Friday 17 April 2015

आखिर कब रुकेगा किसान की आत्महत्या का सिलसिला

जिस खेत से दहकां को मय्यसर न हो रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो
     सर मोहम्मद इकबाल का यह शेर आज के हालात में पूरी तरह से ठीक बैठ रहा है। एक ओर सरकार तो दूसरी ओर प्रकृति की मार से तबाह हुए किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारें हैं कि उनकी बेबशी पर मलहम लगाने के बजाय उनकी गरीबी का मजाक बना रही हैं। किसानों की रोजी-रोटी की कीमत मुआवजे से लगाई जा रही है वह भी ठेंगा दिखाकर। ऐसा नहीं है कि यह हालात किसानों के सामने नए हों। आदिकाल से किसान दयनीय हालत में है। यही वजह रही होगी कि सर मोहम्मद इकबाल ने शायद दहकां यानी किसानों की दुर्दशा पर झुंझलाकर कहा था, जो खेत उनको रोटी न खिला सके उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम अर्थात् गेहूं की बाली को जला दो। इकबाल से दौर से लेकर अब तक हालात वैसे ही बने हुए हैं। देश में काश्त, किसान आैर कर्ज एक-दूसरे के पर्यावाची सरीखे हो गए हैं। इसमें एक शब्द आैर जुड़ता है, कत्ल। यानी ऋण के बोझ तले दबकर या प्रकृति की मार से किसानों द्वारा जान दे देने की मजबूरी। कत्ल शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है कि साल-दर-साल केंद्र सरकार किसानों को बदतर हालात से उबारने के लिए ऋण सीमा में इजाफा करती रहती है।
    नई-नई घोषणाएं करती है। मनरेगा जैसी स्कीमें लाती है। अपने राजनीतिक फायदे आैर चुनाव को ध्यान में रखकर कर्ज माफी की घोषणाएं भी करती रहती है, लेकिन किसान हैं कि दयनीय हालत से उबर ही नहीं पा रहे हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। मौसम पर निर्भर देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी खुशहाल जिंदगी नहीं जी पा रहा है। खेती से मन उचाट होने के बाद किसान या शहर की ओर पलायन कर रहे हैं या फिर जान देकर जीवन से मुक्ति पाने का रास्ता तलाश रहे हैं।   
     दरअसल किसान सदियों से छला जा रहा है। जिस किसान की बदौलत भारत सोने की चिडि़या कहलाता था, उसे पहले भारतीय राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों आैर महाजनों ने निचोड़ा। फिर मुगल आए तो उन्होंने चूसा। अंग्रेजों ने तमाम हदें पार कर जमकर किसानों का शोषण किया। भारत में भले ही किसान दयनीय हालत में रहे पर उनका पसीना लंदन में महारानी विक्टोरिया के ताज में हीरे बनकर चमक में इजाफा करता रहा। देश आजाद हुआ, लेकिन कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से किसानों को आजादी नहीं मिली। 1950 के बाद महाजनों से किसानों को मुक्त कराने के लिए कोऑपरेटिव सोसायटियां शुरू की गर्इं। साठ की दहाई तक इन सोसायटियों की संख्या दो लाख बारह हजार तक पहुंच गई। इनसे लघु आैर सीमांत किसानों को फायदा भी हुआ, पर 1969 में बैंक के राष्ट्रीयकरण आैर ग्रामीण बैंकों के अस्तित्व में आने के बाद इन सोसायटियों को बेकार मान लिया गया। यह वह दौर था, जब भ्रष्टाचार पूरी तरह सीना तानकर भारत के आर्थिक मंच पर नमुदार हो चुका था। करप्शन के घुन आैर नौकरशाहों के नाकारेपन ने कोऑपरेटिव सोसायटियों को दीवालियापन के दरवाजे पर ला खड़ा किया। उधर, बैंक भी विश्व बाजार से काफी कुछ सीख-समझ चुके थे। उन्हें हर सूरत में क्लाइंट चाहिए था। किसान भी उनके लिए क्लाइंट से ज्यादा नहीं थे। बैंकों ने उन्हें भी दुहना शुरू कर दिया। महाजनों आैर कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटियों के मकड़जाल से निकलकर किसान बैंकों के गड़बड़झाले में फंस गए। तब से तरह-तरह कथित धरती पुत्रों को लूटने का दौर जारी है।
