बात उन दिनों (1993 ) की है जब मैं नॉएडा में करियर बनाने आया था। नॉएडा
से मोहननगर की बस देखता तो मन उसमें चढ़ लेने को करता। दरअसल मोहननगर से
बिजनौर की बस मिलती थी। जो सीधी मेरे गांव के पास होकर निकलती थी। जब कभी
घर जाने का मौका मिल जाता तो मन करता कि हवा में उड़कर अपनों में पहुंच जाऊं
और समय त्योहारों का हो तो उत्साह का आलम यह होता कि बसों में कितनी भी
भीड़ हो पर घर जाना जरुर होता था, वह भी परिजनों को लिए खरीदारी करके। मीडिया से जुड़ने के बाद भी लम्बे समय तक मेरा उत्साह कम
नहीं हुआ। पत्रकारिता के साथ समाजसेवा से जुड़ा रहने के चलते गांव-देहात से
मेरा नाता नहीं टूटा। गांवों की मिट्टी की सोंधी खुशबु मुझे बरबस अपनी ओर
खींच ही लेती।
कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं जब बीमार पड़ता तो नॉएडा में सही
होता ही नहीं। परेशान होकर गांव की ओर निकल पड़ता, यकीन कीजिये कि
ज्यों-ज्यों मेरा गांव करीब आता जाता त्यों-त्यों मेरी तबीयत ठीक होती चली जाती।
किसान परिवार में पैदा होने के कारण खेत-खलिहान से मेरा बड़ा लगाव रहा है पर कुछ दिनों से गांवों में भी आया परिवर्तन लगातार निराशा पैदा कर रहा है। मैं दूसरों की तो बता नहीं सकता पर मुझे जो लगा बता रहा हूं। कई
बार जब मैं अपने परिजनों, रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलने को आतुर रहता तो
गांव चला जाता पर वहां के माहौल देखकर न केवल निराशा होती बल्कि पीड़ा भी।
लोगों का रवैया ऐसा हो गया है कि शहरों की तरह ही गांवों में भी पैसों के
लिए आपाधापी का माहौल है।
प्यार-मोहब्बत की जगह द्वेष भावना ने ले ली है।
रिश्ते स्वार्थ के होते जा रहे हैं। भाईचारा, चौपाल पर हंसी के ठहाके, बड़ों
का सम्मान गांवों से भी खत्म होते जा रहे हैं। तीज त्योहारों पर गांवों में
भी रोनक खत्म होती जा रही है। क्या यह महंगाई की मार है या फिर पैसों को
कमाने की मारामारी। सुख-चैन गांवों से भी खत्म होता जा रहा है। मां
का आंचल, पिता का संरक्षण, बड़े भाई का स्नेह, छोटे भाई का सम्मान, बहन की
सुरक्षा, दोस्ती की कद्र जैसे शब्द हमारे समाज से लगभग खत्म होने लगे हैं । यह
क्या मुझे ही लग रहा है या फिर वास्तव में समाज बरबादी की ओर अग्रसर है।
देश का भविष्य माने जाने वाला युवा वर्ग अपने रास्ते से भटक गया लगता है।
जहां इन लोगों को देश-समाज की सोचनी चाहिए वहां काफी संख्या में युवा ग्लैमर की चकाचौंध में खोकर गलत रास्ता पकड़ ले रहे हैं। ये कहना गलत न होगा कि अब गांव की मिट्टी सोंधी खुशबु अपना अस्तित्व खोती जा रही है। महानगरों
का क्या हाल है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। तो क्या यह मान यह लिया जाए कि आपाधापी
का यह आलम लगातार माहौल खराब करता रहेगा ?
मुझे आशा है कि एक दिन गांवों की सोन्धी मिट्टी की सुगन्ध के प्रति आसक्त होकर हमें गांव जाना ही होगा, घूमने के लिए नहीं स्थायी रुप से रहने के लिए। सुन्दर संस्मरण।
ReplyDeleteचरणसिंग जी गांव के बहाने आपने सभी लोगों के मन को पकडने का प्रयास किया है।
ReplyDeleteसुन्दर संस्मरण.....
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।।।
ReplyDeleteधीरे धीरे सब कुछ परिवर्तित हो रहा है ... प्रसार, प्रचार, मीडिया नेट ये सभी कुछ अपना असर दिखा रहे हैं ... आभासी रिश्ते बढ़ रहे हैं अब ... एक अच्छा लेख ...
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