Friday 25 October 2013

कहीं नई पीढ़ी के लिए कहानी न बनकर रह जाए खेत-खलिहान

    जिस तरह से नई पीढ़ी खेती में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो रहे युवाओं को खेती की बुनियादी जानकारी नहीं है। किसान का बेटा भी खेती से मुंह मोड़ रहा है। जोत के जमीन कम होती जा  रही है । ऐसे हालात में खेती को लाभ का कारोबार बनाकर युवा पीढ़ी को न रिझाया गया तो कहीं ऐसा न हो जाए कि नई पीढ़ी के लिए खेत-खलिहान कहानी बनकर ही रह जाए।  यह खेती के प्रति किसानों का बदलता नजररिया ही है कि अब वह या तो मजदूरों के बलबूते खेती कर रहा है या फिर अपनी जमीन बटाई पर दे देता है या फिर ठेके पर। यह सब किसान दिल से नहीं कर रहा है बल्कि खेती से उसकी लागत भी  न निकलने की वजह से उसे ऐसा करना पड़  रहा है । किसानों के बच्चों के सामने भी बड़ी परेशानी हैं कि गांव की राजनीति इतनी गन्दी हो चुकी है कि वहां रहना उनके लिए मुश्किल हो गया है। यही सब वजह है कि गावों के भी अधिकतर बच्चे शहरों में रहकर पढ़ रहे हैं, जो कुछ बच्चे गावों में हैं भी उनका दूर-दूर तक खेती से कोई वास्ता नहीं। ऐसा भी नहीं हैं कि किसानों के बच्चे खेती नहीं करना चाहते हैं। दरअसल देती में लगातार हो रहा घाटा उन्हें खेती से मोहभंग के लिए मजबूर कर रहा है। मेरा मानना है कि इन सबसे बावजूद किसान के बेटे को खेती से बिल्कुल ही कट नहीं जाना चाहिए। खेती उसके पूर्वजों की पहचान है।  जो कुछ जमीन भी बची है उसे संभाल के रखना है।
      एक समय था कि किसान का बेटा पढ़ने के साथ ही खेती में भी हाथ बंटाता था। उसका बचपन खेत-खलियान में ही बीतता था। कैसे फसल तैयार होती है, कैसे काटी जाती हैं। क्या-क्या परेशानी, उसे तैयार करने में आती है ये सब जानकारी उसे होती थी। यही सब कारण होते थे कि भले ही वह किसी क्षेत्र में चला जाए पर किसान की परेशानी नहीं भूलता था। आज के हालात में कहने को तो हर क्षेत्र में किसानों के बेटे हैं पर कोई किसानों के प्रति चिंतित नहीं दिखाई नहीं देता। ऐसा भी नहीं है कि किसानों से इन्हें कोई लगाव न रहा हो रहा हो। दरअसल इन्हें किसानों की समस्याओं के बारे में पता ही नहीं और न ही ये जानना  चाहते हैं। इसमें कहीं न कहीं अभिभावक भी दोषी हैं। आधुनिकता की दौड़ का हवाला देते हुए ये लोग बच्चों को गांव भेजते ही नहीं। आज के बच्चों के लिए फावड़ा, हल, कुदाल, खुरपी, दरांती जैसे खेती के यन्त्र अजीबो-गरीब शब्द हैं। रबी व खरीब की फसल में क्या-क्या पैदावार होती है। यह अच्छे से अच्छे पढ़े लिखे बच्चों को जानकारी नहीं। खेत व खलियान में क्या अंतर है, यह बच्चों से पूछकर देखो ? खेती के प्रति उनकी सोच का पता आपको चल जाएगा। खेती के प्रति नई पीढ़ी का मोहभंग सुनना भले ही आसान सा लग रहा हो  पर यदि समय रहते सरकार ने किसानों की समस्याओं पर ध्यान न दिया तो इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं।

Friday 11 October 2013

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

(पुण्यतिथि 12 अक्टूबर पर विशेष)
        जब हमारे देश में समाजवाद बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। डा. लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए 70  के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश की अगुआई में समाजवादियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक प्रष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई साल तक उत्तर प्रदेश पर राज किया और अब उनके पुत्र अखिलेश यादव पिता के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि आजकल जहां समाजवादियों पर वंशवाद का आरोप लग रहा है वहीं लालू प्रसाद चारा घोटाले में जेल में बंद हैं।
        आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरूआती दौर में समाजवादी जितने ईमानदार थे उतने ही खुद्दार भी। जहां तक डा. लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। देशभक्ति व  ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे।  लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई।  युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में  सुभाष चन्द्र बोश के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा।  लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना  की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री  नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 
    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे।1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट कहा।
    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया।  14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए।     उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।