Tuesday, 31 December 2013

आओ, नए साल के आगमन पर व्यवस्था बदलने का संकल्प लें

आज का दिन उतार-चढ़ाव का है, ढलने-उगने का दिन है। जी हां मैं 2013 के प्रस्थान और 2014 के आगमन की बात कर रहा हूं। अक्सर देखा जाता है कि नए साल के आगमन पर लोग तरह-तरह के संकल्पों की बात करते हैं। पुरानी बातों को भूलकर नए आगाज की तैयारी में  लग जाते हैं। बिल्कुल होना भी यही चाहिए हम नए साल में हम कुछ नया करने का संकल्प लें।
     मेरा मानना है कि आज देश जिस हालात से गुजर रहा है, ऐसे में हमें अपने से ज्यादा देश की चिंता करनी चाहिए। तो हम नए 2014 के साल के आगमन पर देश को भ्रष्टाचार, महंगाई से मुक्त कराने का संकल्प लें। विधायिका को लूटखसोट,  जात-पात व अवसरवादिता की राजनीति से  मुक्त कराने का संकल्प लें। कार्यपालिका, न्यायपालिका को भ्रष्टमुक्त बनाने का संकल्प लें। मीडिया को देश और समाज के लिए काम करने के लिए प्रेरित करने का संकल्प लें। लोगों के मर चुके जमीर को जगाने का संकल्प लें। देश को भुखमरी, गरीबी से मुक्त कराने का संकल्प लें। बच्चों को देशभक्त, संस्कारवान व मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने का संकल्प लें। ग्राम पंचायत के साथ ही विधानसभा और लोकसभा में ईमानदार और सच्चे जनप्रतिनिधि भेजने का संकल्प लें। देश की व्यवस्था बदलने का संकल्प लें।

Saturday, 28 December 2013

तो केजरीवाल सरकार में भी दिखेगा आप के आंदोलन का असर

दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविन्द केजरीवाल का राजनीति करने का  तरीका भी गज़ब का है। सत्ता मिलने के बाद भी वह आंदोलन की भाषा बोल रहे हैं। जिस तरह से उनका शपथ ग्रहण समारोह जनता को समर्पित रहा। वीआईपी लोगों को कोई तवज्जो नहीं मिली। इससे यह तो साबित हो गया है कि जहां वह पूंजीपतियों से दूर रहना चाहते हैं वहीं आम आदमी से जुड़कर ही सरकार चलाना चाहते हैं।
       अक्सर देखा गया है कि सरकार बनाने के लिए नेता जनता के खून पसीने से कमाया हुआ अरबों रुपए विधायकों की जोड़-तोड़ में लगा देते हैं। सरकार बनाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसे माहौल में
केजरीवाल का सत्ता मोह से दूर रहना जनता के लिए अच्छा संदेश है। जहां अन्य दल पूंजीपतियों के शिकंजे में फंसते जा रहे हैं वहीं आप जनता से जुड़कर राजनीति कर रही है। यह केजरीवाल की राजनीति ही है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह जनता से सीधे रूबरू हो रहे हैं। यह केजरीवाल का आंदोलन ही है कि नेताओं से घृणा करने वाला आम आदमी भी अब राजनीति करने की सोचने लगा है। आप की इस पहल से जहां वंशवाद पर लगाम कसी जाएगी वहीं युवाओं को भी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। इसमें दो राय नहीं कि अन्य राजनीतिक दलों में आप के राजनीति करने के तरीके से हड़कंप है।
      हां मैं यह जरुर कहना चाहूंगा कि आज जब केजरीवाल शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह से जीत का श्रेय बार-बार भगवान को देते दिखे उसमें उनका आत्मविस्वास कम होता दिखा। आदमी के आगे बढ़ाने में नसीब का बहुत बड़ा योगदान होता है पर भगवान भी तभी मदद करता है जब आदमी कर्म करता है। आप की जीत में  कार्यकर्ताओं 
व आम लोगों का योगदान सराहनीय है। समाजसेवी अन्ना हजारे के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है। अन्ना भले ही सक्रिय रूप से आप से न जुड़े रहे हों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ बनाए गए उनके माहौल का असर केजरीवाल के आंदोलन भी हुआ है।
      केजीवाल को आस्थावान होना चाहिए पर कर्म को ही प्रधान मानें और दिल्ली में कुछ ऐसे काम करें कि पूरे देश में अच्छा संदेश जाए। केजरीवाल से लोगों को बहुत अपेक्षाएं हैं, अब देखना यह है कि वह दिल्ली के लोगों की विश्वास पर कितना खरा उतरते हैं।

Friday, 20 December 2013

आखिर आरक्षण के नाम पर कब तक चलेगा वोटबैंक की राजनीति का खेल ?

वोटबैंक के लिए आरक्षण खेल कब तक चलेगा ? कोई दल नोकरी के बाद अब प्रमोशन में भी दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कई पिछड़ों को दलितों के श्रेणी में लाने की पैरवी कर रहा है। कभी आरक्षण के नाम पर दलितों को रिझाने  वाली कांग्रेस अब जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दल वास्तव में ही इन जातियों का भला चाहते हैं। ये सब वोटबैंक के लिए हो रहा है। ये दल इन जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आरक्षण नाम की बैसाखी इन लोगों के हाथों में थमा दे रहे हैं।
    दरअसल आजादी के बाद समाज में ऐसा महसूस  किया गया कि दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। उस समय दलित दबे-कुचले माने जाते थे तो इन लोगों के लिए 10 साल के लिए दलितों के लिए आरक्षण कर दिया गया। आज के हालत में भले ही कुछ दल डा भीम राव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति कर रहे हों पर डा अम्बेडकर का भी मानना था कि ज्यादा समय तक आरक्षण देने से दलितों के लिए यह बैसाखी का रूप धारण कर लेगा। इसके लागू होने के 10 साल बाद जब इसकी समय सीमा पर विचार करने का समय आया तो तब तक कांग्रेस के लिए आरक्षण ने वोटबैंक का रूप धारण कर लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम व ब्राह्मणों के साथ आरक्षण में नाम पर दलितों को अपना वोटबैंक बना लिया। तब प्रख्यात समाजवादी डा राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण व दलित गठबंधन की तोड़ के लिए पिछड़ों का गठबंधन तैयार किया था।  हालांकि कुछ समाजवादी दल पिछड़ों के इस गठबंधन को आरक्षण का रूप देकर राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं।
      आरक्षण की समय सीमा पर निर्णय लेने का समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में आया तो उन्होंने भी अपने पिता के पद चिह्नों पर  चलते हुए उसकी समय सीमा बढ़ा दी। उसके बाद 80  के दशक में वीपी सिंह ने पिछड़ों को अपना वोटबैंक बनाने ले लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी। आरक्षण की पैरवी करने वाले दलों से मेरा सवाल है कि क्या आरक्षण से देश का विकास प्रभावित नहीं हो रहा है ? क्या इस व्यवस्था से प्रतिभा का दमन नहीं हो रहा है ? क्या गरीब सवर्णों में नहीं हैं ? क्या दलितों व पिछड़ों में सभी को ही आरक्षण की जरूरत है ? मेरा तो मानना है कि आरक्षण का फायदा संपन्न लोग ही उठा रहे हैं जिन लोगों को इसकी जरूरत है उन लोगों को आज भी इसका उतना फायदा नहीं मिल पा रहा है।

