Friday, 17 April 2015

आखिर कब रुकेगा किसान की आत्महत्या का सिलसिला

जिस खेत से दहकां को मय्यसर न हो रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो
     सर मोहम्मद इकबाल का यह शेर आज के हालात में पूरी तरह से ठीक बैठ रहा है। एक ओर सरकार तो दूसरी ओर प्रकृति की मार से तबाह हुए किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारें हैं कि उनकी बेबशी पर मलहम लगाने के बजाय उनकी गरीबी का मजाक बना रही हैं। किसानों की रोजी-रोटी की कीमत मुआवजे से लगाई जा रही है वह भी ठेंगा दिखाकर। ऐसा नहीं है कि यह हालात किसानों के सामने नए हों। आदिकाल से किसान दयनीय हालत में है। यही वजह रही होगी कि सर मोहम्मद इकबाल ने शायद दहकां यानी किसानों की दुर्दशा पर झुंझलाकर कहा था, जो खेत उनको रोटी न खिला सके उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम अर्थात् गेहूं की बाली को जला दो। इकबाल से दौर से लेकर अब तक हालात वैसे ही बने हुए हैं। देश में काश्त, किसान आैर कर्ज एक-दूसरे के पर्यावाची सरीखे हो गए हैं। इसमें एक शब्द आैर जुड़ता है, कत्ल। यानी ऋण के बोझ तले दबकर या प्रकृति की मार से किसानों द्वारा जान दे देने की मजबूरी। कत्ल शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है कि साल-दर-साल केंद्र सरकार किसानों को बदतर हालात से उबारने के लिए ऋण सीमा में इजाफा करती रहती है।
    नई-नई घोषणाएं करती है। मनरेगा जैसी स्कीमें लाती है। अपने राजनीतिक फायदे आैर चुनाव को ध्यान में रखकर कर्ज माफी की घोषणाएं भी करती रहती है, लेकिन किसान हैं कि दयनीय हालत से उबर ही नहीं पा रहे हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। मौसम पर निर्भर देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी खुशहाल जिंदगी नहीं जी पा रहा है। खेती से मन उचाट होने के बाद किसान या शहर की ओर पलायन कर रहे हैं या फिर जान देकर जीवन से मुक्ति पाने का रास्ता तलाश रहे हैं।   
     दरअसल किसान सदियों से छला जा रहा है। जिस किसान की बदौलत भारत सोने की चिडि़या कहलाता था, उसे पहले भारतीय राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों आैर महाजनों ने निचोड़ा। फिर मुगल आए तो उन्होंने चूसा। अंग्रेजों ने तमाम हदें पार कर जमकर किसानों का शोषण किया। भारत में भले ही किसान दयनीय हालत में रहे पर उनका पसीना लंदन में महारानी विक्टोरिया के ताज में हीरे बनकर चमक में इजाफा करता रहा। देश आजाद हुआ, लेकिन कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से किसानों को आजादी नहीं मिली। 1950 के बाद महाजनों से किसानों को मुक्त कराने के लिए कोऑपरेटिव सोसायटियां शुरू की गर्इं। साठ की दहाई तक इन सोसायटियों की संख्या दो लाख बारह हजार तक पहुंच गई। इनसे लघु आैर सीमांत किसानों को फायदा भी हुआ, पर 1969 में बैंक के राष्ट्रीयकरण आैर ग्रामीण बैंकों के अस्तित्व में आने के बाद इन सोसायटियों को बेकार मान लिया गया। यह वह दौर था, जब भ्रष्टाचार पूरी तरह सीना तानकर भारत के आर्थिक मंच पर नमुदार हो चुका था। करप्शन के घुन आैर नौकरशाहों के नाकारेपन ने कोऑपरेटिव सोसायटियों को दीवालियापन के दरवाजे पर ला खड़ा किया। उधर, बैंक भी विश्व बाजार से काफी कुछ सीख-समझ चुके थे। उन्हें हर सूरत में क्लाइंट चाहिए था। किसान भी उनके लिए क्लाइंट से ज्यादा नहीं थे। बैंकों ने उन्हें भी दुहना शुरू कर दिया। महाजनों आैर कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटियों के मकड़जाल से निकलकर किसान बैंकों के गड़बड़झाले में फंस गए। तब से तरह-तरह कथित धरती पुत्रों को लूटने का दौर जारी है।
