Tuesday, 17 September 2013

हिन्दुत्व को कैस कराने के लिए मोदी को कमान

गुजरात दंगों व भाजपा के खेवनहार माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी को दरकिनार करते हुए पार्टी ने आखिरकार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र  मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना ही दिया। यह कोई अचानक नहीं हुआ है।  लम्बे समय से इसकी तैयारी चल रही थी। गुजरात में मोदी के सत्ता की हैट्रिक बनाते ही भाजपा में उनकी अगुआई में लोस चुनाव लड़ने की बात उठने लगी थी।  मोदी के प्रचार से जहां काफी हिन्दू वोटबैंक भाजपा से सटेगा वहीं बड़े स्तर पर मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में होना लगभग तय है।  मोदी की कट्टरता से आशंकित मुस्लिम अब प्रत्याशी नहीं बल्कि सरकार बनाने वाली पार्टी को देखेंगे।  ऐसे में कोई पार्टी कांग्रेस का विकल्प नहीं दिखाई देती।  वैसे भी २००९  के लोस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी के चलते काफी मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में हुआ था।  मोदी का आक्रामक रुख क्षेत्रीय दलों की परेशानी बढाने वाला है।  विशेषकर मुस्लिम वोटबैंक को लेकर सपा की।  वैसे भी मुजफ्फरनगर दंगों के चलते पार्टी का  मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खां पार्टी से नाराज चल रहे हैं। सपा के लिए परेशानी का कारण यह भी है कि यूपी में १९९१  का माहौल दोहराने के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी का दाहिना हाथ माने जाने वाले अमित शाह को पहले ही उत्तर प्रदेश का प्रभारी  बना दिया है। हां  इस बार हालात भाजपा के उतने अनुकूल नहीं हैं।  न तो आरक्षण की आग है और न ही मंदिर की लहर।
      भाजपा भले ही यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटालों का आरोप लगाकर आंदोलन चलाती आ रही हो पर पार्टी ने नरेंद्र मोदी के सहारे चुनाव में फिर से हिदुत्व कार्ड  चल दिया है।  दरअसल जब-जब चुनाव आतें हैं तब-तब भाजपा को १९९१ का माहौल दिखाई देने लगता है।  भाजपा वह  सब हथकंडे अपनाना चाहती  है, जिनके बल उसने सत्ता हथियाई थी।  पार्टी में हिन्दुत्व का नारा  बुलंद करने वाले सभी पात्र पहले ही इकठ्ठा कर लिए गए हैं।  १९९१ और २०१४ के चुनाव में मात्र  अंतर इतना है कि तब लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह और उमा भारती की तिकड़ी चुनाव की अगुआई कर रही थी तो इस बार नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह की।
   दरअसल भाजपा की समझ में यह आ गया है कि वह उत्तर प्रदेश और हिन्दुत्व ही है जिसके बलबूते पर पार्टी फिर से अपना पुराना वजूद हासिल कर सकती है।  तभी तो पार्टी दंगाग्रस्त मुज्फ्फरनगर में जल्द ही मोदी की  रैली कराने की बात क रही है।  हमें यह देखना होगा कि वह हिन्दुत्व का प्रभाव ही था कि  ९० के दशक में राम मंदिर आन्दोलन के बलबूते भाजपा  ने पार्टी को बुलंदी पर पहुंचाया था। राम मंदिर आन्दोलन चरम पर रहने के समय १९९१ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में ३१.४५  प्रतिशत मतों  के साथ २११ सीटें मिली थीं और  उसी साल हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी  ने ३२.२८  प्रतिशत मतों के साथ ८५ में से ५१ सीटें हसिल की थी।  यह राम मंदिर आन्दोलन का असर ही था कि १९९६ के लोकसभा चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में और इजाफा हुआ  पार्टी ने ५२ सीटें जीती। भाजपा का मत प्रतिशत हो गया ३३.४४।  १९९३ में विधानसभा चुनाव में सीटें घटकर १७७ रह गई पर मत प्रतिशत ३३.३ था।  आंकड़े बताते हैं कि १९९८ में भाजपा ने हिदुत्व के नाम पर लोकसभा की ८५ में से ५७ सीटें हासिल की और मत प्रतिशत ३६.४९ हो गया।  उसी काल में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी।  वाजपेयी सरकार में राम मंदिर का निर्माण न होने से हिन्दू वोटबैंक भाजपा से नाराज हो गया और इसके बाद प्रदेश में पार्टी का पराभव शुरू  हो गया।  