Monday 31 March 2014

घातक है वोटबैंक की राजनीति

    जिस तरह से देश में जाति-धर्म और ऊंच-नीच के नाम पर वोटबैंक की राजनीति का खेल चल रहा है यह देश के लिए घातक है। विचारधारा और सिद्धांतों की राजनीति को तिलांजलि देकर नेता अवसरवादिता परिवारवाद, वंशवाद और जातिवाद की राजनीति कर हैं। कोई पिछड़ों के नाम से राजनीति कर रहा है तो कोई दलितों के नाम से तो कोई मुस्लिमों के नाम पर। कोई भी हथकंडा अपनाकर बस किसी भी तरह से सत्ता हथियानी है। मूल्यविहीन इस राजनीति में सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है तो वह सांप्रदायिक सौहार्द का।   वैसे तो गंदली हो चुकी राजनीति में लगभग सभी दलों के नेता भड़काउ भाषण दे रहे हैं पर सहारनपुर से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे इमरान मसूद के भाषण में मुस्लिमों को रिझाने के लिए जिस तरह से वीडियो क्लीपिंग में मोदी की बोटी-बोटी कर काट देने की बात कही गई है, उसने तो हद ही पार कर दी और कांग्रेस ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि इमरान मसूद का यह बयान उस समय का है जब वह सपा में थे।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इमरान मसूद कांग्रेस में आकर बदल गए हैं ? क्या कांग्रेस में आकर उनकी मानसिकता और सोच बदल गई है।
     दिलचस्प बात यह है सांप्रदायिक सौहार्द के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता इस मामले पर चुप्पी क्यों साध गए हैं। तो यह माना जाए कि राजनेता वोटबैंक की राजनीति  के लिए देश को बर्बाद होते देखते रहेंगे। इसी वोटबैंक की राजनीति के चलते देश में अराजकता का माहौल है। इंडियन मुजाहिद्दीन सिमी जैसे आतंकी संगठन सक्रिय हो गए हैं। देश में आतंकी हमले होते रहते हैं और लोग भूल जाते हैं। देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी गई है कि देश में गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। बेरोजगारी और गरीबी का फायदा उठाते हुए एक विशेष वर्ग के कुछ युवाओं को आतंकी बनाया जा रहा है और देश को चलाने ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। समय रहते वोटबैंक की राजनीति पर अंकुश नहीं लगा तो कहीं हमारे देश में भी पाकिस्तान जैसे हालात पैदा न हो जाएं ?

Sunday 23 March 2014

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

जयंती  (23  मार्च) पर विशेष
        जब हमारे देश में समाजवाद बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। डा. लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए 70  के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश की अगुआई में समाजवादियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक प्रष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई साल तक उत्तर प्रदेश पर राज किया और अब उनके पुत्र अखिलेश यादव पिता के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि आजकल जहां समाजवादियों पर वंशवाद का आरोप लग रहा है वहीं लालू प्रसाद चारा घोटाले में जेल में बंद हैं।
        आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरूआती दौर में समाजवादी जितने ईमानदार थे उतने ही खुद्दार भी। जहां तक डा. लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। देशभक्ति व  ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे।  लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई।  युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में  सुभाष चन्द्र बोश के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा।  लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना  की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री  नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 
    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे।1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट कहा।
    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया।  14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए।     उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।

सदियों दिलों के अन्दर वो गूंजते रहेंगे

         शहीदी दिवस (23 मार्च) पर विशेष 
    भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन  में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि 23 वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी।  भगत सिंह की शहादत को भले ही 82 साल बीत गए हों  पर आज भी वह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।  आने वाले वक्त में भी वह उतने ही प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि मुश्किलों से निजात पाने को हमने जो फार्मूला इजात किया,  उसमें हजारों-हजार चोर छेद हैं।
    भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए 23 साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday 21 March 2014