Monday, 9 December 2013

केजरीवाल ने देश की राजनीति को दी नई दिशा

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सशक्त  जनलोकपाल बनवाने को लेकर अन्ना आंदोलन के बाद बने माहौल को भांपकर राजनीतिक क्षेत्र में कूदे ब्यूरोक्रेट से समाजसेवी बनने वाले अरविन्द केजरीवाल ने आप नामक पार्टी बनाकर कुछ ही महीनों में जिस तरह से दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को  हराकर व 70 में से 2८ सीटें जीतकर आम आदमी की ताकत का अहसास कराया है, उसने देश की राजनीति की दिशा ही बदल कर रख दी है। आप के प्रदर्शन से अब ईमानदार और स्वच्छ छवि के वाले लोगों के राजनीति में आने की सम्भावना बलवति हो गई है। बाहुबलियों व पूंजीपतियों की बपौती मानी वाली राजनीति में अब आम आदमी भी जनप्रतिनिधि बनने की सोच सकेगा।
      केजरीवाल के संघर्ष ने जाति व धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों को सोचने को मजबूर कर दिया है। अच्छे लोगों से विधानसभाएं व लोकसभा सुसज्जित होने के आसार जगने लगे हैं। दिल्ली में आप के प्रदर्शन का असर लोककसभा चुनाव में चल रहे समीकरणों को भी प्रभावित किया है। अब तक कांग्रेस को टारगेट मानकर रणनीति  बना रही भाजपा के लिए आप भी रणनीति का  हिस्सा बन गई है। जिन युवाओं को भाजपा वोटबैंक के रूप  में देख रही थी वे अब आप में राजनीतिक भविष्य तलाश सकते हैं। जाए कहना गलत न होगा कि लोकसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल नरेंद्र मोदी के लिए खतरा बन जाए।
     देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने कि लिए देश को सशक्त जनलोकपाल देने के लिए 2011 में अन्ना हजारे की अगुआई में जब आंदोलन किया तब ही राजनीतिक गलियारों में आंदोलन को राजनीतिक संगठन में बदलने की चर्चाएं होने लगी थी। राजनीतिक पंडित अरविन्द केजरीवाल की राजनीतिक महत्वकांक्षा को भांपने लगे थे । हुआ भी यही, आंदोलन के कुछ ही दिन चलने के बाद अन्ना हजारे के विरोध के बावजूद केजरीवाल ने आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कुछ सहयोगियों को साथ
लेकर  26 नवम्बर 2012 को जंतर-मंतर आप नामक राजनीतिक संगठन की घोषणा कर दी। पूर्व आईपीएस किरण बेदी को छोड़कर अन्ना आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण और कुमार विस्वास समेत कई सहयोगी राजनीति करने के लिए केजरीवाल खेमे में आ गए। समाजवादी विचारधारा वाले राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव को भी केजरीवाल पार्टी में ले आए। योगेन्द्र यादव ने ही पार्टी का संविधान तैयार किया।
     अरविन्द केजरीवाल ने आंदोलन छेड़कर भ्रष्टाचार में संलिप्त राजनीतिक दलों का विकल्प देने की कोशिश की। आप ने दिल्ली को टारगेट कर विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। पार्टी ने आंदोलन में सरकार एवं पूंजीपतियों की सांठगांठ से बिजली-पानी आदि के मूल्यों में वृद्धि एवं यौन उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त कानून बनाने की मांग प्रमुखता से उठाई गई थी। विधानसभा चुनाव में आप को झाड़ू चुनाव चिह्न मिलने पर केजरीवाल ने सूझबूझ की राजनीति का परिचय देते हुए चुनाव चिह्न को ही भ्रष्टाचार रूपी गंदगी दूर करने का प्रतीक बना दिया। आप की आम आदमी की लड़ाई ने ही पार्टी को दिल्ली में दूसरे नंबर की पार्टी बना दिया।
    अन्ना आंदोलन के बाद दिल्ली में आप के प्रदर्शन के बाद अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में बन रहे माहौल की तुलना जेपी आंदोलन से की जा सकती है। सत्तर के दशक में भी कांग्रेस की अराजकता के खिलाफ खड़े हुए समाजवादी आंदोलन के  चलते जिस तरह से देश का युवा लोकनायक जय प्रकाश नारायण के पीछे खड़ा हो गया था। इस बार भले ही अब तक युवाओं का रुझान नरेंद्र मोदी के पक्ष में देखा जा रहा हो पर दिल्ली में आप के प्रदर्शन के बाद आप युवाओं के लिए राजनीतिक मंच के रूप में देखी जा रही है।

Saturday, 7 December 2013

ब्याजमुक्त कर्ज मिलों को मिल सकता है तो किसानों के लिए क्यों नहीं ?

     गन्ना किसानों का बकाया देने के बहाने केंद्र सरकार चीनी मिलों को 7200 करोड़ रुपए का कर्जा ब्याज मुक्त उपलब्ध कराने जा रही है। बताया जा रहा है कि मिलों पर जो 12  फीसद ब्याज लगेगा, उसमें से सात फीसद गन्ना विकास कोष तथा पांच फीसद केंद्र सरकार वहन करेगी। उत्तर प्रदेश में गन्ने की पेराई शुरू करने के लिए सरकार पहले ही प्रवेश व क्रय कर के अलावा कमीशन छूट की बात मानकर निजी चीनी मिलों को राहत दे चुकी है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यह सब कुछ मिलों के लिए ही क्यों ? गन्ना किसानों के लिए सरकारों ने क्या किया ?
      मिलों की जिद के सामने तो सरकारें झुक गईं पर क्या किसानों का कई सालों का बकाया अब वास्तव में ही उन्हें मिल जाएगा ? मिल भी गया तो उन्हें बकाए पर ब्याज क्यों नहीं ? वैसे भी कर्जा मिलने के बाद भी मिलें किसानों को बकाया कब देंगी कहा नहीं जा सकता। अक्सर देखा जाता है कि सरकारों को मिलों की समस्याएं तो दिखाई देती हैं पर किसानों की नहीं ? किसानों का बकाया देने में असमर्थता व्यक्त करने पर केंद्र सरकार मिलों को तो ब्याज मुक्त कर्जा उपलब्ध करा रही है पर किसान समय पर कर्ज न चुकाए तो उसे तीन की जगह 12 फीसद ब्याज भरना पड़ता है और न भर पाये तो उसकी आरसी काट दी जाती है। जेल में ठूंस दिया जाता है। यही सब वजह है कि परेशान होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यदि किसानों के बेटे नौकरी न कर रहे हों तो आत्महत्या की संख्या और बढ़  जाए।  हालात ऐसे हैं कि किसान दयनीय जिंदगी जीने को मजबूर है और मिल मालिकों के लिए हर सुविधा उपलब्ध है। दरअसल कर्षि मंत्री शरद पवार भी कई चीनी मिलों के मालिक हैं।
      अब तो ऐसा लगने लगा है कि सरकारें जनता के लिए नहीं कार्पोरेट घरानों के लिए काम कर रहीं हैं। करें भी क्यों नहीं। कभी राजनीतिक दल जनता से चंदा लेकर चुनाव लड़ते थे और अब कार्पोरेट घराने चुनाव लड़ाते हैं। जब चुनाव लड़ाएंगे, जिताएंगे तो कैश भी कराएंगे। यही हो रहा है देश में। विधानसभा व लोकसभा में पहुंचने वाले लोग जनप्रतिनिधि न होकर कार्पोरेट प्रतिनिधि बनकर रह गए हैं।

