Friday 29 May 2015

अजगर से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का आह्वान करने वाले चौधरी

                         पुण्यतिथि पर विशेष (29 मई)
    समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी  अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय जयप्रकाश नारायण आैर राममनोहर लोहिया को जाता है पर वर्तमान में प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक का पाठ पढ़ाया।
चरण सिंह की स्वीकार्यता व लोकप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यादव बहुल आजमगढ़ जिले से उनके भारतीय क्रांति दल को सन 1969 में 14 में से 14 विधानसभा सीटें प्राप्त हुई थी, जबकि उनके गृह जिले मेरठ में 14 में से एक विधायक ही विजय प्राप्त कर स
का था। चौधरी चरण सिंह ने अजगर शक्ति अहीर, जाट, गुज्जर आैर राजपूत का शंखनाद किया तथा कहा कि अजगर समूह किसान तबका है। उन्होंने अजगर जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का भी आह्वान किया तथा अपनी एक बेटी को छोड़ सारी बेटियों की शादी अंतरजातीय की। चरण सिंह की स्वीकार्यता का आलम यह था कि उन्हें तब के पूरब के कद्दावर नेता रामसेवक यादव बनारस, गाजीपुर आैर आजमगढ़ आदि में चौधरी चरण सिंह यादव कहकर नारे लगाते थे। सन 1969 में विधानसभा चुनाव में पश्चिम से चरण सिंह की बीकेडी से 11 विधायक गुर्जर बिरादरी से बने। वर्तमान की राज्य की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का दंभ भर  रही है तो उनके पुत्र आैर रालोद प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम पर राजनीति कर रहे हैं।
     चौधरी चरण सिंह राजनीति में पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हालांकि तब के कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन आैर मकान नहीं था। चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। उनके जमाने के मेरठ में वकालत करने वाले प्रतिष्ठित आैर वरिष्ठ अधिवक्ता तपसीराम भाटी का कहना है कि चरण सिंह का व्यक्तित्व आैर कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह पाखंड, आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई आैर न ही मूर्ति पूजा की। उनके अति घनिष्ठ रहे खादी ग्रामोद्योग आयोग के पूर्व अध्यक्ष यशवीर सिंह का कहना है चौधरी चरण सिंह की नस नस में सादगी आैर सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। प्रदेश के पंचायत राज्य मंत्री बलराम यादव बडे़ फख्र के साथ चौ. चरण सिंह के साथ बिताए लम्हो को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया तथा शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

Tuesday 26 May 2015

प्रतिभाओं का दमन है आरक्षण की व्यवस्था

    आरक्षण नाम के कोढ़ ने देश को ऐसे चपेट में ले लिया है कि इस परिपाटी पर समय रहते अंकुश न लगा तो यह व्यवस्था देश की प्रतिभा को चाट जाएगी। जगह-जगह अयोग्य व्यक्ति योग्य पदों पर बैठा दिखाया देगा, तो स्वभाविक है कि देश का विकास तो प्रभावित होगा ही साथ ही देश में जातीय वैमनस्यता आैर बढ़ेगी। आरक्षण नामक इस कुप्रथा ने देश में वोटबैंक की राजनीति का रूप ले लिया है। इस व्यवस्था से देश की प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। आरक्षण को लेकर जाटों का आंदोलन अभी रुका नहीं कि गुर्जरों के कई संगठन भी  सड़कों पर उतर आए। ये लोग जगह-जगह रेलवे ट्रैक जाम कर रहे हैं। वह बात दूसरी है कि उनके इस आंदोलन से वे लोग भी प्रभावित हो रहे हैं जिनके हक की लड़ाई लड़ने की बात ये लोग कर रहे हैं। देश में स्थिति यह है कि हर किसी को आरक्षण चाहिए। पढ़ाई में भी, नौकरी में भी आैर प्रोन्नति में भी।
