Sunday, 1 December 2013

गन्ना किसानों के पक्ष में मुखर होने की जरूरत

आजकल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्याओं पर जमकर राजनीति हो रही है। जहां निजी चीनी मिलें गत साल के मूल्य पर भी गन्ना खरीदने को तैयार नहीं हैं वहीं राजनीतिक दल इस मुद्दे में वोटबैंक टटोल रहे हैं। सरकार ने वैसे तो मिलों को 4 दिसम्बर तक चलाने का अल्टीमेटम दे दिया है। जो मिलें पेराई शुरू नहीं कर रही हैं उन पर केस भी दर्ज किया गया है। बकाया भुगतान के लिए आरसी काटने की तैयारी है।  इन सबके बावजूद मिल प्रबंधनों  ने सरकार के दबाव में  आने से इनकार किया है। मिल प्रबंधनों का कहना है कि निर्धारित गन्ना मूल्य पर वह भारी घाटा उठाने को तैयार नहीं हैं।
      मिलें 230-240 रुपए प्रति क्विंटल  से ज्यादा मूल्य पर गन्ना खरीदने को तैयार नहीं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब हरियाणा व पंजाब में 300 रुपए से अधिक मूल्य पर गन्ना खरीद कर भी मिलें लाभ कमा रही हैं तो उत्तर प्रदेश में यह जिद क्यों ? बकाया भुगतान व चीनी मिलें न चलने पर किसान सड़कों पर आ गए हैं। जगह-जगह धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। गन्ना जलाया जा रहा है। किसान आत्मदाह करने पर उतारू हैं, आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
    दरअसल गन्ना किसानों की ये समस्याएं हर साल की हैं पर राजनीतिक दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इस पर वोटबैंक की राजनीति करते हैं। बात गन्ना किसानों की ही नहीं है हर फसल का ही यही हाल है जब फसल किसान के पास होती है तो उसका मूल्य बहुत कम होता है और वही फसल जब अन्न का रूप ले लेती है और व्यापारी के पास पहुंच जाती है तो इसकी कीमत आसमान छूने लगती है। हालात यह हैं कि किसान की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। यही वजह है कि किसान अपने पेशे से मुंह मोड़ रहे हैं। जरा सोचिए जब किसान अन्न पैदा ही नहीं करेगा तो लोग खाएंगे क्या ? सरकारों की गलत नीतियों के चलते किसान के हालत ऐसे हैं कि भले ही एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी आलिशान मकान बना रहा हो पर किसान आज भी छप्परों वाले घरों में रहने को मजबूर हैं। भले ही छोटे  से छोटा पेशा करने वाला व्यक्ति मोटा मुनाफा कमा रहा हो पर किसान आज भी कर्ज के बोझ तले दबता चला जा रहा है। मेरा मानना है कि आज यदि हम किसानों के पक्ष में मुखर नहीं हुए तो एक दिन ऐसा आ जाएगा कि कोई खेती करेगा ही नहीं। जब कोई खेती नहीं करेगा तो क्या होगा, बताने की जरूरत नहीं है। आज पत्रकार, लेखक, वकील और सामाजिक संगठनों को किसानों के पक्ष में लामबंद होने की जरूरत है।
 

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