Thursday 31 July 2014

परिजनों को ही संभालना होगा नई पीढ़ी को

     कानपुर में एक युवक के अपनी प्रेमिका के चक्कर में पड़कर अपनी पत्नी की हत्या करने के मामले ने लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। समाचार पत्रों और चैनलों पर दिखाए जा रहे मृतका के फोटो को देखकर ही लग रहा है कि वह लड़की कितनी सुशील और सुन्दर थी।  युवक की ये बुरी आदतें ही थी कि आज उसे ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया कि जहां उसका जीवन तो बर्बाद हो ही गया है। साथ ही उसके परिजन भी उसके कुकर्मों को जिंदगी भर झेलेंगे।
    इस तरह की घटनाओं को लेकर भले ही हम कानून व्यवस्था रहन-सहन, खुलापन सोशल साईट जैसे माध्यमों को जिम्मेदार ठहरा देते हों पर इस तरह के अपराधों के लिए परिजन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि बच्चों के कदम गलत रास्ते पर चल पड़े हों और परिजनों को किसी तरह की भनक न लगे।
       दरअसल आज की तारीख में परिजन बड़े स्तर पर बच्चों की हरकतों को या तो नजरंदाज कर देते हैं या फिर उन पर पर्दा डाल देते हैं। कितने परिजन तो बच्चों की बुरी आदतों को आधुनिकता से जोड़कर देखने लगते हैं और काफी बच्चे बड़े होते-होते इतने शातिर हो जाते हैं कि वे बड़े से बड़ा अपराध करने से नहीं चूकते।
   बात कानपुर मामले की ही नहीं है, बड़े स्तर पर युवा अपराध की ऐसी दलदल में धंसते जा रहे हैं कि यदि समय रहते इन्हें नहीं संभाला गया तो कहीं नई पीढ़ी देश के विकास में योगदान देने के बजाय देश को तबाह करने में लग जाए। वैसे भी युवाओं की गलत आदतों का फायदा उठाते हुए असामाजिक तत्व उन्हें आतंकवाद की ओर धकेल रहे हैं।
   काफी समय से समाज में ऐसा परिवर्तन आया है कि निजी स्वार्थों के चलते आदमी की जिंदगी में रिश्तों की अहमियत कम होती जा रही है। कहीं पर संपत्ति को लेकर तो कहीं पर अवैध संबंधों को लेकर और कहीं पर झूठी शान के चलते रिश्तों का खून किया जा रहा है। आज की तारीख में इस तरह से अपराध, कारणों और समाधान पर मंथन की जरूरत है। मेरा मानना है कि नैतिक शिक्षा, अच्छे संस्कार, अच्छी परवरिश, संयुक्त परिवार, परिजनों व बच्चों के बीच संवाद के अभाव में नई पीढ़ी अपने रास्ते से भटक रही है।

Thursday 24 July 2014

आखिर प्रेस के लिए क्या किया काटजू जी ने

    भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का देखिये कि वह हैं तो अध्यक्ष प्रेस परिषद के पर अधिकतर मामले उठाते हैं दूसरे क्षेत्रों के। कभी न्यायपालिका की व्यवस्था पर बोलते हैं तो कभी विधायिका की, कभी राजनीति पर और कभी आन्दोलनों पर। काटजू जी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के क्या हाल हैं। जो दूसरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हकों पर कैसे कुठाराघात हो रहा है। प्रेस में काम करने वाले लोगों का किस स्तर तक शोषण हो रहा है। किस तरह से प्रेस में न केवल कर्मचारियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है बल्कि  उनकी प्रतिभा का भी दमन हो रहा है।
भले ही प्रेस में काम करने वाले लोग खतरों से खेलते हुए रात में जागकर अपने काम को अंजाम देते हों पर यदि आज की तारीख में यदि कहीं पर कर्मचारियों की सबसे अधिक दुर्दशा है तो वह प्रेस ही है। क्या काटजू जी ने यह जानने की कोशिश है जिस परिषद के वह अध्यक्ष हैं वहां पर व्यवस्था का हाल है। क्या वास्तव में प्रेस अपने असली रूप में है या फिर कोई दूसरा रूप हो गया है।
   प्रेस का यह हाल है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अखबारों में मजीठिया वेजबोर्ड लागु नहीं किया जा रहा है। गिने-चुने अख़बारों को छोड़ दें तो बड़े स्तर पर अख़बारों ने कोर्ट का आदेश नहीं माना है। इस मामले पर काटजू जी ने अभी तक कुछ नहीं बोला है, जबकि कई वेबसाइट इस मामले को जोर-शोर से उठा रही हैं, जबकि होना यह चाहिए कि काटजू जी को प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के  हितों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

