Friday 30 December 2016

इस जिद पर इतिहास कभी माफ नहीं करेगा नेताजी!

   
   सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को जब अपने पुत्र अखिलेश यादव की साफ-सुथरी छवि और उत्तर प्रदेश में हुए ऐतिहासिक विकास कार्यांे पर गर्व होना चाहिए था। प्रदेश को अच्छा शासन देनेपर जब उन्हें अखिलेश यादव की पीठ थपथपानी चाहिए थी। जब उन्हें सीना चौड़ा कर देश की राजनीति में संदेश देन चाहिए था कि सीखो उनके बेटे से राजनीति, जिसने उनसे भी आगे बढ़कर जनहित के कार्य किए।  ऐसे समय में वह खुद देश के उभरते हुए समाजवादी सितारे को धूमिल करने में लग गए। जब देश में समाजवाद के प्रणेता डॉ. राम मनोहर लोहिया व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के तैयार किए गए समाजवादी अपने रास्ते से भटकने लगे तो आगे बढ़कर ऐसे नौजवान ने समाजवाद का झंडा संभाला जिसने अपने पिता को बस संघर्ष करते ही देखा। अखिलेश यादव गत दिनों जनहित और समाजवादी विचारधारा के पक्ष में जो निर्णय लिए उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया की याद दिला दी। उन्होंने दबाव में गलत काम के लिए बोलने पर नेताजी को जो आइना दिखाने का प्रयास किया उसने प्रदेश ही नहीं बल्कि देश का दिल जीत लिया। दीपक सिंघल को मुख्य सचिव और गायत्री प्रजापति पहले हटाने और फिर मंत्री बनाने पर अखिलेश यादव की जो किरकिरी हुई उसके लिए खुद मुलायम सिंह यादव जिम्मेदार थे। नेताजी आपके राज में नीरा यादव और अखंड प्रताप सिंह ने मुख्य सचिव रहते सरकार की जो छवि धूमिल की थी क्या वह सही थी ?
    अखिलेश यादव की पांच साल की सरकार में उन पर व्यक्तिगत रूप से कोई आरोप न लग सका। निश्चित रूप से उनका पहला ही कार्यालय प्रदेश के अन्य मुख्यमंत्री रहे नेताओं पर भारी पड़ रहा है। समाजवादी विचारधारा के लिए दागी लोगों को पार्टी में न घुसने देने के उनके निर्णय ने उनके समकालीन नेताओं से कहीं आगे कर दिया। जहां उन्होंने बाहुबलि डी.पी. यादव को पार्टी में न घुसने दिया, वहीं मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद का भी विरोध किया। इन लोगों ने अखिलेश यादव का विरोध ताक पर रखकर मुलायम सिंह में विश्वास जताया था। ऐसे में नेताजी ने अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को गले लगाकर अखिलेश यादव को नीचा नहीं दिखाया बल्कि अपना खुद का कद घटाया है।
