Tuesday 25 August 2015

तो अब सुधर जाएगी उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था

   'गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काकू लागूं पायं, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय"। कबीरदास ने शायद यह दोहा इसलिए लिखा होगा क्योंकि हमारे समाज में गुरु का दर्जा भगवान से भी बड़ा माना गया है। इसलिए माना गया है क्योंकि बच्चे के भविष्य निर्माण में सबसे अधिक योगदान गुरु का होता है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में इस तरह की बातें फिट भी बैठती थीं पर जबसे गुरुकुल का रूप स्कूलों ने ले लिया, शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है तब से गुरु के बदले रूप शिक्षक पर उंगली उठनी भी शुरू हो गई है। शिक्षक पर उंगली उठी तो स्वभाविक है कि शिक्षा का स्तर गिरेगा ही। किसी समय लगभग सभी लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते थे आैर अब लगभग सभी के बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ने लगे हैं। यहां तक कि गरीब से गरीब आदमी भी किसी तरह से पैसों की व्यवस्था कर अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ाना चाहता है। इसका बड़ा कारण यह है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई नाम की कोई चीज रह नहीं गई। वेतन की बात की जाए तो सरकारी शिक्षकों का वेतन निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों से कई गुणा ज्याता होता है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने की बात लंबे समय से की जा रही है। सरकारी स्कूल अति गरीब बच्चों तक ही सिमट कर रह गए हैं। इस पीड़ा को महसूस किया उत्तर प्रदेश सुल्तानपुर जिले के एक शिक्षक शिव कुमार पाठक ने।
   उन्होंने सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा का मुद्दा उठाकर जब एक याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की तो हाईकोर्ट ने जनप्रतिनिधियों व सरकार से वेतन पाने वाले लोगों के बच्चों का सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य करने का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख सचिव को जारी कर दिया।
   हाईकोर्ट के इस आदेश से आम आदमी तो खुश है पर पैसे के दम पर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने वाले लोगों को दिक्कतें हो रही है। इस आदेश से उत्तर प्रदेश सरकार की बौखलाहट भी स्वभाविक है। क्योंकि 2017 में विधानसभा चुनाव है आैर हाईकोर्ट ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर उंगली उठाकर उसे दुरुस्त करने का आदेश दे दिया। ऐसे में याचिका दायर करने वाले शिक्षक शिव कुमार पाठक की बर्खास्तगी भी इस बौखलाहट का परिणाम माना जा रहा है। सरकार शिक्षक की अनुपस्थिति कारण बता रही है। यह निर्णय हाईकोर्ट के आदेश के बाद क्यों लिया गया ? मेरा मानना है कि प्रदेश सरकार का यह निर्णय उसके खिलाफ ही जाएगा। इस कार्रवाई से ऐसा लग रहा है कि प्रदेश सरकार की सरकारी स्तर पर शिक्षा के सुधार की नीयत साफ नहीं है। तो यह माना जाए कि जो व्यक्ति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाएगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। ये राजनेता समस्याओं को हल कराने का दंभ भरकर ही सत्ता हथियाते हैं। व्यवस्था सुधारने की बात करतेे हैं। अच्छे राज की बात करते हैं। लोगों का अच्छे कार्य करने का आह्वान करते हैं तो इस तरह के काम करने वाले लोगों पर कार्रवाई क्यों ?
   हालांकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मुजफ्फरनगर में हाईकोर्ट के आदेश का सख्ती से पालन करने की बात कही है। तो क्या सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि व नौकरशाह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएंगे ? यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से शिक्षा स्तर में सुधार होगा। जब प्रदेश के जनप्रनिनधि प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मियों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ने लगेंगे तो सरकारी विद्यालयों पर ध्यान देना उनकी मजबूरी हो जाएगी तो विद्यालयों का स्तर अपने आप सुधरने लगेगा। विद्यालयों में शिक्षकों का मापदंड योग्यता होगा तो बच्चों को अच्छी शिक्षा भी मिलनी शुरू हो जाएगी। शिक्षा का स्तर सुधरने से अन्य लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने लगेंगे। कोर्ट के इस आदेश से शिक्षा के व्यावसायीकरण पर अंकुश तो लगेगा ही साथ ही जो लोग निजी विद्यालयों की फीस का खर्चा नहीं उठा पा रहे हैं उन्हें भी काफी हद तक राहत मिल जाएगी। हाईकोर्ट ने आदेश न मानने वाले लोगों पर कार्रवाई की बात कही है। इन सबके बावजूद लोगों को इस बात पर संदेह है कि यह आदेश अमल में लाया जाएगा।
   जिस तरह से इन लोगों के बच्चों का सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया गया ठीक उसी तरह से इनका सरकारी अस्पतालों में भी इलाज की अनिवार्य होनी चाहिए। जब जनप्रतिनिधि व नौकरशाह व उनके परिजन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराएंगे तो सरकारी अस्पतालों का स्तर भी सुधरना शुरू हो जाएगा। जब जनप्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों व उनके परिजनों का इलाज सरकारी अस्पतालों में होने लगेगा तो निश्चित रूप से अस्पतालों का भी स्तर सुधरेगा। होना तो यह भी चाहिए कि जनप्रतिनिधि व नौकरशाहों को निजी स्कूलों व निजी अस्पतालों का लाइसेंस नहीं मिलना चाहिए। इन लोगों के प्रशासनिक व प्रशासनिक पकड़ के चलते ही निजी स्कूल व निजी अस्पताल फल-फूल रहे हैं। ये लोग सरकारी सरकारी स्कूलों व सरकारी अस्पतालों पर ध्यान न लगाकर निजी स्कूलों व निजी अस्पतालों पर अपना पूरा ध्यान लगाते हैं।
   सरकारी स्कूलों में जनप्रतिनिधियों व सरकारी कर्मियों के बच्चों के पढ़ने की अनिवार्यत: से प्रश्न उठता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस आदेश को मुख्य सचिव लागू कैसे कर सकते हैं। क्योंकि वह अपनी ओर से कोई व्यवस्था बनाने और करने में सक्षम नहीं हैं। मुख्य सचिव का काम संसद और विधान मंडलों द्वारा बनाये गये कानून या प्रतिनिधियों के बनाये गये नियमों के अनुसार कार्य करना है। इसमें यह परेशानी होगी कि कोर्ट को नियम और कानून बनाने का अधिकार तो है नहीं, कोर्ट विद्यमान कानूनों की समीक्षा ही कर सकते हैं और संवैधानिक परिधि के भीतर ही किसी मामले का निस्तारण भी कर सकते हैं। ऐसे में यह सरकार आदेश को अमल में लाने के लिए कैसे बाध्यकारी होगी समझ से परे है।
  शिक्षा का व्यवसायीकरण इस आदेश में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है।  इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्तर से सरकारी विद्यालयों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यही वजह है कि निजी स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ये लोग शिक्षित लोगों की बेरोजगारी का लाभ भी उठा रहे हैं। हालात यह है कि निजी विद्यालयों में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतनमान भी नहीं मिलता। यही वजह है कि सरकारी विद्यालयों में तो शिक्षा का स्तर गिरा ही है साथ ही निजी विद्यालयों में कोई खास पढ़ाई नहीं होती। सरकारी विद्यालयों में सरकारी उपेक्षा व शिक्षा के व्यवसायीकरण के बीच अभिभावक पिस रहा है। अभिभावक किसी तरह से पैसों की व्यवस्था कर निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं पर शिक्षा की कोई खास व्यवस्था नहीं। व्यवस्था यह भी होनी चाहिए कि नई नौकरी पर जाने वाले युवाओं से एक एग्रीमेंट लिखवाया जाए कि वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएगा तथा अपना व अपने परिजनों का इलाज सरकारी अस्पताल में कराएगा।
   ऐसे में प्रश्न उठता है कि संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत बच्चों की अनिवार्य शिक्षा के संबंध में ऐसे क्या कदम उठाये जाय कि यह संसद और विधान मंडलों को ही निर्धारित करना पड़ेगा पर उनका भी तो सरकारी शिक्षा के बारे में दृष्टिकोण बदले कि उनको सार्थक कैसे बनाया जाये। इसी के साथ ही यह भी बाधा आएगी कि किसी सरकारी स्कूल में शुरुआती शिक्षा लेने की आवश्यकता इसलिए भी अनुभव नहीं की जाती क्योंकि जूनियर और सेकेंडरी स्कूलों में भी इस घोषणा के कारण बच्चे का प्रवेश हो सकता है कि वह घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त करता रहा है। उसकी योग्यता का मूल्यांकन कर, निर्धारण के बाद इन स्कूलों की कक्षा में दाखिल किया जा सकता है।
  इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की लोगांे में जो स्वागत की भावना जागी है। उसे कैसे अमल में लाया जाए। इसके लिए सरकार स्थानीय निकायों और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा जो स्कूल चलाये जा रहे हैं। उनकी आवश्यकता और गुणवत्ता भी ऐसी बनानी होगी जिससे लोग स्वत: इन विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजने से कतराए नहीं।

Thursday 13 August 2015

नेताजी की रणनीति है या हताशा मुख्यमंत्री को डांटना ?