Sunday 20 July 2014

तो बंटवारे के बाद भी राज्य नहीं बनेगा पउप्र

पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड के रूप में चल रही उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद
अवध प्रदेश का हिस्सा होगा पश्चमी उत्तर प्रदेश
 
     भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए आजादी से ही आंदोलन होते आ रहे हों पर अब जो कानून व्यवस्था और विकास  का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद चल रही है, उसके अनुसार पश्चमी  उत्तर प्रदेश अलग प्रदेश नहीं बल्कि अवध प्रदेश का हिस्सा होगा।
    विस्वस्नीय सूत्रों की माने तो राजग सरकार प्रदेश को तीन भागों पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध प्रदेश के रूप में बांटने का प्रस्ताव तैयार कर रही है। गृह मंत्रालय ने राज्य पुनर्गठन आयोग को प्रदेश के बंटवारे का मसौदा तैयार करने को कह दिया है। किसी भी सत्र में यह प्रस्ताव लाया जा सकता है। वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी सपा को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियां प्रदेश के बंटवारे की पक्षधर रही हैं। वैसे भी 2012 में तत्कालीन मायावती सरकार ने प्रदेश को पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल में बांटने का प्रस्ताव
यूपीए सरकार को भेज दिया था।
    उत्तर प्रदेश बंटवारे में हमें यह भी देखना होगा कि अब भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अवध प्रदेश से जोड़ने की कवायद चल रही हो पर अधिकतर आंदोलन पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड गठन को लेकर नहीं बल्कि पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने  को लेकर हुए हैं। जहां पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की पैरवी करते थे वहीं उनके बेटे चौधरी अजित सिंह रालोद  के माध्यम से हरित प्रदेश के गठन की मांग करते रहे हैं। किसान संगठन भी समय-समय पर अलग प्रदेश के लिए प्रयासरत दिखाई देते रहे हैं। गाज़ियावाद में हाईकोर्ट की अलग बैंच स्थापित करने की मांग करना भी कहीं-कहीं अलग प्रदेश के गठन की कवायद ही रही है।
      देखने की बात यह है कि भले
ही केंद्र सरकारें वोटबैंक को देखते हुए राज्यों का पुनर्गठन करती हों पर राज्य के पुनर्गठन आयोग की स्थापना अंग्रेजी राज्यों के पुनर्गठन लिए भाषाई आधार पर की गई थी। स्वतंत्रता आंदोलन में यह बात शिददत के साथ उठी थी कि जनतंत्र में प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य बना रहे। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्षधर नहीं थे। उस समय हालात ऐसे बन गए थे कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किये जाने की मांग को लेकर 58  दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालु की मद्रास में हुई मौत और संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों  के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलगु भाषी राज्य बनाने के लिए मजबूर कर दिया।
    22 दिसंबर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्ष्ता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग के सदस्य जस्टिस फजल अली, हृदयनाथ कुंजरु और केएम पाणिक्कर थे। इस आयोग ने 30 सितम्बर 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। तब 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। बंबई राज्य  को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाये गए। 1966 में पंजाब  बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे  उठी और कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत  महसूस किया और धीरे-धीरे इसे मान भी लिया। 1972  में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य  अरुणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। गत दिनों यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना राज्य का गठन किया तो उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के गठन की मांग उठने लगी थी।