Thursday 28 January 2016

सबसे बड़ा भूत तो आदमी होता है!

भानगढ़ किले को किदवंदियों ने बनाया 'भूतहा किला"
माधव सिंह के वंशजों की गाथाओं को समेटे है यह किला
माधव सिंह के दो वंशजों ने आैरंगजेब के दबाव में अपना लिया था मुस्लिम धर्म
महाराजा सवाई जय सिंह ने कब्जा कर फिर से बनाया था राजपूतों का आशियाना


भानगढ़ से लौटकर ...
    सबसे बड़ा भूत तो आदमी ही होता है। यह वाक्य सुनने को मिला उस लड़के से जो 'भूतहा किला" के नाम से प्रसिद्ध भानगढ़ किले के पास गाडि़यों से पार्किंग का शुल्क वसूल रहा था। हम लोगों ने उस लड़के से किले के बारे में इसलिए पूछा था क्योंकि स्थानीय लोगों से कि 'रात में किले पर भूतों पर वास होता है, जो रात में किले के अंदर जाता है तो वापस नहीं आता।" कहते सुना है। भानगढ़ किले का भ्रमण करते समय उस लड़के का यह वाक्य मेरे जेहन में घूमता रहा। उस साधारण से लड़के ने बातों-बातों में पूरे समाज की व्यवस्था पर कटाक्ष जो कर दिया था। यह व्यथा उस लड़के नहीं बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो इंसानियत की दृष्टि से समाज को देख रहा है। मुझे भी उसकी बात में दम लगा। कभी रात में आदमी को देखकर हौसला बढ़ जाता था तो आज के दौर में यदि रात में कोई आदमी देख ले तो भूत जैसा ही भय आदमी के मन में बैठ जाता है। देखने गए थे भूतों का किला आैर पाठ सीखने को मिला गया इंसानियत का।
    भानगढ़ किले के बारे में सुना है कि अंधेरी रात में लोगों ने ने वहां पर भूतों का तांडव देखा है। किले से तरह-तरह आवाजें आती हैं। यही वजह रही होगी कि रात में वहां पर किसी के जाने अनुमति नहीं है। भ्रमण के दौरान हम लोगों ने इन सभी बातों पर विशेष ध्यान दिया। हमें वहां पर बंदर, लंगूर व कुत्तों की जमात दिखाई दी। शायद इन्हीं जानवरों की आवाज को लोग भूतों की आवाज समझते होंगे। जो सामग्री वहां पर देखने को मिली। उससे ऐसा लगता है कि प्रतिबंध के बावजूद रात में वहां पर असामाजिक तत्व व तांत्रिकों जाते रहते होंगे। तांत्रिकों के वहां जाने का कारण शायद यह भी हो सकता है कि सिंघिया नामक तांत्रिक इसी किले मे रहता था। तांत्रिकों को भ्रम हो कि वहां पर वे तंत्र विद्या में पारंगत हो जाएंगे।
   इसमें दो राय नहीं कि अरावली पहाडि़यों की गोद में बसा यह स्थल बालीवुड को जरूर आकर्षित करता है। जिस तरह का किले, जगह  वह यहां के मंदिरों का इतिहास आैर पृष्ठभूमि है। वह फिल्म व ऐतिहासिक धारावाहिकों के लिए पर्याप्त है। वैसे भी इस क्षेत्र में राकेश रोशन की 'करन अजुर्न" समेत कई फिल्मों की शूटिंग इस क्षेत्र में हो चुकी है। जिस तरह से इस क्षेत्र में वनों व पहाडि़यों के बीच से संकरी सड़क जाती है। रमणीक स्थल है। भानगढ़, राजगढ़, प्रतापगढ़, अजबगढ़ जैसे रजवाड़े रहे हैं।   इस क्षेत्र को जोड़कर भी धारावाहिक बनाया जा सकता है। शोध व लिखने के लिए भी यह क्षेत्र उपजाऊ लगा।
    बात भानगढ़ किले के इतिहास की जाए तो 'भूतहा किला" के नाम से जाने जाने वाले इस किले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भगवत दास के छोटे बेटे आैर मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मान सिंह के भाई माधो सिंह ने बाद में इसे अपनी रियासत बना लिया। माधो सिंह के सुजान सिंह, छत्र सिंह आैर तेज सिंह तीन बेटे थे। परिस्थिति ऐसी बनी कि माधो सिंह के बाद छत्र सिंह को भागनढ़ का शासक बनाया गया। छत्र सिंह के बेट अजब सिंह ने अपने नाम से अजबगढ़ बसाया। कहा जाता है कि अजब सिंह का एक बेटा काबिल सिंह अजबगढ़ आैर दूसरा हरी सिंह भागनढ़ में रहा। कहा जाता है कि हरी सिंह के दो बेटों ने धर्म परितर्वन पर मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया आैर आैरंगजेब की कृपा से भागनगढ़ के शासक बने रहे। मुगलों के कमजोर पड़ने पर महाराजा सवाई जय सिंह ने इन्हें मारकर भानगढ़ पर अपना अधिकार जमा लिया। बताया जाता है कि 1783 तक यह किला पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था। भानगढ़ के बारे में कहा जाता है कि इसकी बनावट ऐसी थी कि यहां राजशी वैभव  यौवन पर रहता था। यहां पर जहां भव्य महल, ससज्जित बाजार, तवायफों की कोठी होने की बात सामने आती हैं वहीं गोपीनाथ, सोमेश्वर, मंगला देवी, कृष्ण केशव मंदिर भी हैं। आज की बात करें तो भानगढ़ का किला चहारदीवारी से घिरा है, जिसके अंदर घुसते ही दाहिनी आैर कुछ हवेलियों के अवशेष दिखाई देते हैं। सामने बाजार के खंडहर बताए जाते हैं, जिसमें सड़क के दोनों ओर कतार में दुकानों के खंडहर प्रतीत होते हैं। किले के आखिरी छोर पर दोहरे अहाते से घिरा तीन मंजिला महल बताया जाता है, जिसका ऊपर का भाग लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है।
    भानगढ़ के बारे में एक कथा कि राजकुमारी रत्नावती अपूर्व सुंदर थी। पूरे राज्य में उसकी सुंदरता के चर्चे थे। इसी राज्य में सिंघिया नाम का तांत्रिक उसकी सुंदरता पर मोहित था पर उसा पाना उसके लिए दुर्लभ था। जब राजकुमारी के श्रृंगार के लिए  उसकी दासी बाजार में इत्र लेने आई तो दासी को लालच देकर तांंत्रिक ने सम्मोहित करने वाला बना दिया। बताया जाता है कि राजकुमारी ने इत्र चट्टान पर गिरा दी। चट्टान लुड़कती हुई तांत्रिक पर जा गिरी। जिस पर तांत्रिक ने मरते समय उस नगरी व राजकुमारी को अनाथ होने का श्राप दे दिया, जिससे यह नगर ध्वस्त हो गया। तभी से इस किले में भूतों के वास की बात कही जाती है।
भानगढ़ से संबंधित एक किदवंदिती यह भी है कि यह स्थल बालूनाथ योगी की तपस्या स्थल था, जिसने इस शर्त पर भानगढ़ के किले को बनाने की सहमति दी थी कि कभी किले की परछाई उसकी तपस्या स्थल पर नहीं पड़नी चाहिए। कहा जाता है कि माधो सिंह के वंशजों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया तथा किले का निर्माण ऊपर की ओर जारी रखा। बताया जाता है कि एक दिन किले की परछाई तपस्या स्थल पर पड़ गई, जिससे क्रोधित होकर योगी बालूनाथ ने भानगढ़ को श्राप देकर ध्वस्त कर दिया। बालूनाथ की समाधि आज भी इस किदवंदिती की ओर इशारा करती है।

Friday 22 January 2016

... सुलझेगी नेताजी की रहस्यमय पहेली

                           (जयंती 23 जनवरी पर विशेष)

    सुभाष चंद्र बोस का नाम आते ही हमारी आंखों के सामने एक ऐसे महानायक की तस्वीर सामने आने लगी है, जिन्होंने न केवल अपने देश बल्कि विदेश में भी जाकर भी अंग्रेजों को ललकारा। यह उनका संघर्ष ही था कि उन्होंने जापान में 'आजाद हिंद फौज" बनाकर अंडबान-निकोबार द्वीप समूह अंग्रेजों से छीन लिए। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी के अंत को लोगों के सामने जिस तरह से पेश किया गया, वह आज भी रहस्यमय पहेली बना हुआ है। यह लोगों की बढ़ती जिज्ञासा ही है कि पश्चिमी बंगाल के बाद अब मोदी सरकार उनकी मौत से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने जा रही है। इन फाइलों के सार्वजनिक होने से सुभाष चंद्र बोस की मौत की जुड़ी रहस्यमय पहेली सुलझे या न सुलझे पर उनकी मौत पर शुरू हुई बहस जो गति जोर पकड़ेगी उसके परिणाम निकलने की पूरी संभावना है। वह बात दूसरी है कि पश्चिमी बंगाल के साथ ही केंद्र सरकार भी इस मामले में भी वोटबैंक की राजनीति कर जाए।