Sunday, 1 December 2013

गन्ना किसानों के पक्ष में मुखर होने की जरूरत

आजकल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्याओं पर जमकर राजनीति हो रही है। जहां निजी चीनी मिलें गत साल के मूल्य पर भी गन्ना खरीदने को तैयार नहीं हैं वहीं राजनीतिक दल इस मुद्दे में वोटबैंक टटोल रहे हैं। सरकार ने वैसे तो मिलों को 4 दिसम्बर तक चलाने का अल्टीमेटम दे दिया है। जो मिलें पेराई शुरू नहीं कर रही हैं उन पर केस भी दर्ज किया गया है। बकाया भुगतान के लिए आरसी काटने की तैयारी है।  इन सबके बावजूद मिल प्रबंधनों  ने सरकार के दबाव में  आने से इनकार किया है। मिल प्रबंधनों का कहना है कि निर्धारित गन्ना मूल्य पर वह भारी घाटा उठाने को तैयार नहीं हैं।
      मिलें 230-240 रुपए प्रति क्विंटल  से ज्यादा मूल्य पर गन्ना खरीदने को तैयार नहीं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब हरियाणा व पंजाब में 300 रुपए से अधिक मूल्य पर गन्ना खरीद कर भी मिलें लाभ कमा रही हैं तो उत्तर प्रदेश में यह जिद क्यों ? बकाया भुगतान व चीनी मिलें न चलने पर किसान सड़कों पर आ गए हैं। जगह-जगह धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। गन्ना जलाया जा रहा है। किसान आत्मदाह करने पर उतारू हैं, आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
    दरअसल गन्ना किसानों की ये समस्याएं हर साल की हैं पर राजनीतिक दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इस पर वोटबैंक की राजनीति करते हैं। बात गन्ना किसानों की ही नहीं है हर फसल का ही यही हाल है जब फसल किसान के पास होती है तो उसका मूल्य बहुत कम होता है और वही फसल जब अन्न का रूप ले लेती है और व्यापारी के पास पहुंच जाती है तो इसकी कीमत आसमान छूने लगती है। हालात यह हैं कि किसान की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। यही वजह है कि किसान अपने पेशे से मुंह मोड़ रहे हैं। जरा सोचिए जब किसान अन्न पैदा ही नहीं करेगा तो लोग खाएंगे क्या ? सरकारों की गलत नीतियों के चलते किसान के हालत ऐसे हैं कि भले ही एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी आलिशान मकान बना रहा हो पर किसान आज भी छप्परों वाले घरों में रहने को मजबूर हैं। भले ही छोटे  से छोटा पेशा करने वाला व्यक्ति मोटा मुनाफा कमा रहा हो पर किसान आज भी कर्ज के बोझ तले दबता चला जा रहा है। मेरा मानना है कि आज यदि हम किसानों के पक्ष में मुखर नहीं हुए तो एक दिन ऐसा आ जाएगा कि कोई खेती करेगा ही नहीं। जब कोई खेती नहीं करेगा तो क्या होगा, बताने की जरूरत नहीं है। आज पत्रकार, लेखक, वकील और सामाजिक संगठनों को किसानों के पक्ष में लामबंद होने की जरूरत है।
 

Monday, 25 November 2013

डा. राम मनोहर लोहिया को क्यों नहीं मिला भारत रत्न ?

     किर्केटर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने के बाद देश में एक बहस छिड़ गई है। कोई हाकी के जादूगर ध्यान चंद के लिए पैरवी कर रहा है तो कोई पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के लिए। ऐसे भी लोग हैं जो काफी नाम गिना रहे हैं। ऐसे में एक सवाल पैदा होता है कि देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कितने क्रांतिकारियों को अब तक भारत रत्न मिला है ?
      दबे-कुचलों और पिछड़ों के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष करने वाले डा. राम मनोहर लोहिया को अब तक इस सम्मान से सम्मानित क्यों नहीं किया गया ? देश में राम मनोहर लोहिया ऐसा नाम है जो जिंदगी भर व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे। कहा जाता है कि अन्याय का विरोध करने वाला उनसे बड़ा नेता देश में कोई नहीं हुआ है। उनकी कार्यशैली इतनी उच्च कोटि की थी कि कई बार तो उनका कद महात्मा गांधी को चुनौती देने लगता था।
      सचिन तेंदुलकर की बात की जाए तो खेल में उनकी लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त है कि उन्हें उच्च सम्मान से सम्मानित किया ही जाना चाहिए पर हमें यह भी देखना होगा कि वह न केवल पैसों के लिए विज्ञापन करते हैं बल्कि खिलाड़ी के लिए बिकाऊ मानी जाने वाली किर्केट प्रतियोगिता आईपीएल में भी खेलते हैं। ध्यानचंद देशभक्ति के साथ हाकी खेलते थे। उन्होंने कई बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया, अपने देश से खेलने के लिए जर्मनी के शासक हिटलर का उनकी सेना में जनरल का ऑफर भी ध्यानचंद ने ठुकरा दिया था। खेल जगत में यदि किसी का भारत रत्न बनता है तो वह ध्यान चंद हैं, पर उन्होंने यह सब सेना में नोकरी करते हुए किया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई ने देश के लिए बहुत कुछ किया विपक्ष में भी उनकी बात सुनी जाती थी पर उन पर अंग्रेजों के लिए मुखबरी करने का भी आरोप लगा था। इन सबमे डा. लोहिया ऐसा नाम है जो जिंदगी भर देश व समाज के लिए लड़ते रहे। उनको न तो पद का लालच था और न ही उन पर कोई दाग लग सका।
    हमें यह भी देखना होगा कि जब हमारे देश में समाजवाद की बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है।  वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रुपए कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे थे।
     आजादी की लड़ाई में लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण थे इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोहिया की गिरफ्तारी के बाद गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा सकता। उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। वह लोहिया ही थे जिन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की थी। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतनी घबराती थी कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गिरफ्तार हुए गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो लोहिया नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग बुझाते रहे।
       लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए रियासतों को खत्म करने का पूरा श्रेय हम लोग भले ही सरदार पटेल को देते रहे हों पर आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी नेता भी चला रहे थे। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। वह लोहिया ही थे जो जनविरोधी नीतियों को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनकी तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही। वह जनता के लिए हर तंत्र से लड़ते रहे यही कारण था कि देश के आजाद होने के बाद भी वह कई बार गिरफ्तार किये गए।

Friday, 15 November 2013

समस्याओं की गिरफ्त में देश

  1.   जातिवाद का जहर
    देश में वोटबैंक
    की राजनीति के चलते जातिवाद का जो जहर घोला  जा रहा है, उसे खत्म करना बहुत जरूरी हो गया है। भ्रष्टाचार व महंगाई पर अंकुश लगना जरूरी है। आज के दौर फिर से समाजवादी आंदोलन को तेज करने की जरूरत है। वोटबैंक की सियासत घातक रूप लेती जा रही है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि साम्प्रदायिक दंगे चुनाव के समय ही क्यों होते हैं ?
  2. भंवर में जनता
    भले ही राजनेता विकास के दावे करते न थक रहे हों, भले ही आम आदमी के लिए तरह-तरह की योजनाएं लाई जा
    रही हों पर देश के जो हालात हैं वह संतोषजनक नहीं हैं। एक  ओर जहां लोग महंगाई से परेशान हैं वहीं दूसरी ओर मंदी के नाम पर बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो जा रही है।  बाजार में महंगाई की मार तो ऑफिस में मंदी की। देश के जनप्रतिनिधि कारपोरेट प्रतिनिधि बनते जा  रहे हैं। 90 फीसद योजनाएं कारपोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। जिसे जहां मौका मिल रहा है वह देश को लूटने में लगा है। हर कोई देश से सब कुछ लेना चाहता है पर देश को कुछ नहीं देना चाहता। अब समय आ गया है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए आम आदमी सड़क पर उतरे, जब-तक देश की व्यवस्था अच्छे लोगों के हाथ में नहीं आएगी तब-तक देश का भला होने वाला नहीं है। 
  3.  भ्रष्टाचार की मार : आज के बदलते परिवेश में जहां देश को चलाने वाले लोग भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं वहीं आम आदमी भी स्वार्थी होता जा रहा है। आदमी की सोच अपने तक सिमट कर  गई है। इसी संकुचित सोच की वजह से ही देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद व तरह-तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। हम भले ही व्यवस्था को दोषी ठहरा देते हों पर कहीं न कहीं कमी हम लोगों में भी है। त्याग-बलिदान की भावना लोगों से खत्म होती जा रही है। यही सब वजह है कि मुट्ठी भर लोगों ने व्यवस्था ऐसे कब्जा रक्खी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक कर रह जा रहा है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं। देश की व्यवस्था यह है कि आम लोगों के लिए अर्थव्यवस्था गड़बड़ाने की बात की जा रही है और देश में चुनाव के नाम पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। मेरा मानना है कि अब आम आदमी देश व समाज के लिए आगे आये। इस भ्रष्ट दौर में भी आम आदमी नहीं जागा तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
  4. आरक्षण की राजनीति
    आजकल जाटों  पर  कांग्रेस का प्रेम अचानक उमड़ आया है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बदले जातीय समीकरण के चलते केंद्र सरकार जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। 1949 में जातीय विषमताओं को दूर करने के लिए दस साल तक की गई आरक्षण की व्यवस्था अब जातीय विषमता को और बढ़ा रही  है। पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू, उनके बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने आरक्षण की समय सीमा बढ़ाकर इसे वोटबैंक का रूप दिया।  रही-सही कसर 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर पूरी कर दी। 60 के दशक में नेहरू को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित गठजोड़ की काट के लिए डा. राम  मनोहर लोहिया के बनाये गए पिछड़ों के गठजोड़ को आजकल आरक्षण का रूप दे दिया गया है। क्या गरीब दलितों व पिछड़ों में ही हैं ? क्या वास्तव में ही गरीब लोगों को आरक्षण का फायदा मिल रहा है ? पढ़ाई के बाद नौकरी और फिर प्रमोशन में भी आरक्षण, क्या यह देश के विकास में बाधक नहीं है ? क्या आरक्षण के चलते प्रतिभाओं का दमन नहीं हो रहा है ? क्या आरक्षण देश को विघटन की ओर नहीं ले जा रहा है ? आखिर आरक्षण के नाम पर वोटबैंक की राजनीति कब तक होती रहेगी ? 
  5. समस्याओं से सामना
    भले ही देश भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद, जातिवाद, गरीबी समेत कई समस्याओं से जूझ रहा हो पर लोकसभा चुनाव सांप्रदायिक
    ता और धर्मनिरपेक्ष मुद्दे पर लड़ा रहा है। जब ये दल चुनाव प्रचार में ही बुनियादी मुद्दे नहीं उठा  रहे हैं तो सरकार बनाने के बाद उन पर क्या काम करेंगे। हर दल जाति-धर्म के आधार वोट हथियाने की योजना बना रहा है। तो क्या यह माना जाए कि देश में जन नेता कोई नहीं है ?
  6. समाजवादियों का संघर्ष
    इतिहास गवाह है कि जब-जब देश पर विपदा आई है तब-तब समाजवादियों ने मोर्चा संभाला है। देश की आजादी की लड़ाई में सरदार भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, डा. राममनोहर लोहिया ने। देश के आजाद होने के बाद लोहिया के अलावा, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह ने। इन नेताओं ने देश को लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे समाजवादी नेता दिए। आज के दौर में समाजवाद पर उठ रही उंगली को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है। आज के समाजवादी नेताओं को आत्ममंथन की जरूरत है कि क्या ये नेता वास्तव में असली समाजवादी की भूमिका निभा रहे हैं या फिर विचारधारा से भटक गए हैं ?

