Tuesday 30 June 2015

... तो अब राज्य बन जाएगा पउप्र प्रदेश

    लंबे समय तक हरित प्रदेश के नाम पर राजनीति करने वाले अजीत सिंह जब इस मुद्दे को भूल गए। जब यह मुद्दा ठंडा पड़ने लगा। ऐसे में किसानों की उपेक्षा, बेरोजगारी व कानून व्यवस्था को लेकर लोगों की अलग प्रदेश की कुलबुलाहट को पहचानकर वरिष्ठ वकील देवेंद्र सिंह, पूर्व इंजीनियर केपी सिंह तोमर ने कुछ समाजसेवक व देहात मोर्चा से जुड़े रहे कुछ नेताओं को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी बनाई आैर शुरू कर दिया अलग प्रदेश बनाने के लिए आंदोलन। इस आंदोलन में फाइट फॉर राइट, जाट सभा के साथ ही कई किसान संगठन शामिल हो गए हैं।    इस आंदोलन की रूपरेखा उत्तर प्रदेश के 28 जिलों के मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन कर राष्ट्रपति से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग करने की रूपरेखा बनी है। वैसे 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश को चार भागों पश्चिमांचल, बुंदेलखंड, मध्य उत्तर प्रदेश व पूर्वांचल में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेज चुकी हैं। गत दिनों केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय भी उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के लिए सक्रिय हुआ था, तो यह माना जाए कि इस बार का संघर्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनवा देगा। वैसे भी  रालोद, कांग्रेस बसपा व भाजपा प्रदेश के बंटवारे के पक्ष में देखी जाती रही हैं।
    पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की मांग स्वतंत्रता आंदोलन से ही उठती रही है। 1919 में लंदन में हुए गोलमेल सम्मेलन में भी यह बात प्रमुखता से उठी थी। इसमें दो राय नहीं कि यदि प्रदेश का बंटवारा हो जाता है तो अन्य प्रदेशों को तो इसका फायदा मिलेगा ही पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की चांदी कट जाएगी। सम्पन्नता के मामले में यह प्रदेश हरियाणा आैर पंजाब को भी पीछे छोड़ देगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश खेती के मामले में बहुत सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। तराई क्षेत्र होने की वजह से यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ हो है आैर यहां पर बड़े स्तर पर पैदावार उगाई जाती है। वैसे तो यह क्षेत्र गन्ने की फसल के नाम से जाना जाता है पर यहां पर गेहूं, चावल के साथ चना, दाल, बाजरा की पैदावार भी प्रमुखता से उपजाई जाती है। पर कुछ दिनों से जिस तरह से बकाया गन्ना भुगतान आैर सरकारों के उपेक्षित रवैये के चलते यहां के किसान टूटते जा रहे हैं। सीमांत किसानों का खेती से मोह भंग हो रहा है। यही वजह है कि ये लोग अब अपना अलग प्रदेश चाहते ।
    हरित प्रदेश के गठन नाम पर चौधरी अजित सिंह लंबे समय से इस क्षेत्र के लोगों को ठग रहे। कई बार मौके आए कि वह अलग प्रदेश के नाम पर अडे़ पर सत्तालोलुपता के चलते वह सत्ता में उलझ कर रहे गए। यही वजह रही कि इन लोकसभा चुनाव में लोगों ने उनकी निष्क्रियता से तंग आकर उन्हें नकार दिया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 70 फीसद राजस्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश देता है पर सरकारी स्तर पर यहां पर विकास के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जाता है। इसका कारण यहां पर राजनीतिक जागरूकता का अभाव माना जाता है। यही कारण है कि तमाम प्रयास आैर आंदोलन के बावजूद यहां पर हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो सकी। यहां के लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश इतनी आसानी से नहीं बनने वाला है, क्योंकि पूर्वांचल के नेता नहीं चाहते कि यह क्षेत्र प्रदेश से कटकर अलग पहचान बनाए। यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर बाहरी लोग सांसद बने हैं। अब समय आ गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को जांत-पांत-धर्म आैर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर 'किसान के बेटे" के रूप में एकजुट होना होगा आैर नई पीढ़ी के भविष्य के लिए अलग प्रदेश बनाने के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। ईमानदारी से करना होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गठन को लेकर सही नीयत न होने की वजह से अमर सिंह, अजित सिंह को नकार दिया गया। अमर सिंह ने लोकमंच के माध्यम से प्रदेश के पुनर्गठन की मांग उठाई थी। उसमें पूर्वांचल को अलग प्रदेश बनाने पर ज्यादा जोर दिया था पर उनकी इस मांग में वोटबैंक की बू आ रही थी।
