Wednesday 28 September 2016

हर मां को पैदा करना होगा भगत सिंह

   भले ही देश की सत्ता बदल चुकी हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है अौर देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। मेरा मानना है कि यह व्यवस्था बदल सकती है तो देशभक्ति से बदल सकती है। लोगों के मरते जा रहे जमीर को जगाकर कर बदल सकती है। जब देशभक्ति की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब पड़ोसियों के घर में भगत सिंह के पैदा होने की सोच से काम नहीं चलेगा। अब देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया। 
   भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930 में यह बात महसूस कर ली थी। उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी। गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक और प्रासंगिक ही लगते हैं।
   भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी, दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे। बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
   सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है। इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday 16 September 2016

अमर बेल की चपेट में मुलायम परिवार

  किसी समय समाजवादी पार्टी में पूरी तरह से दखल रखने वाले राज्यसभा सदस्य अमर सिंह की दूसरी पारी में नहीं चल पा रही है तो वह कुछ न कुछ तो जरूर करेंगे। कैसे पार्टी में उनका हस्तक्षेप बढ़े, कैसे वह पुराना रुतबा कायम करें। इसी उधेड़बुन में वह पूरी से लगे हुए हैं। इसके लिए उन्होंने जहां कभी उनके सबसे ज्यादा मुखर विरोधी रहे शिवपाल सिंह यादव साधा है वहीं नेताजी पर भी पूरी तरह से पकड़ बना ली है। यही वजह रही कि जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनसे फोन पर बात नहीं की तो इस मलाल को लेकर वह मीडिया के सामने आ गए। अखिलेश का 'चाचा से ही बात करता रहूंगा तो काम कब करूंगा।Ó के बयान ने आग में घी डालने का काम किया।
     हर जगह घुसपैठ रखने वाले अमर सिंह को जब गायत्री प्रजापति पर सीबीआई का शिकंजा कसने की खबर पहुंची तो उन्होंने इस बारे में तत्कालीन मुख्य सचिव दीपक सिंघल से नेताजी को कहलवाया। नेताजी के कहने पर अखिलेश यादव ने गायत्री प्रजापति व किशोर सिंह को मंत्री पद से हटा दिया। क्योंकि गायत्री प्रजापति नेताजी के करीबी थे तो तरह-तरहके कयास लगाए गए। गायत्री प्रजापति के नेताजी के मिलने पर उन्होंने दीपक सिंघल की बात का हवाला दिया।
     अमर सिंह ये सब कर अपने को पार्टी का हितैषी दिखाने का प्रयास कर रहे थे। अपने को मुलायमवादी कहने वाले अमर सिंह ने फाइव स्टार पार्टी में आज के समाजवाद का तड़का लगाने के लिए लोहियावादी मुलायम सिंह को बुलाया। शिवपाल सिंह भी पूरे अधिकार के साथ पार्टी में पहुंचे। समय-समय पर मुस्लिम चेहरा आजम खां और प्रवक्ता रामगपोल यादव का विरोध झेलने वाले अमर सिंह को अखिलेश यादव की उपेक्षा इतनी परेशान कर रही थी कि उन्होंने पार्टी में सरकार के फैसले को लेकर अखिलेश की बुराई शुरू कर दी। पार्टी में मौजूद मुख्य सचिव दीपक ङ्क्षसघल ने अपने को उनका करीबी जताने के लिए उनके सुर में सुर मिलाए तो मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह ने रात में दीपक सिंघल को उनके पद से हटा दिया। मामले से तिलमिला अमर सिंह के कहने पर जब नेताजी ने अखिलेश