   18 अगस्त 1945 को विमान से मंचूरिया जाते समय लापता हुए नेताजी  के मामले में देश में तीन आयोग गठित हुए पर इसके सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। सरकार ने आयोग गठित तो किए पर जांच को गंभीरता से नहीं लिया। इस मामले में 1956 आैर 1977 में दो आयोग गठित किए गए। आयोगों ने जांच में नेताजी के विमान दुर्घटना में शहीद होने की बात कही पर तत्कालीन ताइवान सरकार ने इसे नहीं माना। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बना। लंबी जांच के बाद 2005 में ताइवान ने आयोग को 1945 में वहां पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त न होने बताया। आयोग के केंद्र सरकार को पेश की गई रिपोर्ट में विमान दुर्घटनाग्रस्त का कोई सबूत न होने की बात कही गई पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने आयोग की इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सरकारें आयोग की रिपोर्ट पर विश्वास ही नहीं करतीं तो आयोग के गठन का आैचित्य क्या है या फिर मामला कुछ आैर तो नहीं ? वैसे भी 2005 में कांग्रेस की अगुआई में चल रही यूपीए सरकार थी आैर नेताजी को लेकर कांग्रेस पर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि देश में कांग्रेस के अलावा समाजवादियों व संघियों की भी सरकारें भी रही हैं।
   सुभाष चंद्र बोस को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। गत दिनों उनके स्टोनोग्राफर श्याम लाल जैन के शाहनवाज समिति के सामने गवाही की बात सामने आई थी कि उनके अनुसार 1946 में पंडित नेहरू ने उन्हें तत्काल अपने घर बुलाया आैर उनसे ब्रिाटिश प्रधानमंत्री एटली के लिए एक पत्र डिक्टेट कराया, जिसमें नेहरू ने रूस के शासक स्टालिन के संदेश का हवाला देते हुए सुभाष चंद्र बोस जीवित होने आैर उनके कब्जे में होने की बात कही गई थी। ऐसे में सरकारों की नीयत इसलिए भी संदेह के घेरे में आती है क्योंकि नेताजी के मौत को सरकारों ने रहस्य ही बनाकर क्यों रखा ?  पंडित नेहरू के स्टोनोग्राफर की गवाही से तो ऐसा ही लगता है कि पंडित नेहरू व स्टालिन के बीच ऐसा कुछ था, जिसे सार्वजनिक करने पर रूस व हमारे देश के संबंधों पर असर पड़ सकता है या फिर मामला कुछ आैर है। वैसे भी सुभाष चंद्र बोस व जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर के संबंधों को लेकर सटालिन बेहद नाराज थे।
    नेताजी के अंगरक्षक रहे जगराम यादव के अनुसार सुभाष चंद्र बोस की हत्या की गई थी। उनका कहना है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद जब वे शरण लेने साइबेरिया रूस में पहुंचे तो एक बड़ी साजिश का शिकार हो गए। इसके पीछे उनका तर्क है कि 1949 में एक चीनी दूत चीन स्थित भारतीय दूतावास पहुंचा आैर नेताजी के रूस में होने की बात कही। वहां पर सैन्य अधिकारी ब्रिागेडियर ठक्कर उस दूत से मिले आैर नेताजी के जिंदा होने की सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। नेहरू ने ठक्कर को यह कहते हुए कि वह उस पद के योग्य नहीं हैं अगली उड़ान से भारत बुला लिया। भाजपा नेता बाल सुब्राह्मण्यम स्वामी भी नेताजी की रूस में हत्या होने का दावा कर रहे हैं। उनके अनुसार जब वह रूस में शरण मांगने गए तो वहां के तानाशाह स्टालिन ने उन्हें कैद कर लिया आैर 'वार क्रिमिनल" रूस में है कहकर सूचना पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। वह पंडित नेहरू की सहमति के बाद रूस में सुभाष चंद्र बोस की हत्या की बात कर रहे हैं।
