Saturday 26 June 2021

किसान ही नहीं जनता के हाथ की रोटी भी छीनने का षड्यंत्र है नये किसान कानून



नये किसान कानून वापस कराने के लिए दिल्ली बोर्डर पर आंदोलित भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत के आह्वान पर किसान देश में विभिन्न राज्यों के राजभवनों का घेराव कर रहे हैं। गाजीपुर बार्डर के किसानों को दिल्ली के उप राज्यपाल से न मिलने दिये जाने से नाराज राकेश टिकैत ने दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया है। हालांकि इसी बीच केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर आंदोलन खत्म कर किसानों को वार्ता के लिए आमंत्रण कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि मोदी सरकार समस्या का हल चाहती है तो फिर  7 महीने से किसान सर्दी, बरसात और गर्मी झेलने को क्यों मजबूर हैं।

दरअसल किसान नये किसान कानूनों को वापस कराकर नये सिरे से कानून बनाने की बात कर रहे हंै। एमएसपी खरीद पर कानून चाह रहे हैं। मोदी सरकार है कि किसान कानून वापस लेने और एमएसपी खरीद पर कानून बनाने पर कोई बात करने को तैयार ही नहीं। वह बात दूसरी है कि मोदी सरकार आंदोलन को राजनीतिक बताकर खत्म करने के लिए हर हथकंडा अपना रही है। मोदी सरकार के समर्थक तो लगातार आंदोलन को चीन, पाकिस्तान से फंडिंग का भी आरोप लगा रहे हैं। गत दिनों तो सोनीपत और गाजियाबाद के आम लोगों की भी किसानों को उठने की चेतावनी मोदी सरकार ने दिलवाई। इन बस के बीच प्रश्न उठता है कि क्या किसान आंदोलन बिना वजह हो रहा है ? यदि ऐसा है तो मोदी सरकार 15 में से 12 प्वाइंट वापस लेने को तैयार क्यों हो गई ?
यह मोदी सरकार का बनाया गया माहौल ही है कि महानगरों के ग्लैमर की चकाचौंध में रहने वाले काफी लोग अपने बाप-दादा का संघर्ष भूल आंदोलित किसानों को आतंकवादी, नक्सली, देशद्रोही और नकली किसान न जाने क्या-क्या उपाधि दे रहे हैं। जो लोग आंदोलित किसानों को देश समाज और अपना दुश्मन समझ रहे हैं वे भली भांति समझ लें कि यदि ये नये किसान वापस नहीं हुए तो किसान तो अन्न उपजा कर अपने बच्चों को पाल लेंगे पर महानगरों में रह रहे लोगों को रोटी भी नहीं मिलेगी। सारा खाद्यान्न विदेश में जाएगा । देश में तो खाद्यान्न से प्रोडक्ट तैयार होंगे। जो महंगे दाम पर मिलेंगे। अभी भी समय है जमीनी हकीकत समझकर मोदी सरकार की कॉरपोरेट घरानों को बढ़ावा देने की नीति को पहचानो। बाहर निकलो हिन्दू-मुस्लिम के खेल से। आज के हालात में पहली प्राथमिकता अपने को जिंदा रहने की होनी चाहिए। यह बात कम से कम कोरोना की दूसरी लहर से प्रभावित होने वाले लोगों को तो समझ लेनी चाहिए। ये जितने भी स्वयंभू हिन्दुत्व के ठेकेदार बने घूम रहे हैं ये हिन्दुत्व के नहीं सत्ता के ठेकेदार हैं, इन्हें हिन्दुत्व के नाम पर बस हिन्दुओं का वोट चाहिए। क्या बेरोजगार हिन्दू नहीं हो रहे हैं ? क्या कोरोना कहर में हिन्दू नहीं मरे हैं ? क्या बेरोजगारी के चलते हिन्दू युवा आत्महत्या नहीं कर रहे हैं ? क्या इन ठेकेदारों ने किसी गरीब हिन्दू की बेटी की शादी में कोई योगदान दिया ? क्या इन्होंने किसी गरीब हिन्दू के बेटे की पढ़ाई में कोई योगदान दिया ? ये लोग हिन्दू राष्ट्र का भी दिखावा करते हैं। संविधान के होते लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं है। यह ये लोग भी भलीभांति जानते हैं। ये सब हिन्दुओं को भ्रमित करन के लिए किया जाता रहा है।
निश्चित रूप से देश में विपक्ष नाकारा है पर क्या हम सत्ता में बैठे नेताओं को लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने की छूट दे दें ? जरूरत ठंडे दिमाग से सोचने की है। जो सरकार देश में पूंजपीतियों को खाद्यान्न स्टॉक की छूट दे सकती है, वह देश को बेच भी सकती है। कांट्रेक्ट फार्मिंग किसान को उसके ही खेत में बंधुआ मजदूर बनाने का षड्यंत्र है। जब बीमा कंपनियां किसान को ठग लेती हैं तो कल्पना करो, जो कंपनियां किसान की जमीन पर खेती करेंगी वह क्या-क्या करेंगी ? मोदी सराकर भोले-भाले किसानों को कॉरपोरेट संस्कृति का दिखावा दिखाकर कॉरपोरेट घरानों के यहां बंधुआ बनाना चाहती है। भाकियू नेता राकेश टिकैत में सौ कमियां होंगी पर वह आज किसान की जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं। नये किसान कानून किसान ही नहीं देश की जनता के गले में मौत का फंदा है। देश में एक किसान ही बचा है जिस पर कॉरपोरेट घरानों की कब्जा नहीं है। मोदी सरकार ने इसकी की व्यवस्था कर दी है। यह किसान ही नहीं आम लोगों को भी समझ लेना चाहिए।

Thursday 17 June 2021

भाजपा के लिए आफत बनते जा रहे राकेश टिकैत



तीन नये किसान कानूनों को वापस कराने के लिए दिल्ली बार्डर पर चल रहे किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत भाजपा के लिए लगातार आफत बनते जा रहे हैं। अब राकेश टिकैत ने 26 जून आपातकाल की वर्षगांठ को लोकतंत्र बचाओ किसान बचाव दिवस मनाने का ऐलान किया है। 26 जून को किसान देशभर के सभी राजभवनों का घेराव करेंगे। देश में अघोषित आपातकाल मानते हुए किसान 26 जून को मोदी सरकार के खिलाफ फिर से हुंकार भरेंगे। मतलब जहां भाजपा 26 जून को कांग्रेस को घेरने क कोशिश करेगी वहीं उसे किसानों के आक्रोश का भी सामना करना पड़ेगा। राकेश टिकैत ने मोदी सरकार को खुली चेतावनी दे दी है कि अब सरकार से बिना शर्त बातचीत होगी।

