Friday, 30 December 2016

इस जिद पर इतिहास कभी माफ नहीं करेगा नेताजी!

   
   सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को जब अपने पुत्र अखिलेश यादव की साफ-सुथरी छवि और उत्तर प्रदेश में हुए ऐतिहासिक विकास कार्यांे पर गर्व होना चाहिए था। प्रदेश को अच्छा शासन देनेपर जब उन्हें अखिलेश यादव की पीठ थपथपानी चाहिए थी। जब उन्हें सीना चौड़ा कर देश की राजनीति में संदेश देन चाहिए था कि सीखो उनके बेटे से राजनीति, जिसने उनसे भी आगे बढ़कर जनहित के कार्य किए।  ऐसे समय में वह खुद देश के उभरते हुए समाजवादी सितारे को धूमिल करने में लग गए। जब देश में समाजवाद के प्रणेता डॉ. राम मनोहर लोहिया व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के तैयार किए गए समाजवादी अपने रास्ते से भटकने लगे तो आगे बढ़कर ऐसे नौजवान ने समाजवाद का झंडा संभाला जिसने अपने पिता को बस संघर्ष करते ही देखा। अखिलेश यादव गत दिनों जनहित और समाजवादी विचारधारा के पक्ष में जो निर्णय लिए उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया की याद दिला दी। उन्होंने दबाव में गलत काम के लिए बोलने पर नेताजी को जो आइना दिखाने का प्रयास किया उसने प्रदेश ही नहीं बल्कि देश का दिल जीत लिया। दीपक सिंघल को मुख्य सचिव और गायत्री प्रजापति पहले हटाने और फिर मंत्री बनाने पर अखिलेश यादव की जो किरकिरी हुई उसके लिए खुद मुलायम सिंह यादव जिम्मेदार थे। नेताजी आपके राज में नीरा यादव और अखंड प्रताप सिंह ने मुख्य सचिव रहते सरकार की जो छवि धूमिल की थी क्या वह सही थी ?
    अखिलेश यादव की पांच साल की सरकार में उन पर व्यक्तिगत रूप से कोई आरोप न लग सका। निश्चित रूप से उनका पहला ही कार्यालय प्रदेश के अन्य मुख्यमंत्री रहे नेताओं पर भारी पड़ रहा है। समाजवादी विचारधारा के लिए दागी लोगों को पार्टी में न घुसने देने के उनके निर्णय ने उनके समकालीन नेताओं से कहीं आगे कर दिया। जहां उन्होंने बाहुबलि डी.पी. यादव को पार्टी में न घुसने दिया, वहीं मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद का भी विरोध किया। इन लोगों ने अखिलेश यादव का विरोध ताक पर रखकर मुलायम सिंह में विश्वास जताया था। ऐसे में नेताजी ने अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को गले लगाकर अखिलेश यादव को नीचा नहीं दिखाया बल्कि अपना खुद का कद घटाया है।
निश्चित रूप से संघर्ष के समय में अमर सिंह और शिवपाल सिंह यादव ने पार्टी और नेताजी आपका साथ दिया। उसके हिसाब से उन्हें सम्मान भी मिल रहा है। अमर सिंह राष्ट्रीय महासचिव राज्यसभा सदस्य और संसदीय बोर्ड में हैं तो शिवपाल सिंह यादव प्रदेश के अध्यक्ष।  इसमें दो राय नहीं कि समाजवादी पार्टी को यहां तक नेताजी अपने दम पर खींच लेकर आए हैं पर क्या 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के चेहरे पर वोट नहीं मिला ? क्या अखिलेश यादव ने परिवार और बड़े नेताओं के दबाव से निकलकर प्रदेश में विकास के ऐतिहासिक कार्य नहीं किए ? क्या यदि दोबारा सपा की सरकार बनती है तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री नहीं बनने चाहिए ? क्या अखिलेश यादव से योग्य चेहरा समाजवादी पार्टी में है ? यदि है तो कौन है ? यदि नहीं तो अखिलेश यादव के पसंद के प्रत्याशी क्यों नहीं बनने चाहिए ?
     जब चुनाव में 25 फीसद युवा निर्णायक भूमिका निभा रहा हो। यह युवा वह है जिस पर किसी जाति धर्म का असर नहीं पड़ता है और  आज की तारीख में युवा वर्ग अखिलेश यादव में उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश का भविष्य देख रहा है तो नेताजी आप इस युवा वर्ग को क्यों नाराज करने में लगे हैं? अखिलेश यादव की इच्छा के विरुद्ध बाहुबलि अतीक अहमद और खनन माफिया गायत्री प्रजापति को टिकट देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं ?
    नेताजी तो यह माना जाए कि जितने भी बुजुर्ग नेता हैं बस दिखावे के ही लिए युवाओं का आगे बढ़ाने की बात करते हैं। जितने भी टिकट आपने काटे हैं ये सब युवा नेता हैं। उत्तर प्रदेश के योग्य मुख्यमंत्री को नीचा दिखाकर आप लोगों में क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या अब भी आप अखिलेश यादव से लंबी राजनीतिक पारी खेलने की स्थिति में है ? क्या आप देश के उभरते हुए समाजवादी चेहरे को ढकने का प्रयास नहीं कर रहे हंै ? आपने हमेशा ही जनहित और देशहित की बात कही है। समाजवादियों के संघर्ष का अध्ययन कर काम करने की बात कही है। जब आपका खुद का बेटा प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में समाजवाद का झंडा बुलंद करने चला है तो आप ही उसके इस बुलंद इरादे में रोड़ा बनने लगे। नेताजी अब अखिलेश यादव को कोई रोकना वाला नहीं है। आप क्यों नायक से खलनायक बन रहे हंै। आज की तारीख में अखिलेश यादव का चेहरा ऐसा बन चुका है कि वह पूरी समाजवादी पार्टी पर भारी पड़ रहे हैं।
    सोचिए वह भी आपके ही बेटे हैं कहीं यदि उन्होंने अलग पार्टी बनाकर अपने प्रत्याशी चुनावी समर में उतार दिए तो आपके साथ खड़े नेताओं की राजनीति का क्या होगा ? नेताजी समझ लीजिए यदि आप लोग अपने पथ से न भटके होते तो आज देश में जहां संघी खड़े हैं वहां समाजवादी होते। संघियों को परास्त करने का जज्बा अखिलेश यादव में है उन्हें देश में समाजवादियों का परचम लहराने दीजिए। सपा में बने इस माहौल में अखिलेश यादव को भी संदेशनात्मक और कड़े निर्णय लेने होंगे।

Friday, 23 December 2016

किसानों के सबसे बड़े पैरोकार थे चरण सिंह

                      (23 दिसंबर जयंती पर विशेष )                      