    नेताजी से जुड़ी फाइलों के सार्वजनिक करने की उनके लापता होने के समय से  ही उठती रही हैं। ऐसे में पश्चिमी बंगाल में चुनाव करीब आते देख मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नेताजी के नाम को कैस कराने के मकसद से गत दिनों नेताजी से जुड़ी 64 फाइलें सार्वजनिक की, जिनमें 2013 से शुरू हुआ डिजिटलाइजेशन का काम बताया गया है। साथ ही उन्होंने 'नेताजी से जुड़े 1938-1947" के बीच के कैबिनेट के दस्तावेज भी सार्वजनिक किए हैं। ये दस्तावेज आजादी व अंग्रेज सरकार के लिए गोपनीय बताए जा रहे हैं। ममता बनर्जी ने कैबिनेट की 401 बैठकों के दस्तावेज की सूचनाओं वाली एक सीडी भी जारी की है, जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन तथा बंगाल का अकाल आैर बंगाल विभाजन जैसी घटनाएं बताई जा रही हैं। भले ही अब मोदी सरकार नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने कर नेताजी के प्रति आस्था दिखा रही हो पर ममता बनर्जी ने फाइलों को सार्वजनिक कर केंद्र सरकार को बैकफुट पर ला दिया आैर फाइलों को सार्वजनिक करने के लिए मजबूर कर दिया।
   रूस दौरे पर जाने से पहले नेताजी के परिजनों ने भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मौत से जुड़ी फाइलों के बारे में चर्चा करने का आग्रह किया हो पर प्रधामंत्री इस मामले में अभी तक चुप्पी साधे बैठे थे। यदि नेताजी की जयंती पर उनकी फाइलें सावर्जनिक करने की रणनीति है  दूरदर्शी सोच रखने वाले मोदी ऐसा कुछ जरूर करेंगे जो देश में बड़ी बहस को जन्म दे। इन फाइलों के माध्यम से जहां मोदी जनता की सहानुभूति बटोरने के प्रयास में हैं वहीं कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की उनकी तैयारी जरूर होगी। वैसे भी कांग्रेस के लंबे समय तक राज करने की वजह मोदी कांग्रेस को घरने से नहीं चूकेंगे साथ ही पश्चिमी बंगाल चुनाव में भी इसे प्रधानमंत्री इसे कैस कराएंगे। नेताजी के कद की बात करें तो उनका व्यक्तित्व देश हर स्वतंत्रता सेनानी पर भारी पड़ता है। वह नेताजी का बड़ा दिल ही था कि भले ही महात्मा गांधी उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने को बर्दाश्त न कर पाए हों पर उन्हें 'राष्ट्रपिता" का नाम उन्होंने ही दिया है। दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध में जब 'आजाद हिन्द फौज" ने जापानी सेना की मदद से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जीत लिए तो छह जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रोडियो पर भाषण करते हुए नेताजी ने गांधी जी को 'राष्ट्र-पिता" से संबोधित करते हुए जंग के लिए उनसे आशीर्वाद मांगा था।
बताया जाता है कि महात्मा गांधी उनकी कार्यशैली पसंद नहीं करते थे, 1938 में उन्होंने ही नेताजी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया आैर उन्होंने ही उन्हें पद से हटाने की ठान ली। सुभाष बाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने जो युद्ध का फायदा उठाते हुए आजादी की जंग तेज करे, पर गांधी जी इससे सहमत नहीं थे। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति  नजर न आने पर नेताजी ने खुद कमाल संभाले रहने का निर्णय लिया। गांधी ने पट्टाभि सीता रमैया को अध्यक्ष पद के लिए चुनावी समर में उतारा। चुनाव में बोस को 1580 आैर सीता रमैया को 1377 मत मिले। गांधी जी की नाराजगी के चलते सुभाष बाबू ने इस्तीफा देकर तीन मई 1939 को कांग्रेस के अंतर्गत फारवर्ड ब्लॉक पार्टी बनाई। कुछ दिन बाद कांग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया, जिससे फारवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गई सुभाष बाबू ने विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही स्वतंत्रता संग्राम को अधिक तेज करने के लिए जनजागरण अभियान छेड़ दिया। अभियान से बौखलाकर अंग्रेजी हुकूमत ने सुभाष बाबू समेत पार्टी के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। जेल में आमरण अनशन पर उन्हें रिहा तो कर दिया पर घर में ही