दरअसल राकेश टिकैत विपक्ष के नेताओं के साथ लगातार संपर्क में हैं। पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, उत्तर प्रदेश की कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी से उनकी विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हो रही है। वैसे भी 26 मई नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के दिन को काला दिवस मनाने के किसानों के कार्यक्रम को कांग्रेस, सपा समेत 1२ विपक्षी राजनीतिक दलों ने समर्थन देकर राकेश टिकैत का कद बढ़ा दिया था। अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और पंजाब में होने वाले विधानसभाचुनाव में विपक्ष किसानों के माध्यम से भाजपा को घेरने की रणनीति बना रहा है। वैसे तो किसान आंदोलन का असर पूरे देश में है पर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में इसका असर प्रमुखता से देखा जा रहा है। प. बंगाल के विधानसभा चुनाव पर भी अप्रत्यक्ष रूप से किसान आंदोलन का असर पड़ा है। पंजाब निकाय चुनाव में तो भाजपा ने बुरी तरह से मुंह की खायी थी। ऐसे में भाजपा को यह चिंता सता रही है कि नये किसान कानूनों को लेकर यदि किसानों का आक्रोश चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में फूड पड़ा तो न केवल इन विधानसभा चुनाव बल्कि 2024 में होने वाले आम चुनाव में भी भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। भाजपा का विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की चिंता सता रही है। क्योंकि राकेश टिकैत का प. उत्तर प्रदेश किसानों पर अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है।
दरअसल उत्तर प्रदेश में योगी सरकार को बनाये रखने के लिए भाजपा को किसानों को साधना बहुत जरूरी है। विशेष रूप से प. उत्तर  प्रदेश किसानों को। प. उत्तर प्रदेश में वैसे तो खेती के पेशे से लगभग सभी जातियां जुड़ी हुई हैं पर जाट प्रमुखता से माने जाते हैं। प. उत्तर प्रदेश का किसान मतलब जाट। मौजूदा हालात में  भाजपा के लिए जाट वोटबैंक बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। कभी चौधरी चरण सिंह की वजह उनके बेटे अजीत सिंह का साथ देते आ रहे जाट 2017 के विधानसभा चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगों के चलते लामबंद होकर भाजपा के साथ आ गये थे। मौजूदा हालात में जाट नये किसान  कानूनों के विरोध में गाजीपुर बार्डर पर बैठे हैं। प. उत्तर प्रदेश के जाटों पर भाकियू का अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है। आज की तारीख में जाटों पर राकेश टिकैत का प्रभाव माना जा रहा है। यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री संजीव बालान को कई जगहों पर जाटों का ही विरोध झेलना पड़ा। ऐसे में राकेश टिकैत की मोदी सरकार के खिलाफ हुंकार भाजपा के लिए बड़ी परेशानी का सबब बन चुकी है ।
दरअसल प. उत्तर प्रदेश में जाटों का बड़ा दबदबा माना जाता है। यह माना जाता है कि चाहे लोकसभा चुनाव हो या फिर विधानसभा चुनाव, जाट मतदाता जिधर गए उसी का बेड़ा पार हो गया। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव और 2019 का लोकसभा चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। इससे भी पहले वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जाटों ने अपना जनादेश कुछ इस तरह दिया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें भारतीय जनता पार्टी के खाते में आ गईं। यह सिलसिला 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा। यहां पर भाजपा की एकतरफा जीत रही। सपा-बसपा और रालोद का मजबूत गठबंधन भी पिट गया। वैसे तो पूरे उत्तर प्रदेश में जाटों की आबादी 6 से 8 फीसद के आसपास है, लेकिन पश्चिमी यूपी में जाट 17 फीसद से ज्यादा हैं। खासतौर से सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, बिजनौर, गाजियाबाद, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, बुलंदशहर, हाथरस, अलीगढ़, नगीना, फतेहपुर सीकरी और फिरोजाबाद में जाटों की ठीकठाक आबादी है। ऐसे में आगामी यूपी विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर सभी दलों ने जाट वोटों को लेकर सक्रियता बढ़ा दी है। जाटों को लुभाने में राकेश टिकैत को साधना मुख्य माना जा रहा है।
दरअसल, आगामी 26 जून को तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन को पूरे सात महीने हो जाएंगे। 26 जून को मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन भाजपा की चिंता बढ़ाने वाला है। वैसे भी गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसानों के आंदोलन पर भारतीय जनता पार्टी भी निगाह बनाए हुए है। राकेश टिकैत पर भाजपा की खास नजर है। सिर्फ उत्तर भारत के कुछ राज्यों तक सिमटे राकेश टिकैत फिलहाल किसानों के बड़े नेता के तौर पर शुमार किए जाने लगे हैं। नये किसान कानूनों को लेकर  2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को लामबंद होकर वोट करने वाले जाट 2022 के चुनाव में भाजपा के खिलाफ जा सकते हैं जो भाजपा के लिए चिंता का विषय है।

Wednesday 16 June 2021

राम मंदिर निर्माण में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी जा रहा है भाजपा के पक्ष में



विपक्ष को ही नहीं हर सेकुलर व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि जब हम भाजपा समर्थकों को अंधभक्ति की संज्ञा देते हैं तो किसी भी तरह के आरोप का उन पर कोई असर नहीं पडऩे वाला है। आज की तारीख में न ही विपक्ष के आरोपों को कोई जिम्मेदार तंत्र गंभीरता से ले रहा है। मोदी सरकार की गलत नीति के चलते बेरोजगार होने के बावजूद, कोरोना महामारी में सरकार की विफलता के चलते अपनों के खोने के बावजूद , पेट्रो पदार्थांे की बेहताशा वृद्धि के बावजूद, गैस सिलेंडर की सब्सिडी बिना बताये खत्म करने के बावजूद जो लोग मोदी और योगी सरकार के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं उनके लिए कोई आरोप बेकार है। राम मंदिर निर्माण मामले में तो वे कुछ सुनने को तैयार नहीं। विपक्ष यह भूल रहा है कि भक्तों की नजरों में राम मंदिर निर्माण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की निगरानी में हो रहा है और ये लोग मोदी और योगी को अपनी भगवान समझते हैं। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कराते हुए सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए विवादित जमीन को दिलाने का आदेश नहीं दिलाया है ? क्या मोदी के हस्तक्षेप क चलते तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा में नहीं भेजा गया है ? भक्तों को बस अयोध्या में राम मंदिर चाहिए। इसके लिए वे करोड़ो नहीं बल्कि अरबों का भ्रष्टाचार भी झेलने को तैयार हैं। संजय सिंह जिन लोगों के चंदे में भ्रष्टाचार होने पर मुखर हुए, उन्हें लोगों ने उनके आवास पर हमला कर दिया।