    हमें यह देखना होगा कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना आजादी के शुरुआती दिनों में भाषाई आधार पर की गई थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थे पर हालात ऐसे बन गए कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास में हुई मौत आैर संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया। 22 दिसम्बर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। जस्टिस फजल अली, ह्मदयनाथ कुंजरू आैर केएम पाणिक्कर इस आयोग के सदस्य बनाए गए। आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। कुल 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
   राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। उस समय बंबई में गुजराती व मराठी लोग रहते थे तथा बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात बनाए गए। 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब में से हरियाणा व हिमाचल प्रदेश नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी आैर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत को महसूस किया। 1972 में मेघालय, मणिपुर आैर त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया आैर केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश आैर गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में भाजपा के प्रयास से उत्तराखंड, झारखंड आैर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना का  गठन किया तो उत्तर प्रदेश  की सर्जरी की मांग ने भी जोर पकड़ा है। अब देखना यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे दल अपनी मुहिम को अमली जामा पहना पाते हैं या फिर वोटबैंक की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाते हैं।

Tuesday 23 June 2015

समाजवादी आंदोलन से निकलगा युवा नेतृत्व !

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता संभालते ही उन पर तानाशाह होने के आरोप लगनेगे थे। अभी तक विपक्ष ही उन पर इस तरह के आरोप लगा रहा था अब भाजपा के नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी देश में इमरजेंसी लगने से इनकार नहीं कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समाजवाद की धार खोते जा रहे पुराने समाजवादी आैर विरासत के बल पर राजनीति कर रहे नए समाजवादी कैसे नरंेद्र की मोदी की सटीक निशानों का जवाब देंगे। ऐसे माहौल में देश को जमीनी युवा नेतृत्व मिल सकता है। जिस तरह से आम आदमी पार्टी से निकाले गए योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण आैर प्रो. आनंद कुमार समाजवाद के सहारे स्वराज संवाद यात्रा के बाद जय किसान अभियान शुरू कर रहे हैं। भले ही ये समाजवादी कोई बड़ा कारनामा न कर पाएं पर मोदी सरकार के खिलाफ होने जा रहे इस आंदोलन से कई युवा नेता उभर कर सामने आ सकते हैं। बात युवा नेतृत्व की जाए तो आजादी के समय महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आैर मो. अली जिन्ना के सामने डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, सरदार भगत सिंह आैर सुभाष चंद्र बोस जैसे कई युवा नेता उभर कर सामने आए थे। आजादी के बाद कांग्रेस राज के विरोध में लोहिया जी व लोक नायक जयप्रकाश ने देश को चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, चौधरी देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, शरद यादव, नीतीश कुमार जैसा युवा नेतृत्व दिया। ये सब नेता कांग्रेस का विरोध करते-करते नेता बने थे। लगभग सभी आंदोलन में संघी इनके साथ रहे। इमरजेंसी में भी।