समाजवादी सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की जयंती पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया आैर जयप्रकाश नारायण को जाता हो पर वर्तमान में उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए, उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि हरियाणा और बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक पाठ पढ़ाया।
    चौधरी चरण सिंह ने अजगर शक्ति अहीर, जाट, गुज्जर आैर राजपूत का शंखनाद किया। उनका कहना था कि अजगर समूह किसान तबका है। उन्होंने अजगर जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का भी आह्वान किया तथा अपनी एक बेटी को छोड़ सारी बेटियों की शादी अंतरजातीय की। यह चरण सिंह की विचारधारा का ही असर है कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का आश्वासन देती रही है तो उनके पुत्र आैर राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम पर राजनीति आगे बढ़ा रहे हैं। जदयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किसानों में चरण सिंह की आस्था का फायदा उठाने के लिए उत्तर प्रदेश में उनके पुत्र अजित सिंह से हाथ मिलाया है।
     आज भले ही उनके शिष्यों पर परिवाद और पूंजीवाद के आरोप लग रहे हों पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हां अजित सिंह को विदेश से बुलाकर पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन पर पुत्रमोह का आरोप जरूर लगा। तबके कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के पास भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। यह उनकी ईमानदारी का प्रमाण है कि जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन आैर मकान नहीं था।
    चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। चरण सिंह का व्यक्तित्व आैर कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह मूर्ति पूजा, पाखंड और आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई आैर न ही मूर्ति पूजा की। चौधरी चरण सिंह की नस-नस में सादगी आैर सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया।शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चरण सिंह ने कहा था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे, चाहे कोई भी लीडर आ जाये, चाहे
कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ, वह देश तरक्की नहीं कर सकता।
वैसे तो चौधरी चरण सिंह छात्र जीवन से ही विभिन्न  सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे थे पर उनकी राजनीतिक पहचान 1951 में उस समय बनी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग संभाला।
    चरण सिंह स्वभाव से ही किसान थे। यह उनका किसानों के प्रति लगाव ही था कि उनके हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। उस समय तक वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे। उन्होंने किसान नेता की हैशियत से उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। किसानों में सम्मान होने के कारण चरण सिंह को किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हे भाषण देने में महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुट जाती थी। यह उनकी भाषा शैली ही थी कि लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। 1969 में कांग्रेस का विघटन हुआ तो चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडिकेट के प्रति रही। वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बने पर बहुत समय तक इस पद पर न रह सके।
    कांग्रेस विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा था। केंद्रीय स्तर पर हुआ विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे। इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बने रहे। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले मे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था। इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश होने का कारण एक वजह था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार न था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी ने दो अक्टूबर 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और बढ़ गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना संभव न था। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी नेता माने जाते हैं। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
   ईमरजेंसी लगने के बाद 1977 में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी जीती तो आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण के सहयोग मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया। सरकार बनने के बाद से ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। कांग्रेस और सीपीआई ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। प्रधानमंत्री बनने में इंदिरा गांंधी का समर्थन लेना राजनीतिक पंडित चरण सिंह की पहली और आखिरी गलती मानते हैं।
    दरअसल इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने ही चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी थी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली और प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने 20 अगस्त 1979 तक लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने को  कहा इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले । इसे चरण सिंह का दुर्भाग्य कहें या फिर समय की नजाकत कि इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असंभव ही है। यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगा दी थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमें कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए, चौधरी साहब इसके लिए तैयार न थे। इसलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गई। वह जानते थे कि जो उन्होंने ईमानदार और सिद्धांतवादी नेता की छवि बना रखी। वह सदैव के लिए खंडित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
   प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रदानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की तरह जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण उन्हें जनता की सहानुभूति मिलेगी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी कि वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजाÓ के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
   चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बत करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धांतवादी आरै अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पद पहुंचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी थे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लें तो फिर उसे पूरा करके ही दम लेते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद गांधी टोपी को कई दिग्गज नेताओं ने त्याग दिया था पर चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यंत धारण किए रखा।
    बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'आबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेंड प्रोपराटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एंड सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्वपूर्ण कारण बना।

Thursday, 22 December 2016

सहारा के खिलाफ उच्च स्तरीय जांच बैठाएं प्रधानमंत्री!

     दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और स्वराज इंडिया पार्टी के नेता तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण के बाद अब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहते सहारा समूह से रिश्वत लेने के आरोप लगाए हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष भले ही इसे राजनीतिक स्तर पर देख रहा हो पर मेरा मानना है कि हम लोग इस मामले को इस तरह से देखें कि एक संस्था की वजह से हमारे देश के प्रधानमंत्री का नाम बदनाम हो रहा है। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भले ही साम्प्रदायिक दंगों को लेकर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हों पर उनकी ईमानदारी पर अभी तक कोई विरोधी भी आरोप नहीं लगा पाया था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, हालात और उनकी राजनीतिक कार्यशैली भी उनकी ईमानदार छवि बखान कर रही है। हां आयकर विभाग के छापे पड़े दो साल से ज्यादा बीत गए हैं। ऐसे में सहारा समूह के खिलाफ कार्रवाई न होना कहीं न कहीं केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहा है। ऐसे में सहारा समूह और आयकर विभाग पर जरूर जांच बैठनी चाहिए। आयकर विभाग पर इसलिए क्योंकि दो साल पहले नोएडा कार्यालय में पड़े छापे में वहांं से 134 करोड़ रुपए बरामद हुए थे। इस मामले में सहारा ग्रुप पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? यदि प्रधानमंत्री को रिश्वत देने संबंधी दस्तावेज आयकर विभाग को सहारा समूह से बरामद हुए थे तो इस मामले पर जांच क्यों नहीं बैठाई गई।
     सहारा समूह पर कोई कार्रवाई न होने से कहीं-कहीं प्रधानमंत्री की कार्यशैली पर भी उंगली उठ रही है। इन आरोपों के बाद प्रधानमंत्री पर सहारा समूह के खिलाफ उच्चस्तरीय जांच कराने की और नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है। सहारा ग्रुप के खिलाफ जांच इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसके सुप्रीमो सुब्रत राय देशभक्ति के आड़ में लम्बे समय से देश की भोली-भाली जनता को ठग रहे हैं। भेड़ की खाल में घूम रहे इस भेड़िये ने जनता के खून-पसीने की कमाई पर जमकर अय्याशी की और बड़े स्तर पर नेताओं व नौकरशाह को कराई है। देश में कालेधन के खिलाफ माहौल बन रहा है और जगजाहिर है कि सहारा हमारे देश का स्विस बैंक रहा है।
निवेशकों के हड़पे पैसे के बदले सहारा समूह जो पैसा सुप्रीम कोर्ट में जो पैसा जमा करा रहा उसका स्रोस भी पूछा जाना चाहिए। इस संस्था पर जांच इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जब नोएडा से 134 करोड़ रुपए जब्त किए गए थे, उस समय सहाराकर्मियों को कई महीने से वेतन नहीं मिल रहा था तथा सहारा प्रबंधन संस्था के पास पैसा न होने का रोना रो रहा था।
     जांच इसलिए भी होनी चाहिए क्योंकि इस संस्था के चेयरमैन सुब्रत राय ने राजनीतिक दलों की पकड़ के चलते बनाए अपने रुतबे के बल पर देश में बड़े स्तर पर अनैतिक काम किए हैं। इस संस्थान में मालिकान और अधिकारी खूब अय्याशी करते हंै पर कर्मचारियों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया है। दिखावे को तो सुब्रत राय देशभक्ति का ढोल पीटते फिरते हैं पर जमीनी हकीकत यह है कि यहां पर कर्मचारियों का जमकर शोषण और उत्पीड़न किया जाता रहा है। लंबे समय से कर्मचारियों का प्रमोशन नहीं हुआ है।  12-16 महीने का वेतन बकाया है। जो कर्मचारी अपना हक मांगते हैं उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया जाता है या फिर कहीं दूर स्थानांतरण कर दिया जाता है। अपना बकाया वेतन व मजीठिया वेजबोर्ड मांग रहे 22 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद प्रिंट मीडिया में मजीठिया वेजबोर्ड के हिसाब से वेतन नहीं दिया जा रहा है। गत सालों में एग्जिट प्लॉन क तहत कितने कर्मचारियों की नौकरी तो ले ली पर हिसाब अभी तक नहीं किया गया। इन कर्मचारियों ने पूरी जवानी इस संस्था को दे दी और अब वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। यह संस्था अपने को बड़ा देशभक्त और भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होना दिखाती है पर कर्मचारियों को नमस्ते, प्रणाम की जगह 'सहारा प्रमाणÓ करवा कर अपनी गुलामी कराती है। आगे बढ़ने का एकमात्र फार्मूला चरणवंदना और वरिष्ठों को अय्याशी कराना है। 
    देशभक्ति के नाम दिखावा तो बहुत किया जाता है पर सब अपने कर्मचारियों को ठग कर। 1999 में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध में शहीद हुए हमारे सैनिकों के परिजनों की देखभाल के नाम पर संस्था ने अपने ही कर्मचारियों से 10 साल तक 100-200-500 रुपए तक वेतन से काटे। उस समय चेयरमैन ने यह बोला था कि दस साल पूरे होने पर यह पैसा ब्याज सहित वापस होगा पर किसी को कोई पैसा नहीं मिला। यह रकम अरबों-खरबों में बैठती है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच बैठाई की जाए तो पता चल जाएगा कि इस संस्था ने शहीदों की लाश पर ही अपने ही कर्मचारियों से अरबों-खरबों की उगाही कर ली।
गत साल चेयरमैन सुब्रत राय जब जेल गए तो अपने को जेल से छुड़ाने के नाम पर अपने ही कर्मचारियों से 10,000-100000 रुपए तक ठग लिए। जब हक की लड़ाई लड़ रहे कर्मचारियों में से एक प्रतिनिधिमंडल जेल में जाकर चेयरमैन से मिला तथा इस रकम के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी ही बेशर्मी से यह कहा कि संस्था में किसी स्कीम में धन कम पड़ रहा था। इसलिए अपने ही कर्मचारियों से पैसा लेना पड़ा। यह पैसा कर्मचारियों ने ऐसे समय में दिया था जब कई महीने से उन्हें वेतन नहीं मिला था। किसी कर्मचारी ने अपनी पत्नी के जेवर बेच कर ये पैसे दिए तो किसी ने कर्जा लेकर। कर्मचारियों ने हर बार अपने चेयरमैन पर विश्वास किया और इस व्यक्ति ने हर बार उन्हें इमोशनल ब्लैकमेल करते हुए बस ठगा। लंबे समय तक वेतन न देकर  इस संस्था ने कितने कर्मचारियों के परिवार तबाह कर दिए। कितने बच्चों का जीवन बर्बाद कर दिया। कितने कर्मचारियों को मानसिक रूप से बीमार बना दिया।
   देश का दुर्भाग्य है कि सब कुछ जानते हुए भी विभिन्न दलों के नेता इस संस्था के कार्यक्रमों में पहुंच जाते हैं। गत दिनों जब नोएडा के मेन गेट पर बड़ी तादाद में कर्मचारी जब अपना हक मांग रहे थे तो किसी दल के नेता का दिल नहीं पसीजा पर 18 दिसम्बर को लखनऊ में सहारा न्यूज नेटवर्क की ओर से थिंक विद मी, देश आदर्श बनाओ, भारत महान बनाओ कार्यक्रम किया गया तो विभिन्न दलों के नेता उस कार्यक्रम में पहुंचे और बड़ी-बड़ी बातें की। इस कार्यक्रम में लगभग सभी मुख्य दलों के नेता मौजूद थे। इनमें कांग्रेस उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष राजबब्बर और प्रभारी गुलाम नबी आजाद भी मुख्य रूप से उपस्थित थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर सहारा समूह से रिश्वत लेने का आरोप लगा रहे हैं तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यदि सहारा ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्हें रिश्वत दी होगी तो कुछ गलत काम पर पर्दा डालने के लिए ही दी होगी। वैसे भी संस्था के चेयरमैन के जेल जाने के बाद सहारा के काले कारनामे जगजाहिर हो चुके हैं तो वह क्यों नहीं सहारा के कार्यक्रमों में जाने से अपने नेताओं को रोकते और क्यों नहीं सहारा के निवेशकों के पैसे हड़पने के केस को लड़ रहे अपने नेता कपिल सिब्बल को उनकी नैतिक जिम्मेदारी समझाते ?  यदि राजनीतिक दल वास्तव में देश में अब कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो अपने दलों की छवि सुधारने के साथ ही उन कारपोरेट घरानों के खिलाफ मोर्चा खोलें उनके वजूद का इस्तेमाल करते हुए अपने काले कारनामों से जनता व देश को ठग रहे हैं।

Monday, 19 December 2016

राजनीतिक दलों के खातों में पड़े काले धन का क्या कर रहे हैं प्रधानमंत्री जी ?

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि काले धन के लिए सड़क से लेकर संसद तक बवाल काटने वाले राजनीतिक दलों के खाते में पड़े काले धन का कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है। सरकार हर जगह बिना हिसाब-किताब वाले धन पर जुर्माना लगाने की बात कर रही है पर राजनीतिक दलों के खाते में 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों में जमा राशि पर आयकर नहीं लगाएगी।  इसका मतलब है कि आप किसी भी नाम से राजनीतिक दल का रजिस्ट्रेसन करा लीजिये और फिर इसके खाते में चाहे कितना काला धन दाल दीजिए। कोई पूछने वाला नहीं है। देश में हजारों राजनीतिक दल हैं। कितने दल चुनाव लड़ते हैं, बस नाम मात्र के।  अधिकतर दल तो काले धन का सफेद करने तक सीमित हैं। ऐसा नहीं कि चुनाव लड़ने वाले दलों के खाते में काला धन नहीं हैं। आज की तारीख में तो राजनीतिक दलों के खाते में अधिकतर धन तो काला ही है। चाहे किसी कारपोरेट घराने ने दिया हो या फिर किसी प्रॉपर्टी डीलर ने या फिर किसी अधिकारी ने। यही हाल देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले पड़े एनजीओ का है।
       देश में गजब का खेल चल रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष देश की जनता से तो काले धन का हिसाब मांग रहे हैं पर अपना और अपने दल के काले धन का कोई हिसाब-किताब देने को तैयार नहीं। जनप्रतिनिधियों का भी यही हाल है। ये लोग संसद या विधानसभाओं में अपने क्षेत्र की समस्याएं कम और अपनी पार्टी और अपनी ज्यादा उठाते हैं। इन्हें अपने वेतन की चिंता है। अपनी निधि की चिंता है पर जनता और जनता के काम की कोई चिंता नहीं। किसान-मजदूर की आय इतनी कम क्यों ? यह जानने की कोई कोशिस नहीं करता। बस अपने ऐशोआराम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। इन्हें देश से बाहर और देश के अंदर जमा काले धन की चिंता है पर खुद पार्टी के खाते से कितने बड़े स्तर पर काले धन से सफेद कर रहे हैं। इस पर इनका कोई ध्यान नहीं। आरोप-प्रत्यारोप में पूरा शीतकालीन सत्र बीत गया पर किसी दल के किसी सांसद ने राजनीतिक दलों के पास होने वाले काले धन का मुद्दा संसद में नहीं उठाया। 
      प्रधानमंत्री देश में कैसलेस ट्रांजेक्शन की बात कर रहे हैं पर अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में कैसलेस ट्रांजेक्शन की व्यवस्था करने को तैयार नहीं। सर्वविदित है कि सबसे अधिक काला धन राजनीतिक दलों व एनजीओ में खपाया जाता है। नोटबंदी के नाम पर काला धन खत्म करने की बात की जा रही है पर राजनीतिक दलों के खातों में पड़े बेसुम्मार धन की कोई बात नहीं कर रहा है। 
केंद्र सरकार एक ओर नोटबंदी योजना से काले धन पर अंकुश लगाने की बात कर रही है तो दूसरी ओर खुद काले धन को सफेद करने में लगी है। गरीब आदमी को लाइन में लगकर भी उसका पैसा नहीं मिल पा रहा है और काला धन रखने वाले लोग बैंकों से नये नोटों की गड्डियां ले जा रहे हैं।
     इस योजना के नाम पर केंद्र सरकार गरीब आदमी की भावनाओं से खेल रही है। आठ नवम्बर को नोटबंदी की योजना लागू करते समय प्रधानमंत्री ने 500-1000 के नोटों को रद्दी करार दे दिया तथा कहा था कि 2.5 लाख रुपए से ऊपर खाते में जमा धन का हिसाब न देने पर उस पर 200 फीसद जुर्माना लगेगा। उन्होंने कहा कि सरकार ने जुर्माना तो नहीं लगाया उल्टे काले धन का 50 फीसद सफेद कर पूंजीपतियों को लौटाने की बात करने लगे। नये नोटों का 70-80 फीसद तो काले का सफेद करने में लग जा रहा है। आम आदमी को लाइन में लगकर भी पैसा नहीं मिल रहा है। देश के अधिकतर एटीएम में पैसा ही नहीं है। इस योजना का सबसे अधिक असर आम आदमी पर पड़ रहा है।
     बैंक बड़े स्तर पर काले का सफेद करने में लगे हैं। आम आदमी के लिए 2000 रुपए का कैस नहीं है पर काला धन रखने वाले के लिए करोड़ों रुपए हैं। यह नोटबंदी कैसी देशहित की योजना है, जिससे बस आम आदमी ही परेशान हो रहा है।  सच्चाई तो यह है कि काला धन रखने वाले जो लोग जेल जाने से डर रहे थे उनको पैसा तो मिल ही गया साथ ही उनका डर भी निकल गया। गरीब आदमी को लाइन में लगकर भी पैसा नहीं मिल रहा है और भाजपा नेताओं के पास लाखों में नये नोट मिल रहे हैं।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पैसों से संबंधित जो भी योजना आती है, उसका फायदा या व्यापारी उठाते हैं या फिर बैंक । 2008 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई किसान ऋण माफी योजना में बड़े स्तर पर घोटाला हुआ था। कैग की रिपोर्ट के अनुसार काफी छोटे व्यापारियों ने अपने को किसान की श्रेणी में दिखाकर अपना कर्ज माफ करा लिया था। उस समय ये बातें कही जा रही थी कि गड़बड़ी करने वाले बैंक अधिकारियों व व्यापारियों पर कार्रवाई होगी पर क्या हुआ, ढाक के तीन पात।
    यूपीए सरकार के बाद अब एनडीए सरकार चल रही है। किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। कृषि ऋण माफी योजना के नाम पर ईमानदार किसान तो बस ठगा ही गया। हां कुछ डिफाल्टर किसानों को इसका फायदा जरूर हुआ था। इस योजना से भी आम आदमी ही ठगा जाएगा, बैंक अधिकारी व काला धन रखने वालों को कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।

