Friday 13 September 2013

बढ़ते अपराधों की जिम्‍मेदारी


युवाओं में लगातार बढ़ रही आपराधिक प्रवृत्ति समाज के लिए बड़ा खतरा है। कभी-कभी कुछ गैर जिम्‍मेदार व लापरवाह लोग इनकी करतूतों को अनदेखा कर इन्‍हें बिगड़ने में सहायक बन रहे हैं। मामला तब और संगीन लगता है जब दूर-दराज गांव से महानगरों में भविष्‍य बनाने आ रहे अनेक छात्र आपराधिक गतिविधियों में शामिल होकर अपने अभिभावकों के अरामानों पर पानी फेर देते हैं। पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा में पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भराने आए तीन छात्रों द्वारा लूटपाट की वारदात इसी तरह की घटना है। इन छात्रों ने कैशियर से नकदी लूटने का प्रयास किया और सफल नहीं हुए तो कार्ड स्‍वाइप मशीन ही लूट ले गए। लेकिन पेट्रोल पंप मालिक ने इस मामले में इनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की सक्रियता नहीं दिखा। क्‍या यह स्थिति इन छात्रों को और बड़े अपराध के लिए नहीं उकसाएगी?

            दरअसल आधुनिकता की दौड़ में शामिल तमाम युवा महंगे शौक पाल रहे हैं। गर्ल फ्रेंड को महंगे गिफ्ट, दोस्‍तों पर रौब गाठने के लिए बढ़िया मोबाइल, बड़ी-बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड कपड़े व नशे की लत इन्‍हें अपराध की दुनिया में धकेल रही है। अपनी इन बेतहाशा जरुरतों के लिए ये चेन स्‍नेचिंग, लूटपाट जैसी वारदातों को अंजाम देते फिर रहे हैं। बच्‍चों में अच्‍छे संस्‍कारों का अभाव भी कहीं न कहीं अपराध को बढ़ावा दे रहा है। हो भी क्‍यों न। उन्‍हें संस्‍कारवान बनाने वाली शिक्षा का व्‍यावसायीकरण जो हो गया है और अभिभावकों के पास बच्‍चों के लिए समय नहीं है। परिणामस्‍वरुप काफी संख्‍या में बच्‍चे युवा होते-होते अपराध की दुनिया के राही बन जाते हैं। गत दिनों दिल्‍ली स्‍कूल स्‍वास्‍थ्‍य योजना के तहत 24 निजी व 12 सरकारी स्‍कूलों के 11,234 बच्‍चों पर हुए एक अध्‍ययन में 12 फीसद बच्‍चों ने नशे की लत व आपराधिक गतिविधियों में लिप्‍त होने की बात सामने आई। स्‍वाभाविक है ये बच्‍चे युवा होते-होते अपराध भी करने लगेंगे। कहना गलत न होगा कि लोगों की समझौतावादी मानसिकता अपराध के बढ़ने में सहायक हो रही है। बात सार्वजनिक जगहों की हो, ट्रेनों की हो या फिर ऑफिसों की, हम हर जगह सब कुछ समझते हुए भी गलत होते देख रहे हैं। नैतिक साहस का अभाव व गिरते जमीर के चलते लोगों की चल छोड़ यार वाली प्रवृत्ति बढ़ रही है। हां जब उनके किसी अपने पर बीतती है तो बात समझ में आती है। ऐसी व्‍यवस्‍था में कितने कानून बन जाएं, कितनी ही सजा सख्‍त हो जाए। जब तक आम आदमी स्‍वार्थ छोड़कर सही व गलत का अंतर समझना व कहना शुरु नहीं करेगा, तब तक अपराध पर अंकुश लगाना संभव नहीं है।


१० सितम्बर २०१३ को दैनिक राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पृष्ठ पर

1 comment:

  1. निश्‍चय ही 'चल छोड़ यारवाली' मानसिकता बदलने की तत्‍काल आवश्‍यकता है।

    ReplyDelete