Saturday, 20 December 2014

अपनों के विरोध में दिल्ली को कैसे फतह करेंगे केजरीवाल ?


        अन्ना आंदोलन के बल पर राजनीतिक वजूद बनाने वाले अरविंद केजरीवाल भले ही मात्र दो साल के संघर्ष के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए थे। भले ही दिल्ली के गत विधानसभा चुनाव में लोगों ने उन्हें पलकों पर बैठाया था। भले ही पूरे में देश में वह चर्चा का विषय बन गए थे। पर जिस तरह से आम चुनाव में आम आदमी पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के साथ ही दिग्गजों का भी अरविंद केजरीवाल पर उपेक्षा का आरोप लगाना, उनका मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर प्रधानमंत्री पद के लिए लालायित होना। वोटबैंक के लिए भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा साम्प्रदायिकता बताना। उनके खिलाफ आम आदमी सेना का गठन किया जाना। ये सब मुद्दे इन विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी दिक्कतें लेकर आ रहे हैं। ऐसे में जब कुमार विश्वास, साजिया इल्मी, प्रभात कुमार जैसे दिग्गज  उनके खिलाफ हो गए हों। योगेंद्र यादव राजनीति में कुछ खास दिलचस्पी न ले रहे हों, तब वह कैसे दिल्ली फतह करेंगे यह समझ से बाहर है। वैसे भी आम चुनाव में जिस तरह से उन्होंने जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सेलिब्रिटी को तवज्जो दी थी उससे उनकी कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिह्न लगना स्वभाविक है।
       इन चुनाव में यह बात मुख्य रूप से देखी जा रही है कि अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की गलती स्वीकार कर रहे हैं आैर इसके लिए लोगों से माफी भी मांग रहे हैं। दरअसल अरविंद केजरीवाल को अब तक की गई गलतियों का अहसास हो गया है। उनकी समझ में आ गया है कि उनकी अति महत्वाकांक्षा के चलते देश में जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी में राजनीति के प्रति रुझान पैदा हुआ था वह धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। उनकी समझ में आ गया है कि अन्ना आंदोलन के बाद उनकी गलतियों का फायदा भाजपा उठा ले गई। लोकसभा चुनाव में दिल्ली में करारी शिकस्त के बाद उनकी समझ में आ गया कि संघर्ष के साथियों की उपेक्षा उन पर भारी पड़ी। उनकी समझ में आ गया है कि बिना समर्पित कार्यकर्ताओं आैर संगठन के राजनीति नहीं की जा सकती है। उनकी समझ में आ गया है कि काम को धरातल पर लाए बिना जनता का विश्वास लंबे समय तक कायम नहीं रखा जा सकता है। उनकी समझ में आ गया है कि कुछ विशेष लोगों के पार्टी को कब्जाने का नतीजा क्या होता है। उनकी समझ में आ गया है कि उनकी मनमानी के चलते योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास आैर साजिया इल्मी जैसे विचारवान नेताओं को उनकी नीतियों की आलोचना करनी पड़ी। उनकी समझ में आ गया है कि यदि पंजाब में उन्हें चार सीटें न मिली होती तो वह जनता का मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचते। उनकी समझ में आ गया है कि दिल्ली की सत्ता छोड़कर केंद्र की सत्ता की ललक ने दिल्ली के लोग भी उनसे नाराज कर दिए।
      ऐसे में प्रश्न उठता है कि अरविंद केजरीवाल पर से कम हुआ जनता का विश्वास फिर से कैसे बनाया जाएगा ? जिस व्यक्ति की नीतियों का विरोध अब उसके संगठन में ही होने लगा हो। जिस दल को छोड़कर कई नेता घर बैठ गए हों पर जिस दल के मुखिया पर तानाशाह का आरोप लगाकर बागी कार्यकर्ताओं ने आम आदमी सेना बना ली। जिस दल में दो  राष्ट्रीय नेता योगेंद्र यादव आैर नवीन जयहिंद का विवाद राजनीतिक गलियारे में गूंजा हो, जिस दल में योगेंद्र यादव पर अरविंद केजरीवाल के सबसे विश्वसनीय माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने खुले रूप से अरविंद केजरीवाल को राजनीतिक रूप से खत्म करने का आरोप लगा दिया हो उस दल पर जनता अब कैसे विश्वास करेगी ?
      अरविंद केजरीवाल के अब तक के राजनीतिक करियर की बात करें तो उनमें  राजनीतिक रूप से असुरक्षा की भावना देखी गई है। आम आदमी पार्टी से विभिन्न दलों के अच्छे छवि के लोग जुड़ना चाहते थे पर उन्होंने उन्हें सटाया तक नहीं। यदि इक्का-दुक्का लिए भी तो खास तवज्जो नहीं दी। जैसे कि कांग्रेस से छोड़कर आप में अलका लांबा को पार्टी में कोई खास तवज्जो नहीं दी गई। कभी भाजपा में रहे निर्दलीय पार्षद से आप में आकर विधायक बने विनोद कुमार बिन्नी को कितनी फजीहत झेलनी पड़ी। विनोद कुमार बिन्नी के मामले में किसी विधायक को लोकसभा का टिकट न देने की बात करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़े आैर राखी बिडलान को पूर्वी दिल्ली से चुनाव लड़ाया। आवेदन के नाम पर टिकट देने का वादा करने वाले अरविंद केजरीवाल पर आरोप है कि उन्होंने आम चुनाव में आवेदनों को कचरे की टोकरी में डालकर सेलिब्रिटी आैर विशेष लोगों को ही टिकट दिए। उनके पार्टी के ही कार्यकर्ताओं ने उन पर आरोप लगाए कि पार्टी के खड़ी होते ही वह पुराने साथियों को भूल गए आैर पैसे वाले नेताओं को तवज्जो देने लगे। मुंबई में उन्होंने 20,000 रुपए देने वाले लोगों के साथ डिनर किया। मुस्लिम वोटबैंक के लिए उन्हें साम्प्रदायिकता भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा दिखाई देने लगा। ऐसे में जनता को फिर से विश्वास में लेना अरविंद केजरीवाल के लिए टेढ़ी खीर साबित होगी।

Friday, 21 November 2014

ये कैसा समाजवाद है नेताजी ?

    यदि आज कहीं से डॉ. राम मनोहर लोहिया रामपुर शहर को देख रहे होंगे तो निश्चित रूप से वे बहुत दुखी होंगे। वह सोच रहे होंगे कि उन्होंने देश को कैसे समाजवादी नेता दे दिए, जो जनता के दुख-दर्द को भूलकर जनता के खून-पसीने की कमाई फिजूलखर्ची पर उड़ा रहे हैं। जी हां मैं बात कर रहा हूं रामपुर में आजम खां द्वारा शाही अंदाज में मनाए जा रहे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के जन्म दिन की।
     किसी बीमार प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के मुखिया का शाही अंदाज में जन्मदिन मनाया जाना अपने आप में प्रश्न खड़ा करता है। एक ओर जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने का बकाया भुगतान न होने पर बड़े स्तर पर किसान अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं अपनी बेटियों की शादियां लगातार टाल रहे हैं। गुस्से में गन्ना जला रहे हैं। आत्मदाह का प्रयास कर रहे हैं। आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। रोजगार न मिलने पर बड़े स्तर पर युवा दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इसी क्षेत्र के एक मंत्री के जिले में सत्तारूढ़ पार्टी के मुखिया का जन्म दिन शाही अंदाज में मनाया जा रहा है। अपने को लोहिया का अनुयायी बताने वाले उनके पुत्र प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूरे जोश-खरोश के साथ इस जश्न में शामिल हो रहे हैं।
   नेताजी यदि आपको याद हो तो लोहिया जी खाना भी कार्यकर्ताओं के साथ ही खाना पसंद करते थे। शाही अंदाज तो बहुत दूर की बात है। बताया जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव आैर उनके पुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए लंदन से विक्टोरिया बग्घी मंगाई गई है। ग्यारह किलोमीटर ये दोनों इस बग्गी पर बैठकर जाएंगे। पूरे ग्यारह किलोमीटर तक कालीन बिछाई गई है, जगह-जगह उनके स्वागत की तैयारी है। फूलों की वर्षा इन नेताओं पर होगी। सपा के सभी विधायकों आैर सांसदों को इनके स्वागत में लगाया गया है। रामपुर को दुल्हन की  तरह सजाया गया है। नाच-गाने की पूरी व्यवस्था है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस जश्न में पानी की तरह बहाया जा रहा पैसा आखिरकार आया कहां से ? बात-बात पर किसानों, मजदूरों, व गरीबों की पैरवी करने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव इस तरह से शाही अंदाज में जन्म दिन मनाकर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं ? या फिर यदि उन्हें खुश करने के लिए आजम खां इतने बड़े स्तर पर फिजूलखर्ची कर रहे हैं तो उन्होंने प्रदेश के गरीबों का हवाला देते हुए इस फिजूलखर्ची को रोका क्यों नहीं ? यह मान भी लिया जाए कि यह खर्च मौलाना अली जौहर विवि उठा रहा है तो क्यों उठा रहा है ? क्या यह पैसा गरीब बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खर्च नहीं हो सकता था। या यह माना जाए कि आजम खां अपनी पत्नी को राज्यसभा में भेजने का नेताजी का अहसान इस रूप में उतार रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के ग्लैमर में डूबने के पीछे कभी उनके सारथी रहे अमर सिंह का नाम लिया जाता रहा है आैर ये ही आजम खां इसका खुला विरोध करते रहे हैं। अब इस शाही जश्न में ये ताम-झाम तो खुद आजम खां ही कर रहे हैं आैर वह अपने को खांटी समाजवादी भी मानते हैं।
     आज नेताजी के समाजवाद का यह रूप देखकर मैं यह लेख इसलिए भी लिख रहा हूं कि मैं खुद राजनीतिक रूप से मैं लोहिया जी का अनुयायी हूं। मैंने डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये, चौधरी चरण सिंह पर काफी अध्ययन किया है। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव लोहिया जी के संघर्ष आैर नीतियों से बहुत प्रभावित थे। चौधरी चरण सिंह ने खुद आपको राजनीतिक रूप से गढ़ा था। आपको चौधरी चरण सिंह का असली वारिश माना जाता है। अब जब आपको पूरी तरह से देश व समाज के लिए समर्पित हो जाना चाहिए था तब आप चाटुकारों से घिरकर विरोधियों को बोलने का मौका दे रहे हैं। मैंने पढ़ा है सुना है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने दो-कुर्ते पाजामे में अपनी पूरी जिंदगी काट दी आैर आज के कितने समाजवादी नेता ऐसे हैं जो उन्हीं की ही देन हैं।
    भले ही लोहिया जी ने शादी न की हो पर उन्होंने पूरे राजनीतिक जीवन में अपने किसी परिजन को सटाया तक नहीं। चौधरी चरण सिंह की 27 बीघा जमीन समाजसेवा में बिक गई थी। आचार्य नरेंद्र देव का आैर लोक नायक जयप्रकाश का संघर्ष भी सर्वविदित है। क्या इनमें से किस समाजवादी नेता ने अपना जन्मदिन इस तरह से शाही अंदाज में मनाया था ? आपको, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, शरद यादव, राम विलास पासवान को इन समाजवादियों ने तैयार किया। आज की तारीख में दूसरी लाइन के समाजवादी नेता अखिलेश यादव, डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव, अक्षय यादव, धर्मेंद्र यादव, चिराग पासवान, मीसा यादव, जयंत चौधरी, दुष्यंत चौटाला, उमर अब्दुल्ला माने जाते हैं। ये सब वंशवाद की देन हैं। क्या इन नेताओं के बलबूते जेपी आंदालन जैसा आंदोलन किया जा सकता है ?

Saturday, 8 November 2014

आखिर कब तक पिसते रहेंगे किसान

    भले ही केंद्र सरकार अच्छे दिन के कितने दावे करती फिरे। भले ही प्रधानमंत्री अमरीका तक भारत के झंडे गाड़ने की बात करें। भले ही महात्मा गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का अभियान छेड़ा जाए। भले ही पटेल जयंती पर राष्ट्रीय एकता की बात की जाए। भले ही नेहरू जयंती पर बाल स्वच्छता कार्यक्रम की बात कही जा रही हो। भले ही केेंद्र के साथ ही राज्य सरकारें अपनी उपलब्धियों पर एेंठती फिर रही हों पर जमीनी हकीकत यह है कि तमाम योजनाओं के बावजूद देश के किसानों का कोई भला होता नहीं दिख रहा है।
     रात दिन मेहनत करने के बाद भी फसल की लागत नहीं निकल पा रही है। तमाम दावों के बावजूद किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं हो पा रही है। अभी तक तो आंध्र प्रदेश, विदर्भ, बुंदेलखंड में ही आत्महत्या की बातें ज्यादा सामने आती थीं पर आजकल तो खेती के मामले में सम्पन्न क्षेत्र माने जाने वाले वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश आैर हरियाणा में भी इस तरह के मामले देखने को मिल रहे हैं। गत दिनों मेरठ के एक किसान ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि एक निजी चीनी मिल पर तीन लाख बकाया भुगतान न होने की वजह से वह अपनी बहन के कैंसर का इलाज नहीं करवा पा रहा था। हरियाणा के करनाल में भी एक किसान ने आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या कर ली। किसानों का भला करने वाली भाजपा सरकार में धान गत साल से भी कम दाम पर खरीदी जा रही है।
     गन्ना किसानों की हालत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। तमाम आंदोलनों के बावजूद किसानों का कई साल का बकाया भुगतान नहीं हो पा रहा है। देश की व्यवस्था देखिए कि चीनी मिलों के यूपीए सरकार से 6600 करोड़ आैर राजग से 2400 करोड़ बयाज मुक्त ऋण लेने के बावजूद किसानों का भुगतान तक नहीं किया गया है। उत्तर प्रदेश में तो किसान दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं,  एक ओर उनका बकाया भुगतान नहीं हो पा रहा है तो दूसरी ओर गन्ना तैयार होने के बावजूद पेराई सत्र अभी तक शुरू नहीं हो पाया है। स्थिति यह है कि अभी तक तो गन्ना मूल्य को लेकर ही कोई हल नहीं निकला है।
    योजनाओं के नाम पर किसानों को कैसे बेवकूफ मनाया जाता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2008 में यूपीए सरकार में लाई गई कर्ज माफी योजना में कैग के 52,000 करोड़  की गड़बड़ी का खुलासा करने के बावजूद न तो बैंकों का कुछ बिगड़ा है आैर न ही गलत तरीका अपनाकर योजना का लाभ उठाने वालों का। किसान जो ठगे गए उसका तो कोई जवाब किसी के पास है ही नहीं। किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है कि देश का किसान खेती से मुंह मोड़ने लगा है। प्रधानमंत्री भले ही विभिन्न समारोह में किसानों के भले की बात कर रहे हों पर अभी तक किसानों के हित में कोई खास जमीनी कदम नहीं उठाया गया है। अब तक उनकी हर योजना हर काम पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमते नजर आ रहे हैं। यह सरकार किसानों की हितैषी है या फिर पूंजीपतियों की यह बात इससे ही समझ में आ जाती है कि लगभग छह लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त सब्सिडी की व्यवस्था कारपोरेट के लिए की जा रही है, जबकि किसानों के लिए आम बजट में मात्र 30 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है। सरकार की कार्यशैली तो देखिए कि सरकार ने श्रमेव जयते कार्यक्रम शुरू तो किया पर उसमें श्रमिकों को नहीं बल्कि पूंजीपतियों को बुलाया गया था।
     केंद्र सरकार ने फसल विविधीकरण की ओर प्रोत्साहित करने का तर्क देते हुए जिस तरह से राज्य सरकारों को इस साल गेहूं आैर धान पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर बोनस की घोषणा न करने के निर्देश दिए हैं, उसमें भले ही किसानों का हित जुड़ा हो पर तरीका गलत लग रहा है। केंद्र सरकार के इस निर्देश ने न केवल राज्यों सरकारों पर दबाव बनाया है बल्कि किसानों को भी परेशानी में डाल दिया है। इसे केंद्र की चेतावनी ही माना जाएगा कि यदि विकेंद्रित खरीद करने वाले राज्य चावल आैर गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस की घोषणा करते हैं तो केद्र सिर्फ उतने ही अनाज की खरीद के लिए सब्सिडी प्रदान करेगा, जितनी जरूरत सार्वजनिक वितरण प्रणाली आैर लोक कल्याण की योजनाओं के लिए है। केंद्र की इस चेतावनी का उत्तर प्रदेश सरकार पर असर भी पड़ा। उत्तर प्रदेश सरकार ने गत दिनों विधानसभा में एक सवाल के दौरान बताया कि सरकार 1400 रुपए प्रति क्विंटल की दर से किसानों से सीधे गेहूं खरीदेगी आैर उस पर बोनस नहीं देगी। मध्य प्रदेश सरकार तो गेहूं पर प्रति क्विंटल 200 रुपए बोनस दे रही थी। इससे वहां पर खेती का फीसद भी बढ़ा था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फसलों का विविधिकरण तो जब होगा तब होगा पर किसानों को तो इस साल से ही नुकसान होना शुरू हो गया है। जबकि होना यह चाहिए कि पहले देश के हर क्षेत्र में मिट्टी की जांच हो तथा जहां की मिट्टी जिस फसल के लिए उपजाऊ हो, उस फसल के लिए वहां के किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए आैर उन्हें प्रशिक्षण देकर संसाधन उपलब्ध कराने के बाद धीरे-धीरे फसल का विविधीकरण किया जाए। स्थिति यह है कि एक ओर सरकार 100 स्मार्ट सिटी बनाने की बात कर रही है तो दूसरी ओर जोत का रकबा लगाातार कम हो रहा है।

Sunday, 12 October 2014

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

पुण्यतिथि  (12 अक्टूबर) पर विशेष
        जब हमारे देश में समाजवाद बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। डा. लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए 70  के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश की अगुआई में समाजवादियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक प्रष्ठभूमि पर छाए। मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई साल तक उत्तर प्रदेश पर राज किया और अब उनके पुत्र अखिलेश यादव पिता के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि आजकल समाजवादियों पर वंशवाद का आरोप लग रहा है
        आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरूआती दौर में समाजवादी जितने ईमानदार थे उतने ही खुद्दार भी। जहां तक डा. लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पैरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। देशभक्ति व ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे।  लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई।  युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में  सुभाष चन्द्र बोश के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा।  लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना  की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री  नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 
    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे।1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरू को झट से पलटने वाला नट कहा।
    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया।  14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए।     उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।

Saturday, 27 September 2014

देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा

                                        (जयंती पर विशेष)
     भले ही देश की सत्ता बदल चुकी हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है अौर देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। मेरा मानना है कि यह व्यवस्था बदल सकती है तो देशभक्ति से बदल सकती है। लोगों के मरते जा रहे जमीर को जगाकर कर बदल सकती है। जब देशभक्ति की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब पड़ोसियों के घर में भगत सिंह के पैदा होने की सोच से काम नहीं चलेगा। अब देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।
      भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने  जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।

     भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था।  लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित  कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
      सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Tuesday, 16 September 2014

साम्प्रदायिक सोच पर भारी पड़ी समाजवादी विचारधारा

     आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें जीतने वाली भाजपा ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उप चुनाव में सपा उसे इस तरह से पटखनी देगी। एक लोकसभा और 11 विधान सभा सीटों में से सपा ने अपनी लोकसभा सीट के साथ ही आठ विधानसभा सीट जीतकर साबित कर दिया कि आज भी समाजवादी विचारधारा साम्प्रदायिक सोच पर भारी है।
    आम चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगो के बाद प्रदेश में हिन्दुत्व को भुनाते हुए भाजपा ने प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम चुनाव बना दिया था। यह भाजपा की उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित जीत ही थी कि तत्कालीन प्रभारी अमित शाह को भाजपा ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा इतनी उत्शाहित थी कि वह 2017 में सरकार बनाने की कवायद में जुट गई थी। भाजपा के दिग्गज अपने को मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल करने लगे थे। पहले मेनका गांधी ने अपने पुत्र वरुण गांधी को प्रस्तुत करना चाह पर उन्हें पार्टी ने राष्ट्रीय कार्यकारणी में ही नहीं लिया। उसके बाद योगी आदित्य नाथ ने सांप्रदायिक बयान जारी कर हिन्दुत्व वोटबैंक को ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया। भाजपाई अब आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे थे।
     भाजपा यह भूल गई थी कि जनता ने उसे विकास के मुद्दे पर वोट दिया था। महंगाई के मुद्दे पर वोट दिया था। लोग महंगाई से जूझते रहे, गन्ना किसान बकाया भुगतान के लिए आंदोलन करते रहे। आर्थिक तंगी के चलते परेशानी से लड़ते रहे पर भाजपाई धार्मिक भावनाओं पर भाषणबाजी करते रहे।
     उधर मुखयमंत्री अखिलेश यादव के किसी भी तरह माहौल न बिगड़ने देने के बयान ने सकारात्मक काम किया। भाजपाई बयानबाजी करते रहे और अखिलेश यादव काम के बलबूते लगातार जनता का विस्वास जीतने का प्रयास करते रहे, जिसका परिणाम यह हुआ कि फिर से जनता ने समाजवादी विचारधारा पर विस्वास किया। इस परिणाम से यह होगा कि जहां सपा कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार होगा वहीं भाजपा हवा में उड़ने के बजाय जमीन पर आकर जनता का विस्वास जितने का प्रयास करेगी।

Thursday, 11 September 2014

देशभक्ति पैदा करने और जमीर जगाने की जरूरत

     किसी भी देश का भविष्य उसके युवाओं पर टिका होता है। इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्तर से युवाओं को आगे बढ़ाने के प्रयास बड़े स्तर से हो रहे हैं पर भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के चलते इसका फायदा युवाओं को नहीं हो पा रहा है। यही वजह है कि जहां युवाओं का सरकारों से विस्वास खत्म होता जा रहा है वहीं वे अपने पथ से भटक रहे हैं। देशभक्ति, संस्कारों, नैतिक शिक्षा के अभाव में बड़े स्तर पर युवाओं का नैतिक पतन हो रहा रहा है। इन सबके चलते बड़ी ताताद में युवा अपराध की कदम बड़ा रहे हैं। अब तक तो छेड़छाड़, रेप, लूटपाट, ठगी, धोखाधड़ी के मामले ही सुनने को मिल रहे थे। हैदराबाद के 15  युवाओं के ईराक में जाकर आईएस  में शामिल होने के लिए  घर से भागने की घटना ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। हालांकि ये लोग पश्चमी बंगाल से पकड़ लिए गए हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश के होनहार युवा इतने घातक कदम क्यों उठा रहे हैं।
     इसमें दो राय नहीं कि देश सत्ता बदल चुकी है पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्ज़ा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक कर रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती है। इसी व्यवस्था के चलते बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई चरम पर है। चारों ओर अपराधियों का राज है। जनता बेहाल है और देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। अवसरवाद की राजनीति करने में व्यस्त हैं। परिवारवाद की राजनीति करने में व्यस्त हैं। लूटपाट की राजनीति करने में व्यस्त हैं।
     कभी समाजसेवा के रूप में जाने जाने वाली राजनीति अब व्यापार बनकर रह गई है।  किसी भी तरह से पैसा कमाकर जनप्रतिनिधि बनना और जनता के पैसे पर ऐशोआराम की जिंदगी बिताना आज की राजनीति का मकसद रह गया है। पूंजीपतियों के पैसों से चुनाव लड़ना और उनके लिए ही काम करना राजनीतिक दलों की विचारधारा बनी हुई है। भले ही राजनेता चुनाव के समय किसान-मजदूर और आम आदमी के बात करते हों पर वह काम आम के लिए कम और विशेष के लिए ज्यादा करते हैं। किसी देश इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है की कृषि प्रधान देश का किसान खेती से मुंह मोड़ने लगा है। देश के युवा का सेना से मोहभंग होता जा रहा है। देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी गई कि देश को बनाने के लिए बनाए गए स्तंभ ही भ्रष्ट होते जा रहे हैं। मेरा मानना है कि देश में कितनी सरकारें बदल जाएं पर जब तक देश की भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था नहीं बदलगी तब तक देश का भला नहीं हो सकता है। यह व्यवस्था युवाओं में देशभक्ति पैदा कर और मर चुके लोगों के जमीर को जगाकर ही बदल सकती है। देश के नवनिर्माण के लिए युवाओं को मोह-माया छोड़कर सड़कों पर उतरना ही होगा।
     भले ही हम लोग भ्रष्ट व्यवस्था के लिए सरकारों को दोषी ठहरा देते हों पर इसके लिए कहीं कहीं दोषी समाज भी है। आदमी सामूहिक न सोचकर व्यक्तिगत सोचने लगा है। पैसा आदमी की जिंदगी पर इतना हावी हो गया है कि जैसे कि उसकी जिंदगी में रिश्ते-नाते, देश समाज की कोई अहमियत ही न रह गई हो। हकीकत तो यह है कि देश को फिर से एक और आजादी की लड़ाई की जरूरत है। पहले हमने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी अब हमें भ्रष्ट व्यवस्था के लड़ाई लड़ने की जरूरत है।

Thursday, 14 August 2014

देश की आजादी में भगत सिंह की शहादत का बड़ा रोल

                              (स्वतंत्रता दिवस पर विशेष)
जब स्वतंत्रता सेनानियों की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी
के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।
      भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों
को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने  जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी
भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।
    भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था।  लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि औ यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित  कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद--आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Sunday, 10 August 2014

डा. राम मनोहर लोहिया को भारत रत्न देने की मांग करें समाजवादी

    केंद्र सरकार ने इस बार भारत रत्न देने के लिए रिजर्व बैंक की टकसाल को पांच मेडल बनाने का आदेश दिया है। भारत रत्न के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान पोददार और समाज प्रवर्तक कांशी राम का नाम चर्चा में है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रख्यात समाजवादी डा. राम मनोहर लोहिया को अब तक भारत रत्न से क्यों वंचित रखा गया है। कांग्रेस के बाद अब भाजपा की सरकार में भी लोहिया जी के नाम की कोई चर्चा नहीं हो रही है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में लोहिया जी के समाजवाद की तारीफ करते हुए आज के समाजवादियों को पानी पी-पी कर कोस रहे थे। मेरा मानना है कि अब बहुत अच्छा अवसर है कि समाजवादी केंद्र सरकार से लोहिया जी को भारत रत्न देने मांग राष्ट्रीय स्तर पर करें। इसमें दो राय नहीं जिन लोगों के नाम भारत रत्न के लिए चर्चा में हैं, उनका देश के उथ्थान में बड़ा योगदान है पर लोहिया जी का कद इन सबसे बड़ा है। आज भले ही नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर देश के प्रधानमंत्री बने हों पर गैर कांग्रेसवाद का नारा सबसे पहले डा. लोहिया ने ही दिया था। 
      डा. लोहिया कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पैरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई। युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में सुभाष चन्द्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा। लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।

     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।

    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 

    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे। 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट कहा।

    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।

       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।

      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।

     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।

Thursday, 31 July 2014

परिजनों को ही संभालना होगा नई पीढ़ी को

     कानपुर में एक युवक के अपनी प्रेमिका के चक्कर में पड़कर अपनी पत्नी की हत्या करने के मामले ने लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। समाचार पत्रों और चैनलों पर दिखाए जा रहे मृतका के फोटो को देखकर ही लग रहा है कि वह लड़की कितनी सुशील और सुन्दर थी।  युवक की ये बुरी आदतें ही थी कि आज उसे ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया कि जहां उसका जीवन तो बर्बाद हो ही गया है। साथ ही उसके परिजन भी उसके कुकर्मों को जिंदगी भर झेलेंगे।
    इस तरह की घटनाओं को लेकर भले ही हम कानून व्यवस्था रहन-सहन, खुलापन सोशल साईट जैसे माध्यमों को जिम्मेदार ठहरा देते हों पर इस तरह के अपराधों के लिए परिजन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि बच्चों के कदम गलत रास्ते पर चल पड़े हों और परिजनों को किसी तरह की भनक न लगे।
       दरअसल आज की तारीख में परिजन बड़े स्तर पर बच्चों की हरकतों को या तो नजरंदाज कर देते हैं या फिर उन पर पर्दा डाल देते हैं। कितने परिजन तो बच्चों की बुरी आदतों को आधुनिकता से जोड़कर देखने लगते हैं और काफी बच्चे बड़े होते-होते इतने शातिर हो जाते हैं कि वे बड़े से बड़ा अपराध करने से नहीं चूकते।
   बात कानपुर मामले की ही नहीं है, बड़े स्तर पर युवा अपराध की ऐसी दलदल में धंसते जा रहे हैं कि यदि समय रहते इन्हें नहीं संभाला गया तो कहीं नई पीढ़ी देश के विकास में योगदान देने के बजाय देश को तबाह करने में लग जाए। वैसे भी युवाओं की गलत आदतों का फायदा उठाते हुए असामाजिक तत्व उन्हें आतंकवाद की ओर धकेल रहे हैं।
   काफी समय से समाज में ऐसा परिवर्तन आया है कि निजी स्वार्थों के चलते आदमी की जिंदगी में रिश्तों की अहमियत कम होती जा रही है। कहीं पर संपत्ति को लेकर तो कहीं पर अवैध संबंधों को लेकर और कहीं पर झूठी शान के चलते रिश्तों का खून किया जा रहा है। आज की तारीख में इस तरह से अपराध, कारणों और समाधान पर मंथन की जरूरत है। मेरा मानना है कि नैतिक शिक्षा, अच्छे संस्कार, अच्छी परवरिश, संयुक्त परिवार, परिजनों व बच्चों के बीच संवाद के अभाव में नई पीढ़ी अपने रास्ते से भटक रही है।

Thursday, 24 July 2014

आखिर प्रेस के लिए क्या किया काटजू जी ने

    भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का देखिये कि वह हैं तो अध्यक्ष प्रेस परिषद के पर अधिकतर मामले उठाते हैं दूसरे क्षेत्रों के। कभी न्यायपालिका की व्यवस्था पर बोलते हैं तो कभी विधायिका की, कभी राजनीति पर और कभी आन्दोलनों पर। काटजू जी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के क्या हाल हैं। जो दूसरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हकों पर कैसे कुठाराघात हो रहा है। प्रेस में काम करने वाले लोगों का किस स्तर तक शोषण हो रहा है। किस तरह से प्रेस में न केवल कर्मचारियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है बल्कि  उनकी प्रतिभा का भी दमन हो रहा है।
भले ही प्रेस में काम करने वाले लोग खतरों से खेलते हुए रात में जागकर अपने काम को अंजाम देते हों पर यदि आज की तारीख में यदि कहीं पर कर्मचारियों की सबसे अधिक दुर्दशा है तो वह प्रेस ही है। क्या काटजू जी ने यह जानने की कोशिश है जिस परिषद के वह अध्यक्ष हैं वहां पर व्यवस्था का हाल है। क्या वास्तव में प्रेस अपने असली रूप में है या फिर कोई दूसरा रूप हो गया है।
   प्रेस का यह हाल है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अखबारों में मजीठिया वेजबोर्ड लागु नहीं किया जा रहा है। गिने-चुने अख़बारों को छोड़ दें तो बड़े स्तर पर अख़बारों ने कोर्ट का आदेश नहीं माना है। इस मामले पर काटजू जी ने अभी तक कुछ नहीं बोला है, जबकि कई वेबसाइट इस मामले को जोर-शोर से उठा रही हैं, जबकि होना यह चाहिए कि काटजू जी को प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के  हितों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

Sunday, 20 July 2014

तो बंटवारे के बाद भी राज्य नहीं बनेगा पउप्र

पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड के रूप में चल रही उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद
अवध प्रदेश का हिस्सा होगा पश्चमी उत्तर प्रदेश
 
     भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए आजादी से ही आंदोलन होते आ रहे हों पर अब जो कानून व्यवस्था और विकास  का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद चल रही है, उसके अनुसार पश्चमी  उत्तर प्रदेश अलग प्रदेश नहीं बल्कि अवध प्रदेश का हिस्सा होगा।
    विस्वस्नीय सूत्रों की माने तो राजग सरकार प्रदेश को तीन भागों पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध प्रदेश के रूप में बांटने का प्रस्ताव तैयार कर रही है। गृह मंत्रालय ने राज्य पुनर्गठन आयोग को प्रदेश के बंटवारे का मसौदा तैयार करने को कह दिया है। किसी भी सत्र में यह प्रस्ताव लाया जा सकता है। वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी सपा को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियां प्रदेश के बंटवारे की पक्षधर रही हैं। वैसे भी 2012 में तत्कालीन मायावती सरकार ने प्रदेश को पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल में बांटने का प्रस्ताव
यूपीए सरकार को भेज दिया था।
    उत्तर प्रदेश बंटवारे में हमें यह भी देखना होगा कि अब भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अवध प्रदेश से जोड़ने की कवायद चल रही हो पर अधिकतर आंदोलन पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड गठन को लेकर नहीं बल्कि पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने  को लेकर हुए हैं। जहां पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की पैरवी करते थे वहीं उनके बेटे चौधरी अजित सिंह रालोद  के माध्यम से हरित प्रदेश के गठन की मांग करते रहे हैं। किसान संगठन भी समय-समय पर अलग प्रदेश के लिए प्रयासरत दिखाई देते रहे हैं। गाज़ियावाद में हाईकोर्ट की अलग बैंच स्थापित करने की मांग करना भी कहीं-कहीं अलग प्रदेश के गठन की कवायद ही रही है।
      देखने की बात यह है कि भले
ही केंद्र सरकारें वोटबैंक को देखते हुए राज्यों का पुनर्गठन करती हों पर राज्य के पुनर्गठन आयोग की स्थापना अंग्रेजी राज्यों के पुनर्गठन लिए भाषाई आधार पर की गई थी। स्वतंत्रता आंदोलन में यह बात शिददत के साथ उठी थी कि जनतंत्र में प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य बना रहे। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्षधर नहीं थे। उस समय हालात ऐसे बन गए थे कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किये जाने की मांग को लेकर 58  दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालु की मद्रास में हुई मौत और संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों  के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलगु भाषी राज्य बनाने के लिए मजबूर कर दिया।
    22 दिसंबर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्ष्ता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग के सदस्य जस्टिस फजल अली, हृदयनाथ कुंजरु और केएम पाणिक्कर थे। इस आयोग ने 30 सितम्बर 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। तब 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। बंबई राज्य  को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाये गए। 1966 में पंजाब  बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे  उठी और कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत  महसूस किया और धीरे-धीरे इसे मान भी लिया। 1972  में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य  अरुणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। गत दिनों यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना राज्य का गठन किया तो उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के गठन की मांग उठने लगी थी।

Friday, 13 June 2014

रेप रोकने को पैदा करना होगा समाज और कानून का डर

नई दिल्ली में  2012 में हुए पैरामेडिकल छात्रा के साथ गैंगरेप के बाद देश में ऐसा माहौल बन गया है कि तमाम प्रयास के बाद इस तरह की वारदात रुकने के बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। भले ही उत्तर प्रदेश की वारदात को ज्यादा प्रचारित किया जा रहा हो पर पूरे देश में ही अपराध नहीं रुक पा रहे हैं। तो यह माना जाए कि अपराध लगातार बढ़ रहे हैं या फिर अपराध के विरोध में आंदोलन छेड़ने बाद में लोगों में जागरूकता आई है, जो लोग इज्जत का हवाला देते हुए केस दर्ज नहीं कराते थे अब विरोध में खड़ा होने लगे हैं। 
    रेप की वारदात बढ़ने के बारे में मेरा मानना है की  नैतिक शिक्षा के अभाव, सामाजिक और कानून का कोई डर न होने से इस तरह की वारदात बढ़ रही हैं। भले ही इन सबके लिए सरकारों को दोषी माना  रहा हो पर इनके लिए सरकार से ज्यादा जिम्मेदार समाज है। शासन और प्रशासन में बैठे लोग भी किसी न किसी रूप में समाज का ही हिस्सा हैं।
    याद कीजिये कि किसी समय अपराध करने वाले व्यक्ति से हर कोई बचता था पर आजकल यह हाल है कि आपके  पास पावर और पैसा होना चाहिए और आप कुछ भी करते फिरो, लोगों को कोई फर्क  नहीं पड़ता। यहां तक कि अपराधियों से नाम जोड़कर लोग दूसरों पर दबाव बनाने लगे हैं। यही हाल पुलिस प्रशासन का है। अपराधी पावरफुल हो तो उसको गिरफ्तार करने के बजाय बचाने का पूरा प्रयास होता है। सरकारें भी पीछे नहीं हैं, नेता वोटबैंक के लिए सब कुछ देखते हुए भी आंख मूंद लेते हैं।
     अक्सर देखा जाता है कि पीड़ित की मदद करने के बजाय प्रभावशाली लोग अपराधी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। बात रेप की चल रही है तो हमें यह भी देखना होगा कि इस तरह  के मामलों में सगे-संबंधी लोग हो ज्यादा लिप्त रहते हैं। समाज की स्थिति ऐसी हो गई है कि बाढ़ ही फसल को खा रही है। मेरा मानना है कि  अपराध पर अंकुश लगाने के लिए लोगों का जमीर जगाना होगा, समाज और कानून का डर पैदा करना होगा। यह किस तरह से करना है यह काम सरकार और समाज का है।

Saturday, 17 May 2014

और अब मोदी की बारी

    देश में एक बात तो अच्छी हो रही है कि जनता जिस पर विस्वास कर रही है उस पर पूरी सिददत के साथ कर रही है, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की। 2007 के विधान सभा चुनाव में मायावती पर विस्वास किया तो पूर्ण बहुमत से सरकार बनवाई।  2012 में अखिलेश यादव पर भरोसा जताया तो प्रचंड बहुमत दिया और इस बार आम चुनाव में मोदी पर विस्वास किया तो 80 में से 73 सीटें राजग को दे दी, जिसमें दो अपना दल को तो 71 भाजपा को मिली। इन सबके बीच यह देखना होगा कि मायावती जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं तो उन्हें नकार दिया, अखिलेश यादव ने संभल कर काम नहीं किया तो आम चुनाव में सपा 5  सीटों पर सिमट कर रह गई।
    अन्ना आंदोलन के बल पर आम आदमी पार्टी बनाकर नई दिल्ली में विधान सभा चुनाव लड़ने वाले अरविन्द केजरीवाल पर विस्वास कर जनता ने 70 में से 28 सीटें दी थी पर जब वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरे तो आम चुनाव में नई दिल्ली में आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। इन आम चुनाव में देश की जनता ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंदर मोदी पर विस्वास कर प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपी है। अब मोदी की बारी है।
    मोदी जी से भी लोगों को बहुत अपेक्षाएं हैं यदि वह भी जनता की अपेक्षाओं खरे नहीं उतरते तो जनता इन्हें भी माफ करने वाली नहीं है। इसलिए मोदी जी को बहुत संभल कर चलना है और यह नहीं भूलना है कि उन्होंने लोगों से बड़े-बड़े वादे किये हैं। वैसे भी देश में महंगाई, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा के व्यवसाईकरण, कानून व्यवस्था के डगमगाने जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।