उन्हें नजरबंद कर दिया गया। पठान का वेश धारण कर वह 1941 में जियाउद्दीन नाम से घर से निकल भागे। भागने में शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उनकी मदद की। गोमोह से फ्रंटियर मेल से वे पेशावर पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात फारवर्ड ब्लॉक के मियां अकबर शाह से हुई। बाद में वह काबुल पहुंचे। बर्लिन में उन्होंने जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन" आैर 'आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की। इस दौरान वह 'नेताजी" नाम से जाने जाने लगे। इसी दौरान नेताजी की मुलाकात एडोल्फ हिटलर से हुई। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने ंिसंगापुर में 'अर्जी हुकूमत ए आजाद हिंद" की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आैर युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिंद फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। उसमें महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजिमेंट भी बनाई गई। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण कर वहां पर भारतीय लोगों से आजाद हिंद फौज में भर्ती होने व आर्थिक मदद का आह्वान किया। उन्होंने अपना मशहूर नारा 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" भी इस आह्वान में दिया था।

Friday 15 January 2016

... ऐसे में अयोध्या क्यों ?

    जब लोग महंगाई व भ्रष्टाचार से जूझ रहे हों। बेरोजगारों की बड़ी फौज सड़कों पर घूम रही हो। देश आतंकवाद की चपेट में हो। समाज में भाईचारा कायम करना बड़ी चुनौती बनी हो। समस्याओं से जूझते-जूझते किसान आत्महत्या कर रहे हों। प्रधानमंत्री मुस्लिम देशों का भ्रमण कर धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने का प्रयास कर रहे हों। भाजपा भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश मिलाकर अखंड भारत बनाने की बात करने लगी हो। ऐसे में हिन्दूवादी संगठनों का अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का राग अलापने का क्या आैचित्य है ? वह भी ऐसे समय में जब मामला सुप्रीम कोर्ट में विचारधीन हो। इसका मतलब साफ है कि भाजपा 'राम मंदिर निर्माण" का मुद्दा छेड़कर हिन्दू वोटबैंक के सहारे सिर्फ उत्तर प्रदेश 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने की फिराक में है। चाहे जनता को इसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े। यदि ऐसा नहीं है तो क्या यह मु्द्दा उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद नहीं छेड़ा जा सकता था।
     तो यह माना जाए कि दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद भाजपा का आत्मविश्वास डिगा है। ऐसी परिस्थिति में भाजपा प्रधानमंत्री नरंेद्र मोदी के बजाय राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की तैयारी में लग गई है। भाजपा को समझना होगा कि अब चुनाव में युवाओं का वोटबैंक निर्णायक भूिमका निभाने लगा है। वे युवा ही थे, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल पर विश्वास कर केंद्र में भाजपा की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज की तारीख में युवाओं को मंदिर से ज्यादा रोजगार व संसाधन चाहिए। पूजा से पहली जरूरत रोजी-रोटी है। वैसे भी असहनिष्णुता मुद्दे पर भाजपा को देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी आलोचना झेलनी पड़ी है। लेखकों व साहित्कारों का कोप भाजन होना पड़ा है। जब गत गणतंत्र दिवस परेड में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भाजपा पर कटाक्ष करते हुए महात्मा गांधी के अहिंसा के पाठ को याद करा गए हों। इस गणतंत्र दिवस पर फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांकोइस होलंदे को मुख्य अतिथि बनाया जा रहा हो तो ऐसे में भाजपा का राम मंदिर निर्माण का मुद्दा अपने आप में पार्टी की धार्मिक कट्टरता वाली छवि प्रस्तुत कर रहा है। यह उसकी छवि को आैर नुकसान ही पहुंचाएगा।