निश्चित रूप से संघर्ष के समय में अमर सिंह और शिवपाल सिंह यादव ने पार्टी और नेताजी आपका साथ दिया। उसके हिसाब से उन्हें सम्मान भी मिल रहा है। अमर सिंह राष्ट्रीय महासचिव राज्यसभा सदस्य और संसदीय बोर्ड में हैं तो शिवपाल सिंह यादव प्रदेश के अध्यक्ष।  इसमें दो राय नहीं कि समाजवादी पार्टी को यहां तक नेताजी अपने दम पर खींच लेकर आए हैं पर क्या 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के चेहरे पर वोट नहीं मिला ? क्या अखिलेश यादव ने परिवार और बड़े नेताओं के दबाव से निकलकर प्रदेश में विकास के ऐतिहासिक कार्य नहीं किए ? क्या यदि दोबारा सपा की सरकार बनती है तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री नहीं बनने चाहिए ? क्या अखिलेश यादव से योग्य चेहरा समाजवादी पार्टी में है ? यदि है तो कौन है ? यदि नहीं तो अखिलेश यादव के पसंद के प्रत्याशी क्यों नहीं बनने चाहिए ?
     जब चुनाव में 25 फीसद युवा निर्णायक भूमिका निभा रहा हो। यह युवा वह है जिस पर किसी जाति धर्म का असर नहीं पड़ता है और  आज की तारीख में युवा वर्ग अखिलेश यादव में उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश का भविष्य देख रहा है तो नेताजी आप इस युवा वर्ग को क्यों नाराज करने में लगे हैं? अखिलेश यादव की इच्छा के विरुद्ध बाहुबलि अतीक अहमद और खनन माफिया गायत्री प्रजापति को टिकट देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं ?
    नेताजी तो यह माना जाए कि जितने भी बुजुर्ग नेता हैं बस दिखावे के ही लिए युवाओं का आगे बढ़ाने की बात करते हैं। जितने भी टिकट आपने काटे हैं ये सब युवा नेता हैं। उत्तर प्रदेश के योग्य मुख्यमंत्री को नीचा दिखाकर आप लोगों में क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या अब भी आप अखिलेश यादव से लंबी राजनीतिक पारी खेलने की स्थिति में है ? क्या आप देश के उभरते हुए समाजवादी चेहरे को ढकने का प्रयास नहीं कर रहे हंै ? आपने हमेशा ही जनहित और देशहित की बात कही है। समाजवादियों के संघर्ष का अध्ययन कर काम करने की बात कही है। जब आपका खुद का बेटा प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में समाजवाद का झंडा बुलंद करने चला है तो आप ही उसके इस बुलंद इरादे में रोड़ा बनने लगे। नेताजी अब अखिलेश यादव को कोई रोकना वाला नहीं है। आप क्यों नायक से खलनायक बन रहे हंै। आज की तारीख में अखिलेश यादव का चेहरा ऐसा बन चुका है कि वह पूरी समाजवादी पार्टी पर भारी पड़ रहे हैं।
    सोचिए वह भी आपके ही बेटे हैं कहीं यदि उन्होंने अलग पार्टी बनाकर अपने प्रत्याशी चुनावी समर में उतार दिए तो आपके साथ खड़े नेताओं की राजनीति का क्या होगा ? नेताजी समझ लीजिए यदि आप लोग अपने पथ से न भटके होते तो आज देश में जहां संघी खड़े हैं वहां समाजवादी होते। संघियों को परास्त करने का जज्बा अखिलेश यादव में है उन्हें देश में समाजवादियों का परचम लहराने दीजिए। सपा में बने इस माहौल में अखिलेश यादव को भी संदेशनात्मक और कड़े निर्णय लेने होंगे।