Tuesday, 6 May 2014

कुमार हमें नाज है आपके विस्वास पर


    अमेठी का नाम आते ही गांधी परिवार का वंशवाद आंखों के सामने आने लगता है। यह देश की विडंबना ही है कि बड़े नेताओं के सामने दल या तो प्रत्याशी लड़ाते नहीँ लड़ाते हैं तो फिर कमजोर लड़ाते हैं। अमेठी में भी ऐसा ही हुआ है । सपा चुनाव लड़ नहीं रही है बसपा ने कमजोर प्रत्याशी चुनाव में उतारा है।
    हां भाजपा से टीवी कलाकार स्मृति ईरानी और आप से कुमार विस्वास मजबूती से चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे तो यह चुनाव अन्य सीटों की तरह ही है पर इस सीट पर विशेष बात यह है कि जहां स्मृति ईरानी और राहुल ग़ांधी पूरे संसाधन से चुनाव लडे हैं वहीं कुमार विस्वास ने खास संसाधन बिना ही चुनाव लड़ा है। यह चुनाव फूलपुर के डा. राम मनोहर लोहिया और पंडित जवाहर लाल नेहरू के बीच हुए चुनाव की याद दिला रहा है। जिस तरह से लोहिया जी ने जगह-जगह नुकड़ सभाएं कर चुनावी माहौल बनाया था, ठीक उसी तरह से कुमार विस्वास ने चुनाव लडा है। हमें कुमार विस्वास पर नाज है कि प. उत्तर प्रदेश के किसी युवा ने पूर्वांचल की किसी विशेष सीट पर खम ठोका है। वह भी ग़ांधी परिवार के शहजादे के खिलाफ।
    प. उत्तर प्रदेश से चरण सिंह, महावीर त्यागी जैसे नेता हुए हैं।  कल्याण सिंह, मायावती जैसे नेता आज भी हैं पर इनमें से किसी नेता ने पूर्वांचल की किसी शीट से चुनाव लडने का प्रयास नहीं किया, जबकि पूर्वांचल के कई नेता प. उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ चुके हैं। भाजपा नेता राजनाथ सिंह भले ही इस बार लखनऊ से चुनाव लड़ रहे हों पर वह गजियाबाद से सांसद हैं, अमर सिंह फतेहपुर सीकरी से चुनाव लड़े हैं। बिहार से राम विलास पासवान, मीरा कुमार जैसे नेता बिजनौर से चुनाव लड़ चुके हैं। इन चुनाव में मथुरा से भाजपा ने फिल्म अभिनेत्री हेमा मालनी, बिजनौर से रालोद ने जयप्रदा, मेरठ से कांग्रेस ने नगमा को चुनाव लड़ाया है।
   ऐसा माना जाता है कि प. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जागरूकता का अभाव है। तभी तो चौधरी चरण सिंह से राजनीति सीखकर बिहार से लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, मध्य प्रदेश से शरद यादव, उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी दिग्गज नेता राष्ट्रीय स्तर पर छा गये पर प. उत्तर प्रदेश से के.सी. त्यागी के अलावा कोई खास नेता चरण सिंह की छत्रछाया में नेता नहीं बन पाया। चरण सिंह के बेटे अजित सिंह से तो अपने पिता कि राजनीतिक विरासत तक नहीं संभाली गई। इन सबके बीच हमें कुमार विस्वास की हिम्मत को दाद देनी होगी कि जहां उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आन्दोलन मेँ अहम भूमिका निभाई वहीँ आम आदमी पार्टी में भी उनका अपना वजूद है। जाने-माने कवि होने के बावजूद उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। पार्टी के कोई खास सहयोग बिना, तमान हमलों, मारपीट, विषम परिस्थितयों मेँ भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कुमार विस्वास चुनाव जीतें या हारे पर जिस तरह से उन्होंने भ्रष्टाचार, व्यवस्था,  वंशवाद का विरोध करते हुए चुनाव लड़ा है। उससे आम आदमी की नजरों में उनका कद बढ़ा है। कुमार विस्वास जी अमेठी से आप चुनाव जीते या फिर हारें हमें आप पर नाज है। जिस तरह से आप राजनीतिक कुव्यवस्था  का विरोध कर एक अच्छी राजनीति की नीव रख रहे हैं आज इसी राजनीति की ज़रुरत देश को है।

Friday, 18 April 2014

सत्ता नहीं व्यवस्था परिवर्तन से होगा देश का भला

    आम चुनाव में हर दल सत्ता हथियाने के लिए हर हथकंडा अपना रहा है। कोई मोदी सरकार बनने की बात तो कोई तीसरे मोर्चे की और कोई यूपीए की। चुनाव प्रचार में जैसे किसी दल के पास आरोप-प्रत्यारोप जात-पात के अलावा कोई मुद्दा बचा ही नहीं है। भले ही लोग इस चुनाव में किसी बड़े बदलाव की आस लगाए बैठे हों पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सब वही नेता हैं जो किसी न किसी रूप में लम्बे समय से देश पर  राज करते आ  हैं।
     अधिकतर बाहुबली और पूंजीपति लोग ही चुनाव लड़ रहे हैं, लोगों को यह मतलब नहीं कि इन लोगों के पास पैसा आया कहां से ? ऐसे में सवाल उठता है कि ये लोग जनप्रतिनिधि बनकर जनता के लिए काम करेंगे या फिर अपने लिए ? देश में मोदी सरकार बनने की चर्चा बहुत जोरों पर है। मैं गुजरात दंगों की बात नहीं करूंगा पर ये वही मोदी जी हैं, जो गुजरात में लोकायुक्त बनाने के पक्ष में नहीं थे। यह वही भाजपा है, अन्ना के जन लोकपाल बनाने के मामले में जिसके सुर अचानक बदल गए थे। हालांकि बाद में यूपीए सरकार ने लोकपाल विधेयक पास हुआ पर कैसा हुआ यह जगजाहिर है।
    मेरा मानना है कि सत्ता बदलने के बाद भी कोई चमत्कार होने की उम्मीद बहुत कम है। जब तक देश की व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होगा तब तक देश के भले की उम्मीद लगाना जल्दबाजी होगी। देश में जब तक आरक्षण के नाम वोटबैंक की राजनीति होती रहेगी, जब तक जात-पात के नाम वोट मिलते रहेंगे, जब तक वंशवाद और परिवारवाद राजनीति से खत्म नहीं होगा, जब तक महिलाओं को सुरक्षा नहीं मिलेगी, जब तक ईमानदार, सच्चे और जमीनी नेता जनप्रतिनिधि नहीं बनेंगे, तब तक देश का कोई भला नहीं हो सकता। भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन से निकले अरविन्द केजरीवाल से लोगों से कुछ आस जगी थी पर वह भी अन्य दलों की तरह ही वोटबैंक की राजनीति करने लगे हैं। देश में एक वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है। इस व्यवस्था के लिए ऐसे लोग आंदोलन करें जो देश पर मर मिटने के लिए तैयार रहें। जब तक युवा वर्ग मोह माया छोड़कर देश के लिए त्याग, समर्पण अौर देशभक्ति के जज्बे के साथ देश अौर समाज के लिए सड़कों पर नहीं उतरेगा तब तक भ्रष्ट हो चुकी देश व्यवस्था नहीं बदलेगी। देश के स्वार्थी नेता जनता को ऐसे ही बेवकूफ बनाते रहेंगे।
       अब देश में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, दलित-पिछड़े-सवर्णों के बीच लड़ाई लड़ने की जरूरत हैं नहीं बल्कि जरूरत गरीब और अमीर के बीच लड़ाई लड़ने की है। आरक्षण हो तो जात-पात के नाम पर न होकर आर्थिक  आधार पर होना चाहिए। देश में आरक्षण के नाम पर प्रतिभाओं का दमन हो रहा है। अयोग्य युवा आगे बढ़ रहे हैं और प्रतिभाशाली युवा पिछड़ रहे हैं। इससे कहीं न कहीं देश का विकास भी प्रभावित हो रहा है। अब समय आ गया है की नई पीढ़ी के भविष्य के लिए हम लोगों को भ्रष्ट व्यवस्था को बदलना ही होगा।

Monday, 31 March 2014

घातक है वोटबैंक की राजनीति

    जिस तरह से देश में जाति-धर्म और ऊंच-नीच के नाम पर वोटबैंक की राजनीति का खेल चल रहा है यह देश के लिए घातक है। विचारधारा और सिद्धांतों की राजनीति को तिलांजलि देकर नेता अवसरवादिता परिवारवाद, वंशवाद और जातिवाद की राजनीति कर हैं। कोई पिछड़ों के नाम से राजनीति कर रहा है तो कोई दलितों के नाम से तो कोई मुस्लिमों के नाम पर। कोई भी हथकंडा अपनाकर बस किसी भी तरह से सत्ता हथियानी है। मूल्यविहीन इस राजनीति में सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है तो वह सांप्रदायिक सौहार्द का।   वैसे तो गंदली हो चुकी राजनीति में लगभग सभी दलों के नेता भड़काउ भाषण दे रहे हैं पर सहारनपुर से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे इमरान मसूद के भाषण में मुस्लिमों को रिझाने के लिए जिस तरह से वीडियो क्लीपिंग में मोदी की बोटी-बोटी कर काट देने की बात कही गई है, उसने तो हद ही पार कर दी और कांग्रेस ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि इमरान मसूद का यह बयान उस समय का है जब वह सपा में थे।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इमरान मसूद कांग्रेस में आकर बदल गए हैं ? क्या कांग्रेस में आकर उनकी मानसिकता और सोच बदल गई है।
     दिलचस्प बात यह है सांप्रदायिक सौहार्द के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता इस मामले पर चुप्पी क्यों साध गए हैं। तो यह माना जाए कि राजनेता वोटबैंक की राजनीति  के लिए देश को बर्बाद होते देखते रहेंगे। इसी वोटबैंक की राजनीति के चलते देश में अराजकता का माहौल है। इंडियन मुजाहिद्दीन सिमी जैसे आतंकी संगठन सक्रिय हो गए हैं। देश में आतंकी हमले होते रहते हैं और लोग भूल जाते हैं। देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी गई है कि देश में गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। बेरोजगारी और गरीबी का फायदा उठाते हुए एक विशेष वर्ग के कुछ युवाओं को आतंकी बनाया जा रहा है और देश को चलाने ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। समय रहते वोटबैंक की राजनीति पर अंकुश नहीं लगा तो कहीं हमारे देश में भी पाकिस्तान जैसे हालात पैदा न हो जाएं ?