किसानों को मिले मेहनत भत्ता

किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बुरी खबर नहीं हो सकती कि उस देश के किसान अपने पेशे से पलायन करने लगें। यह बात मैं ही नहीं कह रहा हूँ, यह बात गत दिनों केन्‍द्रीय कृषि मंत्रालय की स्‍थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में मानी है। इसे सरकारों की उदासीनता कहें या फिर बदलती परिस्थितियां कि किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं, जो देश के लिए खतरे की घंटी है। इतिहास पर नजर डाली जाए तो किसान-मजदूर की चिंता समाजवादियों ने ही की है। मेरी विचारधारा भी समाजवादी है, मैं डा. राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह का अनुयाई हूं। इस मुद्दे पर मेरा सुझाव है कि समाजवादी इन लोकसभा चुनाव में किसानों के लिए मेहनत भत्ते की बात प्रमुखता से रखें । किसानों को मेहनत भत्ता मिलने लगेगा तो वे खेती से पलायन नहीं करेंगे।
     खेती से किसानों का मोहभंग का हाल क्‍या है इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे जो 2011 में घट कर 11 करोड़ 87 लाख रह गए। किसानों का खेती छोड़ने का कारण सरकारों का उपक्षित रवैया और योजनाओं में बढ़ती दलाली तो है ही, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ॠणों का बढ़ता बोझ भी खेती से मोहभंग का बड़ा  कारण है । वैसे तो किसान हर प्रदेश में खेती छोड़ रहे हैं पर गत दशक के दौरान महाराष्‍ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार किसानों ने खेती छोड़ी है। राजस्‍थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्‍तराखण्‍ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्‍या कम हुई है।
     देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्‍होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्‍त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्‍टर का धब्‍बा हटने की रफ्तार में तेजी जरुर आ गई। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 में यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्‍यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियों मिली हैं। आंध्र के गई गरीब किसान किडनी बेचकर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। उत्‍तर प्रदेश का हाल यह है कि भले ही वह किसानों के ॠण माफ करने का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्‍यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। किसानों की आत्‍महत्‍याओं के आंकड़ें देखें तो एक बात साफ समझ में आती है। वह यह कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ॠण, ॠण माफी योजनाएं किसानों के लिए बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्‍चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी कर्जे के बोझ तले दबता चला जा रहा है। देखने की बात यह है कि कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही। पर क्‍या हुआ?

Sunday 9 March 2014

आप के लिए खतरे की घंटी है कार्यकर्ताओं की बगावत

 अन्ना आंदोलन के बाद अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और जिस तरह से भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात कहकर विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल की, उससे लोगों में उम्मीद की एक किरण जगी थी। पर कुछ दिनों से जिस तरह से आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर तानाशाही और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लग रहा है वह कहीं न कहीं आप की कार्यशैली को संदेह के घेरे में खड़ी कर रही है। टिकट बंटवारे को लेकर संस्थापक सदस्यों की सीधी बगावत आप के लिए खतरे की घंटी है।
कार्यकर्ताओं का आरोप है कि चार-पांच लोगों ने पार्टी को कब्ज़ा रखा है। न कोई कार्यकर्ताओं की बैठक हो रही है और न ही कार्यकर्ताओं से कोई राय मशवरा लिया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि कार्यकर्ताओं में बगावत दिल्ली में ही हो रही हो, जगह -जगह ये बगावत देखने को मिल रही है। वैसे भी पार्टी में कोई व्यवस्था नाम की कोई चीज है ही नहीं और न ही कोई संगठन है तो स्वभाविक है कि अराजकता का माहौल पैदा होगा ही। अरविन्द केजरीवाल को यह समझना चाहिए कि आप को लोगों ने समर्थन इसलिए दिया क्योंकि आप ने भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ मोर्चो खोला था। 
     सब दलों को गलत साबित करने की अरविन्द केजरीवाल भाषा शैली लोगों को प्रभावित कर रही थी। पर कुछ दिनों से आप के नेताओं के अचानक आये बदलाव ऐसा लगने लगा है कि आप भी इसी व्यवस्था में ढलती जा रही है। मेरा केजरीवाल जी से सवाल है कि जयपुर से दिल्ली चार्टेड विमान से आने की जरूरत थी। क्या सेमिनार में आपका आना आप की नीतियों से ज्यादा जरूरी था। क्या आप आम आदमी की लड़ाई का हवाला देते हुए बस या ट्रेन से आने की बात नहीं कह सकते थे। या फिर ऐसी कौन सी सेमिनार थी जो अचानक आपको सूचना दी गई। जिस मीडिया को आप गलयाते नहीं थकते हो आखिर उसी मीडिया का एक समूह अचानक आप पर इतना कैसे मेहरबान हो गया। या फिर आप को भी ऐशोआराम भाने लगा है ? या फिर आप भी अन्य दलों की तरह लोगों को बेवकूफ बना रहे हो ?
      केजरीवाल जी जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करने वालों क्या हाल होता है, यह आपको बताने की जरूरत नहीं है। आप लोगों की समझ में बहुत समझदार हो। आपको इतिहास की अच्छी जानकारी है। कार्यकर्ताओं और जनता की उपेक्षा करने वाले दल कब खत्म हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह से आप का उत्थान हुआ है उसी तरह से आप का पतन भी हो जाए।