    देश की राजनीति देखिए कि जो संघी समाजवादियों का हाथ पकड़ राजनीति करते थे अब उन संघियों ने भी समाजवादियों को समेट कर रख दिया। यह स्थिति समाजवादियों की हाल ही में देश का प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने की है। स्थिति भी ऐसी कि जहां बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए, वहीं प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में पार्टी मजबूत करने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ रहे हैं। पश्चिमी बंगाल में तृमूकां, तमिलनाडु में एडीएमके आैर उड़ीसा में बीजद को छोड़ दें तो आम चुनाव में लगभग सभी दलों को समेट कर रख दिया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जिन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद आैर अवसरवाद हावी हो गया है वह कैसे नरेंद्र मोदी की सधी हुई चालों का मुकाबला करेंगे।
   नरेंद्र मोदी ने देश में ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि कांग्रेस की संसदीय दल की नेता बनी सोनिया गांधी ने संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की बात कही है वहीं समाजवादी जनता परिवार के नाम पर एकजुट हो रहे हैं।  नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को भी इस आंदोलन में साथ ले लिया है। भले ही बिहार विस चुनाव जनता परिवार के नाम पर न लड़ा जा रहा हो पर नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद का मिलना आने वाले समय में जनता परिवार के गठन को हवा दे रहा है। इन सबके बीच यह प्रश्न उठता है कि क्या अब जनता इन घिसे-पीटे चेहरों पर विश्वास करेगी। मेरा अपना मानना है कि देश में समाजवादी नरेंद्र मोदी परास्त करें या न करें पर देश में संघर्षशील नेता जरूर उभरकर सामने आएंगे।
   ऐसा नहीं  है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। वह जनता को यह समझा गए कि आज के इन समाजवादियों के समाजवाद पर परिवारवाद, वंशवाद आैर अवसरवाद हावी है। ऐसे में ये समाजवादी कैसे अपने को साबित करेंगे यह समझ से बाहर है।
    सपा व बसपा की राजनीति देखिए कि दोनों ही दलों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रखा था आैर दोनों ही भ्रष्टाचार आैर महंगाई को लेकर लगातार यूपीए सरकार को कोस रहे थे। यही दो तरफा नीति इन दोनों दिग्गजों को ले डूबी। वाक-पटुता में माहिर नरेंद्र मोदी जनता को इन दोनों का दोहरा चेहरा दिखाने में कामयाब रहे। सपा उत्तर प्रदेश में सत्ताशीन होने के बावजूद जहां आम चुनाव में पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई वहीं विपक्ष में बैठी बसपा  खाता भी नहीं खोल पाई। यही हाल चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे चौधरी अजित सिंह का भी रहा। बिहार में लालू प्रसाद आैर नीतीश कुमार का भी यही हाल रहा। जदयू जहां दो सीटों पर सिमट कर रह गया वहीं  मोदी को रोकने का दावा कर रहे राजद को चार सीटें ही मिल पाई, जबकि दो सीटें पाए पप्पू यादव आैर उनकी पत्नी ने अलग पार्टी बना ली है। मोदी की लहर का असर किसी पर नहीं पड़ा तो उड़ीसा में बीजद पर तमिलनाडु में एडीएमके आैर पश्चिमी बंगाल में तृमूंका पर। फिर भी वजूद बनाए रखने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होना इनकी भी मजबूरी है।
   भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले समाजवादियों को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूल खर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी- तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूह रचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। इन सबके बीच नेताजी कैसे अपने कार्यकर्ताओं में ऊजा का संचार करेंगे। देश का किसान-मजदूर, नौकरीपेशा आदमी महंगाई से जूझता रहा। तरह-तरह के घोटाले सामने आते रहे  पर ये दल वोटबैंक की राजनीति में मशगूल रहे।
   समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार हो जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। आज जब नए समाजवादी विरासत के बल पर सत्ता का सुख भोग रहे हैं ऐसे में ये लोग कैसे दमनात्मक नीति का विरोध करेंगे। वैसे भी नरेंद्र मोदी जैसा राजनीतिक खिलाड़ी उन्हें कोई बड़ा मुद्दा देना वाला नहीं।