यह इसका ही परिणाम था कि १९९९ के लोकसभा चुनाव में पार्टी की सीटें घटकर २९ रह गई और मत प्रतिशत घटकर २७.६४।  लोकसभा के २००४ और  २००९ के चुनाव में पार्टी को २२.१७ और १७.५४ प्रतिशत मतों के साथ ८० में से १०-१० सीटें मिली।  यह हिन्दुओं की नाराजगी ही थी कि २०१२ के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हालत बहुत कमजोर हो गई और १५ प्रतिशत मतों के साथ ४७ विधायक ही बने।  पार्टी अब कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा माने  जाने मोदी के बलबूते १९९८ की स्थिति में ले जाना चाहती है।
   इसमें  दो राय नहीं कि गुजरात में दो लोकसभा व चार विधानसभा सीटों के जीतने पर मोदी का आत्मविश्वाश सातवें आसमान पर है पर मोदी को  समझने की जरूरत है कि कर्नाटक और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में उनके प्रचार के बावजूद पार्टी चुनाव हार गई थी।  उन्हें यह भी समझना होगा कि भाजपा अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं कर सकती। उन्हें सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना भी जरूरी है।  मोदी की  परेशानी यह भी है कि धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने पर उनका अपना वोटबैंक छिटकता है तो कट्टर छवि से सहयोगी दल। सहयोगी दलों के नाम पर भाजपा के साथ आजकल मात्र अकाली दल व शिवसेना हैं। हां जयललिता एनडीए के पक्ष में देखी जा रही हैं।  सपा भले ही कांग्रेस विरोध कर रही हो पर मुस्लिम वोटबैंक के चलते वह राजग का हिस्सा नहीं बन सकती। ममता बनर्जी के लिए पश्चिमी बंगाल में भाजपा से अधिक कांग्रेस फायदा का सौदा है।  बसपा चुनाव में किसी पार्टी से गठबंधन नहीं करती।  रालोद पहले ही यूपीए का हिस्सा है।
   माहौल को भांपकर देश की दोनों बड़ी सियासी पार्टियां अनुभव से सीख लेते हुए एक-एक कदम बड़े ही सोच-समझ कर उठा रही हैं। दरअसल दोनों ही पार्टियों को अपने पुराने दोस्तों पर यकीन नहीं रह गया है। कांग्रेस जानती है कि मायावती और मुलायम सिंह किंग मेकर और किंग बनने का ख्वाब पाले बैठे हैं।  ये दोनों ही पार्टियां यूपीए में हैं तो मजबूरीवश। इन सबके के चलते ही कांग्रेस ने बिहार को विशेष पैकेज देकर नीतीश कुमार को चुग्गा डाला है ।  एम कनिमोझी को राज्यसभा में भजकर कांग्रेस  ने एक तरह से डीएमके  को मना लिया है।  झारखंड में शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाकर कांग्रेस ने झामुमो को अपने साथ कर लिया है। 
   दूसरी ओर मोदी के लिए यह भी बड़ी परेशानी है कि पार्टी का करिश्माई चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी  बुढ़ापे और बीमारी की वजह से मंजर-ए - गायव हैं तो  दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी उनसे नाराज।  मोदी की छवि सख्त शासक की रही है। ऐसे में सबको साथ लेकर चलना उनके लिए मुश्किल भरा काम है। लोस चुनाव में अब उन्हें अपने को गुजरात के बाहर भी साबित करना है।  देश में  हर जगह वोटों को धुर्वीकरण करना आसान काम नहीं है।  गुजरात में राजधर्म न निभाने का आरोप झेलने वाले मोदी के लिए गठबंधन धर्म निभाना अग्नि परीक्षा के समान है। अलग-अलग विचारधारा को लेकर एक  साथ लेकर चलना उनके लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा है।  बात अंतरराष्ट्रीय  प्रभाव की करें तो यूरोप में भले ही उनके शासन को सराहा गया हो पर अमेरिका ने उन्हें अपना वीजा तक नहीं दिया है।  बिर्टेन ने १० साल तक उनसे रिश्ते तोड़े रखें।

1 comment:

  1. बढ़िया विश्‍लेषण है। परन्‍तु गुजरात के विकास के बाबत कहने को भी आपके बहुत कुछ हो सकता था। वहां के बड़े-बड़े राष्‍ट्रीय राजमार्ग, उपमार्ग, सौर ऊर्जा, चौबीसों घण्‍टे विद्युतापूर्ति, महिला सुरक्षा इत्‍यादि। ये सब बातें तो देश की राजधानी दिल्‍ली में भी नहीं हैं।

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