   इस व्यवस्था में योग्यता, प्रतिभा का जैसे कोई मतलब ही न रह गया हो। जहां राजनीतिक दल वोटबैंक के लिए आरक्षण की पैरवी करते रहे हैं वहीं जातीय आधार पर बने कुछ संगठन राजनीतिक चमकाने के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। ये लोग आरक्षण की मांग कर अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने की जगह पंगू बना रहे हैं। उनके मन में आरक्षण नाम की बैसाखी थमाने की बात कर रहे हैं। आरक्षण की मांग करने वाले लोगों से मुस्लिमों से सीखना चाहिए, सिंधियों से सीखना चाहिए भले ही राजनीतिक दल इन लोगों के लिए आरक्षण की बात करते हों पर ये लोग अपने दम पर आगे बढ़ रहे हैं। ये लोग कभी अपने लिए आरक्षण नहीं मांगते।
    देश में आरक्षण की बात की जाए तो 1949 में जातीय विषमता को दूर करने के लिए दलितों के लिए की गई आरक्षण की व्यवस्था ने वोटबैंक का ऐसा रूप लिया है कि अब यह व्यवस्था विषमता मिटाने की जगह उसे आैर बढ़ा रही है। यह सब आरक्षण के लिए बनाई गई प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीम राव अम्बेडकर ने भी महसूस किया था। यही वजह थी कि उन्होंने उस समय ही स्पष्ट कर दिया था कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति को आरक्षण का प्रावधान केवल दस वर्ष तक के लिए ही होगा। हालांकि इसी बीच डॉ. अम्बेडकर का निधन हो गया। वह राजनीति का बदलता स्वरूप ही था कि एक दशक बाद जब धारा 335 के नवीनीकरण का प्रस्ताव आया तब तक आरक्षण वोटबैंक का रूप ले चुका था, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू आरक्षण से मिल रहे कांग्रेस के फायदे को समझ चुके थे। अब मुसलमान अल्पसंख्यक व ब्रााह्मणों के साथ ही दलित भी कांग्रेस का वोटबैंक बन चुका था। इसलिए उन्होंने आरक्षण की समय सीमा आैर बढ़ा दी।
   आज के दौर में भले ही समाजवादी नेता पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति कर रहे हों पर जगजाहिर है कि 60 के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस की मुस्लिम, ब्रााह्मण व दलित वोटबैंक काट के लिए पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया था। वह आरक्षण आैर जातिवाद, परिवारवाद के घोर विरोधी थे।
   आरक्षण समय सीमा पर निर्णय लेने का समय फिर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में आया  तो उन्होंने भी अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के पदचिह्नों पर चलते हुए अनुसूचित जाति के आरक्षण वाली धारा 335 को अम्बेडकर की राय के खिलाफ जाकर फिर बढ़ा दिया। देश में आरक्षण का कार्ड खेला जाता रहा है। 1989 में जब समाजवादियों की सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने पिछड़ों को रिझाने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर दिया। वह बात दूसरी है कि यह पासा वीपी सिंह को उल्टा पड़ गया। आरक्षण के विरोध में लामबंद हुए सवर्ण छात्रों के आक्रोश ने ऐसा रूप लिया कि देश में बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। तब इस माहौल को भाजपा कैस करा ले गई। अब तक आरक्षण की मांग राजनीतिक दल ही करते रहे हैं अब कुछ जातीय संगठन भी आरक्षण की मांग की आड़ में अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं।
