Tuesday 5 May 2015

योगेंद्र 'स्वराज संवाद" से कैसे जगाएंगे आप से टूटा भरोसा ?

     आम आदमी पार्टी से निष्कासित नेता योगेंद्र यादव 'स्वराज संवाद" के लिए देश  में निकल चुके हैं। प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा के अलावा आप के असंतुष्ट नेता इस यात्रा में उन्हें सहयोग कर रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि अन्ना आंदोलन से निकली आप अपने रास्ते से भटक गई है। ये लोग उन मुद्दों को उठाएंगे जिसके लिए आम आदमी पार्टी बनी थी। आप की तर्ज पर अपना एकाउंट नंबर खोलना उनके इरादे जाहिर कर रहा है। इस आंदोलन में आप से जुड़े कई बड़े नेता भी जुड़ने जा रहे हैं। योगेंद्र यादव की अगुआई में जगह-जगह कार्यक्रम हो रहे हैं। गुड़गांव के बाद बेंगलुरु में हुए कार्यक्रम से तो यही लगा कि यह गुट आप में बड़े स्तर पर सेंध लगा रहा है। महाराष्ट्र में 376 कार्यकर्ताओं आप को छोड़कर योगेंद्र गुट में आस्था जताई है। इसमें दो राय नहीं कि इस गुट ने आप को स्थायित्व देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रशांत भूषण कानून के मामले में अरविंद केजरीवाल की ढाल तो बने ही रहे साथ ही उन्होंने देश व विदेश से पार्टी के लिए चंदे की व्यवस्था भी कराई। खुद उन्होंने पार्टी को खड़ा करने के लिए एक करोड़ रुपए दिए थे। उनका परिवार इस पार्टी के लिए कितना समर्पित होकर काम कर रहा था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश से उनकी बहन भी पार्टी के लिए चंदा जुटाने में आप की मदद कर रही थी। योगेंद्र यादव आैर प्रो. आनंद कुमार ने वैचारिक रूप से पार्टी को मजबूत किया। पार्टी का संविधान खुद योगेंद्र यादव ने लिखा। देश में वैकल्पिक राजनीति देना अपने आप में आने वाले समय में पार्टी बनने की ओर इशारा कर रहा है।
   योगेंद्र गुट स्वराज संवाद यात्रा पर निकल तो गए हैं पर उन्हें इस बात भी मंथन करना होगा कि अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी बनाने पर अरविंद केजरीवाल ने भी स्वराज की बात कही थी। उन्होंने भी देश को वैकल्पिक राजनीति देने का वादा जनता से किया था। उन्होंने भी आम आदमी को सुनहरे सपने दिखाए थे। इन्हीं मुद्दे पर उन्होंने दिल्ली की सत्ता कब्जाई। बात पार्टी के इन दो गुटों में बंटने की बात की जाए तो कि यह समझना होगा कि योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण पर अरविंद केजरीवाल गुट गद्दारी का आरोप लगा रहे हैं तो योगेंद्र यादव आप को अपने रास्ते से भटकना। इन सब आरोप-प्रत्यारोप के बीच ही ये लोग पार्टी से निकाले गए। वैसे योगेंद्र आैर प्रशांत भूषण गुट के आप से अलग होने के बाद आप में दिक्कतें बढ़नी शुरू  हो गई हैं।
   एक ओर जहां भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ जंतर-मंतर पर हुई रैली में किसान की आत्महत्या मामले में कुमार विश्वास, मनीष सिसोदिया घिरते दिख रहे हैं वहीं आप की एक महिला कार्यकर्ता ने कुमार विश्वास को उसके साथ अवैध संबंधों को लेकर चल रही चर्चा में अपने परिवार के उजड़ने की बात कही है। मामला महिला आयोग तक पहुंच गया है। इसमें दो राय नहीं कि देश को एक वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है। जनता परिवार में शामिल लगभग सभी दलों पर वंशवाद, परिवारवाद की दल में धंस चुके होने के आरोप लग रहे हैं। ये लोग भले ही अपने को लोहिया परिवार का बता रहे हों पर यह सर्वविदित है कि ये लोग लोहिया के समाजवाद से भटक चुके हैं। कांग्रेस से तंग आकर ही जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी, पर भाजपा भी जिस तरह से पूंजीपतियों के दबाव में किसान-मजदूर विरोधी सरकार साबित हो रही है उससे जनता का विश्वास इन सब पार्टियों से टूटता जा रहा है। आम आदमी पार्टी से लोगों को कुछ उम्मीद जगी थी पर सत्ता में आने के बाद जिस तरह से इन नेताओं का आचरण उभरकर सामने आया है, उससे लोगों को इन लोगों से भी निराशा होने लगी है। इन लोगों से तो लोग कुछ ज्यादा ही नाराज हैं, क्योंकि इस पार्टी ने लोगों को अच्छी राजनीति स्थापित करने का वादा किया था। ऐसे में योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण को लोगों को विश्वास में लेना मेढकों को तोलने के समान होगा। उनके सामने इस मामले में दो चुनौती हैं एक तो उन्हें आप को गलत साबित करना होगा तो दूसरी ओर अन्य दलों की खामियां गिनाते हुए अपने को सही साबित करना होगा।
     दरअसल यह लड़ाई योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के बीच की मानी जा रही है। अरविंद केजरीवाल ने पहले योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बनाया आैर उन्हें हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत भी किया गया। जब उन्होंने जमीन तैयार करने का प्रयास किया तो अरविंद केजरीवाल ने हरियाणा में चुनाव न लड़ने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं अरविंद केजरीवाल के विश्वसनीय माने जाने वाले नवीन जयहिंद ने योगेंद्र यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। केजरीवाल के अति विश्वसनीय माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र यादव पर केजरीवाल को कमजोर करने का आरोप लगाया। योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने की बात कर रहे थे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के बाद शपथ ग्रहण समारोह में ही अरविंद केजरीवाल ने अन्य राज्यों में चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया। यह स्वभाविक भी है क्योंकि उन्होंने अपने विश्वसनीय लोगों को दिल्ली में समायोजित कर लिया है।