   यदि समाजवादी आंदोलन की बात करें तो हर आंदोलन के पीछे बड़ा मुद्दा रहा है। जेपी आंदोलन इमरजेंसी के खिलाफ हुआ था तो अस्सी के दशक में बोफोर्स मामले पर समाजवादी एकजुट हुए थे। बाफोर्स का मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी  देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे आैर 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था।
   देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।

Thursday 11 June 2015

नसीहत देने के बजाय किसानों को समृद्ध बनाए सरकार

     कृषि प्रधान देश में  किसान दुखी है, दयनीय है, लाचार है। ऐसे में जब केंद्र सरकार को किसानों के घावों पर मल्हम लगाना चाहिए तब यह सरकार उन्हें नसीहत देने में लगी है। सरकार की नीति देखिए कि देश के विकास के लिए बनाया गया नीति आयोग ही किसानों को बरगलाने में लग गया है। जब देश में जोत की जमीन लगातार घट रही हो। अन्न उत्पादन घट रहा हो। तरह-तरह की आपदा के चलते खेती प्रभावित हो रही है। जब सरकार को अधिक अन्न उत्पादन के प्रयास करने चाहिए। किसानों को खेती करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसे में देश में महत्वपूर्ण पद पर बैठे नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या आयोग की वेबसाइट पर  ब्लाग लिखकर किसानों को खेती छोड़कर अन्य धंधों में लगने के लिए उकसा रहे हैं। उनके अनुसार किसान कृषि की अपेक्षा आैद्योगिक व सेवा क्षेत्र में लगकर ज्यादा समृद्ध हो सकते हैं। तो यह माना जाए कि वह किसानों को उनके पेशे से बरगला रहे हैं। जिस समय किसान बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से तबाह हुई फसल को लेकर दुखी हो, ऐसे समय में खेती से ज्यादा अन्य क्षेत्र में समृद्धि की बात करना किसानों के दुख को आैर बढ़ाना है।
    देश की विडम्बना देखिए कि केंद्र सरकार किसानों को तबाह कर विदेशी निवेश के दम पर देश का विकास करना चाह रही है, जबकि जगजाहिर है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। मेरा मानना है कि यदि सरकारें किसान को सम्पन्न कर दें तो देश अपने आप में समृद्ध हो जाएगा। किसानों को अन्य पेशे अपनाने की बात करने वालों से मेरा प्रश्न है कि जब किसान खेती नहीं करेगा, तो अन्न कहां से उपजेगा ? रोटी कहां से खाओगे ? यदि खेती से ज्यादा मुनाफा अन्य क्षेत्रो में हैं तो इसमें दोष किसान नहीं बल्कि सरकारों का है। सरकारों को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि खेती में अन्य क्षेत्रों से ज्यादा मुनाफा होने लगे। देश में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि किसान की फसल से जो मुनाफा बनिया कमाते हैं वह किसानों को मिले।  जब देश में बेेरोजगारी एक भीषण समस्या के रूप में उभर कर समाने आ रही है, ऐसे में किसानों के मनोबल को गिराने की बातें देश में नहीं होनी चाहिए। आज भी सत्तर फीसद जनसंख्या खेती पर निर्भर है। जब देश में तरह-तरह के भत्ते दिए जा रहे हों तो किसान को मेहनत भत्ता क्यों नहीं मिलता, जबकि जगजाहिर है कि किसान अन्य लोगों से कहीं ज्यादा मेहनत करता है। भले ही किसानों की आवाज उठाने के लिए देश में कितने संगठन बने हुए हों पर आज की तारीख में हर उस व्यक्ति को किसान के हक की आवाज उठानी चाहिए जो रोटी खाता हो। जो किसानों के बेटे विभिन्न विभागों में बैठे हैं उन्हें किसान को भटकाने के बजाय उनके हित में आगे बढ़कर काम करना चाहिए।
    सरकार की हठधर्मिता देखिए कि जब खेती को बढ़ावा देना चाहिए तब यह सरकार पूंजीपतियों के दबाव में किसानों की जमीन हथियाने में तुली है। तीसरी बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना इसका प्रमाण है। हमारे देश में अध्यादेश की व्यवस्था किसी आपदा आने की स्थिति में की गई है। देश में ऐसी कौन सी आपदा आ गई कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाना पड़ रहा है। यह अध्यादेश जब लाया जा रहा है जब देश में बड़े स्तर पर अधिग्रहीत की गई जमीन बेकार पड़ी है। जब देश में जोत की जमीन घट रही हो। बड़े स्तर पर बंजर जमीन हो गई हो। बड़े स्तर पर जमीन पर बिल्डरों ने बिल्डिंग बनाकर डाल दी हो। बड़े स्तर पर जमीन पर पूंजीपतियों ने फार्म हाउस बना लिए हों। ऐसे में सरकार भूमि बचाओ अध्यादेश क्यों नहीं लाती ?