    दरअसल भाजपा उत्तर प्रदेश में 1990 का इतिहास दोहराने के प्रयास में है। राम मंदिर आंदोलन के नायकों को फिर से आगे लाने की तैयारी में है। कहा जा रहा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री आैर मौजूदा राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह को नई भूमिका के लिए तैयार किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में मनाया गया उनका जन्मदिन इसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है। वैसे भी उन्होंने यह कहकर कि 'देश के सभी लोग अयोध्या में राम मंदिर देखना चाहते हैं" सनसनी फैला दी है। बात कल्याण सिंह की ही नहीं है माहौल को गर्माने के लिए भाजपा के कट्टरवादी नेता सक्रिय कर दिये गये हैं।
     भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो दिसम्बर से मंदिर निर्माण की शुरुआत हो जाने की घोषणा भी कर दी है। सुब्रमण्यम ने डीयू में राम मंदिर निर्माण पर आयोजित संगोष्ठी में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम का हवाला देते हुए कांग्रेस से मंदिर निर्माण में सहयोग देने की बात कर मामले को गर्मा दिया है।  इस संगोष्ठी को लेकर एनएसयूआई व आइसा ने जमकर विरोध तो किया पर सुब्रामण्यम स्वामी अपना काम कर गए। वह अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर, मथुरा में कृष्ण मंदिर और काशी विश्वनाथ पर किसी तरह का समझौता न करने की बात कर व्यव्सथा को चुनौती दे रहे हैं।
     राम मंदिर आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले भाजपा सांसद विनय कटियार संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर राम मंदिर निर्माण  के लिए विधेयक पारित करने की सलाह दे रहे हैं। विहिप के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगडि़या सोमनाथ मंदिर का हवाला देते हुए संसद में कानून बनाकर मंदिर बनाने की पैरवी कर रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत पहले से ही राम मंदिर निर्माण की पैरवी कर रहे हैं। तो क्या ये लोग सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी कर राम मंदिर बनवा लंेगे ? इसका मतलब साफ है कि भाजपा ने सोची-समझी रणनीति के तहत इस मुद्दे को सुलगाया है। भाजपा भी जानती है कि इस मुद्दे पर मात्र विवाद ही बढ़ेगा।
    यह भी कहा जा सकता है कि 1990 के आंदोलन में कारसेवा की गई थी तो इस बार पत्थर तराशने के नाम पर राम मंदिर आंदोलन को नया रूप दिया जा रहा है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बिना सुप्रीम कोर्ट, सरकार और संसद के राम मंदिर का निर्माण किया जा सकता है। जब मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हो तो ऐसे में मंदिर निर्माण की इतनी जल्दी क्यों ? भाजपा की सोच है कि इस बार भी उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार है आैर उसकी सख्ती हिन्दूओं को भाजपा के पक्ष में एकजुट करने में सहयोग करेगी। ऐसे में भाजपा को उम्मीद है कि धार्मिक भावनाओं के सहारे वह 1990 जैसा माहौल बनाने में कामयाब हो जाएगी। भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि भावनाओं के सहारे लोगों का विश्वास ज्यादा दिनों तक नहीं जीता जा सकता है।