    हालांकि सरकारें समय-समय पर किसानों के हित में योजनाएं लाती हैं पर उनका फायदा या तो बैंक उठा लेते हैं या फिर बिचौलिए। यूपीए सरकार की खामिया उजागर कर केंद्र में काबिज हुए मोदी सरकार भी अन्य सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है। बात 2008 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई कृषि ऋण माफी योजना की ही ले लीजिए। इस योजना खुलासा सरकारी लेखा परीक्षक यानी सीएजी गत दिनों ही किया था। सरकार के खर्च पर बारीक नजर रखने वाली इस एजेंसी ने किसानों को राहत देने के लिए लाई गई 52,000 करोड़ की ऋण माफी योजना में भारी गड़बड़ी की बात उजागर की थी। किसान ऋण माफी योजना में जो बात उजागर हुई थी उसमें योजना फायदा या तो बैंकों को हुआ, या फिर डिफाल्टर किसानों को,  ईमानदार किसान मात्र छला गया। गत दिनों कैग के किए गए खुलासे में जो बात सामने आई थी उसमें उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश आैर महाराष्ट्र के हिस्से में 57 फीसद कर्ज आया था। आंध्र प्रदेश के हिस्से में 11,000 करोड़ की रकम आई। करीब 77 लाख किसानों के बीच यह रकम बांटी गई थी, लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे किसानों को फायदा पहुंचाया गया जो योजना के पात्र थे ही नहीं। छोटे आैर गरीब किसानों को इसका लाभ नहीं मिला आैर गुरबत आैर कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पाए।
     आंध्र प्रदेश ग्रमाीण बैंक ने कई किसानों की कैटेगरी बदलकर बड़े किसानों को सीमांत बना दिया आैर उनका कर्ज माफ हो गया। यह केवल आंध्र प्रदेश में नहीं हुआ था, बल्कि देश के 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली थी। यही सब वजह रही थी कि आंध्र प्रदेश को ऋण माफी का बड़ा हिस्सा मिलने के बावजूद कई गरीब किसान कर्जा उतारने के लिए किडनी बेचने को मजबूर हो गए थे। देश की व्यवस्था दोखिए कि कैग की रिपोर्ट के बाद  काफी हो-हल्ला मचाया गया था। मामले की जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही गई थी। गत दिनों इस मामले में किसानों के साथ न्याय करने की बात भी सामने आई थी पर क्या हुआ ? 'ढाक के तीन पात"।
सरकारी उपेक्षा के साथ ही यह भी जमीनी हकीकत है कि खेती की भूमि तो बढ़ नहीं रही पर परिवार बढ़ते जा रहे हैं। जाहिर है कि किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है।
     बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए, सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो प्रदेश का 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से बुवाई वाली भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है, जो कुल भूमि का 69.5 फीसद बनता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग इस भूमि में खेती करते हैं।  सरकारी आंकड़ों को ही ले लीजिए। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। प्रदेश में हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीटयुक्त हो रही है। आज कल प्रदेश की सालाना आय का 31.9 फीसद खेती से आता है। जो फीसद 1971 में 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। जाहिर है कि किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है। सोचने का विषय यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं।
      यह किसानों की न निपटने वाली समस्या ही है कि कृषि प्रधान देश में किसान ही अपने पेशे से पलायन करने लगे हैं। जी हां किसानों के खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक तो मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी, अब केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया है। आज के हालात में किसानों के सामने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि वे उपज से लागत भी नहीं निकल पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में पेश पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कोढ़ में खाज का काम कर रही है। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि लगातार हो रहे भू-क्षरण के चलते देश का एक चौथाई से ज्यादा भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थल में तब्दील होता जा रहा  है। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख हो गई। प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ऋणों के बोझ के कारण भी बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ रहे हैं। गत दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है।     
     उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी कृषकों की संख्या कम है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार प्रतिशत की, 2050 तक सात प्रतिशत तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस प्रतिशत की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसा नहीं है कि किसानों के दर्द को न समझा गया हो। डॉ. राम मनोहर लोहिया आैर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अलावा तमाम जमीनी नेताओं की राजनीति की केंद्रीय धुरी किसान ही रहे। उन्होंने किसान समस्याओं को जोरदारी से उठाया। उनके बाद 60-70 के दशक तक किसान नेता चौधरी चरण सिंह किसान आैर सिर्फ किसान चिंता से जूझते रहे। उनका 'देश के विकास का रास्ता खेत-खलिहान से होकर जाता है" जुमला बेहद प्रसिद्ध आैर लोकप्रिय रहा। चौधरी साहब के बाद जाने कितने नेताओं ने यह लकीर पीटने की कोशिश की लेकिन डंका किसी का नहीं बजा क्योंकि किसान उनके लिए वोट था आैर इस वोट को पटाने का उनका गुणा-गणित किसान बिरादरी समय रहते समझ गई थी।   जाने कितनों ने चरण सिंह की इस छवि को ओढ़ने की कोशिश की लेकिन कलई खुल गई क्योंकि किसान उनकी केंद्रीय चेतना के दायरे से बाहर, हाशिए तक पर नहीं था। सरकारें भी समय-समय पर किसानों के कल्याण से जुड़ी योजनाएं लाती रही हैं। यह बात दूसरी है कि किसानों को इसका कोई खास लाभ नहीं मिल पाता। यह समय का ही तकाजा था कि बोफोर्स मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 समाजवादियों ने केंद्र में सरकार बनाई तो किसानों के 10,000 रुपए तक के कर्जे माफ किए गए। पर योजना का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर डिफाल्टर किसानों को।
     बात अपने को किसानों की पार्टी बताने वाली सपा की ही ले लीजिए जो सभी चुनावी वादे पूरे करना का दावा करती फिर रही है। उत्तर प्रदेश में सपा सरकार ने चुनावी घोषणा का हवाला देते हुए किसानों का  50,000 हजार रुपए तक का कर्जा माफ किया। इस योजना का लाभ किसानों को कम, डिफाल्टर किसानों व सरकार के अधीन भूमि विकास बैंक को ज्यादा हुआ। योजना के लाभ लेने चक्कर में कर्जा न चुकाने पर काफी संख्या में किसानों को चार फीसदी ब्याज की जगह 12 फीसदी ब्याज भरना पड़ा। दरअसल  समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में 50 हजार रुपए तक कर्ज माफ करने की बात कहने पर किसानों ने कर्जा जमा नहीं किया था। जब कर्जा माफ करने की घोषणा की गई तो मुख्यमंत्री ने योजना में 10 फीसद मूलधन जमा करने वालों के ही आने की बात कहकर किसानों को संकट में डाल दिया, जबकि अक्सर देखने में आता है कि किसान या तो कर्ज का ब्याज जमा करते हैं या फिर पूरा भुगतान। उत्तर प्रदेश में किसानों की हालत क्या है इसके अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे।
     किसानों की समस्याओं को लेकर लगभग सभी दल चिंतित होने का दावा करते हैं पर धरातल पर उनकी चिंता कितनी दिखाई देती है, इसका अंदाजा तो किसानों की दयनीय हालत देखकर ही लगाया जा सकता है। सबसे बुरा हाल तो गन्ना किसानों का है। किसान कर्जा लेकर गन्ना उपजाता है आैर मिल पर डाल आता है आैर जब भुगतान के बात आती है तो उसे आंदोलन करना पड़ता है। कई-कई सालों में जाकर भुगतान किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि समय से कर्जे का भुगतान न करने  पर सरकार किसान से चार की जगह 12 फीसद ब्याज वसूलती है पर किसानों के लंबित भुगतान पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता है। निजी चीनी मिलों के प्रबंधन के नखरे अलग।
      प्रश्न यह उठता है कि यदि सरकारें किसानों के हित की इतना ही ख्याल रख रही हैं तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? खाद्यान्न के रेट बढ़ रहे हैं तो आर्थिक स्थिति किसानों की सुधरनी चाहिए पर मोटे हो रहे हैं साहूकार व किसानों से संबंधित अधिकारी। यह प्रश्न आम आदमी के जहन में कौंधता रहता है कि किसान का बेटा खेती क्यों नहीं करना चाहता ? दूसरों के लिए अन्न उपजाना वाले किसान के नाम के आगे गरीब क्यों लग रहा है ?

