केंद्र
सरकार ने इस बार भारत रत्न देने के लिए रिजर्व बैंक की टकसाल को पांच मेडल
बनाने का आदेश दिया है। भारत रत्न के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी, प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस, हॉकी के जादूगर
मेजर ध्यानचंद, गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान पोददार और समाज प्रवर्तक
कांशी राम का नाम चर्चा में है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश की आजादी
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रख्यात समाजवादी डा.
राम मनोहर लोहिया को अब तक भारत रत्न से क्यों वंचित रखा गया है। कांग्रेस
के बाद अब भाजपा की सरकार में भी लोहिया जी के नाम की कोई चर्चा नहीं हो
रही है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी चुनाव प्रचार में लोहिया जी के समाजवाद की तारीफ करते हुए आज के
समाजवादियों को पानी पी-पी कर कोस रहे थे। मेरा मानना है कि अब बहुत
अच्छा अवसर है कि समाजवादी केंद्र सरकार से लोहिया जी को भारत रत्न देने
मांग राष्ट्रीय स्तर पर करें। इसमें दो राय नहीं जिन लोगों के नाम भारत
रत्न के लिए चर्चा में हैं, उनका देश के उथ्थान में बड़ा योगदान है पर
लोहिया जी का कद इन सबसे बड़ा है। आज भले ही नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर देश के प्रधानमंत्री बने हों पर गैर कांग्रेसवाद
का नारा सबसे पहले डा. लोहिया ने ही दिया था।
डा. लोहिया कितने खुद्दार थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया
जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा
जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की
कृपा पर पैरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। लोहिया का समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था। जब लोहिया
ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन
ने उनका पालन-पोषण किया । गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर
बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने
जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते। वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी
ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने
पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। पहली
हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के
लड़कों के साथ 1920 में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित
जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई। युवाओं में लोहिया की
लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के
सम्मलेन में सुभाष चन्द्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता
की।
लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें
पढ़ने के लिया विदेश भेजा। लोहिया पढ़ाई करने के लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस
की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया।
लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका
अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब
1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान
जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख
लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता से बनारस पहुंचकर
उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की। मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला
से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने
के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश
के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी
पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की
रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य
लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में
21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा
होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय
कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए।
1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन
हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया। दक्षिण
कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को
उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के
सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें
रिहा कर दिया गया।
दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को उन्हें
गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत
उन्हें दो साल की सजा हुई। लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे
कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक
खामोश नहीं रहा जा सकता। उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम
नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया।
आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए
थे। 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस
अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया। इसके
बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट
कहा।
भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य
कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए
आन्दोलन की अगुआई की। 20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया
गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को
फांसी दी गई थी। 1945 में लोहिया को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया
गया। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध
समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर
लोहिया को नहीं छोड़ा गया। बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा
कर दिया गया।
15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली
सभा की। लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही
गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो
नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ
मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे। 9 अगस्त, 1947
से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात
को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता
मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया । गांधी जी अनशन पर
बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास
से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर को गांधी जी ने अनशन तोड़
दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष योगदान रहा है।
आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का
आन्दोलन समाजवादी चला थे । दो जनवरी 1948 को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।
विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव
मैदान में उतरे। 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत
के सवाल को उठाया। 1963 को फरुखाबाद के चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों
चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस
बहुत चर्चित रही। उन्होंने कहा था कि 18 करोड़ आबादी चार आने पर
जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च
होते हैं। 9 अगस्त 1965 को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत
गिरफ्तार कर लिया गया।
30 सितम्बर 1967 लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल
डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन
के लिए भर्ती कराया गया। इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।
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