Monday 3 March 2014

बुझनी नहीं चाहिए भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जली मशाल

     भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए अन्ना आंदोलन के बाद जब अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई नाम दिया तो बड़ी संख्या में लोग आप से जुड़े। इन्ही लोगों के बलबूते अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति की तो अन्ना आंदोलन का इतना असर था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 70 में से 28 सीटें मिली।
    अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह से दिल्ली में आम आदमी की सरकार बनाई, भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला, वंशवाद, जातिवाद, पूंजीवाद का विरोध करते हुए आम आदमी और अन्य राजनीतिक दलों के अच्छी छवि के लोगों से उनकी पार्टी से जुड़कर देश समाज के लिए काम करने का आहवान किया, उससे आम आदमी में व्यवस्था सुधार की कुछ आस जगी थी। पर लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में पारदर्शिता न होना और उपेक्षा का आरोप लगाकर जिस तरह से पार्टी कार्यकर्ताओं की बगावत देखने को  मिल रही है, यह कहीं न कहीं आप की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा
करती है। कहा जा रहा है कि बहुत दिनों से आप के कार्यकर्ताओं की जनरल बैठक भी नहीं हुई है। आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, योगेन्द्र यादव आम कार्यकर्ताओं से बात करने को तैयार नहीं।
     आप ने जिस तरह से 31 जनवरी के बाद लोकसभा प्रत्याशी के लिए आवेदन स्वीकार न करने की बात कहकर बाद में काफी संख्या में नामी गिरामी लोगों को पार्टी से जोड़कर टिकट दिए हैं, उससे तो आप के आम आदमी की लड़ाई लड़ने के दावे की हवा ही निकल गई। इससे तो ऐसा ही लगता है कि आप ने आवेदन के नाम पर जनता और कार्यकर्ताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया है। अरविन्द केजरीवाल कह रहे थे कि वह सत्ता के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति में आये हैं पर कुछ दिनों से वह वोटबैंक की राजनीति करने लगे हैं , उससे तो ऐसा ही लग रहा है कि वह भी अन्य दलों की तरह इस व्यवस्था में ढलते जा रहे  हैं।
      अरविन्द केजरीवाल का अल्पसंख्यक सम्मेलन में साम्प्रदायिकता को भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा बताकर मुस्लिम वोटों को रिझाने की कोशिस बताया जा रहा है।  इसी तरह कानपुर रैली में आप को 100 सीटें मिलने का दावा कर अरविन्द केजरीवाल का यह कहना कि आप के बिना केंद्र में सरकार नहीं बन सकती, उनकी सत्तालोलुपता को उजागर करता है। तो यह माना जाये कि अरविन्द केजरीवाल जिन दलों को अब तक चोर कहते रहे हैं, उनके साथ मिलकर ही सरकार बनाएंगे या उनकी सरकार में शामिल होंगे। मेरा अरविन्द केजरीवाल से सवाल है कि भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक लोगों के साथ मिलकर आप कैसे व्यवस्था बदलेंगे ? ऐसे में सवाल उठता है कि उन लोगों के दिलों पर क्या गुजर रही होगी जो अरविन्द केजरीवाल के रूप में व्यवस्था परिवर्तन का नायक देख रहे थे। उस आम आदमी की मनोस्थिति क्या होगी जो राजनीति में आने का सपना देखने लगा था। साथियों हम लोगों को किसी भी हालत में जनता का भरोसा नहीं टूटने देना है। व्यवस्था परिवर्तन की जो आस आम आदमी में जगी थी, उसे धुमिल नहीं होने देना है। मेरा अपना मानना है कि हम लोग मिलकर एक सामाजिक संगठन बनाएं और मिलकर भ्रष्ट व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरें। मेरा सभी साथियों से अनुरोध है कि इस लेख पर कुछ न कुछ प्रतिक्रिया जरूर दें।