Thursday 9 April 2015

जनता परिवार के एकजुट करने में कहीं खुद कमजोर न हो जाएं मुलायम

     भले ही मुलायम सिंह यादव जनता परिवार के मुखिया बनने जा रहे हों, भले ही पुराने समाजवादी एकजुट हो रहे हों, भले ही समाजवादी पार्टी इस दल में सबसे बड़ी पार्टी हो, भले ही इस परिवार में कई दल मिलने जा रहे हों, भले ही जनता परिवार मजबूत हो रहा है पर जो समीकरण उभर कर सामने आ रहे हैं उससे सपा में फूट पड़ने की आशंका बलवती हो गई है, जिसके चलते मुलायम सिंह खुद कमजोर हो सकते हैं। नवम्बर में बिहार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जहां पर सपा का कोई खास जनाधार नहीं है तो जाहिर है कि वह वहां पर चुनाव न के बराबर लड़ेगी। 2017 में उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनाव में राजद, जदयू भी टिकटों में भागीदारी मांगेंगी। इतना ही नहीं राज्यसभा आैर विधान परिषद में भी अपनी भागेदारी मांगेगी। इन सबके चलते मुलायम सिंह का उत्तर प्रदेश संगठन प्रभावित होगा, पदाधिकारी बदले जाएंगे। नए भी बनेंगे। जदयू, राजद के कार्यकर्ता भी समायोजित किया जाएंगे, जिन नेताओं के स्वार्थ सिद्ध नहीं होंगे वे ऐसे में अन्य दलों की ओर रुख कर सकते हैं।
     यह नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक कुशलता ही है कि उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत मुलायम सिंह यादव को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की बात कही। वे जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष बनाने के बाद उनका अपने कार्यकर्ताओं को संभालना उनकी मजबूरी हो जाएगी। पार्टी प्रभावित होती है तो उसका असर उन पर ही पड़ेगा। सबसे पहले बिहार में चुनाव है। बिहार में चुनाव होते ही राजद व जदयू का स्वार्थ सिद्ध हो जाएगा। इन चुनाव में मतदाताओं पर मनोविज्ञान रूप से दबाव बनेगा। वैसे बिहार में  राजद, जदयू, सपा के साथ कांग्रेस व वामपंथी भी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।
    मुलायम सिंह की अगुआई में जदयू, सपा, राजद, इनेलो, समेत कई संगठनों ने मिलकर जनता परिवार बना तो लिया पर दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद नरेंद्र मोदी से आज भी बड़ा वर्ग प्रभावित है। जनता परिवार के एकजुट करने के साथ ही इन समाजवादियों को अपनी कार्यप्रणाली पर मंथन की जरूरत है। इन लोगों के समाजवाद पर आजकल परिवारवाद, वंशवाद, पूंजीवाद, जातिवाद आैर धर्मवाद हावी होने का आरोप लग रहा है। चाहे लालू प्रसाद यादव रहें, नीतीश कुमार रहे हों, शरद यादव रहे हों, या फिर मुलायम सिंह। इन सबने दूसरे नंबर के जमीनी समाजवादी तैयार किए ही नहीं। हां इनके भाई-भतीजे, पुत्र, पुत्रियां, व बहू जरूर दूसरे नंबर के समाजवादियों के गिनती में आ रहे हैं। ऐसे मे प्रश्न यह उठता है कि बिना संघर्ष के राजनीति कर रहे ये लोग बड़ा आंदोलन कैसे कर करेंगे ?
    डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, आचार्य नरेंद्र देव जैसे प्रख्यात समाजवादियों के बनाए गए नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद में अब बड़े आंदोलन का दम नहीं आैर इनके परिजन इस माहौल में तैयार हुए नहीं तो मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए कौन आंदोलन करेगा ? ये वे समाजवादी हैं जो कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते-करते बड़े नेता बने, पर बाद में स्वार्थ या मजबूरी के चलते कांग्रेस से सट गए। 'नेताजी" का राजनीति तो कुछ समय से गजब तरह की रही है। वे गत यूपीए सरकार की नीतियों का विरोध भी करते रहे आैर समर्थन भी। यही हाल एनडीए सरकार में है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का जब सारा विपक्ष धरना-प्रदर्शन कर रहा है वहीं सपा कार्यकर्ता शांत हैं। लालू प्रसाद चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं।
    ये लोग भ्रष्टाचार, महंगाई आैर किसानों की समस्याओं पर केंद्र सरकार को घेरने की बात कर रहे हैं। ऐसे में जब बिहार में जदयू की आैर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार होने के बावजूद यहां पर भ्रष्टाचार, महंगाई पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा हो। किसानों की समस्याओं का कोई खास समाधान नहीं निकल पा रहा हो, तो ये लोग केंद्र सरकार को घेरकर कैसे जनता को विश्वास में लेंगे। सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अराजक सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए किए गए जेपी आंदोलन में लोक नायक जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, मोराजी देसाई, चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज  मौजूद थे। अस्सी के आंदोलन में बोफोर्स मुद्दे के साथ तत्कालीन रक्षा मंत्री वीपी सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी देवीलाल जैसे प्रख्यात समाजवादी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादियों को इतना भयभीत कर दिया है कि जहां
    बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को कभी उनका घोर विरोध करने वाले लालू प्रसाद को गले लगाना पड़ रहा है। यही वजह है कि उन्होंने लालू प्रसाद को अपना समधी भी बना लिया। यह परिवार मजबूत होगा या कांग्रेस यह तो समय ही बताएगा पर कांग्रेस की संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने भी संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने का ऐलान किया है।
     इस बार भी राजनीति की जननी रही बिहार से ही समाजवादियों के    आंदोलन की रूपरेखा तैयार हुई है। समाजवादी मोदी के खिलाफ जेपी आंदोलन की तरह समाजवादियों को एकजुट करने में लग गए हैं। नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा एचडी देवगौड़ा, हरियाणा में अभय चौटाला व दुष्यंत चौटाला भी साथ आ गए हैं। इन नेताओं को यह भी देखना होगा कि जेपी आंदोलन में संघी भी इनके साथ थे, जबकि इस आंदोलन कांग्रेस उनके साथ नहीं है।
    ऐसा नहीं  है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था, वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। ऐसे में ये समाजवादी अब कैसे जनता को विश्वास में लेंगे यह समझ से परे है।
भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले जनता परिवार के नेताओं को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव गत दिनों चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर किया करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूलखर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी-तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूहरचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। अब जब केंद्र में एनडीए की सरकार है तो स्वभाविक है कि वह भी ऐसा ही करेगी।
    समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इसकी शुरुआत डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1935 में लखनऊ में हुए कांग्रेस का अधिवेशन में नेहरू विरोध से कर दी थी। लोहिया ने 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया था आैर इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा था। देश के आजाद होने के बाद लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही थी। लोहिया ने कांग्रेस सरकार में संसद में आवाज उठाई थी कि 18 करोड़ आबादी 'चार आने" पर जिंदगी काटने पर मजबूर है आैर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने पर प्रतिदिन 25 हजार रुपए खर्च कर रहे हैं।