Monday, 28 November 2016

नमक से समाजवाद लाएंगे अखिलेश!

   नमक एक ऐसा पदार्थ है कि इसके बिना काम नहीं चल सकता है। गरीब के लिए तो नमक कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण माना जाता है। कितनी बार जब गरीब आदमी का दाल, सब्जी या चटनी की व्यवस्था नहीं कर पाता है तो नमक की रोटी ही खाकर अपना काम चला लेता है। नमक के बारे में हमारे समाज में यह धारणा भी रही है कि जो कोई किसी का नमक खा ले तो वह उसके साथ विश्वासघात नहीं करता है। अखिलेश यादव ने नमक के माध्यम से लोगों से जुड़ने की अच्छी रणनीति बनाई है। यह उनका समाजवाद के प्रति समर्पण भाव ही है कि उन्होंने इसे समाजवादी नमक का नाम दिया है। यह नमक उत्तर प्रदेश में सरकार की ओर से रियायती मूल्य पर मिलेगा। सरकार का दावा है कि यह नमक आयरन और आयोडीन युक्त बनाया गया है। सरकार का कहना है कि उनके द्वारा कराए गए सर्वे में गर्भवती महिलाओं व बच्चों की चिंताजनक तस्वीरें सामने आई हैं। सरकार ने यह महसूस किया है कि एनीमिया की जानकारी के अभाव में लोगों का स्वास्थ्य खराब हो रहा है।
   जब देश में समाजवाद का झंडा थामे पुराने समाजवादियों पर तरह-तरह के आरोप लगने लगे तो मुख्यमंत्री बनने के बाद परिवार और वरिष्ठ नेताओं की वजह से तमाम आलोचना झेलने वाले अखिलेश यादव ने डॉ. राम मनोहर लोहिया की नीतियों पर चलते हुए समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया। गत दिनों  परिवार व पार्टी में मचे घमासान में विचारधारा को लेकर अपनाए गए अखिलेश यादव के रुख ने जो संदेश दिया उसने अच्छे से अच्छे राजनीतिज्ञों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया।
   वह अखिलेश यादव का समाजवाद ही था कि बाहुबली डीपी यादव को उन्होंने पार्टी में घुसने नहीं दिया। जब नेताजी व शिवपाल यादव ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय किया तो अखिलेश यादव ने इसका जमकर विरोध किया। यह उनकी जिद ही थी कि उनकी बात न मानी जाने पर वह गाजीपुर में हुई सपा की चुनावी रैली में नहीं गए। यह उनका दृढ़ संकल्प ही है कि विचारधारा और पार्टी के लिए उन्होंने जो स्टैंड लिया है, तमाम दबाव उसे डिगा नहीं पाए। जहां वह पार्टी के थिंकटैंक माने जाने वाले प्रो. रामगोपाल यादव को फिर से पार्टी में लाने में कामयाब रहे वहीं पार्टी से निष्कासित युवा नेताओं का निष्कासन भी वह समाप्त कराने वाले हैं। दूसरी ओर मंत्रिमंडल से हटाए गए किसी भी मंत्री को किसी भी दबाव में वापस न लेकर उन्होंने अपने को साबित भी दिखाया।
   समाजवादी विचारधारा की बात करें तो विदेश में ही भले कार्ल मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को ज्यादा महत्व दिया जाता हो पर हमारे देश में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक नये समाजवाद को जन्म दिया। चाहे लोक नायक जयप्रकाश हों, आचार्य नरेंद्र देव हों, मधु लिमये हों,  मधु दंडवते हों, चौधरी चरण सिंह या फिर किशन पटनायक। लोहिया जी की भाषा शैली में इन सबसे अधिक धार थी। यही वजह रही कि चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद चंद्रशेखर सिंह का दामन थामने वाले नेताजी ने 5 नवम्बर 1992 डॉ. राम मनोहर लोहिया की नीतियों पर चलते हुए समाजवादी पार्टी की स्थापना की।  इन सबके बीच नेताजी पर तरह-तरह के आरोप लगे पर यह उनका संघर्ष ही था कि केंद्र में रक्षा मंत्री और तीन बार मुख्यमंत्री बनने बाद 2012 में उन्होंने पूर्ण बहुमत के साथ अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया।
   ऐसा नहीं कि नोटबंदी पर ही नेताजी संघियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे हों। 1990 में जब राम मंदिर निर्माण के नाम पर संघियों की अगुआई में विवादित ढांचे को गिराने का प्रयास किया गया तो उस समय मुख्यमंत्री पद पर विराजमान नेताजी ने कारसेवकों पर गोलियां भी चलवा कर विवादित ढांचे को बचाया था। आज की तारीख में भले ही उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादियों की सरकार चल रही हो पर कुल मिलाकर देश में समाजवाद कमजोर हुआ है। यही वजह है कि कांग्रेस के कमजोर होने पर जिस जगह समाजवादियों को होना चाहिए था वहां आज संघी खड़े हैं।
   दरअसल जिस गैर कांग्रेसवाद का नारा आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दे रहे हैं, यह नारा किसी समय डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दिया था। इसमें भी दो राय नहीं कि कांग्रेस का विरोध करते-करते ही समाजवादी मजबूत हुए हैं। यही वजह है कि जब भी समाजवादी कांग्रेस से सटे हैं तभी वे कमजोर हुए। यह जानते हुए ही अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन नहीं होने दिया।
   नरेंद्र मोदी ने भी आम चुनाव में इसी का फायदा उठाया था। आम चुनाव के प्रचार में उन्होंने लोहिया व जेपी की नीतियों का हवाला देते हुए समाजवादियों को जमकर निशाना साधा था। उसका उन्हें फायदा भी मिला। अब जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गैर संघवाद का नारा दिया तो वह इस नारे को ज्यादा हवा न दे पाए। समय की नजाकत को पहचानते हुए नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री की नोटबंदी की योजना का समर्थन कर रहे हैं। वह बात दूसरी है कि जदयू को छोड़कर पूरा विपक्ष इस योजना के विरोध में सड़कों पर आ गया है। ऐसे में कैसे गैर संघवाद का नारा बुलंद होगा और कैसे समाजवाद मजबूत होगा, इस पर समाजवादियों को मंथन की जरूरत है। यह सब अखिलेश यादव बखूबी समझ रहे हैं। वह जान गए हैं कि लंबी पारी खेलने के लिए उन्हें लोहिया की नीतियों पर आधारित समाजवाद का नारा बुलंद करना होगा।
   समाजवादियों को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी ने तर्कों के साथ जनता को प्रभावित किया है। वह लोगों को यह समझाने में कामयाब रहे हैं कि जो समाजवादी गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर आगे बढ़े थे, वे अपने स्वार्थ के लिए समय-समय पर कांग्रेस से सटते रहे हैं। संघी देश के बड़े आंदोलन में समाजवादियों के साथ रहे हैं।  दरअसल समाजवादियों की समय-समय पर हुई गलती से समाजवाद कमजोर हुआ है। इमरजेंसी के बाद देश में जनता पार्टी की सरकार बनने पर जिन चरण सिंह ने अपने गृहमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी कराई,  वह ही इंदिरा गांधी के सहयोग प्रधानमंत्री बन गए। कुछ ही दिन बाद कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह देखते रह रहे। समाजवादियों के पक्ष में बना माहौल तो खराब हुआ ही साथ ही समाजवादी भी बिखर गए। जनता पार्टी में संघी भी समाजवादियों के साथ थे। 1989 में जब समाजवादियों के प्रयास से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो संघियों ने सरकार को समर्थन दिया। राम मंदिर निर्माण आंदोलन में बिहार में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी होने पर जब भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया तो चंद्रशेखर सिंह ने राजीव गांधी क बहकावे में आकर कांग्रस के समर्थन से अपनी सरकार बना ली। कांग्रेस ने कुछ ही महीने बाद अपने स्वभाव के अनरूप सरकार से समर्थन वापस ले लिया तथा सरकार गिर गई। 1996 में भी यही हुआ समाजवादियों ने कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई। इस बीच एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल दो प्रधानमंत्री ने पर समय पूरा नहीं कर पाए। कहना गलत न होगा कि ज्यों-ज्यों समाजवादी मजबूत हुए, त्यों-त्यों कांग्रेस ने उनको समर्थन देकर हाथ खींचा और कमजोर किया।
    अब देखना यह है कि 1980 में बनी पार्टी देश पर पूर्ण बहुमत के साथ राज कर रही है और समाजवादी नेता न तो चरण सिंह के लोकदल को आगे बढ़ा पाए और न ही कई दलों के विलय से बनी जनता पार्टी को और न ही जनता दल को। समाजवादी नेताओं ने एकजुट न होकर अपने-अपने दल बना लिए। राम विलास पासवान ने लोजपा, लालू प्रसाद यादव ने राजद तो शरद यादव और नीतीश कुमार ने जदयू पार्टियां बना लीं। जनसंघ से निकले नेताओं की एक ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी रही। ऐसे में समाजवाद का कमजोर होना स्वभाविक था। यह भी कहा जा सकता है कि समाजवादी तो मजबूत हो गए पर समाजवाद कमजोर ही रहा। ऐसे में युवा समाजवादी नेता के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर छाए अखिलेश यादव की जिम्मेदारी बन जाती है कि लोहिया जी नीतियों वाले समाजवाद का झंडा बुलंद  करें। 
   अखिलेश यादव का प्लस प्वांइट यह है कि पारिवारिक और वरिष्ठ नेताओं के दबाव में किए गए काम के चलते भले ही उन्हें तरह-तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा हो पर व्यक्तिगत रूप से उन्हें किसी ने गलत नहीं ठहराया। यही उनका लोहिया जी से प्रेरित समाजवाद है कि नेताजी के तमाम प्रयास के बावजूद वह अमर सिंह को पचाने को तैयार नहीं। अखिलेश यादव की रणनीति है कि प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में युवा समाजवादियों की एक बड़ी फौज तैयार की जाए। उत्तर प्रदेश का चुनाव भी वह इन्ही युवाओं के बल पर जीतने में लगे हैं।