Sunday, 23 March 2014

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

जयंती  (23  मार्च) पर विशेष
        जब हमारे देश में समाजवाद बात होती है तो डा. राम मनोहर लोहिया का चेहरा आंखों के सामने आने लगता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। डा. लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए 70  के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश की अगुआई में समाजवादियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक प्रष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई साल तक उत्तर प्रदेश पर राज किया और अब उनके पुत्र अखिलेश यादव पिता के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि आजकल जहां समाजवादियों पर वंशवाद का आरोप लग रहा है वहीं लालू प्रसाद चारा घोटाले में जेल में बंद हैं।
        आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरूआती दौर में समाजवादी जितने ईमानदार थे उतने ही खुद्दार भी। जहां तक डा. लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे,  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते आगरा जेल में बंद थे। इस विकट परिस्तिथि में भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छुटने से इनकार कर दिया था। देशभक्ति व  ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे।  लोहिया का  समाजवाद व संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था।  जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया और उनकी दादी व नैन ने उनका पालन-पोषण किया ।  गांधी जी के विराट व्यक्त्तिव का असर लोहिया पर बचपन से ही हो गया था। दरअसल उनके  पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे और जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते।  वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया जी ने गांधी जी से बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वह 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।  पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक के निधन के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920  में की। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनकी पहली बार मुलाक़ात हुई।  युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता में अखिल बंग विधार्थी परिषद के सम्मलेन में  सुभाष चन्द्र बोश के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
      लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि 1930 को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिया विदेश भेजा।  लोहिया पढ़ाई करने के  लिए बर्लिन गए। वह लोहिया ही थे कि जिन्होंने बर्लिन में हो रही लीक आफ नेशंस की बैठक में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में सिटी बजाकर दर्शक दीर्घा से इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्तिथियों ने देश और समाज के लिया संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह समुद्री जहाज से मद्रास के लिए चले तो रास्ते में ही उनका सामान जब्त कर लिया गया। मद्रास पहुंचने के बाद लोहिया हिन्दू अखबार के दफ्तर पहुंचे और दो लेख लिखकर 25 रूपये कमाए और इनसे कलकत्ता पहुंचे।  कलकत्ता से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की।  मालवीय जी ने उन्ही रामेश्वर दास बिडला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नोकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिडला जी का निजी सचिव बनने इनकार कर दिया।
     17 मई 1934 को पटना में आचार्य  नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हाल में इकट्ठे हुए जहां पर समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की और पार्टी दे उद्देश्यों में पूर्ण स्वराज्य लक्ष्य को जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई के रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों  ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना  की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए और पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री  नियुक्त किया गया।  दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
    दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में विवादित भाषण का आरोप लगाकर 11 मई 1940 को  उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38 के तहत उन्हें दो साल की सजा हुई।  लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं तब तक खामोश नहीं रहा जा  सकता।  उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालुम नहीं। चार दिसंबर 1941 को लोहिया को रिहा कर दिया गया। 
    आन्दोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरु में मतभेद पैदा हो गए थे।1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरु का खुलकर विरोध किया।  इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरु को झट से पलटने वाला नट कहा।
    भारत छोड़ो आन्दोलन छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन की अगुआई की।  20 मई 1944 को लोहिया को बम्बई से गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।  1945 में लोहिया  को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।  लोहिया से अंग्रेज सरकार इतने घबराई हुई थी की द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया।  बाद में 11 अप्रैल , 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
       15  जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आन्दोलन की पहली सभा की।  लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आन्दोलन के शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक  दंगे भड़के तो नवाखली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत की जगहों पर लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशीश करते रहे।  9  अगस्त, 1947 से ही हिंसा रोकने का प्रयास युद्धस्तर से शुरू हो गया।  14  अगस्त की रात  को हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर से भड़क गया ।  गांधी जी अनशन पर बैठ गए।     उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए और उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई चार सितम्बर  को गांधी जी ने अनशन  तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में लोहिया का विशेष  योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आन्दोलन समाजवादी चला थे ।  दो जनवरी 1948  को रीवा में हमें चुनाव चाहिए।  विभाजन रद्द करो के नारे के साथ आन्दोलन किया गया।
      1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरु के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर  1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत  के सवाल को उठाया। 1963  को फरुखाबाद के  चुवाव में लोहिया 58 हजार मतों चुनाव जीते। उस समय लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना बहस बहुत चर्चित रही।  उन्होंने  कहा था कि 18 करोड़ आबादी  चार आने पर जिन्दगी काटने को मजबूर है तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होते हैं।  9 अगस्त 1965  को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
     30  सितम्बर 1967 लोहिया को नई  दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जो आजकल डा. राम मनोहर लोहिया के नाम से जाने जाता है में पौरुष ग्रंथि के आप्रेशन के लिए भर्ती कराया गया।  इलाज के दौरान 12 अक्टूबर 1967 को  यह समाजवादी पुरोधा हमें छोड़कर चला गया।

सदियों दिलों के अन्दर वो गूंजते रहेंगे

         शहीदी दिवस (23 मार्च) पर विशेष 
    भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन  में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि 23 वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी।  भगत सिंह की शहादत को भले ही 82 साल बीत गए हों  पर आज भी वह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।  आने वाले वक्त में भी वह उतने ही प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि मुश्किलों से निजात पाने को हमने जो फार्मूला इजात किया,  उसमें हजारों-हजार चोर छेद हैं।
    भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए 23 साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday, 21 March 2014

किसानों को मिले मेहनत भत्ता

किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बुरी खबर नहीं हो सकती कि उस देश के किसान अपने पेशे से पलायन करने लगें। यह बात मैं ही नहीं कह रहा हूँ, यह बात गत दिनों केन्‍द्रीय कृषि मंत्रालय की स्‍थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में मानी है। इसे सरकारों की उदासीनता कहें या फिर बदलती परिस्थितियां कि किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं, जो देश के लिए खतरे की घंटी है। इतिहास पर नजर डाली जाए तो किसान-मजदूर की चिंता समाजवादियों ने ही की है। मेरी विचारधारा भी समाजवादी है, मैं डा. राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह का अनुयाई हूं। इस मुद्दे पर मेरा सुझाव है कि समाजवादी इन लोकसभा चुनाव में किसानों के लिए मेहनत भत्ते की बात प्रमुखता से रखें । किसानों को मेहनत भत्ता मिलने लगेगा तो वे खेती से पलायन नहीं करेंगे।
     खेती से किसानों का मोहभंग का हाल क्‍या है इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे जो 2011 में घट कर 11 करोड़ 87 लाख रह गए। किसानों का खेती छोड़ने का कारण सरकारों का उपक्षित रवैया और योजनाओं में बढ़ती दलाली तो है ही, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति तथा ॠणों का बढ़ता बोझ भी खेती से मोहभंग का बड़ा  कारण है । वैसे तो किसान हर प्रदेश में खेती छोड़ रहे हैं पर गत दशक के दौरान महाराष्‍ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार किसानों ने खेती छोड़ी है। राजस्‍थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्‍तराखण्‍ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्‍या कम हुई है।
     देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्‍होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्‍त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्‍टर का धब्‍बा हटने की रफ्तार में तेजी जरुर आ गई। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 में यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्‍यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियों मिली हैं। आंध्र के गई गरीब किसान किडनी बेचकर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। उत्‍तर प्रदेश का हाल यह है कि भले ही वह किसानों के ॠण माफ करने का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्‍यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। किसानों की आत्‍महत्‍याओं के आंकड़ें देखें तो एक बात साफ समझ में आती है। वह यह कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ॠण, ॠण माफी योजनाएं किसानों के लिए बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्‍चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी कर्जे के बोझ तले दबता चला जा रहा है। देखने की बात यह है कि कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही। पर क्‍या हुआ?

Sunday, 9 March 2014

आप के लिए खतरे की घंटी है कार्यकर्ताओं की बगावत

 अन्ना आंदोलन के बाद अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और जिस तरह से भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात कहकर विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल की, उससे लोगों में उम्मीद की एक किरण जगी थी। पर कुछ दिनों से जिस तरह से आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर तानाशाही और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लग रहा है वह कहीं न कहीं आप की कार्यशैली को संदेह के घेरे में खड़ी कर रही है। टिकट बंटवारे को लेकर संस्थापक सदस्यों की सीधी बगावत आप के लिए खतरे की घंटी है।
कार्यकर्ताओं का आरोप है कि चार-पांच लोगों ने पार्टी को कब्ज़ा रखा है। न कोई कार्यकर्ताओं की बैठक हो रही है और न ही कार्यकर्ताओं से कोई राय मशवरा लिया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि कार्यकर्ताओं में बगावत दिल्ली में ही हो रही हो, जगह -जगह ये बगावत देखने को मिल रही है। वैसे भी पार्टी में कोई व्यवस्था नाम की कोई चीज है ही नहीं और न ही कोई संगठन है तो स्वभाविक है कि अराजकता का माहौल पैदा होगा ही। अरविन्द केजरीवाल को यह समझना चाहिए कि आप को लोगों ने समर्थन इसलिए दिया क्योंकि आप ने भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ मोर्चो खोला था। 
     सब दलों को गलत साबित करने की अरविन्द केजरीवाल भाषा शैली लोगों को प्रभावित कर रही थी। पर कुछ दिनों से आप के नेताओं के अचानक आये बदलाव ऐसा लगने लगा है कि आप भी इसी व्यवस्था में ढलती जा रही है। मेरा केजरीवाल जी से सवाल है कि जयपुर से दिल्ली चार्टेड विमान से आने की जरूरत थी। क्या सेमिनार में आपका आना आप की नीतियों से ज्यादा जरूरी था। क्या आप आम आदमी की लड़ाई का हवाला देते हुए बस या ट्रेन से आने की बात नहीं कह सकते थे। या फिर ऐसी कौन सी सेमिनार थी जो अचानक आपको सूचना दी गई। जिस मीडिया को आप गलयाते नहीं थकते हो आखिर उसी मीडिया का एक समूह अचानक आप पर इतना कैसे मेहरबान हो गया। या फिर आप को भी ऐशोआराम भाने लगा है ? या फिर आप भी अन्य दलों की तरह लोगों को बेवकूफ बना रहे हो ?
      केजरीवाल जी जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करने वालों क्या हाल होता है, यह आपको बताने की जरूरत नहीं है। आप लोगों की समझ में बहुत समझदार हो। आपको इतिहास की अच्छी जानकारी है। कार्यकर्ताओं और जनता की उपेक्षा करने वाले दल कब खत्म हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह से आप का उत्थान हुआ है उसी तरह से आप का पतन भी हो जाए।