राम मंदिर निर्माण मामले में भाजपा, आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद यह कहते-कहते नहीं थकते थे कि मंदिर निर्माण की सभी सामग्री तैयार है। राजस्थान से मिट्टी लाकर मंदिर के पीलर बना दिये गये हैं। बस उठा-उठाकर लगाने हैं। विपक्ष यह समझने को तैयार नहीं कि जिस देश में लाखों बच्चे भूखे पेट सो जाते हैं। जिस देश में राज लाखों लोग भूखे मर जाते हैं। जिस देश में कोरोना महामारी में इलाज के अभाव में लोगों ने दम तोड़ दिया उसी देश में राम मंदिर निर्माण के लिए 19 दिन में 2100 करोड़ रुपये इकट्ठे हुए हैं। मतलब चंदा इकट्ठा करना था 1100 करोड़ और इकट्ठा हो गया 2100 करोड़। यह तो तब है जब चंदा इकट्ठा करने में भी कितने घोटाले हुए। मतलब राम मंदिर निर्माण मामले में मंदिर समर्थक कोई भी भ्रष्टाचार सुनने को तैयार नहीं। यदि ऐसे घोटाले नहीं होंगे तो कहां से आरएसएस का खर्चा चलेगा ?  कहां से विहिप का और कहां से दूसरे हिन्दू संगठन तैयार होंगे ? यह सब चंदे का ही तो खेल है। क्या यह खेल अकेले चंपतराय ने किया होगा ? चंदे में से ऐेसे ही तो दूसरे मदों के लिए पैसे बचाये जाते हैं।
राम मंदिर निर्माण में जमीन घोटाले पर विपक्ष अपना समय बर्बाद कर रहा है। विपक्ष खुद ही उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को सुलगा दे रहा है। भाजपा यही ता चाहती है कि अगले साल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत कई राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राम मंदिर निर्माण का मुद्दा अपना असली स्वरूप प्राप्त कर ले। भाजपा को उत्तर प्रदेश ही नहीं 2024 का लोकसभा चुनाव भी राम मंदिर निर्माण के नाम पर जीतना है। विपक्ष यह भी समझ ले कि राम मंदिर निर्माण में आरएसएस और भाजपा की रणनीति इस स्तर की है कि यदि जमीनी घोटाले में भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध भी हो जाए तो वे चंदा देने वाले लोगों को ही ट्रस्ट के पक्ष में खड़ा कर देंगे।
विपक्ष यह समझने को तैयार नहीं कि  राम मंदिर निर्माण मामले में पहली बार भ्रष्टाचार नहीं हुआ है ? जब से भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाया है तब से चंदा तो ही इकट्ठा किया है। क्या किसी ने कोई हिसाब मांगा ?  भाजपा के समर्थक तो चंदा देते ही इसलिए हैं कि वे हिन्दुत्व को आगे बढ़ा रहे हैं।
जमीनी हकीकत तो यह है कि देश में राम नाम का शब्द आस्था नहीं राजनीतिक शब्द बनकर रह गया है। जहां भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के नाम पर सत्ता हासिल की वहीं अब विपक्ष राम मंदिर निर्माण में भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए माहौल बनाने में लगा है। जहां कभी लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा निकालकर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाया था वहीं अब आम आदमी पार्टी राम मंदिर  निर्माण में घोटाले के नाम पर उत्तर  प्रदेश में जमीन तलाशने में लग गई है तो वहीं कांग्रेस खोई हुई जमीन को पाने में। उत्तर प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी प्रियंका गांधी ने ट्रस्ट के लोगों को प्रधानमंत्री का करीबी बताते हुए सुप्रीम कोर्ट  से मामले की जांच कराने की मांग की है। मौजूदा हालात में विपक्ष को चाहिए वह राम मंदिर निर्माण मामले में बस चुप ही रहे। उसे बस यह समझ लेना चाहिए कि जहां राम और राम मंदिर का नाम आएगा वहां उसका फायदा भाजपा को मिलेगा।  जमीनी हकीकत तो यह है कि राम नीति में न तो कभी भाजपा की आस्था रही है न ही राम मंदिर निर्माण में भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वालों की। राम नाम पर तो बस सत्ता हासिल करने का हथियार बनकर रह गया है। राम मंदिर निर्माण में आरोप है कि श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने 10 मिनट पहले खरीदी गयी दो करोड़ की जमीन का रजिस्टर्ड एग्रीमेंट 18. 5 करोड़ रुपये से करा लिया। अरे भाई क्या ये पैसे ये लोग अपनी जमीन बेचकर लाये हैं ? राम भक्तों ने दिया और ये उड़ा रहे हैं। इनके अपने भी तो खर्चे हैं। अरे भाई राम मंदिर निर्माण के लिए 2100 करोड़ का चंदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश देने बाद आया है। इससे पहले जमा किये गये चंदे का तो कोई हिसाब ही नहीं। कितना घोटाला करेंगे। लोग तो और चंदा देने को तैयार हैं। बस भगवान राम का मंदिर बन जाए। क्यों समय बर्बाद कर रहे हो। रोजी-रोटी और महंगाई का मुद्दा उठाओ। उनका पैसा, उनके लोग। मंदिर भी वे अपना ही मानते हैं। जब मुद्दा उठाने में सियासत है तभी तो टीवी चैनलों पर एंकर चंदे की रशीद मांग ले रहे हैं।
जमीनी हकीकत यह है कि आज की तारीख में हर राजनीतक दल सत्ता प्राप्त करना चाहता है। जमीनी मुद्दों पर कोई काम करने को तैयार नहीं। उत्त प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी सपा क्या कर रही है ? बसपा क्या कर ही है ? बस हर कोई दल भावनात्मक मुद्दे के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहता है। क्या किसी सांसद या विधायक ने सांसदों या विधायकों को मिलने वाली सुविधाओं और पेंशन को मुद्दा बनाया है ? क्या किसी जनप्रतिनिधि ने सांसदों और विधायकों की होने वाली वेतनवृद्धि के खिलाफ आवाज उठाई है ? क्या किसी सांसद और विधायक ने जनप्रतिनिधियों के साथ ही संसद और विधानसभा में होने वाली फिजूलखर्ची को मुद्दा बनाया है ? नहीं न। सभी राजनीतिक दलों को सत्ता दे दो। आज की तारीख में कोई भी राजनीतिक दल या नेता जनता की पीड़ा को समझने को तैयार है। विपक्ष तो पूरे देश में नाकारा है। लोग व्यक्तिगत स्तर पर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

Tuesday 15 June 2021

आज की राजनीति के भस्मासुर बनते जा रहे हैं मोदी!





अपनी अति महत्वाकांक्षा और जनता को धोखे में रखने की गलतफहमी पाले बैठे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश का तो बंटाधार कर ही दिया अब भाजपा के लिए भी भस्मासुर बनने जा रहे हैं। अपने सात साल के कार्यकाल में मोदी ने जो चाहा वह किया। मोदी ने औपचारिकता के लिए सलाह-मशविरा के लिए बैठकें जरूर की पर उनका हर निर्णय उनका अपना ही रहा। चाहे नोटबंदी, रही हो, जीएसटी रही हो, धारा 370 का हटाना हो, राम मंदिर निर्माण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट से फैसला दिलवाना हो, कोराना काल में वैक्सीन का विदेश भिजवाना हो सब मोदी के मनमानी के निर्णय रहे हैं। केंद्र सरकार या फिर भाजपा के संगठन में उन्होंने जो चाहा वह किया। भाजपा पर एकछत्र राज करने वाले नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को साइड लाइन करने के लिए अब भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस से पंगा ले लिया है, जो उन्हें भारी पडऩे वाला है। यह भी जमीनी हकीकत है कि नरेंद्र मोदी अपने स्वभाव के अनुकूल इतनी जल्दी हार नही मानने वाले हैं। ऐसे में आरएसएस और नरेंद्र मोदी की टीम का टकराव योगी आदित्यनाथ को मजबूती देगा या फिर भाजपा को पतन की ओर ले जाएगा ? वैसे भी भाजपा के समर्थक योगी आदित्यनाथ को मोदी का विकल्प मानने लगे हैं।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में वर्णित राक्षस भस्मासुर की ही तरह भारत की राजनीति में भी एक भस्मासुर पैदा हो गया है। अपने क्रियाकलापों और अति महत्वाकांक्षा के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भस्मासुर का रूप लेते जा रहे हैं। भस्मासुर को वरदान प्राप्त था कि जिसके सिर पर वह हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा तो मोदी भी जहां हाथ रख रहे हैं, उसे बर्बाद ही कर दे रहे हैं। भस्मासुर शिवजी के सिर पर हाथ रखकर उनकी जगह लेना चाह रहा था तो नरेंद्र मोदी सब कुछ हथियाकर विश्व गुरु बनना चाहते हैं। जिस भाजपा का कंट्रोल उसके मातृ संगठन आरएसएस के हाथों में था, उस भाजपा को मोदी अपनी सल्तनत समझने लगे हैं। शिवजी ने भस्मासुर को भस्म करने के लिए विष्णु रूपी एक स्त्री को आगे किया था तो आरएसएस ने मोदी को सबक सिखाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को खड़ा कर दिया है।
दरअसल यह व्यक्ति का स्वभाव होता है कि गलत कामों में उसे संरक्षण देने और इन सबके लिए प्रेरित करने वाले के खिलाफ वह एक दिन खड़ा हो जाता है। आएसएस के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। रोजी-रोटी, भाईचारा, कानून व्यवस्था पर काम करने के बजाय कट्टर हिन्दुत्व, मुस्लिमों के प्रति नफरत का माहौल बनाने, पूंजीपतियों को संरक्षण देने के लिए आरएसएस ही नरेंद्र मोदी को आरएसएस ही तो प्रेरित करता रहा है। मोदी के हर गलत काम को आरएसएस ही तो संरक्षण देता रहा है। यदि ऐसा नहीं है तो नोटबंदी, जीएसटी, नये किसान कानून, श्रम कानून में संशोधन जैसे मुद्दे पर आरएसएस चुप क्यों रहा ? अब जब बात उनके चेहेते योगी आदित्यनाथ को दोबारा घेरने की बात आई तो उनकी समझ में आ गया।
वैसे तो नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए अपना अलग ब्रांड बनाना शुरू कर दिया था पर 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद तो उन्होंने न केवल सत्ता बल्कि भाजपा संगठन का रिमोट कंट्रोल भी अपने हाथों में ले लिया। यह उनका अहंकार ही था कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खुद ही उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री मनोज सिन्हा को बनाने का निर्णय ले लिया। जब मुरली मनोहर जोशी के माध्यम से आरएसएस को इसकी सूचना दी गई तो आरएसएस ने अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हुए मनोज सिन्हा की जगह कट्टर हिन्दुत्व के चेहरे योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया। अब जब कोरोना कह में उत्तर प्रदेश सरकार पर उंगली उठती देख मोदी ने नरेंद्र मोदी ने योगी आदित्यनाथ को घेरने की चाल चली। मोदी ने यह चाल ऐसे समय में चली है जब अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एक कदम और आगे बढ़ाते हुए मोदी ने अपने चहेते अरविंद शर्मा को एमएलसी बनवा दिया। मोदी उन्हें उप मुख्यमंत्री बनवाकर मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या या राजनाथ सिंह को बनवाकर उत्तर प्रदेश को रिमोट कंट्रोल भी अपने हाथों में रखना चाहते थे। दरअसल मोदी की समझ में आ गया है कि भाजपा के समर्थकों में योगी आदित्यनाथ के चेहरे को बहुत पसंद किया जा रहा है और योगी को उनका विकल्प माना जाने लगा है। ऐसे में मोदी योगी को किसी भी तरह से साइडलाइन करना चाहते हैं।
दिल्ली के झंडेवालान में हुर्ई बैठक में योगी आदित्यनाथ पर मुहर लगाकर आरएसएस ने साफ कर दिया गया कि वह हर स्तर पर योगी आदित्यनाथ के साथ है। वैसे भी इस बीच जिस तरह योगी आदित्यनाथ के 24 घंटे अपने मोबाइल को बंद करने तथा अरविंद शर्मा को वाराणसी जाकर वहां की छवि सुधारने की बात कहने की खबरें सामने आई हैं उससे तो यही साबित होता है कि योगी आदित्यनाथ ने भी मोदी के खिलाफ ताल ठोक दी है। यह भी जगजाहिर है कि आरएसएस के सामने का कोई नेता खड़ा न हो सका।
दरअसल 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से मोदी ने आरएसएस को अनदेखा कर मनोज सिन्हा को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया था उससे आरएसएस मोदी के प्रति सचेत हो गया था। आरएएस मौके की तलाश में था कि अब जब कोरोना महामारी में स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने, जलती चिताओं के बीच मोदी के पं.  बंगाल के चुनाव में नोटंकी करने, दवाओ, आक्सीजन और वैक्सीन मामले में मोदी सरकार के पूरी तरह से विफल होने पर आरएसएस को एक बड़ा मौका मिल गया। ऐसे में मोदी  की योगी को घेरने की रणनीति आग में घी काम कर गई। कोरोना महामारी में देश और विदेश के साथ ही सुप्रीमकोर्ट की तीखी आलोचना ने आरएसएस को मोदी को डाउन करने का अवसर दे दिया। वैसे भी आरएसएस का अंदरूनी सर्वे मोदी सरकार के खिलाफ ही है। ऐसे में आरएसएस मोदी की जगह योगी के चेहरे को बढ़ावा देने में लग गया। पर क्या मोदी चुप बैठ जाएंगे ? जो व्यक्ति देश पर एकछत्र राज कर रहा हो पर क्या वह इतनी जल्दी हार मान लेगा। मोदी जिद्द दी ही नहीं बल्कि सनकी स्वभाव के हैं। जो व्यक्ति तिकड़बाजी कर पांच देशों से उनका सबसे बड़ा पुरस्कार ले आया हो। जिस व्यक्ति को जनता के पैसे पर अय्याशी करने की आदत पड़ गई हो।  जिस व्यक्ति ने शांति के नोबल पुरस्कार के लिए कोरोना कहर में वैक्सीन को विदेश में भेज दिया हो। जो व्यक्ति अपने व्यक्तिगत छवि के लिए देश समाज मतलब कुछ दांव पर लगा सकता हो वह किसी की सुनने वाला नहीं है।

Division of UP: विदर्भ राज्य का गठन कर सकती है मोदी सरकार

 



Division of UP: उत्तर प्रदेश के तीन हिस्से किए जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल। सूत्रों की मानें तो योगी आदित्यनाथ की दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से लंबी वार्ता की वजह उत्तर प्रदेश का बंटवारा है।


वैसे भी योगी आदित्यनाथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भी मिले हैं। कैबिनेट विस्तार में तो राष्ट्रपति से चर्चा का कोई मतलब नहीं होता। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुई मीटिंग विदर्भ को अलग राज्य बनाने को लेकर बताई जा रही है।


विदर्भ की राजधानी नागपुर

Division of UP: विदर्भ की राजधानी नागपुर को बनाने की योजना है। वैसे भी नागपुर में भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस का मुख्यालय है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का काम करने का यह अपना तरीका है कि वह किसी बात को लीक नहीं होने देते।


चाहे नोटबंदी का मामला हो, जीएसटी का मामला हो या फिर संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का। उन्होंने किसी को कानोंकान खबर नहीं लगने दी थी। उत्तर प्रदेश के बंटवारे और विदर्भ राज्य के गठन पर तेजी से काम चल रहा है।


लंबे समय से उत्तर प्रदेश के बंटवारे की जरूरत

वास्तव में, लंबे समय से उत्तर प्रदेश के बंटवारे की जरूरत महसूस की जा रही है तो महाराष्ट्र में विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग भी जोर-शोर से उठ रही है। एनडीए में शामिल रामदास अठावले लंबे समय से विदर्भ को अलग राज्य बनाने की पैरवी कर रहे हैं।


उन्होंने तो उत्तर प्रदेश के बंटवारे की बात करते हुए वाराणसी को पूर्वांचल की राजधानी बनाने का सुझाव तक दे डाला था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि किसी भी प्रदेश के बंटवारे के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा जाता है।



 

नौकरशाही के बंटवारे की बात होती है। कर्ज के पैसे के बंटवारे पर चर्चा होती है। बंटवारे का बोझ किसी राज्य पर डाला जाए, यह बड़ा मुद्दा होता है। राज्यों की सीमाओं पर बातचीत होती है। राज्य की राजधानियां तय होती हैं। पेंशन के बोझ को बांटने की योजना पर चर्चा होती है।


राजस्व साझेदारी की व्यवस्था

राजस्व साझेदारी की व्यवस्था बनती है। क्योंकि राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा की ही सरकार है तो व्यवस्था नौकरशाही, राजस्व, सीमाएं और राजधानी कोई बड़ा विषय नहीं है। जहां तक बंटवारे के प्रस्ताव का सवाल है तो 11 नवंबर 2011 को तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव तत्कालीन यूपीए सरकार को भेजा था।


हालांकि, उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने के प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से कई स्पष्टीकरण मांगते हुए वापस भिजवा दिया था। जिनमें नए राज्यों की सीमाएं, उनकी राजधानियों और राज्य पर कर्ज का मामला शामिल था।


मायावती का प्रस्ताव

दरअसल, मायावती का उत्तर प्रदेश को अवध प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड और पश्चिम प्रदेश में बांटने का प्रस्ताव था तो मोदी सरकार और योगी सरकार उत्तर प्रदेश को तीन भागों में बांटना चाहती है। हां, केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने की टेंशन योगी सरकार को नहीं है।