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि बाद में इंदिरा गांधी ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को आगे कर समाजवादियों में फूट डाल दी थी। जब-जब समाजवादी मजबूत हुए तब-तब कांग्रेस समाजवादियों में फूट डालती रही है।
    स्वभाविक है कि भाजपा भी समाजवादियों की अति महत्वाकांक्षा का फायदा उठाना चाहेगी। अस्सी के दशक में बोफोर्स मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे । 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था कि देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह अग्रणी जाति से थे तो बिहार में लालू प्रसाद आैर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव पिछड़ी जाति से मुख्यमंत्री बने थे। बिहार में लालू प्रसाद ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपने को खड़ा किया था, वह बात दूसरी है कि काफी समय से उनकी विचारधारा कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही थी। पिछली सरकार में वह रेल मंत्री थे। जदयू का वजूद बनाने वाले जार्ज फर्नांडीस व शरद यादव हमेशा कांग्रेस के खिलाफ ही झंडा थामे रहे। आज के समीकरण ठीक इसके उलट हैं। इस बार समाजवादी भाजपा के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं ।
हां, समाजवादियों का साथ संघियों ने कई बार दिया आैर बिहार में भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में संघियों का बड़ा हाथ रहा है। देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।

Saturday 4 April 2015

एक आैर पार्टी की ओर आप का बिखराव

     अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली में राजनीति शुरू की उससे लोगों में बदलाव की एक उम्मीद जगी थी। लोगों को लगने लगा था कि देश में एक नई तरह की राजनीति जन्म ले रही है। ऐसे में आम आदमी भी चुनाव लड़ सकता है। लोगों को लगने लगा था कि अब आम आदमी सुनवाई होने लगेगी। यही वजह थी कि अन्य दल भी कुछ अच्छा करने लगे थे। पर जिन खामियों को गिना-गिनाकर यह पार्टी अपने अस्तित्व में आई अब इस पार्टी में वे सब खामियां दिखाई देने लगी हैं, जिनके चलते आम आदमी राजनीति से घृणा करने लगा था। इसे सत्ता का नशा कहा जाए या पद के लिए आपाधापी या फिर वर्चस्व की लड़ाई कि अब इस पार्टी में दो खेमे बंट गए हैं।
     एक  ओर अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, आशुतोष व खेतान का तो दूसरा योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण व प्रो. आनंद कुमार का। प्रख्यात समाजसेवी मेधा पाटेकर का पार्टी से इस्तीफा देना कहीं न कहीं योगेंद्र एंड पार्टी को समर्थन देना माना जा रहा है। जिस तरह से योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण ने अपने समर्थकों की बैठक बुलाकर आप का रास्ते से भटकना आैर आप को कोर्ट में घसीटने की बात कही है उससे आप से एक आैर पार्टी निकलने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी 14 अप्रैल को इन लोगों ने अपने समर्थकों की बैठक बुलाई है जिसमें सभी विकल्पों पर चर्चा होगी।
     गत दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में दिल्ली में किसान आंदोलन तथा अन्ना हजारे की होने वाली पदयात्रा तथा कई प्रदेशों में महापंचायत देश को बड़े आंदोलन की ओर ले जा रही है। यही वजह है कि योगेंद्र यादव किसान आंदोलन को लीड करने के लिए उत्साहित देखे जा रहे हैं। इस आंदोलन में पहले से ही मेधा पाटेकर, पीवी राजगोपाल व कई किसान नेता शामिल हैं। वैसे भी 24 फरवरी को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए किसान आंदोलन में अन्ना हजारे के सहयोगी व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मंच पर चढ़ने का जहां विरोध किया गया था वहीं कई नेता मंच से गायब हो गए थे। देश में अन्ना हजारे एक ऐसा चेहरा बन गया है कि जहां खड़े हो जाएं अपने आप में एक आंदोलन शुरू हो जाता है।
आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती रही है। जो भी नेता उभरा उसे दबा दिया गया या फिर अन्य संगठन के चेहरे इस पार्टी में लिए ही नहीं गए। भले ही आजकल कुमार विश्वास केजरीवाल के सुर में सुर मिला रहे हों पर पर गत लोकसभा चुनाव में वह इलाहाबाद से चुनाव लड़े तो उन्हें चुनावी समर में अकेला छोड़ दिया गया। अपनी बात रखने पर साजिया इल्मी को पार्टी छोड़नी पड़ी। आम चुनाव का टिकट मांगने पर विनोद कुमार बिन्नी की बलि ले ली गई। वह बात दूसरी है कि खुद अरविंद केजरीवाल वाराणसी से आम चुनाव लड़े। योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बना गया पर चुनाव लड़ने का नंबर आया तो वहां पर चुनाव नहीं लड़ा गया। राजनीतिक हल्के में यह माना गया कि योगेंद्र यादव के कद को रोकने के लिए यह किया गया।
      योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्षधर थे तो केजरीवाल ने शपथ ग्रहण समारोह में ही दिल्ली में ही रहकर काम करने की घोषणा कर दी। इसी बीच में मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल के संयोजक पद छोड़ने की बात शुरू हो गई। क्योंकि दिल्ली में अब आम आदमी पार्टी की सरकार है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ता निजी स्वार्थ के चलते केजरीवाल की ओर लपकेगें ही। वैसे भी दो नेता दिल्ली से राज्यसभा में जाने वाले हैं। इसलिए कुमार विश्वास, संजय सिंह, आशुतोष व खेतान जमकर केजरीवाल के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं। यह भी हो सकती है कि इन चारों में से दो को राज्यसभा मिलने के बाद दो प्रशांत भूषण खेमे में चले जाएं। जो कार्यकर्ता अपमान का घूंट पीकर रह रहे थे, वे अब प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के खेमे में आ गए हैं।
       इसमें दो राय नहीं कि अब पार्टी दो खेमों में बंट गई है। एक सत्तापक्ष तो दूसरा पार्टी में भी विपक्ष। हां यह जरूर है कि राजनीति में विरोध से नेता उभरता है आैर आजकल प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव का जमकर विरोध हो रहा है। ऑडियो स्टिंग में केजरीवाल का योगंेद्र यादव व प्रशांत भूषण को गलियाना। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव पार्टी को अन्य पार्टियों की तरह से कहना। प्रशांत भूषण को पीएसी व राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाया जाना। बैठक में मारपीट व योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण की बातों को नजरंदाज करना अब पार्टी को दो भागों में बांटने के लिए काफी है। वैसे भी बातचीत के सभी प्रयास विफल हो चुके हैं। अब दोनों खेमे एक-दूसरे को गलत साबित कर अपने को सही साबित करने में तुले हैं। अरविंद केजरीवाल के पास पांच साल तक सत्ता है तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पास बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल जैसे राज्य में चुनाव लड़ाने का भरोसा। केजरीवाल खेमे के पास सत्ता का मजा लूटने का मौका है तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पास संघर्ष का बड़ा रास्ता। हां यदि इस संघर्ष ने बड़ा रूप लिया तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव खेमा बड़ी पार्टी को जन्म दे सकता है। ऐसे में केजरीवाल एंड टीम दिल्ली तक ही सिमट कर रह जाएगी। केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब उनकी टीम हताशा में थी तो प्रशांत भूषण ही योगेंद्र यादव को लाए थे आैर उन्होंने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया था।
     बात केरजीवाल के काम करने के तरीके की करें तो गत दिनों आम आदमी पाटी में बूथ से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन के पुनर्गठन की बात कही गई। यह संगठन बनाने की बात चली तो चुनाव लड़ने की क्यों नहीं। क्या अन्य प्रदेशोें के नेता चुनाव लड़ना नहीं चाहंेगे। गत लोकसभा चुनाव में आवेदन के नाम पर टिकट देने का वादा करने वाले अरविंद केजरीवाल पर  आरोप लगे कि उन्होंने आवेदनों को कचरे की टोकरी में फेंककर सेलिब्रोटी आैर विशेष लोगों को ही टिकट दिए। उनके पार्टी के ही कार्यकर्ताओं ने उन पर आरोप लगाए कि पार्टी के खड़ी होते ही वह पुराने साथियों को भूल गए आैर पैसे वाले नेताओं को तवज्जो देने लगे। मुंबई में उन्होंने 20,000 रुपए देने वाले लोगों के साथ डिनर किया। मुस्लिम वोटबैंक के लिए उन्हें साम्प्रदायिकता भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा दिखाई देने लगा। ऐसे में अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर सवाल उठना स्वभाविक था। पर अगले चुनाव में दिल्ली में प्रचंड बहुमत से सरकार बनने से ये सभी आरोप पीछे चले गए।