Tuesday, 8 November 2016

अखिलेश को अपने दम पर लड़ना होगा चुनाव !

मुख्यमंत्री बनने के बाद तमाम दबाव को झेलते हुए सरकार चलाने वाले अखिलेश यादव को न चाहते हुए भी कई तरह के समझौते करने पड़े। यही वजह रही कि विरोधी दल प्रदेश में चार मुख्यमंत्री होने की बात करने लगे थे। इसे अखिलेश यादव की विचारधारा कहें या फिर दृढ़ इच्छा कि सरकार के अंतिम दौर में उन्होंने पार्टी में जो स्टैंड लिया वह समाजवाद के लिए मिसाल बन गया। विचारधारा, पार्टी और प्रदेश के लिए वह न केवल व्यवस्था बल्कि अपने चाचा-पिता पार्टी के मुखिया से भी टकरा गए।
समय-समय पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के दबाव में समझौते करने की वजह फजीहत झेलने वाले अखिलेश यादव ने जब निर्णय लिया तो राजनीतिक जगत को भौचक्का कर दिया। निर्णय भी ऐसा कि किसी भी कीमत में वह अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करेंगे। विचारधारा भी समाजवाद के प्रेरक डॉ. राम मनोहर लोहिया की। जिन परिस्थिति में अखिलेश यादव ने विचारधारा और व्यवस्था को लेकर दम भरा है, उनके इस निर्णय ने लोहिया जी के फैसलों की यादें ताजा कर दी। आजाद भारत में लोहिया जी के बाद अन्याय का इस हद तक यदि किसी ने विरोध किया है तो वह अखिलेश यादव हैं। भले ही नेताजी महागठबंधन की कवायद में लगे हों पर अखिलेश यादव का आत्मविश्वास ही है कि विचारधारा, जुझारूपन, प्रदेश का विकास और युवाओं के बल पर वह चुनाव जीतने निकल पड़े हैं।
5 नवम्बर को लखनऊ में मनाए गए समाजवादी पार्टी के स्थापना दिवस पर लोहिया जी के जब मैं मर जाऊंगा तब लोग मुझे याद करेंगे के कथन का हवाला देतेे हुए अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव की ओर इशारा करते हुए कहा कि कुछ लोग जब समझेंगे जब पार्टी में कुछ नहीं बचेगा तो उनकी सोच पर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया। उन्हें भेंट की गई तलवार के बारे में तलवार तो देते हो पर चलाने का अधिकार नहीं देते कहकर वह बहुत कुछ कह गए।
इन सब के बीच अखिलेश यादव को सोचना होगा कि उनके इस स्टैंड से जहां साफ-सुथरी छवि वाले समाजवादियों में उनके प्रति आस्था बढ़ी है वहीं राजनीतिक के क्षेत्र में करियर बनाने वाले युवा अखिलेश यादव की अगुआई में राजनीतिक सफर शुरू करने की सोचने लगे हैं। अखिलेश यादव को यह भी देखना होगा कि लंबे समय से पुराने समाजवादियों पर अपने पथ से भटकने के आरोप लग रहे हैं। ऐसे में उनपर बहुत कुछ निर्भर करता है। आज की तारीख में देश जिस हालात से जूझ रहा है। ऐसे में सच्ची समाजवादी विचारधारा ही है जो सभी वर्गों को साथ लेकर देश को विकास के रास्ते पर ले जा सकती है।
उत्तर प्रदेश में चल रही महागठबंधन कवायद से अखिलेश यादव को नुकसान ही नुकसान होगा। यदि यह महागठबंधन चुनाव जीतता है तो इस जीत का श्रेय विभिन्न पार्टियों के बड़े नेता ले जाएंगे और उनका कद घटेगा। महागठबंधन के रूप में चुनाव लड़ने से अपनी पार्टियों के समाजवाद से भटके नेताओं तथा अन्य दलों की वजह उनकी छवि भी धूमिल होगी। साथ ही जिन युवाओं का रुझान अखिलेश यादव के प्रति बढ़ा है वह भी प्रभावित होगा। अखिलेश यादव को लंबी पारी खेलने के लिए युवा समाजवादियों की अगुआई करते हुए अपने दम पर चुनाव लड़ना होगा। अखिलेश यादव की अगुआई में देश युवा समाजवादियों की बड़ी फौज खड़ी होने की पूरी संभावनाएं है। यदि अखिलेश यादव ने अपने चेहरे पर यह चुनाव जीत लिया तो आने वाले समय में पुराने समाजवादी भी अखिलेश यादव की अगुआई में समाजवाद का नारा बुलंद करते दिखाई देंगे और देश में एक नए समाजवाद की स्थापना होगी।