जहां प्रस्ताव को पास कराने की बात है तो मौजूदा हालात में यह काम कोई कठिन नहीं है। योगी सरकार को प्रचंड बहुमत प्राप्त है। बसपा यूपीए सरकार को बंटवारे का प्रस्ताव भेजकर पहले ही मुहर लगा चुकी है। हां, सपा बंटवारे का विरोध करती रही है पर विधानसभा में सपा प्रस्ताव गिराने की स्थिति में नहीं है।


भाजपा बड़े प्रदेशों के बंटवारे की पक्षधर

यह भी जमीनी हकीकत है कि भाजपा बड़े प्रदेशों के बंटवारे की पक्षधर रही है। उत्तराखंड, झारखंड औेर छत्तीसगढ़ का गठन 9 नवंबर 2000 को वाजपेयी सरकार में ही हुआ था। यह बात जरूर है कि भाजपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का प्रभाव कम करने के लिए मुस्लिम बहुल जिलों को दूसरे राज्यों में मिला सकती है।


इसके लिए मुरादाबाद मंडल को उत्तराखंड और सहारनपुर मंडल को हरियाणा में शामिल किया जा सकता है। उत्तराखंड और हरियाणा में भी भाजपा की सरकार होने की वजह से इसमें कोई अड़चन नहीं आएगी।



 

मतलब, मोदी सरकार के पास इस समय उत्तर प्रदेश का पोस्टमार्टम कराने का सुनहरा अवसर है। जिसे वह किसी भी हालत में चूकना नहीं चाहेगी। वैसे भी मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अगुआई में उत्तर प्रदेश के बंटवारे का मसौदा तैयार हो चुका है।


बुंदेलखंड और पूर्वांचल राज्य

Division of UP: इस मसौदे में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बुंदेलखंड और पूर्वांचल राज्य बनने हैं। मोदी सरकार की योगी आदित्यनाथ से उत्तर प्रदेश के बंटवारे को लेकर युद्ध स्तर पर वार्ता चल रही है। मोदी सरकार हर हाल में आम चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश के दबाव को कम करना चाहती है।


यह काम उत्तर प्रदेश का बंटवारा करके ही किया जा सकता है। वैसे भी अव्यवस्था पैदा करके चुनावी माहौल बनाने की भाजपा की पुरानी कला है। इतना ही नहीं, मोदी सरकार की लोकसभा और राज्य सभा सीटें भी बढ़ाने की तैयारी है। तभी तो नया संसद भवन बनाया जा रहा है। आपको क्या लगता है, कमेंट सेक्शन में बता सकते हैं।

Tuesday 8 June 2021

'मौत की प्रयोगशालाÓ बनकर रह गया कोरोना का इलाज

आगरा पारस अस्पताल में कोराना के गंभीर मरीजों को मारने के लिए जो माकड्रिल किया गया उससे स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना महामारी को डॉक्टरों ने एक प्रयोगशाला के रूप में लिया। कोरोना मरीजों के साथ लगातार प्रयोग किये गये। जगजाहिर है कि मॉकड्रिल किसी आने वाले संकट से निपटने के लिए किया जाता है। पारस अस्पताल में तो मरीजों क जान लेने के लिए यह मॉकड्रिल किया गया मतलब संकट को और बढ़ाने के लिए। मोदी सरकार और भाजपा शासित प्रदेश सरकारों ने अपने भोंपू मीडिया के माध्यम से देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि  इन राज में आंख, कान, दिमाग सब बंद रखो। बस जो बोला जाए उसको सुनो और उस पर अमल करो। यही वजह है कि पढ़े लिखे समाज में जो पेशा विज्ञान की देन है उस पेशे से जुड़ा डॉक्टर सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में यह कहते हुए सुनाई पड़ रहा है कि 'दिमाग मत लगाओ और मॉकड्रिल कर दो। इससे हम समझ जाएगा कि कौन मरेगा और कौन नहीं। जिस मरीज को आक्सीजन की जरूरत पड़ी उसके लिए पांच मिनट आक्सीजन रोकने का मतलब पांच मिनट सांस रोकना है। वह भी तब जब मरीज को सांस लेने में दिक्कत महसूस हो री हो। मतलब गंभीर मरीजों की हत्या कर देना। जिस अस्पताल में मरीज जिंदगी मांगने गया उस अस्पताल ने उसे मौत दे दी। मॉकड्रिल के इस खेल में जिन 22 मरीजों ने छटपटाते हुए दम तोड़ा है। इनकी हत्या का जिम्मेदार न केवल अस्पताल प्रबंधन और उसके डॉक्टर हैं पर बल्कि शासन और प्रशासन भी है। आखिर एक निजी अस्पताल ने मरीजों की जान लेने का इतना बड़ा दुस्साहस कर लिया ?