Friday 23 December 2016

किसानों के सबसे बड़े पैरोकार थे चरण सिंह

                      (23 दिसंबर जयंती पर विशेष )                      


समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की जयंती पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया आैर जयप्रकाश नारायण को जाता हो पर वर्तमान में उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए, उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि हरियाणा और बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक पाठ पढ़ाया।
    चौधरी चरण सिंह ने अजगर शक्ति अहीर, जाट, गुज्जर आैर राजपूत का शंखनाद किया। उनका कहना था कि अजगर समूह किसान तबका है। उन्होंने अजगर जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का भी आह्वान किया तथा अपनी एक बेटी को छोड़ सारी बेटियों की शादी अंतरजातीय की। यह चरण सिंह की विचारधारा का ही असर है कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का आश्वासन देती रही है तो उनके पुत्र आैर राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम पर राजनीति आगे बढ़ा रहे हैं। जदयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किसानों में चरण सिंह की आस्था का फायदा उठाने के लिए उत्तर प्रदेश में उनके पुत्र अजित सिंह से हाथ मिलाया है।
     आज भले ही उनके शिष्यों पर परिवाद और पूंजीवाद के आरोप लग रहे हों पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हां अजित सिंह को विदेश से बुलाकर पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन पर पुत्रमोह का आरोप जरूर लगा। तबके कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के पास भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। यह उनकी ईमानदारी का प्रमाण है कि जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन आैर मकान नहीं था।
    चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। चरण सिंह का व्यक्तित्व आैर कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह मूर्ति पूजा, पाखंड और आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई आैर न ही मूर्ति पूजा की। चौधरी चरण सिंह की नस-नस में सादगी आैर सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया।शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चरण सिंह ने कहा था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे, चाहे कोई भी लीडर आ जाये, चाहे
कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ, वह देश तरक्की नहीं कर सकता।
वैसे तो चौधरी चरण सिंह छात्र जीवन से ही विभिन्न  सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे थे पर उनकी राजनीतिक पहचान 1951 में उस समय बनी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग संभाला।
    चरण सिंह स्वभाव से ही किसान थे। यह उनका किसानों के प्रति लगाव ही था कि उनके हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। उस समय तक वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे। उन्होंने किसान नेता की हैशियत से उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। किसानों में सम्मान होने के कारण चरण सिंह को किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हे भाषण देने में महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुट जाती थी। यह उनकी भाषा शैली ही थी कि लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। 1969 में कांग्रेस का विघटन हुआ तो चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडिकेट के प्रति रही। वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बने पर बहुत समय तक इस पद पर न रह सके।
    कांग्रेस विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा था। केंद्रीय स्तर पर हुआ विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे। इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बने रहे। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले मे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था। इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश होने का कारण एक वजह था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार न था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी ने दो अक्टूबर 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और बढ़ गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना संभव न था। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी नेता माने जाते हैं। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
   ईमरजेंसी लगने के बाद 1977 में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी जीती तो आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण के सहयोग मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया। सरकार बनने के बाद से ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। कांग्रेस और सीपीआई ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। प्रधानमंत्री बनने में इंदिरा गांंधी का समर्थन लेना राजनीतिक पंडित चरण सिंह की पहली और आखिरी गलती मानते हैं।
    दरअसल इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने ही चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी थी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली और प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने 20 अगस्त 1979 तक लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने को  कहा इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले । इसे चरण सिंह का दुर्भाग्य कहें या फिर समय की नजाकत कि इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असंभव ही है। यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगा दी थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमें कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए, चौधरी साहब इसके लिए तैयार न थे। इसलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गई। वह जानते थे कि जो उन्होंने ईमानदार और सिद्धांतवादी नेता की छवि बना रखी। वह सदैव के लिए खंडित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
   प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रदानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की तरह जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण उन्हें जनता की सहानुभूति मिलेगी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी कि वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजाÓ के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
   चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बत करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धांतवादी आरै अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पद पहुंचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी थे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लें तो फिर उसे पूरा करके ही दम लेते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद गांधी टोपी को कई दिग्गज नेताओं ने त्याग दिया था पर चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यंत धारण किए रखा।
    बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'आबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेंड प्रोपराटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एंड सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्वपूर्ण कारण बना।

Thursday 22 December 2016

सहारा के खिलाफ उच्च स्तरीय जांच बैठाएं प्रधानमंत्री!

     दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और स्वराज इंडिया पार्टी के नेता तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण के बाद अब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहते सहारा समूह से रिश्वत लेने के आरोप लगाए हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष भले ही इसे राजनीतिक स्तर पर देख रहा हो पर मेरा मानना है कि हम लोग इस मामले को इस तरह से देखें कि एक संस्था की वजह से हमारे देश के प्रधानमंत्री का नाम बदनाम हो रहा है। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भले ही साम्प्रदायिक दंगों को लेकर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हों पर उनकी ईमानदारी पर अभी तक कोई विरोधी भी आरोप नहीं लगा पाया था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, हालात और उनकी राजनीतिक कार्यशैली भी उनकी ईमानदार छवि बखान कर रही है। हां आयकर विभाग के छापे पड़े दो साल से ज्यादा बीत गए हैं। ऐसे में सहारा समूह के खिलाफ कार्रवाई न होना कहीं न कहीं केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहा है। ऐसे में सहारा समूह और आयकर विभाग पर जरूर जांच बैठनी चाहिए। आयकर विभाग पर इसलिए क्योंकि दो साल पहले नोएडा कार्यालय में पड़े छापे में वहांं से 134 करोड़ रुपए बरामद हुए थे। इस मामले में सहारा ग्रुप पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? यदि प्रधानमंत्री को रिश्वत देने संबंधी दस्तावेज आयकर विभाग को सहारा समूह से बरामद हुए थे तो इस मामले पर जांच क्यों नहीं बैठाई गई।
     सहारा समूह पर कोई कार्रवाई न होने से कहीं-कहीं प्रधानमंत्री की कार्यशैली पर भी उंगली उठ रही है। इन आरोपों के बाद प्रधानमंत्री पर सहारा समूह के खिलाफ उच्चस्तरीय जांच कराने की और नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है। सहारा ग्रुप के खिलाफ जांच इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसके सुप्रीमो सुब्रत राय देशभक्ति के आड़ में लम्बे समय से देश की भोली-भाली जनता को ठग रहे हैं। भेड़ की खाल में घूम रहे इस भेड़िये ने जनता के खून-पसीने की कमाई पर जमकर अय्याशी की और बड़े स्तर पर नेताओं व नौकरशाह को कराई है। देश में कालेधन के खिलाफ माहौल बन रहा है और जगजाहिर है कि सहारा हमारे देश का स्विस बैंक रहा है।
निवेशकों के हड़पे पैसे के बदले सहारा समूह जो पैसा सुप्रीम कोर्ट में जो पैसा जमा करा रहा उसका स्रोस भी पूछा जाना चाहिए। इस संस्था पर जांच इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जब नोएडा से 134 करोड़ रुपए जब्त किए गए थे, उस समय सहाराकर्मियों को कई महीने से वेतन नहीं मिल रहा था तथा सहारा प्रबंधन संस्था के पास पैसा न होने का रोना रो रहा था।
     जांच इसलिए भी होनी चाहिए क्योंकि इस संस्था के चेयरमैन सुब्रत राय ने राजनीतिक दलों की पकड़ के चलते बनाए अपने रुतबे के बल पर देश में बड़े स्तर पर अनैतिक काम किए हैं। इस संस्थान में मालिकान और अधिकारी खूब अय्याशी करते हंै पर कर्मचारियों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया है। दिखावे को तो सुब्रत राय देशभक्ति का ढोल पीटते फिरते हैं पर जमीनी हकीकत यह है कि यहां पर कर्मचारियों का जमकर शोषण और उत्पीड़न किया जाता रहा है। लंबे समय से कर्मचारियों का प्रमोशन नहीं हुआ है।  12-16 महीने का वेतन बकाया है। जो कर्मचारी अपना हक मांगते हैं उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया जाता है या फिर कहीं दूर स्थानांतरण कर दिया जाता है। अपना बकाया वेतन व मजीठिया वेजबोर्ड मांग रहे 22 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद प्रिंट मीडिया में मजीठिया वेजबोर्ड के हिसाब से वेतन नहीं दिया जा रहा है। गत सालों में एग्जिट प्लॉन क तहत कितने कर्मचारियों की नौकरी तो ले ली पर हिसाब अभी तक नहीं किया गया। इन कर्मचारियों ने पूरी जवानी इस संस्था को दे दी और अब वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। यह संस्था अपने को बड़ा देशभक्त और भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होना दिखाती है पर कर्मचारियों को नमस्ते, प्रणाम की जगह 'सहारा प्रमाणÓ करवा कर अपनी गुलामी कराती है। आगे बढ़ने का एकमात्र फार्मूला चरणवंदना और वरिष्ठों को अय्याशी कराना है। 