    यह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की रणनीति है या फिर हताशा जो बीच-बीच में वह अखिलेश सरकार की खिंचाई करते रहते हैं। मंत्रियों, विधायकों व कार्यकर्ताओं के काम-काज के तरीकों पर उंगली उठाते रहते हैं। विधानसभा चुनाव के परिणाम कमजोर आने की आशंका जताते रहते हैं। वजह कुछ भी हो पर यह बात नेताजी की समझ में आ चुकी है कि प्रदेश में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। भले ही आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर रही हो पर नेताजी को विश्वास था कि उत्तर प्रदेश में वह इतने कमजोर नहीं कि उनकी पार्टी पांच सीटों तक ही सिमट कर रह जाएगी। नेताजी की परेशानी का कारण यह भी था कि उड़ीसा, तमिलनाडु व पश्चिमी बंगाल में मोदी लहर कुछ खास करामात नहीं दिखा सकी तो उत्तर प्रदेश कैसे प्रभावित हो गया। इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं सरकार की खामियों का फायदा नरेंद्र मोदी ने उठाया। यही वजह है कि नेताजी आम चुनाव को याद कराते हुए कार्यकर्ताओं को विस चुनाव परिणाम के प्रति सचेत करते रहते हैं। सपा यही पार्टी है, जिसके सत्तारूढ़ के चलते 2005 के आम चुनाव में सपा ने 37 सीटें जीती थी।
   नेताजी की चिंता वेवजह नहीं है। एक ओर ढीला पड़ता संगठन, बिगड़ती कानून व्यवस्था का आरोप। यादव सिंह प्रकरण पर सीबीआई जांच के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद राहत न मिलने से हुई फजीहत। पार्टी में नेताजी के समय के नेताओं के साथ उपेक्षित व्यवहार, ये सब उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभावित होने के लिए पर्याप्त है। संगठन मामले में कार्यकर्ताओं पर पकड़ रखने वाले नेताजी नए समाजवादियों  की फौज में वह जान नहीं देख रहे हैं जिसके बल पर उन्होंने राजनीतिक कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
    बात 2017 के विधानसभा चुनाव के संदर्भ में चल रही है तो हमें 2012 के चुनाव पर भी निगाह डालनी होगी। जब नेताजी के सुपुत्र अखिलेश यादव ने साइकिल यात्रा के माध्यम से प्रदेश में माहौल बनाया तब प्रदेश की जनता ने सोचा था कि एक पढ़ा-लिखा युवा सरकार बनाएगा तो प्रदेश के लिए कुछ नया होगा। पर सरकार बनने के बाद मुजफ्फरनगर दंगा, कुंडा में पुलिस अधिकारी की हत्या, कई गैंगरेप के मामले। रोज-रोज मीडिया में कानून व्यवस्था की उड़ती धज्जियां पर आधारित खबरें। ये सब नेताजी की चिंता का कारण है। इसमें दो राय नहीं कि अखिलेश यादव ने अपने स्तर से उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर विकास कार्य कराए हैं पर पार्टी में खत्म होती जा रही विचारधारा व नीतियों से भटकते कार्यकर्ताओं के व्यवहार के चलते वे उपलब्धियां जनता तक नहीं पहुंच पा रही हैं।
    भले ही अब प्रदेश में सरकार की उपलब्धियों के बखान के लिए साइकिल यात्रा निकाली जा रही हो पर पिछले रिकार्ड पर नजरें डाली जाए तो सपा की साइकिल रैली में विचारधारा-नीतियां व सरकार की उपलब्धियां कम शोर-शराबा ज्यादा होता रहा है। साइकिल रैली के माध्यम से नेता शक्ति प्रदर्शन भर करते हैं। सरकार पर एक विशेष जाति के पदाधिकारियों व अधिकारियों का कब्जा भी सरकार की कमजोरी को दर्शाता रहा है।