   हमें यह भी देखना होगा कि आज के हालात में भले ही वोटबैंक के चलते कुछ दल आरक्षण की पैरवी कर रहे हों पर आरक्षण को लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. भीम राव अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण एक बैसाखी है आैर लम्बे दौर में यह  आरक्षण का लाभ लेने वाले लोगों को पंगु बना डालेगी। आज भले ही अम्बेडकर के नाम पर कई दल राजनीति कर रहे हों पर वह बड़े तार्किक थे, यही वजह थी कि उन्होंने आरक्षण की समय सीमा तय की थी। वह नहीं चाहते थे कि देश में किसी भी तरह की विषमता पनपे, पर वह वोटबैंक की राजनीति ही थी कि नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस पार्टी ने अम्बेडकर के चिंतन को नकार कर आरक्षण को राजनीति का मुद्दा बना दिया। यह राजनीति का बदला हुआ रूप ही है कि महात्मा गांधी ने जिस आरक्षण को दलित कल्याणकारी योजना बनाया था, आजकल नेता इस पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। देश में अयोग्यता को बढ़ावा दे रहे हैं।
   आज के परिवेश में हम आरक्षण पर वैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो पूरा दृश्य समाने आ जाता है। दरअसल आजादी मिलने के बाद देश में ऐसा महसूस किया गया कि दलितों के साथ हुए अत्याचारों आैर अन्याय को रोका जाए। उस समय लोकशाही के लिए जरूरी था कि यह विषम स्थिति किसी भी तरह से खत्म की जाए आैर सभी जातियों की विकास करने के लिए समान अवसर प्रदान किए जाएं। यही सब कारण थे कि गणतीय संविधान में धारा 335 को सम्मिलित किया गया पर क्या पता था कि समानता के सोशलिस्ट प्रयास में ही विषमता का बीज छिपा हुआ था। आज स्थिति यह है जहां गरीब दलित आज भी आरक्षण का कोई खास फायदा नहीं उठा पा रहे हैं वहीं काफी सम्पन्न दलित परिवार आरक्षण का लाभ पाकर सर्वशक्ति मान हो गए हैं। इसके विपरीत सवर्णांे में बड़े स्तर पर लोग आर्थिक कमजोर होेते जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या गरीब दलितों व पिछड़ों में ही हैं, सवर्णांे में नहीं हैं क्या ? या क्या व्यवस्था से दलित, पिछड़ों व सवर्ण युवाओं में द्वेष भावना नहीं पनप रही है ?
    हमें यह भी देखना होगा कि आरक्षण के चलते अनुसूचित जातियों में सम्पन्नता तो आ गई पर उनमें पारस्पिरिक सामूहिक सामजस्य नहीं आ पाया है। जैसे मोची आज भी पासवान अथवा खटीक जाति के लोगों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखता है।  दलित समाज आज भी अनेक उप जातियों में विभक्त है आैर उनमें आपस में परस्पर है। आरक्षण की पैरवी करने वाले नेताओं को यह देखना चाहिए कि इतने वर्षांे बाद भी धारा 335 समतामूलक समाज बनाने में कारगर क्यों नहीं हुर्इं ? आज भी आरक्षण का फायदा संपन्न दलित व पिछड़े ही उठा रहे हैं। जरूरतमंद लोग तो आज भी आरक्षण से वंचित रह जा रहे हैं।
    हमें यह भी देखना होगा कि आजादी के बाद से ही मुस्लिमों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल कर रही कांग्रेस ने उनके लिए कितने आरक्षण की व्यवस्था की। इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस ने समय-समय आरक्षण का लॉलीपॉप दिखाकर मुस्लिमों का वोट हथियाया है, पर देने के नाम पर मात्र झुनझुना ही थमाया है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद गड़बड़ाए समीकरणों को कैस कराने के लिए कांग्रेस को केंद्रीय सेवाओं में भी जाटों आरक्षण देने की चिंता तो होने लगी थी पर मुस्लिमों को आरक्षण देने के उसके वादे का क्या हुआ ? जाटों को तो कई प्रदेश की नौकरियों में भी आरक्षण मिला हुआ है।
   यह देश की विडम्बना ही है कि जब आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की बात आती है तो कई दल दलितों व पिछड़ों के नाम पर सियासत करने लगते हैं। पिछले दशकों में आरक्षण के चलते कई जातियां विपन्न, असहाय आैर दरिद्र हो गई हैं। वैसे होना यह चाहिए कि यदि आरक्षण देना है हर जाति की दयनीय आर्थिक दशा पर भी विचार हो आैर उनकी मदद की जाए, जहां चयन की बात आए वहां मापदंड योग्यता ही होनी चाहिए, जबकि आरक्षण के चलते योग्य युवा पिछड़े जाते हैं आैर अयोग्यों को आगे बढ़ने का मौका मिल जाता