     दरअसल अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि कुछ विशेष उनके करीबी लोगों के अलावा अन्य कार्यकर्ता गली-मोहल्ले की राजनीति तक ही सीमित रहंे। संगठन में ऐसा लगने लगा था कि कभी सामाजिक संगठन परिवर्तन के उनके साथी रहे संजय सिंह आैर मनीष सिसोसिया को साथ लेकर उन्होंने जैसे पार्टी कब्जा ली हो। ऐसा लगने लगा था कि आम आदमी की बात करने वाले अरविंद केजरीवाल कुछ खास किस्म के व्यक्ति हो गए हों। कुछ ड्रामे को छोड़ दें तो आम आदमी को वह सटने ही नहीं दे रहे थे। हां कुछ नामी-गिरामी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर,  अंजली दमानिया, पत्रकार आशुतोष, आशीष खेतान, जनरैल सिंह, फिल्मी हस्ती भगवंत मान, गुल पनांग जैसे लोग पार्टी जुड़े पर उनका मकसद संगठन में काम करने का कम चुनाव लड़ने का ज्यादा दिखा। आप में भ्रष्टचार के खिलाफ हुए आंदोलन से जुड़े लोग लगातार पिछड़ते चले गए। यही वजह रही कि एनसीआर में जबर्दस्त माहौल होने के बावजूद पार्टी माहौल को बरकरार नहीं रख पाई।
    दरअसल अरविंद केजरीवाल को भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के खिलाफ हुए आंदोलन का फायदा मिला। यदि आंदोलन पर नजर डाले तो इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ पांच अप्रैल 2011 को प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने मोर्चा खोला था आैर जनलोकपाल बनाने को लेकर पूरे देश में भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था को बदलने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर, रामलीला मैदान के अलावा पूरे देश में बड़ा आंदोलन हुआ तो लोगों में बदलाव की आस जगी थी। अन्ना हजारे ने इस आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा दी थी। भ्रष्ट व्यवस्था से तंग युवा अन्ना के एक आह्वान पर सड़कों पर आ गया था। दिल्ली जंतर-मंतर आैर रामलीला मैदान में उमड़े जन समूह से न केवल तत्कालीन केंद्र सरकार बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक लोगों की चूलें हिल गई थी।
    आंदोलन के बीच में ही अन्ना हजारे व पूर्व आईपीएस किरण बेदी के न चाहते हुए आंदोलन में अन्ना के सारथी माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने कुछ आंदोलनकारियों को साथ लेकर 'आम आदमी पार्टी" नाम से एक राजनीतिक दल बना लिया। अरविंद केजरीवाल ने मूल्य पर आधारित आैर ईमानदारी व सच्चाई की राजनीति के नाम पर सभी दलों को निशाना बनाया। अन्ना आंदोलन के बल पर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। चुनाव परिणाम के दिन जब आम आदमी पार्टी ने 70 में से 28 सीटें जीती तो देश भौचक्का रह गया था।
      दरअसल देश की दोनों बड़ी पार्टियां ही आप द्वारा किए गए वादों को पूरा करने के तरीके को देखना चहती थीं। आप ने पहली बार जनमत संग्रह कराकर जनता की राय से दिल्ली में सरकार बनाई थी। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद लोगों में अरविंद केजरीवाल से काफी उम्मीदें जगी थी। अरविंद केजरीवाल के भरोसे दिल्ली ही नहीं पूरे देश में लोगों में बदलाव की एक आस जगी थी पर जिस तरह से अरविंद केजरीवाल का लोकपाल मामले में भाजपा व कांग्रेस के साथ न देने पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना लोकसभा चुनाव में आवेदन पत्र मामले में अपनी बात पर खरा न उतरना, काफी संख्या में दागी प्रत्याशियों को चुनावी समर में उतारना, पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना तथा आप के बिना सरकार न बनने की बात करना, गैस के दाम न बढ़ने देने पर भाजपा में शामिल होने की बात करना संगठन को कुछ विशेष लोगों के कब्जाने के आरोप लगना कहीं न कहीं मुद्दे से भटकना रहा।
     गत दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस का केजरीवाल का निशाना साधना भारी पड़ा ज्यों-ज्यों केजरीवाल का विरोध हुआ त्यों-त्यों पार्टी चुनाव में मजबूत होता गया। जैसे आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को विरोध का फायदा मिला, ठीक उसी तरह से ही दिल्ली में केजरीवाल दिल्ली में मजूबत हुए। इसी तरह से योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण को विरोध का फायदा मिल सकता है। अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार कल की बनी पार्टी में एकदम बगावत क्यों हो गई। दूसरी पार्टियों में कमी निकालने वाली पार्टी में एकदम से इतनी कमी कैसे हो गई।