भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का
देखिये कि वह हैं तो अध्यक्ष प्रेस परिषद के पर अधिकतर मामले उठाते हैं
दूसरे क्षेत्रों के। कभी न्यायपालिका की व्यवस्था पर बोलते हैं तो कभी
विधायिका की, कभी राजनीति पर और कभी आन्दोलनों पर। काटजू जी ने कभी यह
जानने की कोशिश नहीं की कि प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के क्या हाल हैं।
जो दूसरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हकों पर कैसे कुठाराघात हो रहा
है। प्रेस में काम करने वाले लोगों का किस स्तर तक शोषण हो रहा है। किस तरह
से प्रेस में न केवल कर्मचारियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है बल्कि
उनकी प्रतिभा का भी दमन हो रहा है।
भले ही प्रेस में काम करने वाले लोग खतरों से खेलते हुए रात में
जागकर अपने काम को अंजाम देते हों पर यदि आज की तारीख में यदि कहीं पर
कर्मचारियों की सबसे अधिक दुर्दशा है तो वह प्रेस ही है। क्या काटजू जी ने
यह जानने की कोशिश है जिस परिषद के वह अध्यक्ष हैं वहां पर व्यवस्था का हाल
है। क्या वास्तव में प्रेस अपने असली रूप में है या फिर कोई दूसरा रूप हो
गया है।
No comments:
Post a Comment