यादव को दीपक सिंघल को उनके पद पर बहाल करने दबाव बनाया तो मुख्यमंत्री ने गलत संदेश जाने की बात कहकर उनकी बात न मानी। इन सबके बीच अमर सिंह ने एक तीर से दो निशाने साधे। इन सबके बीच अमर सिंह ने एक गांव खेला कि अखिलेश पर मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष पद होने का हवाला देते हुए  अध्यक्ष पद शिवपाल सिंह को दिलवा दिया। यह फैसला करा अमर सिंह ने एक तीर से दो निशाने साधे। एक से उन्होंने अखिलेश यादव को नीचा दिखा दिया दूसरे से अब संगठन में उनका हस्तक्षेप बढ़ जाएगा।
    चुनाव के समय संगठन में पकड़ का क्या महत्व होता है, यह अखिलेश बखूबी जानते हैं। इसी वजह से अध्यक्ष पद जाने के बाद उन्होंने बिना पार्टी मुखिया के पूछे शिवपाल सिंह यादव से उनके मंत्री पद छीन लिए। इस प्रकरण पर अमर सिंह का अखिलेश यादव को अपना बेटा कहते हुए 'यदि अखिलेश उनके थप्पड़ भी मार दे तो वह उसके हाथ में चोट के बारे में चिंतित होंगे।Ó कहना जले पर नमक छिड़कना था। अखिलेश की बाहरी आदमी का दखल कहते हुए नाराजगी व्यक्त करना मामले को उजागर कर रहा है।
    पार्टी महासचिव व प्रवक्ता रामगोपाल यादव का अखिलेश को अध्यक्ष पद हटाना नेताजी की गलती बताना अखिलेश के पाले में खड़ा कर रहा है । अमर सिंह का सियासी दलाल कहने वाले आजम खां मामले में तटस्थ की भूमिका निभाते हुए तमाशबीन की भूमिका में हैं। ये सब बातें अपनी-अपनी लॉबी को मजबूत करती दिख रही हैं। इन सबके बीच फंस गए हैं नेताजी। वैसे नाराजगी दिखाने व मनाने का दौर राजनीति में चलता रहता है।
    दरअसमल सपा में दो लॉबी बन गई हैं। एक में शिवपाल सिंह यादव व अमर सिंह दूसरी में अखिलेश यादव व रामगोपाल यादव। नेताजी के राजनीतिक करियर का यह समय सबसे चुनौतीपूर्ण है। मामले बेटे व भाई के बीच का है। नेताजी को जहां अपने बेटे के वजूद का ध्यान रखना और भाई की भावनाओं का भी। साथ विधानसभा चुनाव सिर पर। इस प्रकरण ने यह तो साफ कर दिया कि नेताजी पर अमर सिंह की पकड़ फिर से मजबूत हो गई है। आजकल वह रामगोपाल यादव व मो. आजम खां से अधिक बातें अमर सिंह की मान रहे हैं। यही वजह है कि अमर िसिंह ने मुलायम सिंह पार्टी, अखिलेश व अपना बाप तक कह दिया। पार्टी में इतने बड़े स्तर पर उभर कर आई इस तल्खी में पार्टी व सरकार फिर मुलायम सिंह के भरोसे है। मुलायम सिंह यादव ही हैं, अभी भी जिनका प्रभाव अखिलेश यादव व शिवपाल सिंह दोनों पर है। अमर सिंह की अति महत्वाकांक्षा का क्या होगा ? अमर सिंह चाह रहे हैं या तो पार्टी में उनका रुतबा मुलायम सिंह सरकार जैसा हो या फिर एक लॉबी को वह लीड करें। वह नेताजी व शिवपाल सिंह को अपने साथ देख रहे हैं। यही वजह है कि वह खुलकर खेल रहे हैं।
    हां खेल बहुत खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया है। मामला बाप-बेटे की प्रतिष्ठा का बन गया है। इस खेल के बाद घटते घटनाक्रम से देखने से तो यही लग रहा है कि कम से कम अखिलेश यादव अब अमर सिंह का चेहरा तो देखना नहीं चाहते। अमर सिंह भी मुलायम सिंह व शिवपाल सिंह के माध्यम से अखिलेश यादव को अपना वजूद दिखाने में लगे हैं।