Friday, 25 October 2013

कहीं नई पीढ़ी के लिए कहानी न बनकर रह जाए खेत-खलिहान

    जिस तरह से नई पीढ़ी खेती में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो रहे युवाओं को खेती की बुनियादी जानकारी नहीं है। किसान का बेटा भी खेती से मुंह मोड़ रहा है। जोत के जमीन कम होती जा  रही है । ऐसे हालात में खेती को लाभ का कारोबार बनाकर युवा पीढ़ी को न रिझाया गया तो कहीं ऐसा न हो जाए कि नई पीढ़ी के लिए खेत-खलिहान कहानी बनकर ही रह जाए।  यह खेती के प्रति किसानों का बदलता नजररिया ही है कि अब वह या तो मजदूरों के बलबूते खेती कर रहा है या फिर अपनी जमीन बटाई पर दे देता है या फिर ठेके पर। यह सब किसान दिल से नहीं कर रहा है बल्कि खेती से उसकी लागत भी  न निकलने की वजह से उसे ऐसा करना पड़  रहा है । किसानों के बच्चों के सामने भी बड़ी परेशानी हैं कि गांव की राजनीति इतनी गन्दी हो चुकी है कि वहां रहना उनके लिए मुश्किल हो गया है। यही सब वजह है कि गावों के भी अधिकतर बच्चे शहरों में रहकर पढ़ रहे हैं, जो कुछ बच्चे गावों में हैं भी उनका दूर-दूर तक खेती से कोई वास्ता नहीं। ऐसा भी नहीं हैं कि किसानों के बच्चे खेती नहीं करना चाहते हैं। दरअसल देती में लगातार हो रहा घाटा उन्हें खेती से मोहभंग के लिए मजबूर कर रहा है। मेरा मानना है कि इन सबसे बावजूद किसान के बेटे को खेती से बिल्कुल ही कट नहीं जाना चाहिए। खेती उसके पूर्वजों की पहचान है।  जो कुछ जमीन भी बची है उसे संभाल के रखना है।
      एक समय था कि किसान का बेटा पढ़ने के साथ ही खेती में भी हाथ बंटाता था। उसका बचपन खेत-खलियान में ही बीतता था। कैसे फसल तैयार होती है, कैसे काटी जाती हैं। क्या-क्या परेशानी, उसे तैयार करने में आती है ये सब जानकारी उसे होती थी। यही सब कारण होते थे कि भले ही वह किसी क्षेत्र में चला जाए पर किसान की परेशानी नहीं भूलता था। आज के हालात में कहने को तो हर क्षेत्र में किसानों के बेटे हैं पर कोई किसानों के प्रति चिंतित नहीं दिखाई नहीं देता। ऐसा भी नहीं है कि किसानों से इन्हें कोई लगाव न रहा हो रहा हो। दरअसल इन्हें किसानों की समस्याओं के बारे में पता ही नहीं और न ही ये जानना  चाहते हैं। इसमें कहीं न कहीं अभिभावक भी दोषी हैं। आधुनिकता की दौड़ का हवाला देते हुए ये लोग बच्चों को गांव भेजते ही नहीं। आज के बच्चों के लिए फावड़ा, हल, कुदाल, खुरपी, दरांती जैसे खेती के यन्त्र अजीबो-गरीब शब्द हैं। रबी व खरीब की फसल में क्या-क्या पैदावार होती है। यह अच्छे से अच्छे पढ़े लिखे बच्चों को जानकारी नहीं। खेत व खलियान में क्या अंतर है, यह बच्चों से पूछकर देखो ? खेती के प्रति उनकी सोच का पता आपको चल जाएगा। खेती के प्रति नई पीढ़ी का मोहभंग सुनना भले ही आसान सा लग रहा हो  पर यदि समय रहते सरकार ने किसानों की समस्याओं पर ध्यान न दिया तो इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं।

Friday, 11 October 2013

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

(पुण्यतिथि 12 अक्टूबर पर विशेष)
        जब हमारे देश में समाजवाद बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। डा. लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए 70  के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश की अगुआई में समाजवादियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक प्रष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई साल तक उत्तर प्रदेश पर राज किया और अब उनके पुत्र अखिलेश यादव पिता के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि आजकल जहां समाजवादियों पर वंशवाद का आरोप लग रहा है वहीं लालू प्रसाद चारा घोटाले में जेल में बंद हैं।
        आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरूआती दौर में समाजवादी जितने ईमानदार थे उतने ही खुद्दार भी। जहां तक डा. लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। देशभक्ति व  ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे।  लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई।  युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में  सुभाष चन्द्र बोश के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा।  लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना  की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री  नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 
    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे।1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट कहा।
    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया।  14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए।     उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।

Friday, 27 September 2013

कहां है गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू!