   बात आज की समाजवादियों की जाए तो कुछ समय से नेताजी की अगुआई में जनता परिवार के एकजुट होने की बात चली थी। कहा तो यह भी जा रहा था कि बिहार चुनाव से पहले राजद, जदयू, जद (एस), इनेलो समेत कई संगठन मिलकर एक पार्टी बना लेंगे। इसकी जिम्मेदारी भी नेताजी को सौंपी गई थी। जदयू व राजद ने एकजुट होने की घोषणा भी कर दी थी। अन्य दलों ने सपा की मजबूती को देखते हुए पार्टी का चुनाव चिह्न भी साइकिल रखने का निर्णय ले लिया था। सपा के भी विलय की बात की जा रही थी पर अचानक सपा महासचिव रामगोपाल यादव का बयान आया कि जनता परिवार में सपा का विलय मतलब सपा का आत्मघाती निर्णय। उन्होंने बात को संभालते हुए बिहार चुनाव के बाद विलय की बात कही। मतलब साफ है कि यदि राजद व जदयू गठबंधन बिहार में सफल होता है तो सपा जनता परिवार में शामिल होगी वर्ना ऐसे ही चलता रहेगा। यह सब जनता देख रही है। यह भी नेताजी की चिंता का कारण है।
   नेताजी बार-बार अखिलेश यादव पर इसलिए भी नाराजगी व्यक्त कर देते हैं क्योंकि तमाम प्रयास के बावजूद वह प्रतीक यादव को राजनीति में नहीं ला पाए। साथ ही उनके चाहने के बावजूद वह अमर सिंह की सपा में वापसी नहीं करा पाए। इन सबके बीच नेताजी के अनुज शिवपाल सिंह यादव की नाराजगी भी नेताजी की परेशानी बढ़ाती रहती है।
  बात सपा में मुस्लिम वोटबैंक की जाए तो समय-समय पर मो. आजम खां नेताजी को अपनी ताकत का एहसास कराते रहते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि आजम खां ही हैं जिन्होंने अमर सिंह का पत्ता साफ कर अपनी पत्नी को राज्यसभा में भिजवा दिया। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने इस एहसान को न चुकाया हो। नेताजी के जन्म दिन पर आजम खां ने रामपुर में लंदन से बग्घी मंगाकर नेताजी को कालीन बिछाकर पूरे रामपुर की शहर कराई। वह बात दूसरी है कि नेताजी के समाजवाद पर जमकर उंगली उठाई गई। आजम खां नेताजी को कितना भी खुश करने का प्रयास करते हों पर समय-समय पर उनकी तुनकमिजाजी से मुख्यमंत्री का परेशान होना भी नेताजी की परेशानी का कारण रहा है।
   इसमें दो राय नहीं कि विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में असली टक्टर बसपा व सपा की मानी जाती रहती है पर आम चुनाव में भाजपा की एकतरफा जीत से नेताजी को भाजपा का भी डर सताने लगा है। ऊपर से उत्तर प्रदेश में ऑल इंडिया मजलिस-ए-एत्तेहाद उल मुस्लिमीन पाटी के मुस्लिमों के कट्टर नेता के रूप में जाने जाने वाले असदुद्दीन ओवेसी की एंट्री। कहा जा रहा है कि ओवेसी का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश में भाजपा कर रही है। यह भी नेताजी की परेशानी बढ़ाने वाली है। भड़काऊ भाषण देने के रूप में जाने जाने वाले ओवेसी से मुस्लिम काफी प्रभावित हो रहे हैं।
   उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों में मुलायम सिंह की बड़ी पकड़ मानी जाती है तो स्वभाविक है कि ओवेसी की एंट्री से नेताजी को चिंता होगी ही। भले ही छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर मिश्र की जयंती पर नेताजी ने पुराने समाजवादियों को सम्मानित किया हो पर पर नेताजी पर लगातार परिवारवाद, जातिवाद का आरोप लग रहा है। लंबे समय समय राजनीति के खिलाड़ी माने जाने वाले नेताजी के क्रियाकलाप पर उंगली उठती रही है। नेताजी यूपीए के दस साल के कार्यकाल में सरकार को समर्थन भी करते रहे आैर विरोध भी। इस बार भी नेताजी ने एनडीए सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश मामले में एक तरह से सरकार का समर्थन कर दिया जबकि वह अपने को समय-समय पर किसान हितैषी का भी दावा करते रहते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद पहले से ही उनकी परेशानी बढ़ाता रहा है। अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर एक नई पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी आैर बन गई।