Thursday, 24 July 2014

आखिर प्रेस के लिए क्या किया काटजू जी ने

    भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का देखिये कि वह हैं तो अध्यक्ष प्रेस परिषद के पर अधिकतर मामले उठाते हैं दूसरे क्षेत्रों के। कभी न्यायपालिका की व्यवस्था पर बोलते हैं तो कभी विधायिका की, कभी राजनीति पर और कभी आन्दोलनों पर। काटजू जी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के क्या हाल हैं। जो दूसरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हकों पर कैसे कुठाराघात हो रहा है। प्रेस में काम करने वाले लोगों का किस स्तर तक शोषण हो रहा है। किस तरह से प्रेस में न केवल कर्मचारियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है बल्कि  उनकी प्रतिभा का भी दमन हो रहा है।
भले ही प्रेस में काम करने वाले लोग खतरों से खेलते हुए रात में जागकर अपने काम को अंजाम देते हों पर यदि आज की तारीख में यदि कहीं पर कर्मचारियों की सबसे अधिक दुर्दशा है तो वह प्रेस ही है। क्या काटजू जी ने यह जानने की कोशिश है जिस परिषद के वह अध्यक्ष हैं वहां पर व्यवस्था का हाल है। क्या वास्तव में प्रेस अपने असली रूप में है या फिर कोई दूसरा रूप हो गया है।
   प्रेस का यह हाल है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अखबारों में मजीठिया वेजबोर्ड लागु नहीं किया जा रहा है। गिने-चुने अख़बारों को छोड़ दें तो बड़े स्तर पर अख़बारों ने कोर्ट का आदेश नहीं माना है। इस मामले पर काटजू जी ने अभी तक कुछ नहीं बोला है, जबकि कई वेबसाइट इस मामले को जोर-शोर से उठा रही हैं, जबकि होना यह चाहिए कि काटजू जी को प्रेस और प्रेस में काम करने वाले लोगों के  हितों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

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