दरअसल भारत में कोरोना महामारी एक प्रयोगशाला बनकर रह गई है। न सरकार कुछ पता है और न ही डॉक्टरों को। मरीजों के इलाज में बस प्रयोग पर प्रयोग ही होते रहे। जो डॉक्टर रेमडेसिवर इंजेक्शन और प्लाज्मा थेरेपी को रामबाण बता रहे थे उन्हीं डॉक्टरों ने इन दोनों को कोरोना के इलाज में कारगर न बताते हुए हटा दिया। कोरोना मरीजों के इलाज में मलेरिया की दवा हाईड्रोक्सीक्लोक्वीन का इस्तेमाल भरपूर किया गया। अब हाईड्रोक्सीक्लोक्वीन को भी कोरोना के इलाज में कारगर नहीं माना जा रहा है। मतलब कोरोना के मरीजों की जान के साथ खिलवाड़ किया जाता रहा। उन्हें गलत दवाई दी जाती रही और उनकी हत्या की जाती रही। कितने मरीज तो ऐसे होंगे जो अपने परिजनों को अपनी पीड़ा बताना चाहते होंगे। ऐसे भी कितने डॉक्टर होंगे जिन्हें डॉक्टरों के रवैये से अपनी जान को खतरा होगा पर कोरोना के इलाज में ऐसी व्यवस्था बना रखी थी कि परिजनों को मरीजों से मिलने ही नहीं दिया जा रहा था। जो पेशा भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो। उस पर इन परिस्थितियों में कैसे विश्वास किया जा सकता है।  इन परिस्थतियों में भी मरीजों की किडनी या फिर दूसरे अंगों के निकालने से इनकार नहीं किया जा सकता है। वैसे भी कोरोना महामारी में भी मरीजों की किडनी निकालने के आरोप लगे हैं। जब कोरोना से मरे व्यक्ति का शव परिजनों को सौंपा ही नहीं गया तो फिर कौन देखेगा उसका कौन सा अंग सुरक्षित है।
कोरोना महामारी में इलाज की समीक्षा की जाए तो घर में रहकर इलाज कराने वाले लाखों मरीज पूरी तरह से ठीक हुए हैं। यह अस्पतालों द्वारा बनाये गये हालात ही थे कि अस्पताल में जाने का मतलब तो लोग मौत ही मानने लगे थे। ऐसे कितने मामले हुए हैं कि ठीक-ठाक बात कर रहे आदमी को थोड़ी देर बाद मृत घोषित कर दिया गया।
यह कोरोना मरीजों की जान से खिलवाड़ ही है कि कभी कोई सी दवा तो कभी कोई सी। रेमडेसिवर और प्लाज्मा थेरेपी के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोरोना मरीजों के इलाज के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन, आइवरमेक्टिन, डॉक्सीसाइक्लिन समेत कई दवाओं पर रोक लगा दी है, जबकि इससे पहले इन दवाओं कोरोना मरीजों पर जमकर इस्तेमाल किया जा रहा था। केंद्र सरकार की ओर से जारी नई गाइडलाइंस के मुताबिक, जिन मरीजों में कोरोना संक्रमण के लक्षण नजर नहीं आते या हल्के लक्षण हैं, उन्हें किसी तरह की दवाइयां लेने की जरूरत नहीं है। ये ही मंत्रालय किसी भी तरह के बुखार को कोराना मानकर चल रहा था। लगभग हो भी यही रहा था कि थोड़ा सा भी बुखार होने पर जिस व्यक्ति ने कोरोना का टेस्ट करा लिया वह पॉजिटिव ही निकला।  इसे गलत दवाओं का साइड इफेक्ट ही कहा जाएगा कि कोरोना से ठीक हुए लोगों में ब्लैक, व्हाइट और येलो फंगस हो रहा है। कितने लोगों की आंखें निकालने पड़ी, कितने लोगों ने दम तोड़ दिया और कितने बीमारी की चेपट में हैं।
मोदी सरकार और उसके समर्थक भले कोरोना से जीतने दावा करते हुए इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देने में लग गये हों पर जमीनी हकीकत यह है कि कोरोना अभी गया नहीं कि कोरोना वायरस के बाद महामारी बनी फंगस बीमारी ने विकराल रूप ले लिया  है। इस बीमारी ने देश के 28 राज्यों में पैर पसार लिये हैं। खुद स्वास्थ्य मंत्रालय 28 राज्यों में 28 हजार से ज्यादा मामले सामने आने की बात कर रहा है। करीब 300 मरीजों की मौत होने की बात कही जा रही है।
यह पूरी दुनिया के लिए मंथन का विषय है कि कोरोना वायरस की उत्पत्ति के साथ फैलने के पीछे की वजह और इसका इलाज डेढ़ साल भी एक पहेली बना हुआ है। पूरी दुनिया वैक्सीन के भरोसे है। यह भी जमीनी हकीकत है कि भारत में तो डबल डोज लेन के बाद भी कई लोगों की मौत हुई है। अभी दुनिया के वैज्ञानिक इस नतीजे पर भी नहीं पहुंच पाये हैं कि यह प्राकृतिक आपदा है या फिर जैविक हथियार। हालांकि अग्रणी वैज्ञानिकों के एक ग्रुप  का कहना है कि कोरोना वायरस के प्रयोगशाला से आकस्मिक फैलने की घटना को खारिज नहीं किया जा सकता है। ये वैज्ञानिक विश्व स्वास्थ्य संगठन के चीन को क्लीन चिट देने पर आश्वस्त नहीं हैं। 18 वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी भी अधिक जांच करने की जरूरत है, जिससे महामारी की उत्पत्ति को निर्धारित किया जा सके।
गौरतलब है कि नोवेल कोरोना वायरस 2019 के अंत में चीन में उजागर हुआ था। उसने लाखों लोगों की जिंदगी छीन ली है और करोड़ों लोगों को बीमार कर दिया है। इसके अलावा, दुनिया की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है।  चीनी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखी गई अपनी अंतिम रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम ने कहा है कि वायरस का ट्रांसमिशन शायद चमगादड़ों से इंसानों में दूसरे जानवरों के जरिए हुआ हो और एक कारण के रूप में 'अत्यंत संभावनाÓ नहीं है कि ये लैब से फैला हो। डब्ल्यूएचओ के खाद्य सुरक्षा एवं जंतु रोग विशेषज्ञ पीटर बेन एम्बारेक ने कहा था कि चीन की प्रयोगशाला से कोरोना वायरस के फैलने की आशंका नहीं है। वैज्ञानिकों ने  मांग की है कि बौद्धिक रूप से कठोर और निष्पक्ष जांच होने की जरूरत है। 

Thursday 3 June 2021

सब कुछ खत्म कर दे रहे हैं बनावटी रिश्ते



आज की तारीख में जिस तरह से आदमी विभिन्न बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है। समस्याएं उसका पीछा छोडऩे को तैयार नहीं। आदमी की जिंदगी में हर खुशी बनावटी नजर आती है। समाज से प्यार-मोहब्बत और लगाव खत्म होता जा रहा है। खून, व्यवहार से ज्यादा स्वार्थ के रिश्ते फलफूल रहे हैं। हर अच्छे रिश्ते के निभाने में हर कोई विफल नजर आ रहा है। यदि हम इन सब पर मंथन करें तो पाते हैं कि ये सब कुछ बनावटी रिश्तों के चलते हो रहा है। आत्मीयता के रिश्तों की जगह बनावटी रिश्ते हम पर हावी होते जा रहे हैं। इसका बड़ा कारण हम संबंधों से ज्यादा तवज्जो पैसे को देने लगे हैं। लोग तो पहले से ज्यादा सम्पन्न हुए हैं पर देखने में आता है कि लोगों की समस्याएं और उनमें बीमारी तो पहले से ज्यादा देखी जा रही हैं। फिर ऐसा क्यों ? जब इस संदर्भ में मैं अक्सर लोगों से बात करता हूं कि यह बात निकल कर सामने आती है कि पैसे के बिना कुछ नहीं है। अच्छी जिंदगी जीने के लिए पैसा होना बहुत जरूरी है। निश्चित रूप से आदमी की जिंदगी में पैसे की बहुत अहमियत है। पर क्या पैसा ही सब कुछ है ? क्या हम पैसे के सामने अपनों की कद्र करना भूलते नहीं जा रहे हैं ? क्या पैसा बनावटी रिश्ते नहीं पैदा कर रहा है ? क्या यही पैसा हमारे आत्मीयता के रिश्तों को खत्म नहीं करता जा रहा है। क्या पैसे ने हमारी जिंदगी को बनावटी नहीं बना दिया है ?
एक समय था कि हम हम एक से बढक़र एक परेशानी को परिवार में बैठकर निपटा लेते थे। इसका बड़ा कारण यह था कि हम हर रिश्ते का सम्मान करते थे। रिश्ते बनावटी नहीं बल्कि आत्मीयता के होते थे। लोग एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करते थे। आज की तारीख में सब कुछ बनावटी चल रहा है। यदि किसी से आपका स्वार्थ निकल रहा है तो बहुत अच्छा है स्वार्थ निकलते ही वही अच्छा आदमी बुरा हो जाता है। हम पैसे वाले आदमी की हर कमी में अच्छाई निकालनी शुरू कर देते हैं और पैसे के अभाव में जिंदगी जी रहे आदमी की हर अच्छाई में कमी निकालने लगते हैं। विडंबना यह है कि पारिवारिक रिश्तों में भी अविश्वास ने जगह बना ली है। भाई-बहन, बाप-बेटा, पति-पत्नी, भाई-भाई के साथ ही हर दूसरे अपने रिश्तों में दरार आई है। इन सबका कारण यह देखने को मिलता है कि रिश्तों में बनावटीपन के साथ ही अविश्वास भी देखा जा रहा है। यही वजह है कि सुख और दुख भी बनावटी हो गया है। इन सबका असर आदमी के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। आदमी के अंदर का मैल गंभीर बीमारियों को जन्म दे रहा है। हर कोई अपने को अकलमंद और दूसरे को बेवकूफ समझ रहा है। समाज में स्थिति यह हो गई है कि दूसरों को बेवकूफ बनाने वाले व्यक्ति को चतुर और होशियार की संज्ञा दी जा रही है और दूसरों के काम आने वाले भावुक लोगों को उसके अपने ही बेवकूफ समझने लगे हैं। बनावटी रिश्तों से सबसे अधिक नुकसान परिवारों को हो रहा है। परिवारों में गृह क्लेश के मामले बढ़ रहे हैं। गृह क्लेश है कि घर की बर्बादी में इसका सबसे बड़ा योगदान होता है। एक-दूसरे की परेशानी समझने की बजाय लोग अपना स्वार्थ निकालने में लगे हैं। ऐसे नहीं है कि यह सब परिवारों में ही चल रहा है। सत्ता, विपक्ष, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, विभिन्न कार्यालयों में सब कुछ बनावटी ही चल रहा है।
कोरोना महामारी में रिश्ते-नाते व्यवहार और जिम्मेदारी सब कुछ देखने को मिल गई है। जिन मां-बाप ने जिन बच्चों की परिवरिश में अपना सब कुछ लूटा दिया। उन्होंने ही उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया। संक्रमित होने के बाद दम तोडऩे वाले कितने मां-बाप को उसके बच्चों देखने से भी इनकार कर दिया। इतना ही विभिन्न शमशानों में कितने बुजुर्गांे की अस्थियां अपनों का इंतजार कर रही हैं। उत्तर प्रदेश और हिार में विभिन्न नदियों में कितने शवों को कुत्तों औेर कौवें के नोचने के दृश्य आज के बनावटी रिश्तों के संबंधों औेर लगाव को उजागर कर रहे हैं। ये क्या हो गया है हमारे समाज को हम किसका नुकसान कर रहे हैं। हम किसका परिवार बर्बाद कर रहे हैं। हम किसे धोखा दे रहे हैं ? हमें यह समझना चाहिए यह सब कुछ हम अपने ही लिये ही कर रहे हैं। जो लोग आज अपने मां-बाप और बुजुर्गांे के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं कल उनके बच्चे जब उनके साथ ऐसा करेंगे तब उनकी समझ में आएगा। क्या हम अपनी इन गलतियों को आज ही नहीं सुधार सकते हैं। क्या इस गलती के सुधारने से हम अपने बुजुर्गांे औेर अपने बच्चों के लिए कुछ अच्छा नहंी कर जाएंगे। देश औेर समाज सुधारने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत बनावटी रिश्तों से निकलकर आत्मीयता के रिश्तों को अपनाने की जरूरत है। देश में जितनी जरूरत राजनीति में सुधार की है उससे कहीं ज्यादा सुधार की जरूरत समाज में है। हर कोई महसूस करे कि क्या देश बदल गया है ? जमीन बदल गई है ? क्या हमारे ॅघर बदल गये हैं ? वही देश, वही समाज, वही लोग फिर ये बनावटी पन क्यों ? जैसे भी हैं वैसे ही रहें। जो भी रिश्ते बनाएं आत्मीयता से बनाएं। यह करके हम किसी और का नहीं बल्कि अपना ही फायदा करेंगे। क्योंकि बनावटी रिश्ते विकार पैदा करते हैं औेर आत्मीयता के खुशी।