      बात उन दिनों (1993 ) की है जब मैं नॉएडा में करियर बनाने आया था। नॉएडा से मोहननगर की बस देखता तो मन उसमें चढ़ लेने को करता। दरअसल मोहननगर से बिजनौर की बस मिलती थी।  जो सीधी मेरे गांव के पास होकर निकलती थी। जब कभी घर जाने का मौका मिल जाता तो मन करता कि हवा में उड़कर अपनों में पहुंच जाऊं और समय त्योहारों का हो तो उत्साह का  आलम यह होता कि बसों में कितनी भी भीड़ हो पर घर जाना जरुर होता था, वह भी परिजनों को लिए खरीदारी करके। मीडिया से जुड़ने के बाद भी लम्बे समय तक मेरा उत्साह कम नहीं हुआ। पत्रकारिता के साथ समाजसेवा से जुड़ा रहने के चलते गांव-देहात से मेरा नाता नहीं टूटा।  गांवों की मिट्टी की सोंधी खुशबु मुझे बरबस अपनी ओर खींच ही लेती।
      कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं जब बीमार पड़ता तो नॉएडा में सही होता ही नहीं। परेशान होकर गांव की ओर निकल पड़ता, यकीन कीजिये कि ज्यों-ज्यों मेरा गांव करीब आता जाता त्यों-त्यों मेरी तबीयत ठीक होती चली जाती। किसान परिवार में पैदा होने के कारण खेत-खलिहान से मेरा बड़ा लगाव रहा है पर कुछ दिनों से गांवों में भी आया परिवर्तन लगातार निराशा पैदा कर रहा है। मैं दूसरों की तो बता नहीं सकता पर मुझे जो लगा बता रहा हूं।  कई बार जब मैं अपने परिजनों, रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलने को आतुर रहता तो गांव चला जाता पर वहां के माहौल देखकर न केवल निराशा होती बल्कि पीड़ा भी। लोगों का रवैया ऐसा हो गया है कि शहरों की तरह ही गांवों में भी पैसों के लिए आपाधापी का माहौल है।
    प्यार-मोहब्बत की जगह द्वेष भावना ने ले ली है। रिश्ते स्वार्थ के होते जा रहे हैं। भाईचारा, चौपाल पर हंसी के ठहाके, बड़ों का सम्मान गांवों से भी खत्म होते जा रहे हैं। तीज त्योहारों पर गांवों में भी रोनक खत्म होती जा रही है। क्या यह महंगाई की मार है या फिर पैसों को कमाने की  मारामारी। सुख-चैन गांवों से भी खत्म  होता जा रहा है। मां का आंचल, पिता का संरक्षण, बड़े भाई का स्नेह, छोटे भाई का सम्मान, बहन की सुरक्षा, दोस्ती की कद्र जैसे शब्द हमारे समाज से लगभग खत्म होने लगे हैं । यह क्या मुझे ही लग रहा है या फिर वास्तव में समाज बरबादी की ओर अग्रसर है। देश का भविष्य माने जाने वाला युवा वर्ग अपने रास्ते से भटक गया लगता है। जहां इन लोगों को देश-समाज की सोचनी चाहिए वहां काफी संख्या में युवा ग्लैमर की चकाचौं में खोकर गलत रास्ता पकड़ ले रहे हैं। ये  कहना गलत न होगा कि अब गांव की मिट्टी सोंधी खुशबु अपना अस्तित्व खोती जा रही है। महानगरों का क्या हाल है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। तो क्या यह मान यह लिया जाए कि आपाधापी का यह आलम लगातार माहौल खराब करता रहेगा ?

Thursday, 26 September 2013

बेलगाम होते राजनीतिक दल



जनता को सुरक्षा का वादा देने के साथ विधानसभा व लोकसभा में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि खुद आपराधिक प्रवृत्ति के हों, इससे सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह स्थिति और ज्‍यादा भयावह है कि अदालत द्वारा सजा देने के बावजूद सरकार इनका बचाव करे। सरकार के जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन करने के लिए कैबिनेट में अध्‍यादेश पास कराने से तो ऐसा ही लग रहा है। अब यह अध्‍यादेश राष्‍ट्रपति के पास जाना है। हालांकि राष्ट्रपति महोदय ने इस मामले में नाराजगी जताई है लोकसभा में मुख्‍य विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा का भी इस मामले पर कोई ठोस रवैया नहीं है।

      बात जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन की ही नहीं है। राजनीतिक दल तो हर व्‍यवस्‍था को अपनी ओर मोड़ने को आतुर हैं। भले ही देश व समाज हित में सर्वदलीय बैठक में एक राय न बनती हो पर जब बात राजनीतिक दलों के हितों की आती है तो सब एक हो जाते हैं। देश की सेवा करने के नाम पर स्‍वार्थ पूरे करने में लगे राजनीतिक दलों का आलम यह है कि वे किसी भी तन्‍त्र का अंकुश बर्दाश्‍त करने को तैयार नहीं हैं न तो चुनाव आयोग का न ही सूचना आयोग का और न ही उस जनता का, जिसके वोट से ये विधानसभा व लोकसभा तक पहुंचते हैं। यहां तक कि देश के सर्वोच्‍च न्‍यायालय सुप्रीम कोर्ट का भी। ये लोग न तो आरटीआई के दायरे में आने को तैयार हैं और न ही अपनी करतूतों पर किसी तरह का प्रतिबन्‍ध मानने को।

      सरकार की मनमानी देखिए कि राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम कसने के लिए न्‍यायपालिका की कोशिशों पर पानी फेरने के लिए दागी सांसदों व विधायकों की सदस्‍यता समाप्‍त करने के सुप्रीम कोर्ट के दस जुलाई के फैसले के खिलाफ दायर की गई पुनर्विचार याचिका पर खुद सुप्रीम कोर्ट के सख्‍त रवैये के बाद अब संशोधन अध्‍यादेश कैबिनेट में पास करा लिया गया है। सरकार का कहना है कि सांसदों या विधायकों को दोषी ठहराए जाते ही उनकी सदस्‍यता खत्‍म कर दी गई तो सदन को भंग करने की नौबत आ जाएगी और सदन का कार्यकाल पूरा करने के लिए दोषी करार दिए जाने के बावजूद सांसद या विधायक की सदस्‍यता बरकरार रखना जरुरी है। तो यह मान लिया जाए कि विधानसभा व लोकसभा अपराधियों से भरी हो? जनप्रतिनिधि कुछ भी करते रहें और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। उन पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध न लगे। देश उन्‍हें सब कुछ करने की आजादी दे दे भले ही वह हरकत कितनी घटिया और घिनौनी ही क्‍यों न हो। विपक्ष भी देखिए कि खाद्य सुरक्षा विधेयक व भूमि अधिग्रहण विधेयक के अलावा कितने मामलों में शोर मचाता रहा पर देश व समाज के हित में कोर्ट के लिए गए फैसले के विरोध में वह भी एक तरह से सत्‍तापक्ष के साथ है। यहां तक कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्‍द्र मोदी भी। तो यह मान लिया जाए कि अब ये दल अपने स्‍वार्थ के लिए किसी भी तंत्र को विफल करते रहेंगे।

      अभी हाल ही में चुनाव सुधार का समर्थन कर रहे एक एनजीओ ने पांच राज्‍यों में होने वाले विधानसभा चुनाव व आम चुनाव के मद्देनजर राष्‍ट्रव्‍यापी सर्वेक्षण में पाया कि करीब एक तिहाई सांसद व विधायकों पर आपराधिक आरोप हैं। लोकसभा में ५४३ सांसदों में से १६२ (३० फीसद) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। ठीक इसी तरह ३१ फीसद विधायक आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं।

      देश को आजाद कराने में भले ही कितने क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया हो। कितने नेताओं ने अपनी संपत्ति बेचकर देश की सेवा की हो। कितने नेता ईमानदारी व समर्पण की मिसाल बने हों। लेकिन आज की राजनीति का उद्देश्‍य किसी भी तरह से पॉवर व पैसा अर्जित करना रह गया है। भले ही इन्‍हें पैदा करने का तरीका कोई भी हो। यही वजह है कि विधानसभा व संसद में अधिकतर प्रॉपर्टी डीलर, बाहुबली व अपराधी किस्‍म के लोग विराजमान हैं। आज की तारीख में किसी भी तरह से पैसा कमाओ और चुनाव लड़कर बन जाओ जनप्रतिनिधि। कोई यह देखने को तैयार नहीं कि यह पैसा आया कहां से ?

    आरटीआई के दायरे में आने का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि हाल ही में एक अंतरराष्‍ट्रीय एनजीओ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि फ्रांस, इटली, जर्मनी एवं जापान समेत 40 देशों में राजनीतिक दलों को कानून के तहत अपनी आय के स्रोत, संपत्तियों एवं देनदारियों व अन्‍य रिकार्ड के साथ खुलासा करना होता है। कॉमनवेल्‍थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की रिपोर्ट के अनुसार स्‍वीडन एवं तुर्की जैसे देशों में राजनीतिक दलों में स्‍वैच्छिक व्‍यवस्‍था है। इस रिपोर्ट के अनुसार आस्ट्रिया, भूटान, ब्राजील, बुल्‍गारिया, फ्रांस, घाना, यूनान, हंगरी, इटली, कजाकिस्‍तान एवं किर्गिस्‍तान में कानून के तहत यह व्‍यवस्‍था है कि राजनीतिक दलों को अपनी वित्‍तीय सूचनाओं का समय रहते ही लोगों के समक्ष खुलासा करना होता है। साथ ही नेपाल, पोलैंड, रोमानिया, स्‍लोवाकिया, सूरीनाम, स्‍वीडन, कजाकिस्‍तान, तुर्की, यूक्रेन एवं उज्‍बेकिस्‍तान में भी राजनीतिक दलों को अपने वित्‍त पोषण का सार्वजनिक खुलासा करना होता है।

सदियों दिलों के अन्दर वो गूंजते रहेंगे

               जयंती (28 सितम्बर) पर विशेष 
    भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन  में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने  जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी।  भगत सिंह की शहादत को भले ही 82 साल बीत गए हों  पर आज भी वह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।  आने वाले वक्त में भी वह उतने ही प्रासंगिक  रहेंगे क्योंकि मुश्किलों से  निजात पाने को हमने जो फार्मूला इजात किया,  उसमें हजारों-हजार चोर छेद हैं।
    भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था।  लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि औ यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं।  भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित  कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday, 20 September 2013

क्या प्यार इतना बड़ा गुनाह है ?