Tuesday, 18 October 2016

नेताजी पर भारी अखिलेश की विचारधारा

      डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुयाई तथा चौधरी चरण सिंह के सबसे प्रिय शिष्य रहे जिद्दी स्वभाव के मुलायम सिंह यादव ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके राजनीतिक जीवन में ऐसा दिन भी आएगा कि उनका खुद का बेटा उन्हें अपनी बात मनवाने क लिए मजबूर कर देगा। जिस बेटे को उन्होंने देश के सबसे बड़े व सियासी प्रदेश उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवाया उसी बेटे से उनका वैचारिक मतभेद हो जाएगा। मतभेद भी ऐसा कि पिता-पुत्र दो खेमे में बंट जाएं। हुआ जो भी हो। किसी भी कारण से हो। अखिलेश यादव ने दिखा दिया कि उनके अंदर भी नेताजी वाला ही कलेजा है। यह अखिलेश यादव की छवि ही है कि चुनाव के बाद विधायकों के चुनने पर ही मुख्यमंत्री बनाने वाले पार्टी मुखिया को अंतत: अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करना ही पड़ा।
     बात वैचारिक मतभेद और पिता व पुत्र की हो रही है तो समय, हालात,  सही, गलत और नीतियां, सिद्धांत व उसूलों की भी होनी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि मुलायम सिंह का जीवन विभिन्न संघर्षांे से होते हुए गुजरा है। इसमें भी दो राय नहीं कि अखिलेश यदि आज इस बुलंदी पर पहुंचे हैं तो अपने पिता के संघर्ष के बल पर। हां यदि आज के हालात की बात करें तो लोकप्रियता व छवि के मामले में अखिलेश यादव अपने पिता से आगे निकल गए हैं।
     समाजवादी पार्टी को मुलायम सिंह यादव लोहिया जी की नीतियों पर चलने को मानते रहे हैं। यदि बात समाजवाद की हो। लोहिया की नीतियों की हो। ईमानदारी की हो। कर्त्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं को सम्मान देने की हो। उत्तर प्रदेश को साफ-सुथरी सरकार देने की हो तो आज की तारीख में अखिलेश यादव की विचारधारा व तर्क मुलायम सिंह यादव पर भारी पड़ रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि लंबे समय तक मुलायम सिंह यादव के साथ सारथी के रूप में काम करने वाले अमर सिंह का पार्टी को आगे बढ़ाने में बहुत योगदान रहा है पर उनके दोबारा पार्टी में आने के बाद जो घटनाक्रम हुए। उन सब पर नजर डालें तो मुलायम सिंह का अमर सिंह को अपने लेटरपेड से महासचिव बना देना। दीपक सिंघल को पहले मुख्य सचिव पद से हटवाना और फिर बनवाने के लिए दबाव डालना। गायत्री प्रजापति को पहले हटवाना अखिलेश यादव के विरोध के बावजूद फिर बनवाने की बातें बाजार में आना। अखिलेश यादव के मुखर विरोध के बावजूद बाहुबलि मुख्तार अंसारी को पार्टी में लेना। अखिलेश यादव की वजह से प्रधनामंत्री न बन पाने की बात कहना लोहिया की नीतियों के ठीक विपरीत है। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने न कभी गलत लोगों को आगे बढ़ाया और न ही कभी किसी पद की लालसा रखी। खुद मुलायम सिंह यादव भी विभिन्न मंचों से कहते रहे हैं कि असली समाजवादी कभी किसी पद की लालसा नहीं रखता है। कार्यकाल की बात करें अखिलेश यादव का कार्यकाल नेताजी के सभी कार्यकालों पर भारी पड़ता दिख रहा है। नेताजी के कार्यकाल विभिन्न विवादों से घिरे रहे हैं पर अखिलेश यादव के कार्यकाल में पारिवारिक हस्तक्षेप के चलते भल ही उनको कई बार कटघरे में खड़ा किया गया हो पर व्यक्तिगत रूप से अखिलेश यादव को किसी ने गलत नहीं बताया।
     उधर अखिलेश यादव पार्टी ने पार्टी की छवि साफ-सुथरी बनाए रखने के लिए जहां बाहुबलि डीपी यादव को पार्टी में नहीं आने दिया वहीं मुख्तार अंसारी का लगातार विरोध करते रहे। पिता के पार्टी के मुखिया होने के बावजूद अखिलेश यादव ने राजनीति में आते ही संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया। युवा प्रकोष्ठों के अध्यक्ष बनने पर भी उन्होंने युवाओं के कंधे से कंधा मिलाकर पार्टी में काम किया।
    2012 के चुनाव में अखिलेश यादव ने साइकिल रैली निकालकर चुनावी माहौल बनाया तथा पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर ईमानदार मुख्यमंत्री के रूप में काम किया। हां अपने पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल सिंह यादव, तुनकमिजाज आजम खां व दूसरे चाचा रामगोपाल यादव की वजह से उन्हें कई बार तरह-तरह के समझौते करने पड़े। कानून व्यवस्था समेत कई मामले में उनको फजीहत का भी सामना करना पड़ा। जब प्रदेश में चार मुख्यमंत्री बताए जा रहे थे तो किसी तरह से अखिलेश यादव इस चक्रव्यू से बाहर निकले और प्रदेश के विकास में ऐतिहासिक फैसले लिए। मैं उनकी सरकार की उपलब्धि तो नहीं गिनवाऊंगा पर प्रदेश में दिखाई दे रहे विकास कार्य खुद उनकी उपलब्धियां बखान कर रहे हैं।
     सरकार को पांच साल पूरे होने जा रहे हैं पर अखिलेश सरकार में चारों ओर से दबाव के बावजूद कोई घोटाला न होना अखिलेश को मजबूत इरादे वाला नेता दर्शाता है। आज की तारीख में जिस तरह से अखिलेश यादव पार्टी की छवि को साफ-सुथरी रखने के लिए न केवल पार्टी महासचिव अमर सिंह चाचा शिवपाल सिंह यादव बल्कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव से भी मोर्चा ले रहे हैं यह संघर्ष उनके राजनीतिक कद को बहुत आगे ले जा रहा है।
   ऐसे नाजुक मोड़ पर देश की किसी भी पार्टी में कोई भी नेता पार्टी के लिए इतना बड़ा साहस नहीं दिखा पा रहा है। भले ही लंबे समय तक मुलायम सिंह यादव में पार्टी को खींचने का माद्दा रहा है पर आज की तारीख में अखिलेश यादव ही हैं जो पार्टी के खेवनहार बन सकते हैं।

