Monday 27 July 2015

राजनीतिक नपुंसक हैं किसानों को नपुंसक कहने वाले

   किसी कृषि प्रधान देश के लिए उससे शर्मनाक बात नहीं हो सकती कि उसका कृषि मंत्री किसानों का दुख-दर्द समझने के बजाय आत्महत्याओं का कारण नपुंसकता बताने लगे। दूसरों के लिए खाने की व्यवस्था करने वाले किसान को नपुंसक कहने वाले राजनीतिक नपुंसक हैं। ऐसे लोगों को किसानों का प्रतिनिधि करने का कोई अधिकार नहीं। देश का दुर्भाग्य देखिए कि जिस देश में एक प्रधनामंत्री ने 'जय जवान जय किसान" का नारा दिया वहीं उस देश का प्रधानमंत्री कृषि मंत्री के इस घिनौने बयान पर चुप्पी साधे बैठा है। यह संवेदनहीनता का पराकाष्ठा है। हिन्दुस्तान की राजनीति के इतिहास में सबसे घिनौना बयान है। यदि ऐसा नहीं है तो केंद्र सरकार बताए इस साल कितने नेताओं ने आत्महत्या की है। कितने पूंजीपतियों ने आत्महत्या की है आैर कितने नौकरशाहों ने आत्महत्या की है, जबकि किसानों ने हजारों की संख्या में आत्महत्या की है।
   जमीनी हकीकत यह है कि सरकारों ने किसान के सामने ऐसी परिस्थतियां पैदा कर दी हैं कि उसके सामने जान देने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है आैर राजनेता  देखिए कि उसकी मौत का भी मजाक बना रहे हैं। निर्लज्जता मामले में कृषि मंत्री से आगे पहुंच गए हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। जो अपने को चाय बेचने वाले का बेटा बताते हैं वह प्रधानमंत्री पूंजपीतियों के दबाव में किसान-मजदूर को तबाव करने पर तुले हैं।  सस्ते श्रम आैर सस्ती जमीन का ऑफर देकर विदेशी निवेशकों को आमंत्रित कर रहे हैं। भले ही उनकी इस योजना में देश के किसान व मजदूर का अस्तित्व ही मिट जाए।
   कृषि मंत्री जी अपने मंत्रालय के ही आंकड़े देखिए 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख हो गई। प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ऋणों के बोझ के कारण भी बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ रहे हैं। गत दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी कृषकों की संख्या कम है।  कृषि मंत्री जी किसानों ने खेती खुशी से नहीं छोड़ी है। परिस्थितियों से जूझते-जूझते वे इतने तंग आ चुके हैं कि उन्हें खेती छोड़नी पड़ी। आप भले ही आने वाली धान की फसल पर उम्मीद लगाए बैठे हों पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार प्रतिशत की, 2050 तक सात प्रतिशत तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस प्रतिशत की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज मे,ं 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है।
   बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए, सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो प्रदेश का 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से बुवाई वाली भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है, जो कुल भूमि का 69.5 फीसद बनता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग इस भूमि में खेती करते हैं।  सरकारी आंकड़ों को ही ले लीजिए। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। प्रदेश में हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीटयुक्त हो रही है। आज कल प्रदेश की सालाना आय का 31.9 फीसद खेती से आता है। जो फीसद 1971 में 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था।
    देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने भी किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश तो आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा भी नहीं कि सरकार किसानों की तंगहाली के लिए कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गर्इं। पर पता चला है कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलिये को। हां किसानों के नाम पर डिफाल्टर किसानों को जरूरत राहत मिली। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 को यूपीए सरकार द्वारा लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली हैं। आंध्र के कई गरीब किसान किडनी बेचकर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही थी। पर क्या हुआ ? मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ें तो यह ही बताते हैं कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ऋण, ऋण माफी योजनाएं किसानों के लिए सब बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर है।
   इसमें दो राय नहीं कि 90 के दशक तक जनता के बीच के लोग जनप्रतिनिधि बनते थे, जो विधानसभा आैर लोकसभा में किसान-मजदूर के हितों की लड़ाई लड़ते थे। कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समय तक आम आदमी का ख्याल रखा गया तो भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के समय तक। समाजवादियों में डॉ. राम मनोहर लोहिया व लोक नायक जयप्रकाश नारायण के बाद मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद व रामविलास पासवान ने कुछ समय तक किसानों के हितों की लड़ाई लड़ी पर आज के हालात में तो जैसे हर पार्टी की राजनीति वोटबैंक तक सिमट कर रह गई है।
   यह कहना गलत न होगा कि साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के 'जय जवान जय किसान" के नारे को आजकल झूठलाया जा रहा है। दरअसल किसानों से हमदर्दी दिखाने का दावा तो हर सरकार करती है पर सच्चाई यह है कि किसानों की मनोस्थिति समझने को कोई तैयार ही नहीं। किसानों के हालात को जानने के लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि हमारे के लिए अन्न पैदा करने के लिए किसान को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। देश को चलाने का दावा करने वाले नेताओं को यह समझने की जरूरत है कि जब वे वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बना रहे होते हैं तो किसान अपने खेतों मे मौसम की मार झेल रहा होता है। गर्मी, सर्दी, बरसात से किस तरह जूझते हुए किसान अन्न उपजाता है। इन सब परिस्थतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि में किसान अतिरिक्त मेहनत करता है। किसानों को खेती से जोड़ने के लिए एक मुश्त राशि के रूप में मेहनत भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि यदि सरकारें किसानों के हितों का इतना ही ख्याल रख रही हैं तो किसान खेती से पलायन क्यों कर रहे हैं ? खाद्यान्न के रेट बढ़ रहे हैं तो किसानों की हालत दयनीय क्यों होती जा रही है ? किसानों की खुशहाली के लिए बड़े स्तर पर कदम उठाए जा रहे हैं तो किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 लोग किसान थे।