हम आधुनिकता की बातें चाहे जितनी कर भी लें। कुरीतियों व रूढ़िवादिता को खत्म करने की जितनी भी कसम खा लें,  गांवों में आए परिवर्तन की चाहे जितनी भी डुगडुगी पीट लें। सच तो यह है कि परिवर्तन की राह पर हम उतने आगे नहीं बढ़ पाए हैं जितना अपेक्षित था। क्या गांव क्या शहर, प्रेम करना आसानी से लोग पचा नहीं पाते और इस अपाच्य का शिकार होते हैं युगल। लोग झूठी शान के लिए कुछ भी कर बैठते हैं, कानून को ताक पर रखकर अपने बच्चों का कत्ल भी। गत दिनों हरियाणा के रोहतक जिले के गरनावठी गांव में एक प्रेमी युगल के शादी कर लेने पर परिजनों के हत्या कर देना इसका जीता-जागता उदाहरण है इंतहा तो तब हो गई जब समाज में भय का मैसेज देने के लिए लड़के के शव के टुकड़ों को उसके ही घर के सामने फ़ेंक दिया गया।
    वैसे तो झूठी शान के लिए हत्या जैसे मामले पूरे उत्तर भारत में हो रहे हैं पर हरियाणा, प. उत्तर प्रदेश, दिल्ली व  पंजाब में इस  तरह की वारदात आम बात हो गई है। यहां खुले विचारों के लिए स्पेस कम से कम है। अक्सर लड़कियों की आजादी को लेकर पंचायतों में तरह-तरह के फरमान जारी दिए जाते हैं मसलन, जींस न पहनो, मोबाईल का इस्तेमाल हरगिज न करों और पार्क में सुबह या शाम हवाखोरी को अकेले बिल्कुल मत जाओ।  प्रेम-प्रसंग को लोग अपनी इज्जत से जोड़कर देखने लगते हैं।  जहां जरा सा मामला हुआ कि निकल गई तलवारें।  भले ही कानून के अनुसार २१ वर्ष की उम्र में लड़के व १८ वर्ष में लड़की अपनी पसंद से शादी करने के हकदार माने जाते हों पर कितने मामले ऐसे हुए कि प्रेम को गुनाह मानते हुए सर कलम कर दिए गए।  कहीं लड़के, कहीं लड़की तो कहीं दोनों को अपनी जान गंवानी पड़ी।  ऐसे मामलों में अक्सर देखने में आता है कि लड़की पक्ष के लोग ही वारदात को अंजाम देते हैं।  हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश  में भले ही एक विशेष वर्ग सगोत्र को लेकर बवाल मचाता हो पर हाल ही में एक सामाजिक संगठन के किये गए सर्वे के अनुसार इस तरह के मामलों में ७२ फीशद  अंतरजातीय विवाह, १५ अपनी ही जाति के, तीन फीसद  सगोत्र और एक फीसद  अंतर्धार्मिक शादियां कारण रहीं।
     अक्सर देखने में आता है कि एक विशेष वर्ग में सगोत्र विवाह के खिलाफ तालिबानी झंडा बुलंद कर दिया जाता है।  दरअसल इस तरह के लोग आज भी रूढ़िवादी समाज का हिस्सा बने हुए हैं।  ये लोग आधुनिक समाज की बदलती विचारधारा में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। हरियाणा, दिल्ली व  प. उत्तर प्रदेश में लिंगानुपात की स्थिति ख़राब है। रूढ़िवादी लोग तर्क देते हैं कि सगोत्र में जन्में सभी व्यक्ति एक ही आदि पुरुष की संताने हैं।  वे समगोत्री विवाह को वर्जित मानते हैं।  ऐसे लोगों को देखना चाहिए कि 1950 में बंबई उच्च न्यायालय में हरिलाल कनिया और गजेंदर गडकर की दो सदस्यीय पीठ ने सगोत्र हिन्दू विवाह को कुछ शर्तों के साथ वैध ठहराया था।
सगोत्र विवाह का विरोध खप पंचायतों में जयादा देखने को मिलता है।  ये पंचायतें हर्षवर्धन के काल में सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में आयी थीं।  प्राचीनकाल में प. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का व्यक्ति ही पंचायत का महामंत्री हुआ करता था। अंग्रेजी हुकूमत में सबसे बड़ी खाप पंचायत मुजफ्फरनगर की ही हुआ करती थी। खाप पंचायतों ने देश में बड़ी पंचायतें कर देश व समाज हित में भी निर्णय लिए हैं। युद्ध के दौरान भी खाप पंचायतों ने देशभक्ति की मिसाल पेश की थी प्राचीनकाल में भी इन महापंचायतों ने युद्ध के दौरान राजाओं-महाराजाओं की मदद की। हां देश में परिवार की ज्जत के लिए कत्ल की परिपाटी पुरानी है। भले ही हमारे समाज में इस तरह के मामले रोकने के लिए तरह-तरह के कानून बने हों पर समाज का संवेदनशील मुद्दा होने के कारण सरकारें  भी इन मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही हैं।  हमें यह भी देखना होगा कि समाज के ठेकेदार भले ही महिलाओं के अधिकार के लिए तरह-तरह के दावे करते हों पर आज भी पुरुष प्रधान समाज में लड़की के अपने जीवन साथी चुनने पर परिजन इसे अपनी इज्जत के साथ खिलवाड़ मानते हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि ऐसी वारदात को रोकने के लिए देश में कोई प्रयास नहीं हो रहा है।  सरकार के स्तर पर अंतरजातीय अथवा दूसरे धर्म में विवाह करने वाले लोगों के लिए विशेष विवाह अधिनियम के तहत दी जाने वाले ३० दिनों की नोटिस अवधि को भी समाप्त करने पर विचार किया जा रहा है।  हॉल ही में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने  पी. चिदंबरम की अगुआई में इस बाबत आठ सदस्यीय मंत्री समूह का गठन किया है।  केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय अलग से एक विशेष समिति का गठन कर रहा है।