है। क्या इससे व्यवस्था पर असर नहीं पड़ता ? क्या विकास प्रभावित नहीं होता ? देश में व्यवस्था ऐसी हो कि आकृष्ट बहुलतावादी समाज को सशक्त बनाया जाए न कि जातिगत, विषमता को भरमाया जाए। यह राजनीतिक का गंदा रूप ही है कि जातिवादी प्रकृति का यह विकृत आैर भोंडा स्वरूप हमारे इतिहास आैर संविधान की विभूतियों को भी उनके जातीय उपमान से पहचाना जा रहा है। जैसे महात्मा गांधी, डॉ. राम मनोहर लोहिया को बनिया, सरदार बल्लभ भाई पटेल को कुर्मी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आैर लोकनायक जयप्रकाश नारायण व राजेंद्र बाबू को कायस्थ, राजनारायण, चंद्रशेखर, वीपी सिंह को ठाकुर, चौधरी चरण सिंह जाट व भीम राव अंबेडकर को दलित नेता की संज्ञा दे दी गई है।

Thursday 21 May 2015

देश का बंटाधार कर रही अयोग्यता को बढ़ावा देने की प्रवत्ति

    गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागो पाये, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय। यह दोहा संत गुरु कबीरदास ने शायद इसलिए लिखा होगा क्योंकि हमारे समाज में गुरु का दर्जा भगवान से बड़ा माना गया है। भगवान से बड़ा दर्जा होने का कारण शायद इसलिए माना जाता है कि क्योंकि शिक्षक ही है जो भगवान को पाने का रास्ता बताते हैं। बच्चों का भविष्य संवारते हैं। तो स्वभाविक है कि शिक्षक अपनी योग्यता के बल पर हमें संस्कारवान बनाने के साथ ही हमें योग्य बनाकर समाज में सम्मान दिलाते हैं। यह शिक्षक की योग्यता पर उंगली उठने लगे तो देश का भविष्य ही संकट में पड़ जाता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं यह बात जहां लगातार सुनने को मिलती रहती है वहीं हाल ही में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने खुली अदालत में एक अध्यापक जहां गाय पर निबंध नहीं मिल पाया वहीं वह चौथी कक्षा के गणित का सवाल भी हल नहीं कर पाया।
    दिलचस्प बात यह है कि उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड दिल्ली आैर ग्लोबल ओपन यूनिवर्सिटी, नगालैंड के जारी इस अध्यापक का प्रमाणपत्र मान्यता प्राप्त नहीं हैं, जबकि दिल्ली बोर्ड द्वारा जारी की गई अंकतालिका दर्शाती है कि मोहम्मद ने उर्दू, अंग्रेजी आैर गणित में क्रमश: 74 फीसद, 73 फीसद आैर 66 फीसद अंक हासिल किए थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस तरह के प्रमाणपत्र पाकर कितने अध्यापक बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। कितने लोगों का हक मार रहे हैं। कितने स्कूलों का माहौल खराब कर रहे हैं। हालांकि व्यथित नजर न्यायाधीश इस शिक्षक पर एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया पर उन लोगों के खिलाफ कौन कार्रवाई करेगा जिन्होंने इन शिक्षकों को प्रमाणपत्र जारी किये हैं, या जिनकी शह पर ये लोग स्कूलों में रख लिए जाते हैं। या जो लोग इनकी योग्यता को अनदेखा करते हुए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ होते देख रहे हैं।
     बात शिक्षकों की ही नहीं आज के हालात में देश के विभिन्न विभागों में अयोग्य लोग योग्य  पदों पर बैठकर देश का बंटाधार करने में लगे
हैं। एक ओर जहां आरक्षण देश को बर्बादी की ओर ले जा रहा है वहीं लोगों की नशों में दौड़ रहे भ्रष्टाचार से देश का विकास प्रभावित होता रहा है। इन सबके बीच प्रतिभा दम तोड़ रही है। कार्यपालिका, विधायिका की मिलीभगत से होनहारों का भविष्य चौपट करने का जो खेल में देश में चल रहा है यदि समय रहते इस पर अंकुश नहीं लगा तो वह दिन दूर नहीं जब हम लोग पिछड़ी पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे। बात शिक्षा क्षेत्र की ही नहीं है बल्कि देश को चलाने के लिए बनाए गए जिम्मेदार स्तंभ ही डगमगा गए हैं। काम कौन कर रहा है आैर श्रेय कोई ओर ले रहा है। दूसरों के हक की आवाज उठाने का दावा करने वाले मीडिया पर भी उंगली उठने लगी है। प्रकाशन का यह हाल है कि लेखों के मामले में छप किसी आैर के नाम से रहा है तो लिख कोई आैर रहा है। संसद का भी यही हाल है विचार किसी आैर के हैं आैर बोल कोई आैर रहा है। कितने संपादक हैं, जिनके नाम से हम लोग बड़े-बड़े लेख पढ़ते हैं पर पता चलता है वह लेख किसी आैर ने लिखे हैं। कितनी किताबें हैं कि लिखी किसी आैर ने आैर प्रकाशित हुई किसी आैर नाम से। कितने काम हैं कि किया किसी आैर ने आैर श्रेय कोई आैर ले गया।
     देश में मुट्ठीभर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि ये लोग योग्य लोगों की प्रतिभा का हनन कर रहे हैं। एक से बढ़कर एक योग्य व्यक्ति इस व्यवस्था में इन लोगों को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते देख रहा है आैर कुछ बोल भी नहीं पा रहा है। कुछ लोग तो इस व्यवस्था में ऐसे ढल गए हैं कि कुछ पैसों के लालच में अपनी प्रतिभा ही बेच दे रहे हैं। ऐसा लगने लगा है कि जैसे हर चीज का व्यवसायीकरण हो गया हो। नैतिकता, जिम्मेदारी, जवाबदेही, देशभक्ति, स्वाभिमान, खुद्दारी को ताक पर रख लोग पैसा कमाने की होड़ में दौड़े चले जा रहे हैं। वह बात दूसरी है कि इन लोगों को इसकी कीमत, जलालत, बीमारी, विघटन, अपमान से चुकानी पड़ती हो।
    इसी व्यवस्था के चलते देश का व्यवसाय चौपट होता जा रहा है। कंपनी मालिक अयोग्य अधिकारियों की हाथों में अपना व्यवसाय सौंप दे रहे हैं। ये लोग अपनी कमियां छिपाने के लिए योग्य लोगों को किसी न किसी बहाने परेशान करते रहते हैं, जिससे न केवल माहौल प्रभावित होता बल्कि उत्पादन भी प्रभावित होता है। ये लोग मालिक व श्रमिक के बीच की दूरी बढ़ाते हैं, श्रमिकों के प्रति मालिकों को भ्रमित करते हैं, मालिक को पता ही नहीं चलता कि  ये लोग श्रमिकों का शोषण तो कर ही रहे हैं साथ ही कंपनी को भी डेमेज कर रहे हैं। गंदे लोगों को बढ़ावा मिलने के चलते अच्छे लोग बैंकफुट पर चले जा रहे हैं।
    राजनीति के क्षेत्र में भी यही हाल है कि किसी भी तरह से पैसे कमाकर चुनाव लड़ना आैर जनप्रतिनिधि बनकर जनता के खून पसीने की कमाई पर एशोआराम की जिंदगी बिताना आज की विचारधारा रह गई है। न किसी नीति पर काम हो रहा है आैर न किसी दल के पास कोई  विचार है, बस प्रभावशाली लोग पैसे के दम पर सत्ता हथिया ले रहे हैं। बड़े स्तर पर प्रॉपर्टी डीलर, गुंडे, बदमाश टाइप के लोग जब विधानसभा व संसद में जा रहे हैं तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि अच्छे पदों पर अच्छे लोग बैठेंगे। योग्य लोगों को तो किसी तरह से इज्जत बचाकर रहना पड़ रहा है। हम लोग कहते हैं कि सच्चाई परेशान हो सकती है पर हार नहीं सकती। हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होता है। पर आज के दौर में सच्चाई परेशान ही नहीं हो रही बल्कि संघर्ष-संघर्ष करते दम तोड़ दे रही है। कहा जाता है हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। पर आज अच्छाई पर बुराई हावी है। जो जितना गिरकर प्रभावशाली लोगों को सुख कर दे रहा है वह उतना ही सफल आदमी बनता जा रहा है। जो व्यक्ति जितना ईमानदार आैर खुद्दार है वह उतना ही उपेक्षित हो जाता है। यहां तक किस न्याय पालिका पर भी उंगली उठ रही है।
   इस व्यवस्था को कायम करने वाले लोगों से मेरा प्रश्न है कि कौन सा व्यवसायी है जो बेईमान लोगों को अपने यहां नौकरी देगा। कौन सा व्यक्ति है जो अपना कारोबार किसी बईमान व्यक्ति को सौंप देगा। यदि हमें अपने काम के लिए ईमानदार आैर खुद्दार व्यक्ति चाहिए तो देश के लिए बेईमान लोगों को बढ़ावा क्यों ?

Tuesday 5 May 2015

योगेंद्र 'स्वराज संवाद" से कैसे जगाएंगे आप से टूटा भरोसा ?

     आम आदमी पार्टी से निष्कासित नेता योगेंद्र यादव 'स्वराज संवाद" के लिए देश  में निकल चुके हैं। प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा के अलावा आप के असंतुष्ट नेता इस यात्रा में उन्हें सहयोग कर रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि अन्ना आंदोलन से निकली आप अपने रास्ते से भटक गई है। ये लोग उन मुद्दों को उठाएंगे जिसके लिए आम आदमी पार्टी बनी थी। आप की तर्ज पर अपना एकाउंट नंबर खोलना उनके इरादे जाहिर कर रहा है। इस आंदोलन में आप से जुड़े कई बड़े नेता भी जुड़ने जा रहे हैं। योगेंद्र यादव की अगुआई में जगह-जगह कार्यक्रम हो रहे हैं। गुड़गांव के बाद बेंगलुरु में हुए कार्यक्रम से तो यही लगा कि यह गुट आप में बड़े स्तर पर सेंध लगा रहा है। महाराष्ट्र में 376 कार्यकर्ताओं आप को छोड़कर योगेंद्र गुट में आस्था जताई है। इसमें दो राय नहीं कि इस गुट ने आप को स्थायित्व देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रशांत भूषण कानून के मामले में अरविंद केजरीवाल की ढाल तो बने ही रहे साथ ही उन्होंने देश व विदेश से पार्टी के लिए चंदे की व्यवस्था भी कराई। खुद उन्होंने पार्टी को खड़ा करने के लिए एक करोड़ रुपए दिए थे। उनका परिवार इस पार्टी के लिए कितना समर्पित होकर काम कर रहा था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश से उनकी बहन भी पार्टी के लिए चंदा जुटाने में आप की मदद कर रही थी। योगेंद्र यादव आैर प्रो. आनंद कुमार ने वैचारिक रूप से पार्टी को मजबूत किया। पार्टी का संविधान खुद योगेंद्र यादव ने लिखा। देश में वैकल्पिक राजनीति देना अपने आप में आने वाले समय में पार्टी बनने की ओर इशारा कर रहा है।
   योगेंद्र गुट स्वराज संवाद यात्रा पर निकल तो गए हैं पर उन्हें इस बात भी मंथन करना होगा कि अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी बनाने पर अरविंद केजरीवाल ने भी स्वराज की बात कही थी। उन्होंने भी देश को वैकल्पिक राजनीति देने का वादा जनता से किया था। उन्होंने भी आम आदमी को सुनहरे सपने दिखाए थे। इन्हीं मुद्दे पर उन्होंने दिल्ली की सत्ता कब्जाई। बात पार्टी के इन दो गुटों में बंटने की बात की जाए तो कि यह समझना होगा कि योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण पर अरविंद केजरीवाल गुट गद्दारी का आरोप लगा रहे हैं तो योगेंद्र यादव आप को अपने रास्ते से भटकना। इन सब आरोप-प्रत्यारोप के बीच ही ये लोग पार्टी से निकाले गए। वैसे योगेंद्र आैर प्रशांत भूषण गुट के आप से अलग होने के बाद आप में दिक्कतें बढ़नी शुरू  हो गई हैं।
   एक ओर जहां भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ जंतर-मंतर पर हुई रैली में किसान की आत्महत्या मामले में कुमार विश्वास, मनीष सिसोदिया घिरते दिख रहे हैं वहीं आप की एक महिला कार्यकर्ता ने कुमार विश्वास को उसके साथ अवैध संबंधों को लेकर चल रही चर्चा में अपने परिवार के उजड़ने की बात कही है। मामला महिला आयोग तक पहुंच गया है। इसमें दो राय नहीं कि देश को एक वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है। जनता परिवार में शामिल लगभग सभी दलों पर वंशवाद, परिवारवाद की दल में धंस चुके होने के आरोप लग रहे हैं। ये लोग भले ही अपने को लोहिया परिवार का बता रहे हों पर यह सर्वविदित है कि ये लोग लोहिया के समाजवाद से भटक चुके हैं। कांग्रेस से तंग आकर ही जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी, पर भाजपा भी जिस तरह से पूंजीपतियों के दबाव में किसान-मजदूर विरोधी सरकार साबित हो रही है उससे जनता का विश्वास इन सब पार्टियों से टूटता जा रहा है। आम आदमी पार्टी से लोगों को कुछ उम्मीद जगी थी पर सत्ता में आने के बाद जिस तरह से इन नेताओं का आचरण उभरकर सामने आया है, उससे लोगों को इन लोगों से भी निराशा होने लगी है। इन लोगों से तो लोग कुछ ज्यादा ही नाराज हैं, क्योंकि इस पार्टी ने लोगों को अच्छी राजनीति स्थापित करने का वादा किया था। ऐसे में योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण को लोगों को विश्वास में लेना मेढकों को तोलने के समान होगा। उनके सामने इस मामले में दो चुनौती हैं एक तो उन्हें आप को गलत साबित करना होगा तो दूसरी ओर अन्य दलों की खामियां गिनाते हुए अपने को सही साबित करना होगा।
     दरअसल यह लड़ाई योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के बीच की मानी जा रही है। अरविंद केजरीवाल ने पहले योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बनाया आैर उन्हें हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत भी किया गया। जब उन्होंने जमीन तैयार करने का प्रयास किया तो अरविंद केजरीवाल ने हरियाणा में चुनाव न लड़ने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं अरविंद केजरीवाल के विश्वसनीय माने जाने वाले नवीन जयहिंद ने योगेंद्र यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। केजरीवाल के अति विश्वसनीय माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र यादव पर केजरीवाल को कमजोर करने का आरोप लगाया। योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने की बात कर रहे थे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के बाद शपथ ग्रहण समारोह में ही अरविंद केजरीवाल ने अन्य राज्यों में चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया। यह स्वभाविक भी है क्योंकि उन्होंने अपने विश्वसनीय लोगों को दिल्ली में समायोजित कर लिया है।
      यह लड़ाई शुरू कहां से हुई यह भी देखना जरूरी है। प्रशांत भूषण का यह कहना कि अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के नाते संयोजक पद छोड़ देना चाहिए, केजरीवाल समर्थकों को बहुत खला था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब केजरीवाल मुख्यमंत्री बन ही गए तो उन्होंने खुद आगे आकर संयोजक पद क्यों नहीं छोड़ा था। हालांकि बाद में इन लोगों ने गोपाल राय को संयोजक बनाया पर वह सब नौटंकी करार दे दिया गया।
    आप की गतिविधयों पर नजर डाली जाए तो अब तक देखा गया है कि पार्टी में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के लिए गए निर्णय ही लागू होते रहे हैं। बताया जाता है कि इन तीनों लोगों ने ही 'परिवर्तन" नामक एक सामाजिक संगठन बनाया था। ये ही तीनों आप में सबसे मजबूत देखे गए। बात इस तिकड़ी की की जाए तो इन लोगों ने पार्टी में किसी चौथे नेता का कद बढ़ने ही नहीं दिया। भले ही आजकल कुमार विश्वास इन लोगों के खासमखास देखे जा रहे हैं पर याद करना होगा कि  उन्हें आम चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़ा कर अलग-थलग कर दिया गया था। साजिया इल्मी तिकड़ी के कहने पर नहीं चलीं तो उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। अब प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव ने अपनी आवाज उठाई तो उन्हंे भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अरविंद केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार मुकाबला प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव से है। एक कानून का विशेषज्ञ तो दूसरा विचार का। प्रशांत भूषण भले ही राजनीतिक संघर्ष न कर पाएं पर योगेंद्र राजनीतिक रूप से संघर्षशील व्यक्ति रहे हैं। वह न केवल राजनीतिक विश्लेषक बल्कि समाजवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। उनका यह बयान कि अब वह गांवों में जाकर किसानों के लिए संघर्ष करेंगे उन्हें बड़े नेता की ओर ले जा रहा है।
    जहां तक प्रशांत भूषण की बात है केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पार्टी को खड़ा करने में प्रशांत भूषण आैर शांति भूषण का बड़ा योगदान है। न केवल आर्थिक बल्कि कानूनी व मनोबल के मामले में भी इस परिवार ने पार्टी को बड़ा सहयोग दिया है। यह सहयोग यदि योगेंद्र यादव को मिल गया तो केजरीवाल के लिए बड़ी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पीएसी से बाहर करने के बाद सबसे ज्यादा विरोध उत्तर प्रदेश में देखा गया। दरअसल उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता 2017 के विधानसभा चुनाव में अपना भविष्य देख रहे हैं। यदि योगेंद्र यादव गुट ने पार्टी बनाकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ लिया तो उत्तर प्रदेश में एक बड़ा तबका योगेंद्र यादव के साथ आ सकता है। उससे पहले बिहार में भी चुनाव हैं। हरियाणा में तो बड़े स्तर पर कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के साथ हैं ही। अरविंद केजरीवाल दिल्ली तक सिमट कर रहना चाहते हैं तो योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं। ऐसे में यादव अन्य प्रदेशों में कार्यकर्ताओं की सहानुभूति बटोर सकते हैं। अरविंद केजरीवाल आैर योगेंद्र यादव में यह बड़ा अंतर देखा जा रहा है।
    बात अरविंद केजरीवाल की की जाए तो उन्हें भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के खिलाफ हुए आंदोलन का फायदा मिला। अरविंद केजरीवाल ने मूल्य पर आधारित आैर ईमानदारी व सच्चाई की राजनीति के नाम पर सभी दलों को निशाना बनाया। अन्ना आंदोलन के बल पर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। पहले 70 में से 28 सीटें तो दूसरी बार प्रधानमंत्री समेत केंद्र के कई मंत्रियों की शिरकत के बावजूद उनकी अगुआई में पार्टी ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। अब आप में भी अन्य दलों की तरह ही वाद-विवाद यह दर्शाता है कि केजरीवाल की संगठन पर पकड़ कमजोर होती जा रही है।
    अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार सरकार बनते ही पार्टी में ऐसी स्थिति क्यों आ गई कि दो दिग्गजों के खिलाफ इनता बड़ा निर्णय लेना पड़ा। याद कीजिए भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आप के आंदोलन के बल पर जब पहली बार  दिल्ली में आप की सरकार बनी तो देश का युवा नरेंद्र मोदी से ज्यादा प्रभावित अरविंद केजरीवाल से था, पर वोटबैंक की राजनीति कर अरविंद केजरीवाल ने यह सब माहौल खत्म कर दिया था। अब फिर से दिल्ली की जनता से उन पर विश्वास जताया है पर पार्टी में जो चल रहा है उससे केजरीवाल से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है।
   ऐसे में जब लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव के समाजवाद पर उंगली उठाई जा रही है तब योगेंद्र यादव का उभरना देश में नए समीकरण पैदा कर सकता है। यदि योगेंद्र यादव ने अपने को इस आंदेालन में पूरी तरह से सक्रिय कर लिया तो वह बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभर सकते हैं। यह आंदोलन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चलाया जा रहा है। किसानों से संबंधित होने की वजह से इस आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर छाने के पूरे आसार हैं।