      यह लड़ाई शुरू कहां से हुई यह भी देखना जरूरी है। प्रशांत भूषण का यह कहना कि अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के नाते संयोजक पद छोड़ देना चाहिए, केजरीवाल समर्थकों को बहुत खला था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब केजरीवाल मुख्यमंत्री बन ही गए तो उन्होंने खुद आगे आकर संयोजक पद क्यों नहीं छोड़ा था। हालांकि बाद में इन लोगों ने गोपाल राय को संयोजक बनाया पर वह सब नौटंकी करार दे दिया गया।
    आप की गतिविधयों पर नजर डाली जाए तो अब तक देखा गया है कि पार्टी में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के लिए गए निर्णय ही लागू होते रहे हैं। बताया जाता है कि इन तीनों लोगों ने ही 'परिवर्तन" नामक एक सामाजिक संगठन बनाया था। ये ही तीनों आप में सबसे मजबूत देखे गए। बात इस तिकड़ी की की जाए तो इन लोगों ने पार्टी में किसी चौथे नेता का कद बढ़ने ही नहीं दिया। भले ही आजकल कुमार विश्वास इन लोगों के खासमखास देखे जा रहे हैं पर याद करना होगा कि  उन्हें आम चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़ा कर अलग-थलग कर दिया गया था। साजिया इल्मी तिकड़ी के कहने पर नहीं चलीं तो उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। अब प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव ने अपनी आवाज उठाई तो उन्हंे भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अरविंद केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार मुकाबला प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव से है। एक कानून का विशेषज्ञ तो दूसरा विचार का। प्रशांत भूषण भले ही राजनीतिक संघर्ष न कर पाएं पर योगेंद्र राजनीतिक रूप से संघर्षशील व्यक्ति रहे हैं। वह न केवल राजनीतिक विश्लेषक बल्कि समाजवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। उनका यह बयान कि अब वह गांवों में जाकर किसानों के लिए संघर्ष करेंगे उन्हें बड़े नेता की ओर ले जा रहा है।
    जहां तक प्रशांत भूषण की बात है केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पार्टी को खड़ा करने में प्रशांत भूषण आैर शांति भूषण का बड़ा योगदान है। न केवल आर्थिक बल्कि कानूनी व मनोबल के मामले में भी इस परिवार ने पार्टी को बड़ा सहयोग दिया है। यह सहयोग यदि योगेंद्र यादव को मिल गया तो केजरीवाल के लिए बड़ी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पीएसी से बाहर करने के बाद सबसे ज्यादा विरोध उत्तर प्रदेश में देखा गया। दरअसल उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता 2017 के विधानसभा चुनाव में अपना भविष्य देख रहे हैं। यदि योगेंद्र यादव गुट ने पार्टी बनाकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ लिया तो उत्तर प्रदेश में एक बड़ा तबका योगेंद्र यादव के साथ आ सकता है। उससे पहले बिहार में भी चुनाव हैं। हरियाणा में तो बड़े स्तर पर कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के साथ हैं ही। अरविंद केजरीवाल दिल्ली तक सिमट कर रहना चाहते हैं तो योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं। ऐसे में यादव अन्य प्रदेशों में कार्यकर्ताओं की सहानुभूति बटोर सकते हैं। अरविंद केजरीवाल आैर योगेंद्र यादव में यह बड़ा अंतर देखा जा रहा है।
    बात अरविंद केजरीवाल की की जाए तो उन्हें भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के खिलाफ हुए आंदोलन का फायदा मिला। अरविंद केजरीवाल ने मूल्य पर आधारित आैर ईमानदारी व सच्चाई की राजनीति के नाम पर सभी दलों को निशाना बनाया। अन्ना आंदोलन के बल पर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। पहले 70 में से 28 सीटें तो दूसरी बार प्रधानमंत्री समेत केंद्र के कई मंत्रियों की शिरकत के बावजूद उनकी अगुआई में पार्टी ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। अब आप में भी अन्य दलों की तरह ही वाद-विवाद यह दर्शाता है कि केजरीवाल की संगठन पर पकड़ कमजोर होती जा रही है।
    अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार सरकार बनते ही पार्टी में ऐसी स्थिति क्यों आ गई कि दो दिग्गजों के खिलाफ इनता बड़ा निर्णय लेना पड़ा। याद कीजिए भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आप के आंदोलन के बल पर जब पहली बार  दिल्ली में आप की सरकार बनी तो देश का युवा नरेंद्र मोदी से ज्यादा प्रभावित अरविंद केजरीवाल से था, पर वोटबैंक की राजनीति कर अरविंद केजरीवाल ने यह सब माहौल खत्म कर दिया था। अब फिर से दिल्ली की जनता से उन पर विश्वास जताया है पर पार्टी में जो चल रहा है उससे केजरीवाल से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है।
   ऐसे में जब लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव के समाजवाद पर उंगली उठाई जा रही है तब योगेंद्र यादव का उभरना देश में नए समीकरण पैदा कर सकता है। यदि योगेंद्र यादव ने अपने को इस आंदेालन में पूरी तरह से सक्रिय कर लिया तो वह बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभर सकते हैं। यह आंदोलन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चलाया जा रहा है। किसानों से संबंधित होने की वजह से इस आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर छाने के पूरे आसार हैं।

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