Saturday, 15 October 2016

मौत के सौदागर बने कोटा के कोचिंग सेंटर संचालक

इसे शिक्षा का व्यवसायीकरण कहें। युवा पीढ़ी का भटकाव या परिजनों की निगरानी में न रहना या फिर भ्रष्ट होती जा रही व्यवस्था में निराशा का माहौल वजह जो भी हो दूरदराज शहरों में भविष्य बनाने जा रहे युवाओं में से काफी मौत को गले लगा रहे हैं। रात-दिन मेहनत कर पैसे जुटाने वाले परिजन सदमे में जा रहे हैं। स्थिति यह है कि एजुकेशन हब के नाम से प्रसिद्ध हो चुके राजस्थान के कोटा में इस साल 16 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है। ये बात और दर्दनाक है कि इनमें से अधिकतर बिहार के हैं। हाजीपुर के अंकित गुप्ता ने चंबल नदी में छलांग लगाकर इसलिए आत्महत्या कर ली। क्योंकि वह मेडिकल में अपने माता-पिता के सपने को पूरा नहीं कर पा रहा था। गत दिनों एक छात्र ने 500 फुट इमारत से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। यह छात्र भी दो साल से मेडिकल की तैयारी कर रहा था। बताया जा रहा है कि वह डिप्रेशन में रहता था। अभी कुछ ही दिन पहले बिहार से डॉक्टर बनने का सपना लेकर कोटा आई एक छात्रा ने फंदे से लटकर आत्महत्या कर ली थी। यह छात्रा भी हॉस्टल में रहकर मेडिकल की कोचिंग कर रही थी। छात्रा स्वभाव से खुशमिजाज बताई जा रही है। पढ़ने में भी तेज बताई जा रही यह छात्रा सीन साल से मेडिकल की तैयारी कर रही थी। इस छात्रा की तीन साल से कोचिंग करने की वजह से या तो उसे परिजनों के खर्चे की चिंता सता रही हो या फिर साथियों या परिजनों/रिश्तेदारों के ताने। जिस वजह से उसने मौत को गले लगाया।
   बात कोटा की नहीं है कि विभिन्न शहरों में इस तरह की खबरे सुनने को मिल जाती है। गत दिनों नोएडा के एमिटी विश्वविद्यालय में एक छात्र ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसी उपस्थिति कम होने की वजह से उसे परीक्षा में नहीं बैठने दिया गया था। इन सब बातों को देखते हुए प्रश्न उठता है कि जीवन को उच्च स्तर का बनाने वाली शिक्षा को गृहण करते करते युवा आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? मामला इतना गंभीर है कि इन मामलों पर मंथन बहुत जरुरी हो गया है। क्या इन शिक्षण संस्थानों का माहौल ऐसा विषाक्त कर दिया गया है कि युवा इस माहौल में अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। या फिर बच्चों पर परिजनों के उच्च शिक्षा थोप देने की प्रवृत्ति या फिर रोजगार न मिलने की असुरक्षा। या फिर बात-बात पर समझौता करने वाली प्रवृत्ति के चलते युवा में समस्याओं से जूझने का कम हो रहा माद्दा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप में सत्र खत्म होने वाले सत्र में इस तरह के संवेदनशील मुद्दे नहीं उठाए जाते हैं। जो मां-बाप तरह-तरह की समस्याओं का सामना करते-करते बच्चों की परवरिश करते हैं। सीने पर पत्थर रखकर बच्चों कों अपने से दूर कर देते हैं। जब उनको बच्चों की मौत की खबर सुनने मिलती तो उनकी मनोदशा क्या होती होगी ? क्या इस बात को कभी शिक्षा का व्यापारियों ने समझने की कोशिश की है ? सरकारों को वोटबैंक की राजनीति के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। ये लोग तो वोट के लिए कभी आरक्षण की पैरवी करते हैं तो कभी जातिवाद धर्मवाद की और कभी क्षेत्रवाद की। बच्चों की भविष्य कैसे संवरे ? कैसे बच्चों में भाईचारा बढ़े। इससे न सरकारों को सरोकार है और न ही राजनीतिक दलों को। जिस देश का भविष्य ही दम तोड़ने लगे उसका दशा क्या होने वाली है बताने की जरूरत नहीं। कहीं आरक्षण के नाम पर जातिवाद का जहर। तो कहीं पर भेदभाव और कहीं पर क्षेत्रवाद। कभी कश्मीर में बच्चों के मरने की खबर सुनने को मिलती है तो कभी कर्नाटक में और कभी दिल्ली में। कुछ दिन तक राजनीति होती है और बाद में मामला शांत। जिसके घर से गया झेलता तो वह है। कब सुधरेगी यह व्यवस्था।
   राजनीति के बढ़ते वर्चस्व के चलते हर कोई राजनीति में जाना चाहता है। देश व समाज की सेवा करने नहीं बल्कि देश को लूटने। इस व्यवस्था में कहीं पर बच्चे अपराध की दलदल में फंसे जा रहे हैं तो कहीं पर टूटकर आत्महत्या कर ले रहे हैं। सरकारों व राजनीतिक दलों के साथ नौकरशाह को बस चिंता है तो बस लूटखसोट की। जब कोटा एक साल में इतने बड़े स्तर पर आत्महत्या के मामले सामने आए हैं तो सरकारी स्तर पर कोई जांच क्यों नहीं बैठाई गई। बच्चों के पढ़ने के बाद रोजगार ढूंढते समय तो आत्महत्या के मामले सुन लेते थे पर पढ़ाई करते समय आत्महत्या के बढ़ इन मामलों पर मंथन के साथ संबंधित शिक्षण संस्थानों में जांच कमेटी बैठाने की जरूरत है जो ईमानदारी से जांच रिपोर्ट सौंपे।

Wednesday, 12 October 2016

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

                               (12 अक्टूबर-पुण्यतिथि पर विशेष)


    जब हमारे देश में समाजवाद की बात आती है तो डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम सबसे ऊपर आता है। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाते हुए 70 के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादियों ने कांग्रेस शासन की अराजकता के खिलाफ मोर्चा संभाला था। वह लोहिया की ही विचारधारा थी कि बिहार से लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर छाए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपने दम पर कई सालों तक उत्तर प्रदेश पर राज किया आैर आज उनके पुत्र अखिलेश यादव भी लोहिया की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। वह बात दूसरी है कि अब उन पर परिवारवाद, जातिवाद व अवसरवाद का आरोप लग रहा है।
   आज की राजनीति में भले ही समाजवादी अपनी विचारधारा से भटक गए हों पर शुरुआती दौर के समाजवादी जितने खुद्दार थे, उतने ही ईमानदार भी। जहां तक डॉ. राममनोहर लोहिया की बात है वह कितने खुद्दार थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके पिता का निधन हुआ तो वह 'भारत छोड़ो आंदोलन" के चलते आगरा जेल में बंद थे आैर इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने ब्रिाटिश सरकार की कृपा पर पेरोल पर छूटने से इनकार कर दिया। देशभक्ति व ईमानदारी लोहिया को विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री हीरालाल एक सच्चे देशभक्त अध्यापक थे। समाजवाद व संघर्ष उनमें बचपन से ही शुरू हो गया था। जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता चंदादेवी का देहांत हो गया आैर उनकी दादी व नाइन ने उनका पालन-पोषण किया। गांधी जी के विराट व्यक्तित्व का असर लोहिया पर बचपन से ही पड़ गया था, उनके पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे आैर जब उनसे मिलने जाते तो लोहिया को अपने साथ ले जाते। वैसे तो राजनीति का पाठ लोहिया ने गांधी जी से सीखना शुरू कर दिया था पर सक्रिय रूप से वे 1918 में अपने पिता के साथ पहली बार अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। पहली हड़ताल उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन अपने विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में की। 1921 में फैजाबाद किसान आंदोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी पहली मुलाकात हुई। युवाओं में लोहिया की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि कलकत्ता (अब कोलकाता) में अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता भी की।
    लोहिया से उनका समाज इतना प्रभावित था कि समाज ने 1930 जुलाई को अपने कोष से उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेजा। लोहिया पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए आैर फिर वहां से बर्लिन। यह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लोहिया की बगावत ही थी कि 23 मार्च, 1931 को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने विरोध में बर्लिन में हो रही 'लीग ऑफ नेशंस" की बैठक में सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से उन्होंने इसका विरोध प्रकट किया। लोहिया ने किन परिस्थितियों में देश आैर समाज के लिए संघर्ष किया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब 1933 में वह मद्रास पहुंचे तो रास्ते में उनका सामान जब्त कर लिया गया। लोहिया समुद्री जहाज से उतरकर 'हिन्दू" अखबार के दफ्तर पहुंचे आैर दो लेख लिखकर 25 रुपए कमाए आैर इनसे कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता  से बनारस पहुंचकर उन्होंने मालवीय जी से मुलाकात की। मालवीय जी ने उन्हें रामेश्वर दास बिड़ला से मिलाया, जिन्होंने लोहिया को नौकरी का प्रस्ताव दिया पर दो हफ्ते रहने के बाद उन्होंने बिड़ला जी का निजी सचिव बनने से इनकार कर दिया।
   17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में इकट्ठे हुए, जहां समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। लोहिया जी ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा तैयार की आैर पार्टी के उद्देश्यों में उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया पर उसे अस्वीकार कर दिया गया, बाद में 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई (अब मुंबई) के 'रेडिमनी टेरेस" में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए आैर पार्टी के मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए। 1935 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया। दक्षिण कलकत्ता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण देने पर 24 मई 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने लोहिया ने खुद अपने मुकदमे की पैरवी आैर बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया।
   दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए भाषण के कारण 11 मई 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत उन्हंे दो साल की सजा हुई। लोहिया देश के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए थे कि उस समय गांधी जी ने कहा था कि 'जब तक राम मनोहर लोहिया जेल में हैं मैं खामोश नहीं रह सकता। उनसे ज्यादा बहादुर आैर सरल आदमी मुझे मालूम नहीं।" चार दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया।
   आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ ही लोहिया व नेहरू में मतभेद पैदा हो गए थे आैर 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में यह बात जगजाहिर हो गई। इस अधिवेशन में लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया। इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा।
   1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन" छेड़ने पर 9 अगस्त 1944 को गांधी जी व अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लिया गया आैर लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। 1945 में लोहिया को आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। लोहिया से अंग्रेज सरकार इतनी घबराई हुई थी कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को नहीं छोड़ा गया। बाद में 11 अप्रैल, 1946 को लोहिया को भी रिहा कर दिया गया।
   15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में गोवा मुक्ति आंदोलन की पहली सभा की। लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आंदोलन के शुरूआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो नवाखाली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत कई जगहों पर लोहिया, गांधी जी के साथ मिलकर सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। 9 अगस्त, 1947 से हिंसा रोकने का काम युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात को 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को वातावरण फिर बिगड़ गया। गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए आैर उनके प्रयास से 'शांति समिति" की स्थापना हुई आैर चार सितम्बर को गांधी जी ने अनशन तोड़ दिया। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में भी लोहिया का विशेष योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आंदोलन समाजवादी चला रहे थे। दो जनवरी 1948 को रीवा में 'हमें चुनाव चाहिए विभाजन रद्द करो" के नारे के साथ आंदोलन किया गया।
   1962 के आम चुनाव में लोहिया, नेहरू के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत के सवाल को उठाया। 1963 को फरुखाबाद के लोकसभा उप चुनाव में लोहिया 58 हजार मतों से चुनाव जीते।  लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही। उस समय उन्होंने 18 करोड़ आबादी के चार आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया। 9 अगस्त 1965 को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
   30 सितम्बर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, जो आजकल डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम से जाना जाता है में पौरुष ग्रंथि के ऑपरेशन के लिए भर्ती कराया गया, जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया।