Tuesday, 17 September 2013

हिन्दुत्व को कैस कराने के लिए मोदी को कमान

गुजरात दंगों व भाजपा के खेवनहार माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी को दरकिनार करते हुए पार्टी ने आखिरकार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र  मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना ही दिया। यह कोई अचानक नहीं हुआ है।  लम्बे समय से इसकी तैयारी चल रही थी। गुजरात में मोदी के सत्ता की हैट्रिक बनाते ही भाजपा में उनकी अगुआई में लोस चुनाव लड़ने की बात उठने लगी थी।  मोदी के प्रचार से जहां काफी हिन्दू वोटबैंक भाजपा से सटेगा वहीं बड़े स्तर पर मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में होना लगभग तय है।  मोदी की कट्टरता से आशंकित मुस्लिम अब प्रत्याशी नहीं बल्कि सरकार बनाने वाली पार्टी को देखेंगे।  ऐसे में कोई पार्टी कांग्रेस का विकल्प नहीं दिखाई देती।  वैसे भी २००९  के लोस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी के चलते काफी मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में हुआ था।  मोदी का आक्रामक रुख क्षेत्रीय दलों की परेशानी बढाने वाला है।  विशेषकर मुस्लिम वोटबैंक को लेकर सपा की।  वैसे भी मुजफ्फरनगर दंगों के चलते पार्टी का  मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खां पार्टी से नाराज चल रहे हैं। सपा के लिए परेशानी का कारण यह भी है कि यूपी में १९९१  का माहौल दोहराने के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी का दाहिना हाथ माने जाने वाले अमित शाह को पहले ही उत्तर प्रदेश का प्रभारी  बना दिया है। हां  इस बार हालात भाजपा के उतने अनुकूल नहीं हैं।  न तो आरक्षण की आग है और न ही मंदिर की लहर।
      भाजपा भले ही यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटालों का आरोप लगाकर आंदोलन चलाती आ रही हो पर पार्टी ने नरेंद्र मोदी के सहारे चुनाव में फिर से हिदुत्व कार्ड  चल दिया है।  दरअसल जब-जब चुनाव आतें हैं तब-तब भाजपा को १९९१ का माहौल दिखाई देने लगता है।  भाजपा वह  सब हथकंडे अपनाना चाहती  है, जिनके बल उसने सत्ता हथियाई थी।  पार्टी में हिन्दुत्व का नारा  बुलंद करने वाले सभी पात्र पहले ही इकठ्ठा कर लिए गए हैं।  १९९१ और २०१४ के चुनाव में मात्र  अंतर इतना है कि तब लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह और उमा भारती की तिकड़ी चुनाव की अगुआई कर रही थी तो इस बार नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह की।
   दरअसल भाजपा की समझ में यह आ गया है कि वह उत्तर प्रदेश और हिन्दुत्व ही है जिसके बलबूते पर पार्टी फिर से अपना पुराना वजूद हासिल कर सकती है।  तभी तो पार्टी दंगाग्रस्त मुज्फ्फरनगर में जल्द ही मोदी की  रैली कराने की बात क रही है।  हमें यह देखना होगा कि वह हिन्दुत्व का प्रभाव ही था कि  ९० के दशक में राम मंदिर आन्दोलन के बलबूते भाजपा  ने पार्टी को बुलंदी पर पहुंचाया था। राम मंदिर आन्दोलन चरम पर रहने के समय १९९१ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में ३१.४५  प्रतिशत मतों  के साथ २११ सीटें मिली थीं और  उसी साल हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी  ने ३२.२८  प्रतिशत मतों के साथ ८५ में से ५१ सीटें हसिल की थी।  यह राम मंदिर आन्दोलन का असर ही था कि १९९६ के लोकसभा चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में और इजाफा हुआ  पार्टी ने ५२ सीटें जीती। भाजपा का मत प्रतिशत हो गया ३३.४४।  १९९३ में विधानसभा चुनाव में सीटें घटकर १७७ रह गई पर मत प्रतिशत ३३.३ था।  आंकड़े बताते हैं कि १९९८ में भाजपा ने हिदुत्व के नाम पर लोकसभा की ८५ में से ५७ सीटें हासिल की और मत प्रतिशत ३६.४९ हो गया।  उसी काल में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी।  वाजपेयी सरकार में राम मंदिर का निर्माण न होने से हिन्दू वोटबैंक भाजपा से नाराज हो गया और इसके बाद प्रदेश में पार्टी का पराभव शुरू  हो गया।  यह इसका ही परिणाम था कि १९९९ के लोकसभा चुनाव में पार्टी की सीटें घटकर २९ रह गई और मत प्रतिशत घटकर २७.६४।  लोकसभा के २००४ और  २००९ के चुनाव में पार्टी को २२.१७ और १७.५४ प्रतिशत मतों के साथ ८० में से १०-१० सीटें मिली।  यह हिन्दुओं की नाराजगी ही थी कि २०१२ के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हालत बहुत कमजोर हो गई और १५ प्रतिशत मतों के साथ ४७ विधायक ही बने।  पार्टी अब कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा माने  जाने मोदी के बलबूते १९९८ की स्थिति में ले जाना चाहती है।
   इसमें  दो राय नहीं कि गुजरात में दो लोकसभा व चार विधानसभा सीटों के जीतने पर मोदी का आत्मविश्वाश सातवें आसमान पर है पर मोदी को  समझने की जरूरत है कि कर्नाटक और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में उनके प्रचार के बावजूद पार्टी चुनाव हार गई थी।  उन्हें यह भी समझना होगा कि भाजपा अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं कर सकती। उन्हें सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना भी जरूरी है।  मोदी की  परेशानी यह भी है कि धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने पर उनका अपना वोटबैंक छिटकता है तो कट्टर छवि से सहयोगी दल। सहयोगी दलों के नाम पर भाजपा के साथ आजकल मात्र अकाली दल व शिवसेना हैं। हां जयललिता एनडीए के पक्ष में देखी जा रही हैं।  सपा भले ही कांग्रेस विरोध कर रही हो पर मुस्लिम वोटबैंक के चलते वह राजग का हिस्सा नहीं बन सकती। ममता बनर्जी के लिए पश्चिमी बंगाल में भाजपा से अधिक कांग्रेस फायदा का सौदा है।  बसपा चुनाव में किसी पार्टी से गठबंधन नहीं करती।  रालोद पहले ही यूपीए का हिस्सा है।
   माहौल को भांपकर देश की दोनों बड़ी सियासी पार्टियां अनुभव से सीख लेते हुए एक-एक कदम बड़े ही सोच-समझ कर उठा रही हैं। दरअसल दोनों ही पार्टियों को अपने पुराने दोस्तों पर यकीन नहीं रह गया है। कांग्रेस जानती है कि मायावती और मुलायम सिंह किंग मेकर और किंग बनने का ख्वाब पाले बैठे हैं।  ये दोनों ही पार्टियां यूपीए में हैं तो मजबूरीवश। इन सबके के चलते ही कांग्रेस ने बिहार को विशेष पैकेज देकर नीतीश कुमार को चुग्गा डाला है ।  एम कनिमोझी को राज्यसभा में भजकर कांग्रेस  ने एक तरह से डीएमके  को मना लिया है।  झारखंड में शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाकर कांग्रेस ने झामुमो को अपने साथ कर लिया है। 
   दूसरी ओर मोदी के लिए यह भी बड़ी परेशानी है कि पार्टी का करिश्माई चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी  बुढ़ापे और बीमारी की वजह से मंजर-ए - गायव हैं तो  दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी उनसे नाराज।  मोदी की छवि सख्त शासक की रही है। ऐसे में सबको साथ लेकर चलना उनके लिए मुश्किल भरा काम है। लोस चुनाव में अब उन्हें अपने को गुजरात के बाहर भी साबित करना है।  देश में  हर जगह वोटों को धुर्वीकरण करना आसान काम नहीं है।  गुजरात में राजधर्म न निभाने का आरोप झेलने वाले मोदी के लिए गठबंधन धर्म निभाना अग्नि परीक्षा के समान है। अलग-अलग विचारधारा को लेकर एक  साथ लेकर चलना उनके लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा है।  बात अंतरराष्ट्रीय  प्रभाव की करें तो यूरोप में भले ही उनके शासन को सराहा गया हो पर अमेरिका ने उन्हें अपना वीजा तक नहीं दिया है।  बिर्टेन ने १० साल तक उनसे रिश्ते तोड़े रखें।

Friday, 13 September 2013

बढ़ते अपराधों की जिम्‍मेदारी


युवाओं में लगातार बढ़ रही आपराधिक प्रवृत्ति समाज के लिए बड़ा खतरा है। कभी-कभी कुछ गैर जिम्‍मेदार व लापरवाह लोग इनकी करतूतों को अनदेखा कर इन्‍हें बिगड़ने में सहायक बन रहे हैं। मामला तब और संगीन लगता है जब दूर-दराज गांव से महानगरों में भविष्‍य बनाने आ रहे अनेक छात्र आपराधिक गतिविधियों में शामिल होकर अपने अभिभावकों के अरामानों पर पानी फेर देते हैं। पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा में पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भराने आए तीन छात्रों द्वारा लूटपाट की वारदात इसी तरह की घटना है। इन छात्रों ने कैशियर से नकदी लूटने का प्रयास किया और सफल नहीं हुए तो कार्ड स्‍वाइप मशीन ही लूट ले गए। लेकिन पेट्रोल पंप मालिक ने इस मामले में इनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की सक्रियता नहीं दिखा। क्‍या यह स्थिति इन छात्रों को और बड़े अपराध के लिए नहीं उकसाएगी?