Wednesday 2 June 2021

New Generation and Corona: कोरोना वायरस के खतरे में नई पीढ़ी


New Generation and Corona: कोरोना वायरस का प्रकोप आखिर प्राकृतिक आपदा है या फिर जैविक हथियार? यदि प्राकृतिक आपदा है तो यह समाप्त क्यों नहीं हो पा रहा है? जैविक हथियार है तो फिर इसे किसने बनाया? अब सबसे बुरी हालत भारत की है। आज चर्चा इसी पर।


New Generation and Corona: क्या कर रहे हैं अंतरराष्ट्रीय संगठन?

New Generation and Corona: कोरोना वायरस तरह तरह के रूप धारण कर खतरनाक रूप लेता जा रहा है। दुनिया के सामने बड़ा प्रश्न है कि आखिर यह महामारी खत्म कब होगी? जिस तरह से दुनिया इस महमारी के सामने बेबस है, उससे लोगों के मन में इसकी उत्पत्ति और इलाज का प्रश्न घर करता जा रहा है।


आखिर यह प्राकृतिक आपदा है या फिर जैविक हथियार? यदि प्राकृतिक आपदा है तो इसका इलाज क्यों नहीं हो पा रहा है? जैविक हथियार है तो फिर किसने बनाया? उससे क्यों नहीं निपटा जा रहा है? डब्ल्यूएचओ, यूएन के साथ ही मानवता पर काम करने वाले अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन क्या कर रहे हैं?


हथियारों की होड़ मानवता के लिए बड़ा खतरा

New Generation and Corona: दुनिया के शासक क्या कर रहे हैं? क्या हथियारों की होड़ मानवता के लिए बड़ा खतरा नहीं बन चुकी है? यह जमीनी हकीकत है कि कोरोना महामारी पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी आफत बन चुकी है। स्थिति यह है कि एक आफत से निकला नहीं जाता कि दूसरी तैयार हो जाती है। हां, यह कड़ुवी सच्चाई है कि मौजूदा हालात में सबसे बुरी हालत भारत की है।


कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद भी प्रभावित लोग दूसरी अन्य बीमारियों से जूझने को मजबूर हैं। जो लोग कोरोना संक्रमण को झेल जा रहे हैं, उनमें कई तरह तरह के फंगसों की चपेट में आ जा रहे हैं। फंगस भी एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा लगातार खतरनाक बन रहा है।


कोई ब्लैक फंगस तो कोई व्हाइट फंगस और कोई येलो फंगस की चपेट में

कोई ब्लैक फंगस तो कोई व्हाइट फंगस और कोई येलो फंगस की चपेट में आ रहा है। यह अपने आप में चिंता को और बढ़ाने वाला मामला है कि कोविड से ठीक होने के बाद बच्चों में मल्टी-सिस्टम इन्फ्लैमेटरी सिंड्रोम बीमारी पैदा हो जा रही है। इस सिंड्रोम में बच्चों के कई अंग प्रभावित होते हैं।


कोविड-19 से संक्रमित होने के कुछ हफ्तों बाद यह बीमारी बच्चों को शिकार बना रही है। स्थिति यह है कि कोराना महामारी से निपटा नहीं जा सका है कि फंगसों की महामारी आ खड़ी हुई। तीसरी लहर का अंदेशा अलग से। तीसरी लहर को दूसरी लहर से भी ज्यादा खतरनाक बताया जा रहा है। दिल्ली में 45 हजार तक लोगों के प्रतिदिन संक्रमण होने की बात कही जा रही है।


कोविड-32 के आने की आशंका

कोविड-19 खत्म नहीं हुआ कि कोविड-32 के आने की आशंका जताई जाने लगी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी दुनिया में 17 करोड़ लोगों के संक्रमण और 35 लाख लोगों की मौत की बात सामने निकल कर आई है। हालांकि यदि जमीनी हकीकत पर जाएं तो 35 लाख लोग तो भारत में दम तोड़ चुके होंगे। चीन में फिर से कोरोना संक्रमण के साथ ही बर्ड फ्लू के मामले मिलने से दुनिया के सामने और खतरा मंडराने लगा है।


कोरोना भी चीन के वुहान शहर से ही दुनिया में फैला है। यह भी अपने आप में दिलचस्प है कि जब दुनिया में करोड़ों लोग कोरोना से दम तोड़ चुके हैं। दुनिया के निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाय अभी वायरस की उत्पत्ति पर ही बहस छिड़ी हुई है। कोरोना वायरस कैसे बना और कहां से लीक हुआ। इसका जवाब दुनिया महामारी के डेढ़ साल बाद भी ढूंढ नहीं पाई है।


महामारी से निपटने के लिए पीएम मोदी के पास कुछ भी नहीं

भले ही दुनिया के तमाम देश ने इसके लिए चीन, उसकी वुहान वायरॉलजी लैब और बाजार को जिम्मेदार बता रहे हों पर प्रमाणिकता से साथ कोई नहीं कह पा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री ने भी कोरोना महामारी को प्राकृतिक आपदा ही बताया है। वह बात दूसरी है कि कोरोना वैक्सीन के दावे के अलावा इस महामारी से निपटने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है।


यह भी दिलचस्प है कि अब एक बार फिर से वुहान की यह वायरॉलजी लैब चर्चा में है। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अमेरिकी इंटेलिजेंस रिपोर्ट के हवाले से दावा किया है कि नवंबर 2019 में लैब के तीन रिसर्चर कोविड-19 के लक्षणों के साथ अस्पताल में भर्ती कराए गए थे। इसके एक महीने बाद चीन ने आधिकारिक तौर पर सांस संबंधी एक नई बीमारी की जानकारी दुनिया को दी थी।


वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट

वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के बाद एक बार फिर से अप्रैल 2012 में चीन के युन्नान प्रांत में तांबे की खदान, उसमें काम करने वाले तीन मजदूर, चमगादड़ों का घर, मजदूरों के बीमार होने के बाद मौत, इनके ब्लड के सैंपल वुहान वायरॉलजबी लैब का भेजने, बैट वुमन के नाम से मशहूर डॉ. शी झेंगली का अनैलेसिस, जांच में तीनों मजदूरों की मौत फंगल से होने का उल्लेख है।


ऐसे में प्रश्न उठता है कि महामारी के डेढ़ साल बाद भी अपने को सुपर पॉवर मानने वाला अमेरिका बस वायरस की उत्पत्ति की बहस में ही उलझा रहेगा या फिर इस महामारी से निपटने का कोई उपाय भी ढूंढेगा। भारत में तो जिस तरह से केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों के पास लॉकडाउन के अलावा महामारी से निपटने के लिए कोई उपाय न था, उससे तो यही कहा जा सकता है कि अभी तक इस महामारी का कोई इलाज तैयार ही नहीं हुआ है।


वैक्सीन की दोनों डोज के बावजूद मौतों से चिंता

बस वैक्सीन के सहारे महामारी से निपटने का तरीका ढूंढा जा रहा है, जबकि वैक्सीन की दोनों डोज के बावजूद लोगों की मौत हुई है। सबसे हात्यास्पद स्थिति तो विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ की है। डब्ल्यूएचओ कोरोना महामारी में कहीं से विश्वसनीय संगठन साबित नहीं हो पाया। ऐसा लगता है कि जैसे यह संगठन बस फंडिंग तक सीमित होकर रह गया है।


जब डब्ल्यूएचओ को महामारी का निदान ढूंढना चाहिए, ऐसे में वह कोरोना वैरिएंट्स का नामकरण कर रहा है। डब्ल्यूएचओ को लोगों को बचाने की नहीं बल्कि वैरिएंट्स को आसानी से याद रखे जाने की चिंता है। आखिरकार दुनिया में डब्ल्यूएचओ का काम क्या है? दुनिया को महामारी की उत्पत्ति और उसके निदान का हल ढूंढने की जिम्मेदारी और जवाबदेही डब्ल्यूएचओ की बनती है। दुनिया के शासकों का काम बस धंधा करना ही रह गया है?


निष्कर्ष

New Generation and Corona: दुनिया की सरकारें बस हथियारों की खरीद-फरोख्त के लिए ही बनी हैं क्या? दरअसल, दुनिया ने महात्मा बुद्ध, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों के मानवता के वसूलों पर काम करने के संदेश को भुला दिया है। भौतिकता की दौड़ में प्रकृति से खिलवाड़ और हथियारों की होड़ मानव को लील रही है।

Saturday 29 May 2021

देश को चरण सिंह जैसे किसान नेता की जरुरत

(29 मई पुण्यतिथि जयंती पर विशेष )                      


आज की तारीख में जिस तरह से मोदी सरकार ने पूंजीपतियों को खेती कब्जाने के लिए किसान ही नहीं बल्कि पूरी जनता की बर्बादी के लिए नये किसान कानून बनाये हैं। जिस तरह से छह महीने से किसान देश की राजधानी के चारों ओर डेरा जमाये बैठे हैं पर मोदी सरकार उनकी मांग को अनदेखी कर रही है। उल्टे उन्हें ही गलत साबित कराने के लिए गोदी मीडिया को लगा दिया है। जिस तरह से कृषि प्रधान देश में किसानों को नक्सली, आतंकवादी, डकैत, देशद्रोही बताया जा रहा है। ऐसे में चौधरी चरण सिंह जैसे जमीनी किसान नेता की जरुरत महसूस की जा रही है। वैसे तो किसानों के नाम पर कई नेताओं ने राजनीति की है और कर भी रहे हैं पर यदि किसानों के लिए यदि किसी ने सच्चे मन से किया है तो वह चौधरी चरण सिंह ही थे। चरण सिंह किसानों के नेता के साथ ही खांटी समाजवादी थे। 
समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को जाता हो पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर लम्बे समय तक काबिज रहने वाली समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए, उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि हरियाणा और बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक पाठ पढ़ाया। चरण सिंह का किसानों के पार्टी समर्पण ही था कि समाजवादी नेताओं ने किसानों के लिए कुछ न कुछ जरूर किया। 
      आज भले ही उनके शिष्यों पर परिवाद और पूंजीवाद के आरोप लग रहे हों पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद और परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हां अजित सिंह को विदेश से बुलाकर पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन पर पुत्रमोह का आरोप जरूर लगा। तबके कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के पास भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। यह उनकी ईमानदारी का प्रमाण है कि मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन और मकान नहीं था।
    चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। चरण सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह मूर्ति पूजा, पाखंड और आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई और न ही मूर्ति पूजा की। चौधरी चरण सिंह की नस-नस में सादगी और सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया।शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चरण सिंह ने कहा था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे, चाहे कोई भी लीडर आ जाये, चाहे
कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ, वह देश तरक्की नहीं कर सकता।
वैसे तो चौधरी चरण सिंह छात्र जीवन से ही विभिन्न  सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे थे पर उनकी राजनीतिक पहचान 1951 में उस समय बनी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग संभाला।
    चरण सिंह स्वभाव से ही किसान थे। यह उनका किसानों के प्रति लगाव ही था कि उनके हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। उस समय तक वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे। उन्होंने किसान नेता की हैशियत से उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। किसानों में सम्मान होने के कारण चरण सिंह को किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हे भाषण देने में महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुट जाती थी। यह उनकी भाषा शैली ही थी कि लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। 1969 में कांग्रेस का विघटन हुआ तो चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडिकेट के प्रति रही। वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बने पर बहुत समय तक इस पद पर न रह सके।
    कांग्रेस विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा था। केंद्रीय स्तर पर हुआ विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे। इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बने रहे। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले मे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था। इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश होने का कारण एक वजह था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार न था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी ने दो अक्टूबर 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और बढ़ गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना संभव न था। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी नेता माने जाते हैं। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
   ईमरजेंसी लगने के बाद 1977 में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी जीती तो आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण के सहयोग मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया। सरकार बनने के बाद से ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। कांग्रेस और सीपीआई ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। प्रधानमंत्री बनने में इंदिरा गांंधी का समर्थन लेना राजनीतिक पंडित चरण सिंह की पहली और आखिरी गलती मानते हैं।
    दरअसल इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने ही चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी थी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली और प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने 20 अगस्त 1979 तक लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने को  कहा इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले । इसे चरण सिंह का दुर्भाग्य कहें या फिर समय की नजाकत कि इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असंभव ही है। यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगा दी थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमें कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए, चौधरी साहब इसके लिए तैयार न थे। इसलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गई। वह जानते थे कि जो उन्होंने ईमानदार और सिद्धांतवादी नेता की छवि बना रखी। वह सदैव के लिए खंडित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
   प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की तरह जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण उन्हें जनता की सहानुभूति मिलेगी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी कि वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजाÓ के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
   चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बत करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धांतवादी आरै अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पद पहुंचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी थे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लें तो फिर उसे पूरा करके ही दम लेते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद गांधी टोपी को कई दिग्गज नेताओं ने त्याग दिया था पर चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यंत धारण किए रखा।
    बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'आबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेंड प्रोपराटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एंड सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्वपूर्ण कारण बना।