Tuesday 21 July 2015

तो अब आरटीआई के दायरे में आ जाएंगे राष्ट्रीय दल

   राजनीतिक दलों ने देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि राजनेता हर व्यवस्था को अपने अनुसार ढालना चाहते हैं। इनका ऐसा रवैया है कि ये लोग चाहते हैं कि हर संस्था में उनका हस्तक्षेप हो। हर एसोसिएशन में उनकी भागेदारी हो। हर विभाग उनकी निगरानी में हो। हर किसी से ये लोग हिसाब मांग सकें पर उन पर किसी संस्था का अधिकार न हो। उनके क्रियाकलापों पर किस की नजर न हो। उनकी संपत्ति के बारे में कोई जानकारी न ले सके। उनकी पार्टी के चंदे के बारे में कोई जानकारी लेना चाहे तो उन्हें आपत्ति है। सूचना के अधिकार के तहत भी उन्हें जानकारी देने में आपत्ति है। भले ही सभी सरकारी विभाग आरटीआई के दायरे में आते हैं। भले ही सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को आरटीआई के तहत जानकारी देनी होती हो। पर राजनीतिक दल अपने को आरटीआई के दायरे में लाने को तैया नहीं।
   राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के लिए कई बार मांग उठी पर नेताओं ने अपने वर्चस्व के चलते उसे दबा दिया। इस बार इस मांग ने बड़ा रूप धारण किया है। अब यह मांग देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। कोर्ट ने भी कड़ा रुख अपनाते हुए चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे संगठन एडीआर की याचिका पर कड़ा संज्ञान लिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार आैर चुनाव आयोग के साथ ही उन छह दलों (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई आैर बसपा) को नोटिस भेजकर छह हफ्ते में जवाब मांगा है। 2013 में इन दलों को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) करार देते हुए आरटीआई के तहत आने आैर अपने यहां सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि इस नोटिस से राजनीतिक दल तिलमिलाएंगे तो पर वे वैसा रवैया नहीं अपना सकते, जैसा उन्होंने सीआईसी के आदेश के समय दिखाया था। तत्कालीन यूपीए सरकार के समय जब यह आदेश आया तो सब दल एक हो गए आैर संसद के माध्यम से इसे बेअसर करने का प्रयास किया गया यही वजह रही कि राजनीतिक दलों ने एक अच्छे प्रयास को विफल कर दिया।
   यह बात जरूर है कि जब सीआईसी के आदेश को कोर्ट में चुनौती देने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पाया था तो सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ तो जाने का मतलब ही नहीं उठता। इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों को रियायती जमीन आैर कर में छूट जैसी सुविधाएं उनकी विशिष्टता के कारण मलती है। राजनीतिक दलों के लिए अच्छा यह होगा कि वे पुरानी गलती को सुधारते हुए खुद को आरटीआई के तहत आने का ऐलान कर दें, क्योंकि इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
  राजनीतिक दलों को यह भी समझना होगा कि उन्हें आरटीआई के दायरे में लाने की मांग ने अब जोर पकड़ लिया है। जनता की राय जानने के लिए लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम ने भ्आनलाइन सर्वे कराया है, जिसमें 44.74 फीसद लोगों ने दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की सहमति दी है। उनका तर्क है कि इससे राजनीतिक दलों का जनता से सीधा संबंध होता है। जनता के वोट से ही उनकी सरकारें बनती हैं। इसलिए उनको सूचना के अधिकार के तहत आना ही चाहिए। 39.47 फीसद लोगों का हां में तर्क है कि आरटीआई के दायरे में लाने से जनता इनका लेखा-जोखा जान सकेगी। सभी के बीच में ये खुलासा हो पाएगा कि आखिर पाटियां इतना खर्च कहां से कर रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं उनके पास विदेश से तो धन आ रहा हो।