            दरअसल आधुनिकता की दौड़ में शामिल तमाम युवा महंगे शौक पाल रहे हैं। गर्ल फ्रेंड को महंगे गिफ्ट, दोस्‍तों पर रौब गाठने के लिए बढ़िया मोबाइल, बड़ी-बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड कपड़े व नशे की लत इन्‍हें अपराध की दुनिया में धकेल रही है। अपनी इन बेतहाशा जरुरतों के लिए ये चेन स्‍नेचिंग, लूटपाट जैसी वारदातों को अंजाम देते फिर रहे हैं। बच्‍चों में अच्‍छे संस्‍कारों का अभाव भी कहीं न कहीं अपराध को बढ़ावा दे रहा है। हो भी क्‍यों न। उन्‍हें संस्‍कारवान बनाने वाली शिक्षा का व्‍यावसायीकरण जो हो गया है और अभिभावकों के पास बच्‍चों के लिए समय नहीं है। परिणामस्‍वरुप काफी संख्‍या में बच्‍चे युवा होते-होते अपराध की दुनिया के राही बन जाते हैं। गत दिनों दिल्‍ली स्‍कूल स्‍वास्‍थ्‍य योजना के तहत 24 निजी व 12 सरकारी स्‍कूलों के 11,234 बच्‍चों पर हुए एक अध्‍ययन में 12 फीसद बच्‍चों ने नशे की लत व आपराधिक गतिविधियों में लिप्‍त होने की बात सामने आई। स्‍वाभाविक है ये बच्‍चे युवा होते-होते अपराध भी करने लगेंगे। कहना गलत न होगा कि लोगों की समझौतावादी मानसिकता अपराध के बढ़ने में सहायक हो रही है। बात सार्वजनिक जगहों की हो, ट्रेनों की हो या फिर ऑफिसों की, हम हर जगह सब कुछ समझते हुए भी गलत होते देख रहे हैं। नैतिक साहस का अभाव व गिरते जमीर के चलते लोगों की चल छोड़ यार वाली प्रवृत्ति बढ़ रही है। हां जब उनके किसी अपने पर बीतती है तो बात समझ में आती है। ऐसी व्‍यवस्‍था में कितने कानून बन जाएं, कितनी ही सजा सख्‍त हो जाए। जब तक आम आदमी स्‍वार्थ छोड़कर सही व गलत का अंतर समझना व कहना शुरु नहीं करेगा, तब तक अपराध पर अंकुश लगाना संभव नहीं है।


१० सितम्बर २०१३ को दैनिक राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पृष्ठ पर

Thursday, 12 September 2013

सियासत समझें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग


इसे वोटबेंक की राजनीति कहें या फिर बनाये गये हालात मुजफ्फनगर के दंगे से यह साबित हो गया कि सियासत ने अपना काम शुरू कर दिया है लड़की के साथ छेड़छाड़ के बाद लड़के की धुनाई उसके बाद लड़की के सगे भाई व मामा के लड़के की हत्या। फिर एक पक्ष की जनसभा उसके जवाब में दूसरे पक्ष की महापंचायत। ये सब दंगे की पटकथा नहीं थी तो क्या थी। धारा १४४ लगने के बावजूद महापंचायत में मुजफ्फनगर जिले के दूरदराज गांवों के अलावा आसपास के जिले सहारनपुर, बिजनौर, शामली, मेरठ, मुरादाबाद, बागपत व उत्तराखंड और हरियाणा प्रदेश से विशेष दलों के नेताओं समेत लगभग एक लाख लोग मुजफ्फनगर आये और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा इसे क्या कहेंगे ? यह प्रशासन की लापरवाही और सियासत का रंग ही था कि गांव जौली, भोपा, तिस्सा, भोकरहेड़ी से आये लोगों पर योजनाबद्ध तरीके से हमला हुआ और कई की मौत के बाद जिले में जो दंगा हुआ उसने कितने लोगों की जान ले ली। आज की तारीख में फिर से महेंद्र सिंह टिकैत की याद आ रही है। १९८९ में भोपा क्षेत्र में नईमा कांड के बाद टिकैत ने हिन्‍दू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल कायम की थी वह सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वालों के मुंह पर तमाचा था। उस समय लड़की के पक्ष में ४० दिन आन्दोलन चला था। नईमा के न्याय की लड़ाई हिन्‍दुओं ने लड़ी थी। तब भोपा नहर पर नईमा की मजार बनाई गई थी। वह दौर राम मंदिर आन्दोलन का थाकितनी जगह दंगे हुए थेसांप्रदायिक दंगों की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी ईं थीं। अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के दंगे चुनाव के समय ही क्‍यों होते हैं ?
दरअसल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, बिजनौर, शामली, मेरठ, मुरादाबाद व बागपत जिले संवेदनशील माने जाते हैं। वोट के लिए चुनाव के समय इन जिलों में माहौराब कर वोट हथियाने का प्रयास किया जाता है और काफी नेता लोगों की लाशों पर चुनाव लड़ने का प्रयास करते हैं। वैसे तो मुस्लिमों को वोटबैंक मानने वाले दलों को यह समझना चाहिए कि जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी हिन्द, आल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुसवरत संगठनों ने साझा प्रेस कांफ्रेस कर दंगों के लिए दो विशेष दलों को जिम्मेदार ठहराया है। कुछ नेताओं के उकसावे में आने वाले लोगों को यह समझना होगा कि दंगों में हर वर्ग का नुकसान होता है। आगजनी होती है तो हर किसी का घर जलता है। दंगों में सबसे ज्‍यादा प्रभावित होता है गरीब। गरीब को हर दिन कमा कर लाना होता है तो स्‍वाभाविक है कि दंगों की चपेट में वही ज्‍यादा आता है। लोगों को समझना होगा कि बिजनौर, अलीगड़, मेरठ,  मुरादाबाद में दंगे कराकर क्या-क्या स्वार्थ साधे गए थे।
ज्ञात हो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर हैं और बरसात में काम न होने की वजह से असामाजिक तत्त्व सक्रिय हो जाते हैं ऎसे लोग मौकों की तलाश में रहतें हैं ये लोग जरा-जरा से मामले को तिल का ताड़ बनाने में माहिर होतें हैं लोगों को इनको चिन्हित करना होगा किसी भी तरह इन्हें सक्रिय नहीं होने देना है

Friday, 6 September 2013

खेती से मोहभंग खतरे की घंटी




किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बुरी खबर नहीं हो सकती कि उस देश के किसान अपने पेशे से पलायन करने लगें। जी हां, किसानों के खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी। अब केन्‍द्रीय कृषि मंत्रालय की स्‍थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यह बात मान ली है। इसे सरकार की उदासीनता कहें या फिर बदलती परिस्थितियां कि किसान अपनी उपज से लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं।
     खेती से किसानों का मोहभंग का हाल क्‍या है इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे जो 2011 में घट कर 11 करोड़ 87 लाख रह गए। किसानों का खेती छोड़ने का कारण सरकारों का उपक्षित रवैया और योजनाओं में बढ़ती दलाली तो है ही, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की खति तथा ॠणों का बढ़ता बोझ भी खेती से मोहभंग के बड़े कारण हैं। वैसे तो किसान हर प्रदेश में खेती छोड़ रहे हैं पर गत दशक के दौरान महाराष्‍ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार किसानों ने खेती छोड़ी है। राजस्‍थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्‍तराखण्‍ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्‍या कम हुई है। सरकार रुपए की गिरती कीमत के चलते धान की फसल पर भले ही टकटकी लगाए बैठी हो पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्‍ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है।
     देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्‍होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्‍त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्‍टर का धब्‍बा हटने की रफ्तार में तेजी जरुर आ गई। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 में यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्‍यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियों मिली हैं। आंध्र के गई गरीब किसान किडनी बेच कर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। उत्‍तर प्रदेश का हाल यह है कि भले ही वह किसानों के ॠण माफ करने का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्‍यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। किसानों की आत्‍महत्‍याओं के आंकड़ें देखें तो एक बात साफ समझ में आती है। वह यह कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ॠण, ॠण माफी योजनाएं किसानों के लिए बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्‍चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी कर्जे के बोझ तले दबता चला जा रहा है। देखने की बात यह है कि कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही। पर क्‍या हुआ?