    देशभक्ति के नाम दिखावा तो बहुत किया जाता है पर सब अपने कर्मचारियों को ठग कर। 1999 में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध में शहीद हुए हमारे सैनिकों के परिजनों की देखभाल के नाम पर संस्था ने अपने ही कर्मचारियों से 10 साल तक 100-200-500 रुपए तक वेतन से काटे। उस समय चेयरमैन ने यह बोला था कि दस साल पूरे होने पर यह पैसा ब्याज सहित वापस होगा पर किसी को कोई पैसा नहीं मिला। यह रकम अरबों-खरबों में बैठती है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच बैठाई की जाए तो पता चल जाएगा कि इस संस्था ने शहीदों की लाश पर ही अपने ही कर्मचारियों से अरबों-खरबों की उगाही कर ली।
गत साल चेयरमैन सुब्रत राय जब जेल गए तो अपने को जेल से छुड़ाने के नाम पर अपने ही कर्मचारियों से 10,000-100000 रुपए तक ठग लिए। जब हक की लड़ाई लड़ रहे कर्मचारियों में से एक प्रतिनिधिमंडल जेल में जाकर चेयरमैन से मिला तथा इस रकम के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी ही बेशर्मी से यह कहा कि संस्था में किसी स्कीम में धन कम पड़ रहा था। इसलिए अपने ही कर्मचारियों से पैसा लेना पड़ा। यह पैसा कर्मचारियों ने ऐसे समय में दिया था जब कई महीने से उन्हें वेतन नहीं मिला था। किसी कर्मचारी ने अपनी पत्नी के जेवर बेच कर ये पैसे दिए तो किसी ने कर्जा लेकर। कर्मचारियों ने हर बार अपने चेयरमैन पर विश्वास किया और इस व्यक्ति ने हर बार उन्हें इमोशनल ब्लैकमेल करते हुए बस ठगा। लंबे समय तक वेतन न देकर  इस संस्था ने कितने कर्मचारियों के परिवार तबाह कर दिए। कितने बच्चों का जीवन बर्बाद कर दिया। कितने कर्मचारियों को मानसिक रूप से बीमार बना दिया।
   देश का दुर्भाग्य है कि सब कुछ जानते हुए भी विभिन्न दलों के नेता इस संस्था के कार्यक्रमों में पहुंच जाते हैं। गत दिनों जब नोएडा के मेन गेट पर बड़ी तादाद में कर्मचारी जब अपना हक मांग रहे थे तो किसी दल के नेता का दिल नहीं पसीजा पर 18 दिसम्बर को लखनऊ में सहारा न्यूज नेटवर्क की ओर से थिंक विद मी, देश आदर्श बनाओ, भारत महान बनाओ कार्यक्रम किया गया तो विभिन्न दलों के नेता उस कार्यक्रम में पहुंचे और बड़ी-बड़ी बातें की। इस कार्यक्रम में लगभग सभी मुख्य दलों के नेता मौजूद थे। इनमें कांग्रेस उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष राजबब्बर और प्रभारी गुलाम नबी आजाद भी मुख्य रूप से उपस्थित थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर सहारा समूह से रिश्वत लेने का आरोप लगा रहे हैं तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यदि सहारा ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्हें रिश्वत दी होगी तो कुछ गलत काम पर पर्दा डालने के लिए ही दी होगी। वैसे भी संस्था के चेयरमैन के जेल जाने के बाद सहारा के काले कारनामे जगजाहिर हो चुके हैं तो वह क्यों नहीं सहारा के कार्यक्रमों में जाने से अपने नेताओं को रोकते और क्यों नहीं सहारा के निवेशकों के पैसे हड़पने के केस को लड़ रहे अपने नेता कपिल सिब्बल को उनकी नैतिक जिम्मेदारी समझाते ?  यदि राजनीतिक दल वास्तव में देश में अब कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो अपने दलों की छवि सुधारने के साथ ही उन कारपोरेट घरानों के खिलाफ मोर्चा खोलें उनके वजूद का इस्तेमाल करते हुए अपने काले कारनामों से जनता व देश को ठग रहे हैं।