    मंदिर निर्माण के मुद्दे पर इस बार जनता यह जरूर पूछना चाहेगी कि मंदिर निर्माण में खर्च किया जाने वाला पैसा कहां से आएगा ? इन संगठनों के पास इतने बड़े स्तर पर धन की व्यवस्था है तो यह पैसा जन कल्याण में क्यों नहीं खर्च किया जा सकता ? अभी हाल ही में बंबई हाईकोर्ट ने सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट से कहा है कि वह अपना पैसा आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों आैर गरीबों की मदद करने में लगाए। ऐसे में धन का सवाल अदालत के जरिए भी किया जाए तो अचरज नहीं। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या से शुरू कर उत्तर प्रदेश में राम मंदिर  निर्माण का माहौल बनाने में जुट गई है। कानपुर में हुई बैठक में विहिप ने राम मंदिर निर्माण के लिए बड़े स्तर पर अभियान छेड़ने का निर्णय लिया है। रामसेवकपुरम एवं श्रीरामजन्मभूमि न्यास की कार्यशाला की सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर रामघाट चौराहे व लखनऊ-गोरखपुर राष्ट्रीय मार्ग पर लगाई गई पुलिस व पीएससी खराब होने जा रहे माहौल को बयां कर रहे हैं। राम मंदिर निर्माण को हवा देने की तैयारी किस स्तर पर चल रही है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां विश्व हिन्दू परिषद ने अपने कार्यकर्ताओं को इस काम में लगा दिया है वहीं इलाहाबाद में होने वाले माघ मेले में संत व धर्माचार्यांे को एकजुट करने की रणनीति बना ली गई है। अप्रैल माह में उज्जैन में होने वाले अर्धकुम्भ में धर्म संसद बुलाकर आंदोलन को गति देने की तैयारी है। इसका मतलब है कि मंदिर निर्माण के लिए साधु-संतों को साधने का काम शुरू हो चुका है। वैसे भी विश्व हिन्दू परिषद साधु-संतों को साथ लेकर भाजपा की मदद करती रही है।
     जगजाहिर है कि भाजपा में आरएसएस के साथ ही विश्व हिन्दू परिषद पूरा दखल रहा है। महत्वपूर्ण पदों के लिए इन संगठनों की पूरी पैरवी चलती है। वैसे भी विश्व हिन्दू परिषद ने आम चुनाव नरेंन्द्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाया था। चुनाव के ठीक पहले 2013 में राम मंदिर निर्माण आंदोलन में अग्रिम भूमिका निभाने वाले अशोक सिंघल ने इलाहाबाद महाकुम्भ की धर्म संसद में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए नरेन्द्र मोदी के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित कराया था। सिंघल का आभार व्यक्त करने के लिए नरंेद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से वहां पहुंचे भी थे।
    भाजपा भले ही विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की बात करती हो पर पार्टी की गतिविधियों से तो ऐसा ही लग रहा है कि उसके पास राम के नाम पर भावनाएं भड़काने के अलावा कुछ है ही नहीं। वैसे भी 'राम" इस पार्टी के लिए विशेष नहीं, महत्वपूर्ण है। इन्हीं राम के नाम को भाजपा ने भुनाकर अपना वजूद बनाया है। भाजपा को आगे बढ़ाने में राम शब्द का बड़ा योगदान रहा है। वह राम मंदिर आंदोलन का प्रभाव ही था कि भाजपा ने 1991 में उत्तर प्रदेश में तथा 1996 आैर 1998 में केंद्र में सरकार बनाई थी। भाजपा को यह भी देखना होगा कि जिस आंदोलन के बल पर वह उत्तर प्रदेश फतह करने की फिराक में है, उसी के अगुआ रहे कल्याण सिंह ने 2009 के आम चुनाव में अपने घोर विराधी माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया था आैर वह उनके सहयोग से सांसद भी बने थे। अब देखना यह है कि जब कल्याण सिंह राजस्थान के राज्यपाल हैं। उमा भारती केंद्रीय मंत्री हैं। विनय कटियार राज्य सदस्य हैं। अशोक सिंघल परलोक सिधार गए हैं। लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी से दरकिनार चल रहे हैं तो मंदिर आंदोलन कितना जोर पकड़ता है आैर भाजपा किस गति को प्राप्त होती है।