Monday, 3 March 2014

बुझनी नहीं चाहिए भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जली मशाल

     भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए अन्ना आंदोलन के बाद जब अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई नाम दिया तो बड़ी संख्या में लोग आप से जुड़े। इन्ही लोगों के बलबूते अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति की तो अन्ना आंदोलन का इतना असर था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 70 में से 28 सीटें मिली।
    अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह से दिल्ली में आम आदमी की सरकार बनाई, भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला, वंशवाद, जातिवाद, पूंजीवाद का विरोध करते हुए आम आदमी और अन्य राजनीतिक दलों के अच्छी छवि के लोगों से उनकी पार्टी से जुड़कर देश समाज के लिए काम करने का आहवान किया, उससे आम आदमी में व्यवस्था सुधार की कुछ आस जगी थी। पर लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में पारदर्शिता न होना और उपेक्षा का आरोप लगाकर जिस तरह से पार्टी कार्यकर्ताओं की बगावत देखने को  मिल रही है, यह कहीं न कहीं आप की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा
करती है। कहा जा रहा है कि बहुत दिनों से आप के कार्यकर्ताओं की जनरल बैठक भी नहीं हुई है। आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, योगेन्द्र यादव आम कार्यकर्ताओं से बात करने को तैयार नहीं।
     आप ने जिस तरह से 31 जनवरी के बाद लोकसभा प्रत्याशी के लिए आवेदन स्वीकार न करने की बात कहकर बाद में काफी संख्या में नामी गिरामी लोगों को पार्टी से जोड़कर टिकट दिए हैं, उससे तो आप के आम आदमी की लड़ाई लड़ने के दावे की हवा ही निकल गई। इससे तो ऐसा ही लगता है कि आप ने आवेदन के नाम पर जनता और कार्यकर्ताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया है। अरविन्द केजरीवाल कह रहे थे कि वह सत्ता के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति में आये हैं पर कुछ दिनों से वह वोटबैंक की राजनीति करने लगे हैं , उससे तो ऐसा ही लग रहा है कि वह भी अन्य दलों की तरह इस व्यवस्था में ढलते जा रहे  हैं।
      अरविन्द केजरीवाल का अल्पसंख्यक सम्मेलन में साम्प्रदायिकता को भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा बताकर मुस्लिम वोटों को रिझाने की कोशिस बताया जा रहा है।  इसी तरह कानपुर रैली में आप को 100 सीटें मिलने का दावा कर अरविन्द केजरीवाल का यह कहना कि आप के बिना केंद्र में सरकार नहीं बन सकती, उनकी सत्तालोलुपता को उजागर करता है। तो यह माना जाये कि अरविन्द केजरीवाल जिन दलों को अब तक चोर कहते रहे हैं, उनके साथ मिलकर ही सरकार बनाएंगे या उनकी सरकार में शामिल होंगे। मेरा अरविन्द केजरीवाल से सवाल है कि भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक लोगों के साथ मिलकर आप कैसे व्यवस्था बदलेंगे ? ऐसे में सवाल उठता है कि उन लोगों के दिलों पर क्या गुजर रही होगी जो अरविन्द केजरीवाल के रूप में व्यवस्था परिवर्तन का नायक देख रहे थे। उस आम आदमी की मनोस्थिति क्या होगी जो राजनीति में आने का सपना देखने लगा था। साथियों हम लोगों को किसी भी हालत में जनता का भरोसा नहीं टूटने देना है। व्यवस्था परिवर्तन की जो आस आम आदमी में जगी थी, उसे धुमिल नहीं होने देना है। मेरा अपना मानना है कि हम लोग मिलकर एक सामाजिक संगठन बनाएं और मिलकर भ्रष्ट व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरें। मेरा सभी साथियों से अनुरोध है कि इस लेख पर कुछ न कुछ प्रतिक्रिया जरूर दें।

Saturday, 15 February 2014

भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ अब खड़ा होना ही होगा

    एक अप्रैल से देश में होने जा रही गैस मूल्य वृद्धि को लेकर प्रमुख व्यवसायी मुकेश अम्बानी पर निशाना साधने के बाद दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल बिल पर भाजपा और कांग्रेस के मिलने को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफा देने बाद देश की राजनीति आंदोलन की ओर चल दी है। व्यवस्था बदलने निकली आप ने अब देश में चल रहे कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों के गठबंधन को जनता के बीच ले जाने का मन बना लिया है। अरविन्द केजरीवाल का यह निर्णय लोगों के दिलों को छुने वाला है। किसी भी तरह से पैसा कमाकर चुनाव लड़ना और जनप्रतिनिधि बन जाना यह राजनीति का चेहरा बन गया है। कॉरपोरेट घरानों से पैसा लेकर चुनाव लड़ना और सरकार बनाकर पूंजीपतियों के लिए काम करना यह राजनेताओं का आचरण हो गया है। अब समय आ गया है कि हम लोगों को इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना ही होगा।
     देश का किसान-मजदूर और आम आदमी जहां दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है वहीं एक तबका जनता के खून पसीने की कमाई एशोआराम और अय्यासी पर लगा रहा है। देश को चलाने का  ठेका लिए बैठे राजनेता आर्थिक स्थिति के गड़बड़ाने का रोना रो रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम चुनाव में लगे प्रमुख राजनीतिक दल पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। टीवी चैनलों और अख़बारों में अरबों रुपए प्रचार पर खर्च हो रहे हैं। यह पैसा कहां से आ रहा है, सोचने की जरूरत है। देखा जा रहा है कि बड़े स्तर पर लोग नरेंदर मोदी के प्रधानमंत्री बनने की पैरवी कर रहे हैं, मैं उन लोगों से चाहता पूछना हूं कि मोदी की रैलियों पर खर्च किया जा रहा अरबों रूपए कहां से आ रहा है ? यदि यह पैसा कारपोरेट घराने दे रहे हैं तो क्या सरकार बनने के बाद मोदी जनता के लिए काम कर पाएंगे ? क्या मोदी कारपोरेट घरानों के दबाव से बाहर निकल पाएंगे ? क्या निजी कंपनियों में हो रहा कर्मचारियों का आर्थिक और मानसिक शोषण किसी से छुपा हुआ है ? जगजाहिर है कि यह शोषण राजनीतिक दलों के साथ मिलकर ही हो रहा है। क्या यह सब चलता रहेगा ? क्या इसके खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए ? क्या इस भ्रष्ट व्यवस्था में आदमी सुरक्षित रह गया है ? देश की कानून व्यवस्था का यह हाल है कि बहु-बेटियां घर से निकलती हैं तो जब तक घर वापस नहीं आ जाती तब तक घर के बड़ों को चिंता लगी रहती है। क्या यह भ्रष्ट व्यवस्था बदलनी नहीं चाहिए ? क्या इस व्यवस्था में हमारे बच्चों का भविष्य और वे सुरक्षित हैं ?
   देश के मजबूत स्तम्भ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। कहना गलत न होगा कि बाढ़ ही फसल को खा रही है। ऐसे में यदि हम लोग इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ खडें नहीं हुए तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।