    दरअसल लड़ाई भले ही दिखाई दे रही हो अखिलश व शिवपाल के बीच की पर लड़ाई है अखिलेश यादव व अमर सिंह के बीच। अखिलेश की समझ में यह आ गया है कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जब से अमर सिह पार्टी में आए हैं तब से शिवपाल सिंह ज्यादा मुखर हुए हैं। भले ही शिवपाल सिंह ने नेताजी की बात मानते हुए मुख्यमंत्री की बात मानने की बात कही है पर संगठन के माध्यम से वह अपना वजूद दिखाने तथा अखिलेश को नीचा दिखाने से बाज नहीं आएंगे। राजनीति का माहिर खिलाड़ी रहे नेताजी इतनी आसानी से पार्टी के दो फाड़ नहीं होने देंगे पर पार्टी में बन चुकी दो लॉबियों में नेताजी की क्या भूमिका है ? अब देखना यह है कि मुलायम सिंह इन लॉबियों को खत्म करते हैं या फिर खुद भी एक लॉबी में खड़े हो जाते हैं। वैसे शिवपाल सिंह को लेकर नेताजी संगठन को लेकर अखिलेश पर अपना गुस्सा जता चुके हैं।
    राजनीति में चतुर खिलाड़ी माने जाने वाले अमर सिंह आने वाले समय में अपने हिसाब से इस प्रकरण को जोड़ेंगे। यदि पार्टी में दो फाड़ होकर परिवार में बगावत होती है तो अपने अपमान का बदला लेने की बात कहते हुए अपनी भड़ास निकालने से बाज नहीं आएंगे। हां यदि इस प्रकरण से अखिलेश यादव का कद और बढ़ा तो अमर सिंह नई कहानी गढ़ सकते हैं। उस स्थिति में अमर सिंह पुन: सरकार बनाने के लिए अखिलेश यादव के चेहरे को निखारने के लिए यह सब रणनीति का हिस्सा बताते फिरेंगे। वैसे भी अखिलेश के हाथों वह अपमानित होना गलत नहीं मान रहे हैं।
    इस नए राजनीतिक प्रकरण से यह बात भी समझ में आ रही है कि नेताजी के वृद्ध होने की वजह से उनका उत्तराधिकारी बनाने की सियासी तैयारी चल रही हो। ये सब अखिलेश को पार्टी की बागडोर देने के लिए चल रहा हो। इतिहास बताता है कि राजनीति में पुत्र के सामने भाईयों का अस्तित्व कम हो जाता है। तो मुलायम सिंह अखिलेश यादव के सामने रामगोपाल या शिवपाल को पार्टी की बागडोर नहीं देना चाहेंगे।
उधर मो. आजम खां भी समय-समय पर अपने तेवर दिखाते रहते हैं। अमर सिंह भी जानते हैं कि अखिलेश यादव मुखिया की वजह से भले ही न माने पर पिता के नाते मुलायम सिंह यादव की बात नहीं टालेंगे। इस प्रकरण पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही है पर सब कुछ दूसरी बार सरकार बनाने को लेकर हो रही कवायद का हिस्सा है। यदि अखिलेश यादव इतने बड़ी निर्णय लेने वाले थे तो पहले क्यों नहीं लिए। अब चुनाव के समय ही उन्हें ये सब दिखाई दे रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुलायम सिंह अमर सिंह की लिखी स्प्रिप्ट में गायत्री प्रजापति, किशोर सिंह, दीपक सिंघल, शिवपाल सिंह यादव, अखिलेश यादव, रामगोपाल सिंह विभिन्न पात्रों की भूमिका में हैं।
    इसमें दो राय नहीं कि पार्टी को यहां तक पहुंचान में मुलायम सिंह और अमर सिंह की जोड़ी का अहम रोल रहा है। भले ही संगठन में बड़े स्तर पर अमर सिंह के अलोचक रहे हों पर नेताजी ने अमर सिंह को हमेशा से ही अपने दिल के करीब बताया है। नेताजी जानते हैं कि पार्टी के आगे बढ़ाने में अमर सिंह  क्या योगदान ? ऐसे ही नेताजी ने अमर ङ्क्षसह के कहने पर बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर, मो. आजम खां जैसे कद्दावर नेताओं को पार्टी से निकाल दिया था। वह बात दूसरी है कि बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खां फिर से पार्टी में आ गए हैं।
    हां अमर सिंह को यह भी नहीं भू्लना चाहिए कि नेताजी कभी भी किसी के भी उकसावे में अपने परिवार के किसी सदस्य को पार्टी से नहीं निकाल सकते। अखिलेश यादव तो उनका प्रिय पुत्र और उनका उत्तराधिकारी है। अमर सिंह को याद करना होगा कि रामगोपाल सिंह को पार्टी से निकलवाने के चक्कर में उन्हें खुद पार्टी से हाथ धोना पड़ा था