वोटबैंक के लिए आरक्षण खेल कब तक चलेगा ? कोई दल नोकरी के बाद अब प्रमोशन
में भी दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कई पिछड़ों को
दलितों के श्रेणी में लाने की पैरवी कर रहा है। कभी आरक्षण के नाम पर
दलितों को रिझाने वाली कांग्रेस अब जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी
आरक्षण देने जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दल वास्तव में ही इन जातियों का
भला चाहते हैं। ये सब वोटबैंक के लिए हो रहा है। ये दल इन जातियों को
आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आरक्षण नाम की बैसाखी इन लोगों के हाथों में थमा
दे रहे हैं।
दरअसल आजादी के बाद समाज में ऐसा महसूस किया गया कि
दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। उस समय दलित दबे-कुचले माने
जाते थे तो इन लोगों के लिए 10 साल के लिए दलितों के लिए आरक्षण कर दिया
गया। आज के हालत में भले ही कुछ दल डा भीम राव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति
कर रहे हों पर डा अम्बेडकर का भी मानना था कि ज्यादा समय तक आरक्षण देने
से दलितों के लिए यह बैसाखी का रूप धारण कर लेगा। इसके लागू होने के 10
साल बाद जब इसकी समय सीमा पर विचार करने का समय आया तो तब तक कांग्रेस के
लिए आरक्षण ने वोटबैंक का रूप धारण कर लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम व ब्राह्मणों के साथ आरक्षण में नाम पर
दलितों को अपना वोटबैंक बना लिया। तब प्रख्यात समाजवादी डा राम मनोहर
लोहिया ने कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण व दलित गठबंधन की तोड़ के लिए
पिछड़ों का गठबंधन तैयार किया था। हालांकि कुछ समाजवादी दल पिछड़ों के इस
गठबंधन को आरक्षण का रूप देकर राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं।
आरक्षण
की समय सीमा पर निर्णय लेने का समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में
आया तो उन्होंने भी अपने पिता के पद चिह्नों पर चलते हुए उसकी समय सीमा
बढ़ा दी। उसके बाद 80 के दशक में वीपी सिंह ने पिछड़ों को अपना वोटबैंक
बनाने ले लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी। आरक्षण की पैरवी करने वाले
दलों से मेरा सवाल है कि क्या आरक्षण से देश का विकास प्रभावित नहीं हो रहा
है ? क्या इस व्यवस्था से प्रतिभा का दमन नहीं हो रहा है ? क्या गरीब
सवर्णों में नहीं हैं ? क्या दलितों व पिछड़ों में सभी को ही आरक्षण की
जरूरत है ? मेरा तो मानना है कि आरक्षण का फायदा संपन्न लोग ही उठा रहे
हैं जिन लोगों को इसकी जरूरत है उन लोगों को आज भी इसका उतना फायदा नहीं
मिल पा रहा है।
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