जनता को सुरक्षा का वादा देने के साथ विधानसभा व लोकसभा में
पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि खुद आपराधिक प्रवृत्ति के हों, इससे सरकार पर कोई फर्क
नहीं पड़ता। यह स्थिति और ज्यादा भयावह है कि अदालत द्वारा सजा देने के बावजूद
सरकार इनका बचाव करे। सरकार के जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन करने के लिए कैबिनेट
में अध्यादेश पास कराने से तो ऐसा ही लग रहा है। अब यह अध्यादेश राष्ट्रपति के
पास जाना है। हालांकि राष्ट्रपति महोदय ने इस मामले में नाराजगी जताई है। लोकसभा में मुख्य विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा का भी इस मामले पर कोई
ठोस रवैया नहीं है।
बात
जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन की ही नहीं है। राजनीतिक दल तो हर व्यवस्था को
अपनी ओर मोड़ने को आतुर हैं। भले ही देश व समाज हित में सर्वदलीय बैठक में एक राय न
बनती हो पर जब बात राजनीतिक दलों के हितों की आती है तो सब एक हो जाते हैं। देश की
सेवा करने के नाम पर स्वार्थ पूरे करने में लगे राजनीतिक दलों का आलम यह है कि वे
किसी भी तन्त्र का अंकुश बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं न तो चुनाव आयोग का
न ही सूचना आयोग का और न ही उस जनता का, जिसके वोट से ये विधानसभा व लोकसभा तक पहुंचते हैं। यहां
तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट का भी। ये लोग न तो आरटीआई के
दायरे में आने को तैयार हैं और न ही अपनी करतूतों पर किसी तरह का प्रतिबन्ध
मानने को।
सरकार की
मनमानी देखिए कि राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम कसने के लिए न्यायपालिका की
कोशिशों पर पानी फेरने के लिए दागी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने
के सुप्रीम कोर्ट के दस जुलाई के फैसले के खिलाफ दायर की गई पुनर्विचार याचिका पर खुद
सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैये के बाद अब संशोधन अध्यादेश कैबिनेट में पास करा
लिया गया है। सरकार का कहना है कि सांसदों या विधायकों को दोषी ठहराए जाते ही उनकी
सदस्यता खत्म कर दी गई तो सदन को भंग करने की नौबत आ जाएगी और सदन का कार्यकाल
पूरा करने के लिए दोषी करार दिए जाने के बावजूद सांसद या विधायक की सदस्यता
बरकरार रखना जरुरी है। तो यह मान लिया जाए कि विधानसभा व लोकसभा अपराधियों से भरी
हो? जनप्रतिनिधि कुछ
भी करते रहें और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। उन पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध न
लगे। देश उन्हें सब कुछ करने की आजादी दे दे भले ही वह हरकत कितनी घटिया और
घिनौनी ही क्यों न हो। विपक्ष भी देखिए कि खाद्य सुरक्षा विधेयक व भूमि अधिग्रहण
विधेयक के अलावा कितने मामलों में शोर मचाता रहा पर देश व समाज के हित में कोर्ट
के लिए गए फैसले के विरोध में वह भी एक तरह से सत्तापक्ष के साथ है। यहां तक कि
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी भी। तो यह मान लिया जाए कि अब
ये दल अपने स्वार्थ के लिए किसी भी तंत्र को विफल करते रहेंगे।
अभी हाल ही में
चुनाव सुधार का समर्थन कर रहे एक एनजीओ ने पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा
चुनाव व आम चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में पाया कि करीब एक
तिहाई सांसद व विधायकों पर आपराधिक आरोप हैं। लोकसभा में ५४३ सांसदों में से १६२
(३० फीसद) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। ठीक इसी तरह ३१ फीसद विधायक आपराधिक
आरोपों का सामना कर रहे हैं।
देश को आजाद
कराने में भले ही कितने क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया हो। कितने नेताओं ने अपनी
संपत्ति बेचकर देश की सेवा की हो। कितने नेता ईमानदारी व समर्पण की मिसाल बने हों।
लेकिन आज की राजनीति का उद्देश्य किसी भी तरह से पॉवर व पैसा अर्जित करना रह गया
है। भले ही इन्हें पैदा करने का तरीका कोई भी हो। यही वजह है कि विधानसभा व संसद
में अधिकतर प्रॉपर्टी डीलर, बाहुबली व अपराधी किस्म के लोग विराजमान हैं। आज की तारीख
में किसी भी तरह से पैसा कमाओ और चुनाव लड़कर बन जाओ जनप्रतिनिधि। कोई यह देखने को
तैयार नहीं कि यह पैसा आया कहां से ?
आरटीआई के
दायरे में आने का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि हाल ही में
एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि फ्रांस, इटली, जर्मनी एवं जापान समेत 40 देशों में राजनीतिक दलों को
कानून के तहत अपनी आय के स्रोत, संपत्तियों एवं देनदारियों व अन्य रिकार्ड के साथ खुलासा
करना होता है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की रिपोर्ट के
अनुसार स्वीडन एवं तुर्की जैसे देशों में राजनीतिक दलों में स्वैच्छिक व्यवस्था
है। इस रिपोर्ट के अनुसार आस्ट्रिया, भूटान, ब्राजील, बुल्गारिया, फ्रांस, घाना, यूनान, हंगरी, इटली, कजाकिस्तान एवं किर्गिस्तान में कानून के तहत यह व्यवस्था
है कि राजनीतिक दलों को अपनी वित्तीय सूचनाओं का समय रहते ही लोगों के समक्ष
खुलासा करना होता है। साथ ही नेपाल, पोलैंड, रोमानिया, स्लोवाकिया, सूरीनाम, स्वीडन, कजाकिस्तान, तुर्की, यूक्रेन एवं उज्बेकिस्तान में भी राजनीतिक दलों को अपने
वित्त पोषण का सार्वजनिक खुलासा करना होता है।