    हालांकि सरकारें समय-समय पर किसानों के हित में योजनाएं लाती हैं पर उनका फायदा या तो बैंक उठा लेते हैं या फिर बिचौलिए। यूपीए सरकार की खामिया उजागर कर केंद्र में काबिज हुए मोदी सरकार भी अन्य सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है। बात 2008 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई कृषि ऋण माफी योजना की ही ले लीजिए। इस योजना खुलासा सरकारी लेखा परीक्षक यानी सीएजी गत दिनों ही किया था। सरकार के खर्च पर बारीक नजर रखने वाली इस एजेंसी ने किसानों को राहत देने के लिए लाई गई 52,000 करोड़ की ऋण माफी योजना में भारी गड़बड़ी की बात उजागर की थी। किसान ऋण माफी योजना में जो बात उजागर हुई थी उसमें योजना फायदा या तो बैंकों को हुआ, या फिर डिफाल्टर किसानों को,  ईमानदार किसान मात्र छला गया। गत दिनों कैग के किए गए खुलासे में जो बात सामने आई थी उसमें उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश आैर महाराष्ट्र के हिस्से में 57 फीसद कर्ज आया था। आंध्र प्रदेश के हिस्से में 11,000 करोड़ की रकम आई। करीब 77 लाख किसानों के बीच यह रकम बांटी गई थी, लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे किसानों को फायदा पहुंचाया गया जो योजना के पात्र थे ही नहीं। छोटे आैर गरीब किसानों को इसका लाभ नहीं मिला आैर गुरबत आैर कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पाए।
     आंध्र प्रदेश ग्रमाीण बैंक ने कई किसानों की कैटेगरी बदलकर बड़े किसानों को सीमांत बना दिया आैर उनका कर्ज माफ हो गया। यह केवल आंध्र प्रदेश में नहीं हुआ था, बल्कि देश के 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली थी। यही सब वजह रही थी कि आंध्र प्रदेश को ऋण माफी का बड़ा हिस्सा मिलने के बावजूद कई गरीब किसान कर्जा उतारने के लिए किडनी बेचने को मजबूर हो गए थे। देश की व्यवस्था दोखिए कि कैग की रिपोर्ट के बाद  काफी हो-हल्ला मचाया गया था। मामले की जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही गई थी। गत दिनों इस मामले में किसानों के साथ न्याय करने की बात भी सामने आई थी पर क्या हुआ ? 'ढाक के तीन पात"।
सरकारी उपेक्षा के साथ ही यह भी जमीनी हकीकत है कि खेती की भूमि तो बढ़ नहीं रही पर परिवार बढ़ते जा रहे हैं। जाहिर है कि किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है।
     बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए, सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो प्रदेश का 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से बुवाई वाली भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है, जो कुल भूमि का 69.5 फीसद बनता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग इस भूमि में खेती करते हैं।  सरकारी आंकड़ों को ही ले लीजिए। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। प्रदेश में हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीटयुक्त हो रही है। आज कल प्रदेश की सालाना आय का 31.9 फीसद खेती से आता है। जो फीसद 1971 में 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। जाहिर है कि किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है। सोचने का विषय यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं।
      यह किसानों की न निपटने वाली समस्या ही है कि कृषि प्रधान देश में किसान ही अपने पेशे से पलायन करने लगे हैं। जी हां किसानों के खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक तो मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी, अब केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया है। आज के हालात में किसानों के सामने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि वे उपज से लागत भी नहीं निकल पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में पेश पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कोढ़ में खाज का काम कर रही है। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि लगातार हो रहे भू-क्षरण के चलते देश का एक चौथाई से ज्यादा भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थल में तब्दील होता जा रहा  है। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख हो गई। प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ऋणों के बोझ के कारण भी बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ रहे हैं। गत दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है।     
     उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी कृषकों की संख्या कम है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार प्रतिशत की, 2050 तक सात प्रतिशत तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस प्रतिशत की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसा नहीं है कि किसानों के दर्द को न समझा गया हो। डॉ. राम मनोहर लोहिया आैर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अलावा तमाम जमीनी नेताओं की राजनीति की केंद्रीय धुरी किसान ही रहे। उन्होंने किसान समस्याओं को जोरदारी से उठाया। उनके बाद 60-70 के दशक तक किसान नेता चौधरी चरण सिंह किसान आैर सिर्फ किसान चिंता से जूझते रहे। उनका 'देश के विकास का रास्ता खेत-खलिहान से होकर जाता है" जुमला बेहद प्रसिद्ध आैर लोकप्रिय रहा। चौधरी साहब के बाद जाने कितने नेताओं ने यह लकीर पीटने की कोशिश की लेकिन डंका किसी का नहीं बजा क्योंकि किसान उनके लिए वोट था आैर इस वोट को पटाने का उनका गुणा-गणित किसान बिरादरी समय रहते समझ गई थी।   जाने कितनों ने चरण सिंह की इस छवि को ओढ़ने की कोशिश की लेकिन कलई खुल गई क्योंकि किसान उनकी केंद्रीय चेतना के दायरे से बाहर, हाशिए तक पर नहीं था। सरकारें भी समय-समय पर किसानों के कल्याण से जुड़ी योजनाएं लाती रही हैं। यह बात दूसरी है कि किसानों को इसका कोई खास लाभ नहीं मिल पाता। यह समय का ही तकाजा था कि बोफोर्स मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 समाजवादियों ने केंद्र में सरकार बनाई तो किसानों के 10,000 रुपए तक के कर्जे माफ किए गए। पर योजना का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर डिफाल्टर किसानों को।
     बात अपने को किसानों की पार्टी बताने वाली सपा की ही ले लीजिए जो सभी चुनावी वादे पूरे करना का दावा करती फिर रही है। उत्तर प्रदेश में सपा सरकार ने चुनावी घोषणा का हवाला देते हुए किसानों का  50,000 हजार रुपए तक का कर्जा माफ किया। इस योजना का लाभ किसानों को कम, डिफाल्टर किसानों व सरकार के अधीन भूमि विकास बैंक को ज्यादा हुआ। योजना के लाभ लेने चक्कर में कर्जा न चुकाने पर काफी संख्या में किसानों को चार फीसदी ब्याज की जगह 12 फीसदी ब्याज भरना पड़ा। दरअसल  समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में 50 हजार रुपए तक कर्ज माफ करने की बात कहने पर किसानों ने कर्जा जमा नहीं किया था। जब कर्जा माफ करने की घोषणा की गई तो मुख्यमंत्री ने योजना में 10 फीसद मूलधन जमा करने वालों के ही आने की बात कहकर किसानों को संकट में डाल दिया, जबकि अक्सर देखने में आता है कि किसान या तो कर्ज का ब्याज जमा करते हैं या फिर पूरा भुगतान। उत्तर प्रदेश में किसानों की हालत क्या है इसके अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे।
     किसानों की समस्याओं को लेकर लगभग सभी दल चिंतित होने का दावा करते हैं पर धरातल पर उनकी चिंता कितनी दिखाई देती है, इसका अंदाजा तो किसानों की दयनीय हालत देखकर ही लगाया जा सकता है। सबसे बुरा हाल तो गन्ना किसानों का है। किसान कर्जा लेकर गन्ना उपजाता है आैर मिल पर डाल आता है आैर जब भुगतान के बात आती है तो उसे आंदोलन करना पड़ता है। कई-कई सालों में जाकर भुगतान किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि समय से कर्जे का भुगतान न करने  पर सरकार किसान से चार की जगह 12 फीसद ब्याज वसूलती है पर किसानों के लंबित भुगतान पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता है। निजी चीनी मिलों के प्रबंधन के नखरे अलग।
      प्रश्न यह उठता है कि यदि सरकारें किसानों के हित की इतना ही ख्याल रख रही हैं तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? खाद्यान्न के रेट बढ़ रहे हैं तो आर्थिक स्थिति किसानों की सुधरनी चाहिए पर मोटे हो रहे हैं साहूकार व किसानों से संबंधित अधिकारी। यह प्रश्न आम आदमी के जहन में कौंधता रहता है कि किसान का बेटा खेती क्यों नहीं करना चाहता ? दूसरों के लिए अन्न उपजाना वाले किसान के नाम के आगे गरीब क्यों लग रहा है ?

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