    सरकार तर्क दे रही है कि भूमि अधिग्रहण न हेाने के चलते बड़े स्तर पर सरकारी योजनाएं लंबित बड़ी हैं। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस सरकार से पहले किसानों की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया। क्या इससे पहले सरकारी योजनाओं पर काम नहीं हुआ ? क्या देश में किसान से बड़ा देशभक्त है। जग जाहिर है कि किसान तो देशहित में जमीन दान भी देते रहे हैं। जो हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत हुई पड़ी है उस भूमि का सरकार क्या कर रही है ?  देश में भूमि अधिग्रहण इतना जरूरी है तो तो पूंजपीतियों द्वारा बनाए गए फार्म हाउसों का अधिग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? सरकारी कार्यालयों के लिए उद्योगपतियों के आफिसों का अधिग्रहण क्यों नहीं जाता। दरअसल सरकार सरकारी योजनाओं के नाम पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को देना चाहती है। यह खेल लंबे समय से चल रहा है। ग्रेटर नोएडा में भी स्थानीय लोगों को रोजगार देने का नाम पर उनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया आैर बाद में इस भूमि को बिल्डरों को बेच दिया गया। यह केंद्र सरकार ही नहीं प्रदेश सरकारें भी करती हैं। हर सरकार अपने को किसान हितैषी बताती है पर किसानों की समस्याओं को समझने को कोई तैयार नहीं। हर सरकार ने बस किसानों को ठगा है। मोदी सरकार विदेशी निवेश के नाम पर किसानों व मजदूरों को तबाह करने पर तुली है।
   देश में किसान-मजदूर के अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है। अब समय आ गया है कि किसान-मजदूर के पक्ष में सड़कों पर उतरा जाए आैर वातानुकूलित माहौल में रहने वाले लोगों को खेत-खलिहान की अहमियत बताई जाए।  किसानों की बिना सहमति के किसी भी हालत में उनकी भूमि का अधिग्रहण न होने दिया जाए। यदि भूमि का अधिग्रहण करना ही है तो किसानों को मालिकाना हक देना चाहिए।
   किसानों को उपेक्षित रखने वालों को समझना होगा कि गत दशक के  महाराष्ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार आैर हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आैर मेघालय में भी किसानों की संख्या भी कम हुई है। आने वाली फसल देश में धान की आने जाने जा रही है। भले ही सरकार इस फसल से उम्मीद लगाई बैठी हो पर हमें देखना होगा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है। ऐसे में देश खाद्यान्न मामले में कैसे आत्मनिर्भर होगा।
   ऐसा भी नहीं कि देश में किसान हित की योजनाएं न चल रही हों। योजनाएं तो बहुत चल रही हैं पर उनका लाभ या तो अधिकारी उठा रहे हैं या फिर बिचौलिए। कागजी आंकड़े देखें तो किसानों को सब्सिडी पर खाद, बीज भी दिया जा रहा है, कर्जा भी दिया जा रहा है आैर उनके कर्जे माफ भी किये जा रहे हैं पर इन सबका फायदा जमीनी स्तर पर किसानों तक   नहीं पहुंच पा रहा है। किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है। बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए। सरकारी आंकड़ों की जुबान में बोलें तो प्रदेश की 24,20,2000 हेक्टेयर भूमि में से खेती योग्य भूमि 16,81,2000 हेक्टेयर है। यह हिसाब कुल भूमि का 69.5 फीसद बैठता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान आैर 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग खेती करते हैं। 1970-1990  के दौरान प्रदेश में 173 लाख  हेक्टेयर बुवाई की भूमि स्थिर रहने के बाद अब कम हो रही है। हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीट युक्त हो रही है। आंकड़े देखें तो कि प्रदेश की सालाना आय का लगभग 31.9 फीसद खेती से आता है, जबकि 1971 में यह प्रतिशत 57, 1981 में 50 आैर 1991 में 41 हुआ करता था। तथ्य यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं। सपा सरकार भले ही किसान हितैषी का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। ऐसे में सरकारें क्या कर रही हैं ?
   यह किसान की बेबसी ही है कि उनका शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली आैर बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक को कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गर्इं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्टर का धब्बा हटने की रफ्तार में तेजी जरूर आ गई। गत दिनों कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 को यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्राांचों में भारी गड़बडि़यां मिली हैं। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा, पर क्या हुआ ? ठाक की तीन पात।
    किसानों के हालात को जानने के लिए यह समझना जरूरी हो गया है कि हमारे के लिए अन्न पैदा करने के लिए किसान को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। देश को चलाने का दावा करने वाले समाज के ठेकेदारों को यह समझने की जरूरत है कि जब वे वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बना रहे होते हैं तो किसान अपने खेतों मे मौसम की मार झेल रहा होता है। गर्मी, सर्दी, बरसात से किस तरह जूझते हुए किसान अन्न उपजाता है- इन सब परिस्थतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि में किसान अतिरिक्त मेहनत करता है। किसानों को खेती से जोड़ने के लिए एक मुश्त राशि के रूप में मेहनत भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए।