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जातिवाद का जहर
देश में वोटबैंक की राजनीति के चलते जातिवाद का जो जहर घोला जा रहा है, उसे खत्म करना बहुत जरूरी हो गया है। भ्रष्टाचार व महंगाई पर अंकुश लगना जरूरी है। आज के दौर फिर से समाजवादी आंदोलन को तेज करने की जरूरत है। वोटबैंक की सियासत घातक रूप लेती जा रही है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि साम्प्रदायिक दंगे चुनाव के समय ही क्यों होते हैं ? - भंवर में जनता
भले ही राजनेता विकास के दावे करते न थक रहे हों, भले ही आम आदमी के लिए तरह-तरह की योजनाएं लाई जा रही हों पर देश के जो हालात हैं वह संतोषजनक नहीं हैं। एक ओर जहां लोग महंगाई से परेशान हैं वहीं दूसरी ओर मंदी के नाम पर बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो जा रही है। बाजार में महंगाई की मार तो ऑफिस में मंदी की। देश के जनप्रतिनिधि कारपोरेट प्रतिनिधि बनते जा रहे हैं। 90 फीसद योजनाएं कारपोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। जिसे जहां मौका मिल रहा है वह देश को लूटने में लगा है। हर कोई देश से सब कुछ लेना चाहता है पर देश को कुछ नहीं देना चाहता। अब समय आ गया है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए आम आदमी सड़क पर उतरे, जब-तक देश की व्यवस्था अच्छे लोगों के हाथ में नहीं आएगी तब-तक देश का भला होने वाला नहीं है। - भ्रष्टाचार की मार : आज के बदलते परिवेश में जहां देश को चलाने वाले लोग भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं वहीं आम आदमी भी स्वार्थी होता जा रहा है। आदमी की सोच अपने तक सिमट कर गई है। इसी संकुचित सोच की वजह से ही देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद व तरह-तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। हम भले ही व्यवस्था को दोषी ठहरा देते हों पर कहीं न कहीं कमी हम लोगों में भी है। त्याग-बलिदान की भावना लोगों से खत्म होती जा रही है। यही सब वजह है कि मुट्ठी भर लोगों ने व्यवस्था ऐसे कब्जा रक्खी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक कर रह जा रहा है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं। देश की व्यवस्था यह है कि आम लोगों के लिए अर्थव्यवस्था गड़बड़ाने की बात की जा रही है और देश में चुनाव के नाम पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। मेरा मानना है कि अब आम आदमी देश व समाज के लिए आगे आये। इस भ्रष्ट दौर में भी आम आदमी नहीं जागा तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
- आरक्षण की राजनीति
आजकल जाटों पर कांग्रेस का प्रेम अचानक उमड़ आया है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बदले जातीय समीकरण के चलते केंद्र सरकार जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। 1949 में जातीय विषमताओं को दूर करने के लिए दस साल तक की गई आरक्षण की व्यवस्था अब जातीय विषमता को और बढ़ा रही है। पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू, उनके बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने आरक्षण की समय सीमा बढ़ाकर इसे वोटबैंक का रूप दिया। रही-सही कसर 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर पूरी कर दी। 60 के दशक में नेहरू को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित गठजोड़ की काट के लिए डा. राम मनोहर लोहिया के बनाये गए पिछड़ों के गठजोड़ को आजकल आरक्षण का रूप दे दिया गया है। क्या गरीब दलितों व पिछड़ों में ही हैं ? क्या वास्तव में ही गरीब लोगों को आरक्षण का फायदा मिल रहा है ? पढ़ाई के बाद नौकरी और फिर प्रमोशन में भी आरक्षण, क्या यह देश के विकास में बाधक नहीं है ? क्या आरक्षण के चलते प्रतिभाओं का दमन नहीं हो रहा है ? क्या आरक्षण देश को विघटन की ओर नहीं ले जा रहा है ? आखिर आरक्षण के नाम पर वोटबैंक की राजनीति कब तक होती रहेगी ? - समस्याओं से सामना
भले ही देश भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद, जातिवाद, गरीबी समेत कई समस्याओं से जूझ रहा हो पर लोकसभा चुनाव सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्ष मुद्दे पर लड़ा रहा है। जब ये दल चुनाव प्रचार में ही बुनियादी मुद्दे नहीं उठा रहे हैं तो सरकार बनाने के बाद उन पर क्या काम करेंगे। हर दल जाति-धर्म के आधार वोट हथियाने की योजना बना रहा है। तो क्या यह माना जाए कि देश में जन नेता कोई नहीं है ? - समाजवादियों का संघर्ष
इतिहास गवाह है कि जब-जब देश पर विपदा आई है तब-तब समाजवादियों ने मोर्चा संभाला है। देश की आजादी की लड़ाई में सरदार भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, डा. राममनोहर लोहिया ने। देश के आजाद होने के बाद लोहिया के अलावा, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह ने। इन नेताओं ने देश को लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे समाजवादी नेता दिए। आज के दौर में समाजवाद पर उठ रही उंगली को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है। आज के समाजवादी नेताओं को आत्ममंथन की जरूरत है कि क्या ये नेता वास्तव में असली समाजवादी की भूमिका निभा रहे हैं या फिर विचारधारा से भटक गए हैं ?
Friday, 15 November 2013
समस्याओं की गिरफ्त में देश
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इन नेताओं ने देश को लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे समाजवादी नेता दिए............इस वाक्य को हटा दें तो पूरा आलेख वास्तविक स्थितियों का तथ्यगत आकलन कर रहा है।
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