Monday 19 December 2016

राजनीतिक दलों के खातों में पड़े काले धन का क्या कर रहे हैं प्रधानमंत्री जी ?

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि काले धन के लिए सड़क से लेकर संसद तक बवाल काटने वाले राजनीतिक दलों के खाते में पड़े काले धन का कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है। सरकार हर जगह बिना हिसाब-किताब वाले धन पर जुर्माना लगाने की बात कर रही है पर राजनीतिक दलों के खाते में 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों में जमा राशि पर आयकर नहीं लगाएगी।  इसका मतलब है कि आप किसी भी नाम से राजनीतिक दल का रजिस्ट्रेसन करा लीजिये और फिर इसके खाते में चाहे कितना काला धन दाल दीजिए। कोई पूछने वाला नहीं है। देश में हजारों राजनीतिक दल हैं। कितने दल चुनाव लड़ते हैं, बस नाम मात्र के।  अधिकतर दल तो काले धन का सफेद करने तक सीमित हैं। ऐसा नहीं कि चुनाव लड़ने वाले दलों के खाते में काला धन नहीं हैं। आज की तारीख में तो राजनीतिक दलों के खाते में अधिकतर धन तो काला ही है। चाहे किसी कारपोरेट घराने ने दिया हो या फिर किसी प्रॉपर्टी डीलर ने या फिर किसी अधिकारी ने। यही हाल देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले पड़े एनजीओ का है।
       देश में गजब का खेल चल रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष देश की जनता से तो काले धन का हिसाब मांग रहे हैं पर अपना और अपने दल के काले धन का कोई हिसाब-किताब देने को तैयार नहीं। जनप्रतिनिधियों का भी यही हाल है। ये लोग संसद या विधानसभाओं में अपने क्षेत्र की समस्याएं कम और अपनी पार्टी और अपनी ज्यादा उठाते हैं। इन्हें अपने वेतन की चिंता है। अपनी निधि की चिंता है पर जनता और जनता के काम की कोई चिंता नहीं। किसान-मजदूर की आय इतनी कम क्यों ? यह जानने की कोई कोशिस नहीं करता। बस अपने ऐशोआराम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। इन्हें देश से बाहर और देश के अंदर जमा काले धन की चिंता है पर खुद पार्टी के खाते से कितने बड़े स्तर पर काले धन से सफेद कर रहे हैं। इस पर इनका कोई ध्यान नहीं। आरोप-प्रत्यारोप में पूरा शीतकालीन सत्र बीत गया पर किसी दल के किसी सांसद ने राजनीतिक दलों के पास होने वाले काले धन का मुद्दा संसद में नहीं उठाया। 
      प्रधानमंत्री देश में कैसलेस ट्रांजेक्शन की बात कर रहे हैं पर अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में कैसलेस ट्रांजेक्शन की व्यवस्था करने को तैयार नहीं। सर्वविदित है कि सबसे अधिक काला धन राजनीतिक दलों व एनजीओ में खपाया जाता है। नोटबंदी के नाम पर काला धन खत्म करने की बात की जा रही है पर राजनीतिक दलों के खातों में पड़े बेसुम्मार धन की कोई बात नहीं कर रहा है। 
केंद्र सरकार एक ओर नोटबंदी योजना से काले धन पर अंकुश लगाने की बात कर रही है तो दूसरी ओर खुद काले धन को सफेद करने में लगी है। गरीब आदमी को लाइन में लगकर भी उसका पैसा नहीं मिल पा रहा है और काला धन रखने वाले लोग बैंकों से नये नोटों की गड्डियां ले जा रहे हैं।
     इस योजना के नाम पर केंद्र सरकार गरीब आदमी की भावनाओं से खेल रही है। आठ नवम्बर को नोटबंदी की योजना लागू करते समय प्रधानमंत्री ने 500-1000 के नोटों को रद्दी करार दे दिया तथा कहा था कि 2.5 लाख रुपए से ऊपर खाते में जमा धन का हिसाब न देने पर उस पर 200 फीसद जुर्माना लगेगा। उन्होंने कहा कि सरकार ने जुर्माना तो नहीं लगाया उल्टे काले धन का 50 फीसद सफेद कर पूंजीपतियों को लौटाने की बात करने लगे। नये नोटों का 70-80 फीसद तो काले का सफेद करने में लग जा रहा है। आम आदमी को लाइन में लगकर भी पैसा नहीं मिल रहा है। देश के अधिकतर एटीएम में पैसा ही नहीं है। इस योजना का सबसे अधिक असर आम आदमी पर पड़ रहा है।
     बैंक बड़े स्तर पर काले का सफेद करने में लगे हैं। आम आदमी के लिए 2000 रुपए का कैस नहीं है पर काला धन रखने वाले के लिए करोड़ों रुपए हैं। यह नोटबंदी कैसी देशहित की योजना है, जिससे बस आम आदमी ही परेशान हो रहा है।  सच्चाई तो यह है कि काला धन रखने वाले जो लोग जेल जाने से डर रहे थे उनको पैसा तो मिल ही गया साथ ही उनका डर भी निकल गया। गरीब आदमी को लाइन में लगकर भी पैसा नहीं मिल रहा है और भाजपा नेताओं के पास लाखों में नये नोट मिल रहे हैं।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पैसों से संबंधित जो भी योजना आती है, उसका फायदा या व्यापारी उठाते हैं या फिर बैंक । 2008 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई किसान ऋण माफी योजना में बड़े स्तर पर घोटाला हुआ था। कैग की रिपोर्ट के अनुसार काफी छोटे व्यापारियों ने अपने को किसान की श्रेणी में दिखाकर अपना कर्ज माफ करा लिया था। उस समय ये बातें कही जा रही थी कि गड़बड़ी करने वाले बैंक अधिकारियों व व्यापारियों पर कार्रवाई होगी पर क्या हुआ, ढाक के तीन पात।
    यूपीए सरकार के बाद अब एनडीए सरकार चल रही है। किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। कृषि ऋण माफी योजना के नाम पर ईमानदार किसान तो बस ठगा ही गया। हां कुछ डिफाल्टर किसानों को इसका फायदा जरूर हुआ था। इस योजना से भी आम आदमी ही ठगा जाएगा, बैंक अधिकारी व काला धन रखने वालों को कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।