Thursday, 6 February 2014

हो तो आर्थिक आधार पर हो आरक्षण

    कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने किसी तरह से साहस जुटाकर आरक्षण व्यवस्था जाति के आधार पर न होकर आर्धिक आधार पर होने की बात कही तो वोटबैंक की खातिर कांग्रेसियों ने उनकी आवाज को भी दबा दिया। पूरे दिन घमाशान चलने के बाद अंत में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जातिगत आधार पर ही आरक्षण होने की बात को जायज ठहराया। उनका कहना है कि दलितों और पिछड़ों के साथ लम्बे समय तक हुए भेदभाव की भरपाई के लिए जाति के आधार पर आरक्षण जरूरी है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या आरक्षण से उन लोगों को फायदा हुआ है, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत थी ? क्या इस व्यवस्था फायदा दलितों और पिछड़े वर्ग के सम्पन्न लोगों ने नहीं उठाया है ? क्या इस व्यवस्था से समाज में विषमता नहीं फैली है ? क्या अब इसका इस्तेमाल वोटबैंक की राजनीति के लिए नहीं हो रहा है ?
    मेरा मानना है कि वैसे तो आरक्षण होना ही नहीं चाहिए यदि हो तो आर्थिक आधार पर हो। क्या सवर्णों में गरीब नहीं हैं क्या ?  हर वर्ग में गरीब हैं पर व्यवस्था प्रभावशाली लोगों ने संभाल रखी है और हर व्यवस्था का फायदा भी ये ही लोग उठाते हैं। आरक्षण का फायदा भी। इसमें दो राय कि आर्थिक आधार पर आरक्षण होने से जायज लोगों को इस व्यवस्था का फायदा मिलेगा।
    आखिर वोटबैंक के लिए आरक्षण का खेल कब तक चलेगा ? कोई दल नोकरी के बाद अब प्रमोशन में भी दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कई पिछड़ों को दलितों के श्रेणी में लाने की पैरवी कर रहा है। कांग्रेस अब जाटों को भी केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दल इन जातियों का भला चाहते हैं। दरअसल ये सब वोटबैंक के लिए हो रहा है। ये दल इन जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आरक्षण नाम की बैसाखी इन लोगों के हाथों में थमा दे रहे हैं।
दरअसल आजादी के बाद समाज में ऐसा महसूस  किया गया कि दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। उस समय दलित दबे-कुचले माने जाते थे तो इन लोगों के लिए 10 साल के लिए दलितों के लिए आरक्षण कर दिया गया। आज के हालात में भले ही कुछ दल डा भीम राव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति कर रहे हों पर डा अम्बेडकर का भी मानना था कि  ज्यादा समय तक आरक्षण देने से दलितों के लिए यह बैसाखी का रूप धारण कर लेगा। पर इसके लागू होने के 10 साल बाद जब इसकी समय सीमा पर विचार करने का साय आया तो तब तक कांग्रेस के लिए आरक्षण ने वोटबैंक का रूप धारण कर लिया था।
     तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम व ब्राह्मणों के साथ आरक्षण के नाम पर दलितों को अपना वोटबैंक बना लिया। तब प्रख्यात समाजवादी डा राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण व दलित गठबंधन की तोड़ के लिए पिछड़ों का गठबंधन तैयार किया था।  हालांकि कुछ समाजवादी दल पिछड़ों के इस गठबंधन को आरक्षण का रूप देकर राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं। आरक्षण की समय सीमा पर निर्णय लेने का समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व समय में आया तो उन्होंने भी अपने पिता के पद चिह्नों पर  चलते हुए उसकी समय सीमा बढ़ा दी। उसके बाद 80  के दशक में वीपी सिंह ने पिछड़ों को अपना वोटबैंक बनाने ले लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी।
     आरक्षण की पैरवी करने वाले दलों से मेरा सवाल है कि क्या आरक्षण से देश का विकास प्रभावित नहीं हो रहा है ? क्या इस व्यवस्था से प्रतिभा का दमन नहीं हो रहा है ? क्या गरीब सवर्णों में नहीं हैं ? क्या दलितों व पिछड़ों में सभी को ही आरक्षण की जरूरत है ? मेरा तो मानना है कि आरक्षण का फायदा संपन्न लोग ही उठा रहे हैं  जिन लोगों को इसकी जरूरत है उन लोगों को आज भी इसका उतना फायदा नहीं मिल पा रहा है।

Thursday, 23 January 2014

तो हम कैसे मनाए गणतंत्र दिवस ?

    26 जनवरी को हम गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। दिल्ली में हम अपनी ताकत का प्रदर्शन करेंगे। विभिन्न प्रदेशों की झलकियां निकाली जाएंगी। हमारे जवान तरह-तरह के करतब दिखाएंगे। राजपथ पर परेड भी निकाली जाएगी। पूरा राजपथ वीआईपी लोगों से भरा होगा। औपचारिकता के लिए बहादुर बच्चों को भी पुरस्कृत किया जाएगा, पर क्या देश के हालात ऐसे हैं कि हम राष्ट्रीय पर्व गर्व के साथ मना सकें ? क्या देश के किसान-मजदूर, आम आदमी की स्थिति ऐसी है कि राष्ट्रीय पर्व पर हम खुश हो सकें ? जिन उद्देश्यों को लेकर क्रांतिकारियों ने देश को आजाद कराया था क्या वे उद्देश्य हमने पूरे कर लिए हैं ? या फिर हम उन उद्देश्यों के प्रति वास्तव में ही गम्भीर हैं ?
     क्या हमें इस बात का एहसास है कि जिन लोगों कि वजह से हम यह गणतंत्र दिवस मना रहे हैं,  उन लोगों को देश को आजाद कराने के लिए कितना बलिदान देना पड़ा, उनके परिवार ने देश के लिए कितना त्याग किया ? देश की आजादी में कितने लोगों को कुर्बानी देनी पड़ी, कितनी मांओं की कोख सुनी हो गई। कितने युवा फांसी के फंदे से लटका दिए गए। कितनी बहने विधवा हो गईं। क्या देश को चलाने का जिम्मा लिए बैठे राजनेताओं को तनिक भी देश की आजादी की कीमत का एहसास है ? क्या जिन उद्देश्यों के लिए देश का संविधान लिखा गया था, हम उन उद्देश्यों की ओर बढ़ रहे हैं ? क्या हम संविधान पर खरा उतर रहे हैं ? क्या वोटबैंक की राजनीति ने देश का बंटाधार नहीं कर दिया है ? क्या देश के नेताओं ने लोकतंत्र को राजतंत्र बनाकर नहीं रख दिया है ? क्या देश के नौनिहालों को हम गणतंत्र की परिभाषा समझने में सफल हो पाए हैं ? यदि नहीं तो काहें का गणतंत्र दिवस, काहें का स्वतंत्रता दिवस।
      सच्चाई तो यह है कि देश की भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था को बदलने के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ने की जरूरत है। देश फिर से बलिदान, त्याग, समर्पण और कुर्बानी मांग रहा है। आज फिर देश को सरदार भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, खुदीराम बोस, राम मनोहर लोहिया, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लोक नायक जयप्रकाश की जरूरत है। अब इस सोच से काम नहीं चलेगा कि भगत सिंह पैदा तो हो पर पड़ोसी के घर में, अब अपने घर में ही एक भगत सिंह तैयार करना होगा। बंदूक वाला भगत सिंह नहीं बल्कि कलम वाला भगत सिंह, विचारों वाला भगत सिंह, वैचारिक क्रांति लाने  वाला भगत सिंह।
       बहुत कम लोगों को पता है कि भगत सिंह एक पत्रकार भी थे। प्रताप अखबार में उन्होंने काफी दिनों तक ख़बरों का संपादन किया था। वे समय-समय पर सामाजिक हालात पर लेख भी लिखते रहते थे। उन्होंने कार्ल मार्क्स और लेनिन पर बहुत अध्धयन किया था। इन जैसे क्रांतिकारी देश के युवाओं में ही हैं। बस उनके अंदर देशभक्ति पैदा करने की जरूरत है। जुनून पैदा करने की जरूरत है। आत्मविस्वास जगाने की जरूरत है। तब हमने अंग्रेजों को देश से भगाया था, अब देश के गद्दारों का भगाना है। भ्रर्ष्टाचारियों को भगाना है। देश को लूट रहे लोगों को भगाना है। देश को बांटकर राजनीति करने वाले नेताओं को भगाना है।  धर्म-जात-पात और परिवारवाद-वंशवाद के नाम पर हो रही राजनीति को खत्म करना है।  आम आदमी की व्यवस्था लागू करनी है।

Friday, 17 January 2014

आप को आत्ममंथन की जरूरत

    आप में आजकल जिस तरह से बगावत के सुर उभरे हैं, उससे यह साबित होता है कि आप में कुछ स्वार्थी नेता शामिल कर लिए गए थे। इसमें दो राय नहीं कि आप के जबर्दस्त उदय से कांग्रेस व भाजपा के अलावा लगभग सभी दलों में बेचैनी है पर आप नेताओं को भी कार्यकर्ताओं के प्रति होने वाले व्यवहार के बारे में आत्ममंथन की जरूरत है। कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि काफी संख्या में लोग रिटायर्डमेंट लेकर आप में शामिल हो रहे हैं। आप को यह भी देखना होगा कि पार्टी से युवा किस स्तर पर जुड़ रहे हैं। संगठन का क्या हाल है, प्रदेश और जिला स्तर पर कार्यकर्ता किस स्तर पर अच्छे छवि के लोग पार्टी से जोड़ रहे हैं या कहीं गलत छवि के लोग तो संगठन में घुस नहीं जा रहे हैं। आप नेताओं ने कितने अच्छे लोगों से संपर्क साधा है या विभिन्न दलों के अच्छी छवि के कितने नेताओं को पार्टी में शामिल होने का अनुरोध किया है।
     मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए अन्ना आंदोलन के बाद व्यवस्था परिवर्तन के लिए आम आदमी पार्टी नामक संगठन बनाकर अरविन्द केजीवाल ने अपनी टीम के साथ जो आंदोलन छेड़ा है उससे देश में आप के पक्ष में अच्छा माहौल बन रहा है। पर आप को यह भी देखना होगा कि आप की लड़ाई उन नेताओं से है जो सत्ता के लिए कुछ भी करने को आतुर हैं। उन नेताओं से है जिनकी उम्र राजनीति करने में निकल गई।
      मैंने अब तक जो महसूस किया है उससे इस निस्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अब तक जो लोग आप से जुड़े हैं, उनमें से अधिकतर खुद आप नेताओं से मिले हैं। यह किसी भी संगठन के लिए अच्छी बात है पर आप को अब राजनीति के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन करना है तो स्वाभाविक है कि संगठन भी मजबूत करना होगा। आज के हालात में आप के पांच-छह नेताओं के कंधों पर पार्टी का बोझ दिखाई दे रहा है, इस भार को अन्य कार्यकर्ताओं में बांटने की जरूरत है। प्रदेश और जिला पर भी संगठन पर ध्यान देने की जरूरत है।
     आप में अरविन्द केजरीवाल, योगेंद्र यादव, संजय सिंह,  कुमार विस्वास, मनीष सिसोदिया, गोपाल राय और हाल में नोकरी छोड़कर पार्टी  में आये आशुतोष के आलावा संगठन में अन्य चेहरे निकल कर नहीं आ पा रहे हैं। दिग्गजों से टक्कर लेने के लिए आप को अन्य दलों के ऐसे नेताओं को भी पार्टी में लाना चाहिए जो संघर्ष करने के बावजूद बैकफुट पर हैं, पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं। आप को यह भी समझना होगा जो नेता स्वाभिमानी और ईमानदार हैं ये खुद चलकर आप नेताओं के पास नहीं जाएंगे, आप नेताओं को ही ऐसे नेताओं को चिन्हित कर उनसे देश समाज के लिए आप से जुड़ने के लिए अनुरोध करना होगा।