हो पर नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद का मिलना आने वाले समय में जनता परिवार के गठन को हवा दे रहा है। इन सबके बीच यह प्रश्न उठता है कि क्या अब जनता इन घिसे-पीटे चेहरों पर विश्वास करेगी। मेरा अपना मानना है कि देश में समाजवादी नरेंद्र मोदी परास्त करें या न करें पर देश में संघर्षशील नेता जरूर उभरकर सामने आएंगे।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। वह जनता को यह समझा गए कि आज के इन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद, वंशवाद आैर अवसरवाद हावी है। ऐसे में ये समाजवादी कैसे अपने को साबित करेंगे यह समझ से बाहर है।
सपा व बसपा की राजनीति देखिए कि दोनों ही दलों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रखा था आैर दोनों ही भ्रष्टाचार आैर महंगाई को लेकर लगातार यूपीए सरकार को कोस रहे थे। यही दो तरफा नीति इन दोनों दिग्गजों को ले डूबी। वाक-पटुता में माहिर नरेंद्र मोदी जनता को इन दोनों का दोहरा चेहरा दिखाने में कामयाब रहे। सपा उत्तर प्रदेश में सत्ताशीन होने के बावजूद जहां आम चुनाव में पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई वहीं विपक्ष में बैठी बसपा खाता भी नहीं खोल पाई। यही हाल चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे चौधरी अजित सिंह का भी रहा। बिहार में लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार का भी यही हाल रहा। जदयू जहां दो सीटों पर सिमट कर रह गया वहीं मोदी को रोकने का दावा कर रहे राजद को चार सीटें ही मिल पाई, जबकि दो सीटें पाए पप्पू यादव आैर उनकी पत्नी ने अलग पार्टी बना ली है। मोदी की लहर का असर किसी पर नहीं पड़ा तो उड़ीसा में बीजद पर तमिलनाडु में एडीएमके आैर पश्चिमी बंगाल में तृमूंका पर। फिर भी वजूद बनाए रखने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होना इनकी भी मजबूरी है।
भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले समाजवादियों को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूल खर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी- तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूह रचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। इन सबके बीच नेताजी कैसे अपने कार्यकर्ताओं में ऊजा का संचार करेंगे। देश का किसान-मजदूर, नौकरीपेशा आदमी महंगाई से जूझता रहा। तरह-तरह के घोटाले सामने आते रहे पर ये दल वोटबैंक की राजनीति में मशगूल रहे।
समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार हो जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। आज जब नए समाजवादी विरासत के बल पर सत्ता का सुख भोग रहे हैं ऐसे में ये लोग कैसे दमनात्मक नीति का विरोध करेंगे। वैसे भी नरेंद्र मोदी जैसा राजनीतिक खिलाड़ी उन्हें कोई बड़ा मुद्दा देना वाला नहीं।
यदि समाजवादी आंदोलन की बात करें तो हर आंदोलन के पीछे बड़ा मुद्दा रहा है। जेपी आंदोलन इमरजेंसी के खिलाफ हुआ था तो अस्सी के दशक में बोफोर्स मामले पर समाजवादी एकजुट हुए थे। बाफोर्स का मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे आैर 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था।
देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।
देश की राजनीति देखिए कि जो संघी समाजवादियों का हाथ पकड़ राजनीति करते थे अब उन संघियों ने भी समाजवादियों को समेट कर रख दिया। यह स्थिति समाजवादियों की हाल ही में देश का प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने की है। स्थिति भी ऐसी कि जहां बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए, वहीं प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में पार्टी मजबूत करने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ रहे हैं। पश्चिमी बंगाल में तृमूकां, तमिलनाडु में एडीएमके आैर उड़ीसा में बीजद को छोड़ दें तो आम चुनाव में लगभग सभी दलों को समेट कर रख दिया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जिन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद आैर अवसरवाद हावी हो गया है वह कैसे नरेंद्र मोदी की सधी हुई चालों का मुकाबला करेंगे।
नरेंद्र मोदी ने देश में ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि कांग्रेस की संसदीय दल की नेता बनी सोनिया गांधी ने संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की बात कही है वहीं समाजवादी जनता परिवार के नाम पर एकजुट हो रहे हैं। नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को भी इस आंदोलन में साथ ले लिया है। भले ही बिहार विस चुनाव जनता परिवार के नाम पर न लड़ा जा रहा हो पर नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद का मिलना आने वाले समय में जनता परिवार के गठन को हवा दे रहा है। इन सबके बीच यह प्रश्न उठता है कि क्या अब जनता इन घिसे-पीटे चेहरों पर विश्वास करेगी। मेरा अपना मानना है कि देश में समाजवादी नरेंद्र मोदी परास्त करें या न करें पर देश में संघर्षशील नेता जरूर उभरकर सामने आएंगे।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। वह जनता को यह समझा गए कि आज के इन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद, वंशवाद आैर अवसरवाद हावी है। ऐसे में ये समाजवादी कैसे अपने को साबित करेंगे यह समझ से बाहर है।
सपा व बसपा की राजनीति देखिए कि दोनों ही दलों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रखा था आैर दोनों ही भ्रष्टाचार आैर महंगाई को लेकर लगातार यूपीए सरकार को कोस रहे थे। यही दो तरफा नीति इन दोनों दिग्गजों को ले डूबी। वाक-पटुता में माहिर नरेंद्र मोदी जनता को इन दोनों का दोहरा चेहरा दिखाने में कामयाब रहे। सपा उत्तर प्रदेश में सत्ताशीन होने के बावजूद जहां आम चुनाव में पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई वहीं विपक्ष में बैठी बसपा खाता भी नहीं खोल पाई। यही हाल चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे चौधरी अजित सिंह का भी रहा। बिहार में लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार का भी यही हाल रहा। जदयू जहां दो सीटों पर सिमट कर रह गया वहीं मोदी को रोकने का दावा कर रहे राजद को चार सीटें ही मिल पाई, जबकि दो सीटें पाए पप्पू यादव आैर उनकी पत्नी ने अलग पार्टी बना ली है। मोदी की लहर का असर किसी पर नहीं पड़ा तो उड़ीसा में बीजद पर तमिलनाडु में एडीएमके आैर पश्चिमी बंगाल में तृमूंका पर। फिर भी वजूद बनाए रखने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होना इनकी भी मजबूरी है।
भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले समाजवादियों को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूल खर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी- तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूह रचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। इन सबके बीच नेताजी कैसे अपने कार्यकर्ताओं में ऊजा का संचार करेंगे। देश का किसान-मजदूर, नौकरीपेशा आदमी महंगाई से जूझता रहा। तरह-तरह के घोटाले सामने आते रहे पर ये दल वोटबैंक की राजनीति में मशगूल रहे।
समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार हो जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। आज जब नए समाजवादी विरासत के बल पर सत्ता का सुख भोग रहे हैं ऐसे में ये लोग कैसे दमनात्मक नीति का विरोध करेंगे। वैसे भी नरेंद्र मोदी जैसा राजनीतिक खिलाड़ी उन्हें कोई बड़ा मुद्दा देना वाला नहीं।
यदि समाजवादी आंदोलन की बात करें तो हर आंदोलन के पीछे बड़ा मुद्दा रहा है। जेपी आंदोलन इमरजेंसी के खिलाफ हुआ था तो अस्सी के दशक में बोफोर्स मामले पर समाजवादी एकजुट हुए थे। बाफोर्स का मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे आैर 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था।
देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।
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