Sunday 20 July 2014

तो बंटवारे के बाद भी राज्य नहीं बनेगा पउप्र

पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड के रूप में चल रही उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद
अवध प्रदेश का हिस्सा होगा पश्चमी उत्तर प्रदेश
 
     भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने के लिए आजादी से ही आंदोलन होते आ रहे हों पर अब जो कानून व्यवस्था और विकास  का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश के बंटवारे की कवायद चल रही है, उसके अनुसार पश्चमी  उत्तर प्रदेश अलग प्रदेश नहीं बल्कि अवध प्रदेश का हिस्सा होगा।
    विस्वस्नीय सूत्रों की माने तो राजग सरकार प्रदेश को तीन भागों पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध प्रदेश के रूप में बांटने का प्रस्ताव तैयार कर रही है। गृह मंत्रालय ने राज्य पुनर्गठन आयोग को प्रदेश के बंटवारे का मसौदा तैयार करने को कह दिया है। किसी भी सत्र में यह प्रस्ताव लाया जा सकता है। वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी सपा को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियां प्रदेश के बंटवारे की पक्षधर रही हैं। वैसे भी 2012 में तत्कालीन मायावती सरकार ने प्रदेश को पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल में बांटने का प्रस्ताव
यूपीए सरकार को भेज दिया था।
    उत्तर प्रदेश बंटवारे में हमें यह भी देखना होगा कि अब भले ही पश्चमी उत्तर प्रदेश को अवध प्रदेश से जोड़ने की कवायद चल रही हो पर अधिकतर आंदोलन पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड गठन को लेकर नहीं बल्कि पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने  को लेकर हुए हैं। जहां पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह पश्चमी उत्तर प्रदेश को अलग प्रदेश बनाने की पैरवी करते थे वहीं उनके बेटे चौधरी अजित सिंह रालोद  के माध्यम से हरित प्रदेश के गठन की मांग करते रहे हैं। किसान संगठन भी समय-समय पर अलग प्रदेश के लिए प्रयासरत दिखाई देते रहे हैं। गाज़ियावाद में हाईकोर्ट की अलग बैंच स्थापित करने की मांग करना भी कहीं-कहीं अलग प्रदेश के गठन की कवायद ही रही है।
      देखने की बात यह है कि भले
ही केंद्र सरकारें वोटबैंक को देखते हुए राज्यों का पुनर्गठन करती हों पर राज्य के पुनर्गठन आयोग की स्थापना अंग्रेजी राज्यों के पुनर्गठन लिए भाषाई आधार पर की गई थी। स्वतंत्रता आंदोलन में यह बात शिददत के साथ उठी थी कि जनतंत्र में प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य बना रहे। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के पक्षधर नहीं थे। उस समय हालात ऐसे बन गए थे कि उन्हें झुकना पड़ा। दरअसल आंध्र प्रदेश को अलग किये जाने की मांग को लेकर 58  दिन के आमरण अनशन के बाद सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालु की मद्रास में हुई मौत और संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों  के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलगु भाषी राज्य बनाने के लिए मजबूर कर दिया।
    22 दिसंबर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्ष्ता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग के सदस्य जस्टिस फजल अली, हृदयनाथ कुंजरु और केएम पाणिक्कर थे। इस आयोग ने 30 सितम्बर 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का गठन हो गया। तब 14 राज्य व छह केंद्र शासित राज्य बने।
राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर 1960 में चला। बंबई राज्य  को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाये गए। 1966 में पंजाब  बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के नाम से दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे  उठी और कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े राज्यों के विभाजन की जरूरत  महसूस किया और धीरे-धीरे इसे मान भी लिया। 1972  में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य  अरुणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। गत दिनों यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए तेलंगाना राज्य का गठन किया तो उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए पश्चमी उत्तर प्रदेश, अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के गठन की मांग उठने लगी थी।

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