Wednesday, 28 September 2016

हर मां को पैदा करना होगा भगत सिंह

   भले ही देश की सत्ता बदल चुकी हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है अौर देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। मेरा मानना है कि यह व्यवस्था बदल सकती है तो देशभक्ति से बदल सकती है। लोगों के मरते जा रहे जमीर को जगाकर कर बदल सकती है। जब देशभक्ति की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब पड़ोसियों के घर में भगत सिंह के पैदा होने की सोच से काम नहीं चलेगा। अब देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया। 
   भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930 में यह बात महसूस कर ली थी। उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी। गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक और प्रासंगिक ही लगते हैं।
   भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी, दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे। बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
   सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है। इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday, 16 September 2016

अमर बेल की चपेट में मुलायम परिवार

  किसी समय समाजवादी पार्टी में पूरी तरह से दखल रखने वाले राज्यसभा सदस्य अमर सिंह की दूसरी पारी में नहीं चल पा रही है तो वह कुछ न कुछ तो जरूर करेंगे। कैसे पार्टी में उनका हस्तक्षेप बढ़े, कैसे वह पुराना रुतबा कायम करें। इसी उधेड़बुन में वह पूरी से लगे हुए हैं। इसके लिए उन्होंने जहां कभी उनके सबसे ज्यादा मुखर विरोधी रहे शिवपाल सिंह यादव साधा है वहीं नेताजी पर भी पूरी तरह से पकड़ बना ली है। यही वजह रही कि जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनसे फोन पर बात नहीं की तो इस मलाल को लेकर वह मीडिया के सामने आ गए। अखिलेश का 'चाचा से ही बात करता रहूंगा तो काम कब करूंगा।Ó के बयान ने आग में घी डालने का काम किया।
     हर जगह घुसपैठ रखने वाले अमर सिंह को जब गायत्री प्रजापति पर सीबीआई का शिकंजा कसने की खबर पहुंची तो उन्होंने इस बारे में तत्कालीन मुख्य सचिव दीपक सिंघल से नेताजी को कहलवाया। नेताजी के कहने पर अखिलेश यादव ने गायत्री प्रजापति व किशोर सिंह को मंत्री पद से हटा दिया। क्योंकि गायत्री प्रजापति नेताजी के करीबी थे तो तरह-तरहके कयास लगाए गए। गायत्री प्रजापति के नेताजी के मिलने पर उन्होंने दीपक सिंघल की बात का हवाला दिया।
     अमर सिंह ये सब कर अपने को पार्टी का हितैषी दिखाने का प्रयास कर रहे थे। अपने को मुलायमवादी कहने वाले अमर सिंह ने फाइव स्टार पार्टी में आज के समाजवाद का तड़का लगाने के लिए लोहियावादी मुलायम सिंह को बुलाया। शिवपाल सिंह भी पूरे अधिकार के साथ पार्टी में पहुंचे। समय-समय पर मुस्लिम चेहरा आजम खां और प्रवक्ता रामगपोल यादव का विरोध झेलने वाले अमर सिंह को अखिलेश यादव की उपेक्षा इतनी परेशान कर रही थी कि उन्होंने पार्टी में सरकार के फैसले को लेकर अखिलेश की बुराई शुरू कर दी। पार्टी में मौजूद मुख्य सचिव दीपक ङ्क्षसघल ने अपने को उनका करीबी जताने के लिए उनके सुर में सुर मिलाए तो मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह ने रात में दीपक सिंघल को उनके पद से हटा दिया। मामले से तिलमिला अमर सिंह के कहने पर जब नेताजी ने अखिलेश यादव को दीपक सिंघल को उनके पद पर बहाल करने दबाव बनाया तो मुख्यमंत्री ने गलत संदेश जाने की बात कहकर उनकी बात न मानी। इन सबके बीच अमर सिंह ने एक तीर से दो निशाने साधे। इन सबके बीच अमर सिंह ने एक गांव खेला कि अखिलेश पर मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष पद होने का हवाला देते हुए  अध्यक्ष पद शिवपाल सिंह को दिलवा दिया। यह फैसला करा अमर सिंह ने एक तीर से दो निशाने साधे। एक से उन्होंने अखिलेश यादव को नीचा दिखा दिया दूसरे से अब संगठन में उनका हस्तक्षेप बढ़ जाएगा।
    चुनाव के समय संगठन में पकड़ का क्या महत्व होता है, यह अखिलेश बखूबी जानते हैं। इसी वजह से अध्यक्ष पद जाने के बाद उन्होंने बिना पार्टी मुखिया के पूछे शिवपाल सिंह यादव से उनके मंत्री पद छीन लिए। इस प्रकरण पर अमर सिंह का अखिलेश यादव को अपना बेटा कहते हुए 'यदि अखिलेश उनके थप्पड़ भी मार दे तो वह उसके हाथ में चोट के बारे में चिंतित होंगे।Ó कहना जले पर नमक छिड़कना था। अखिलेश की बाहरी आदमी का दखल कहते हुए नाराजगी व्यक्त करना मामले को उजागर कर रहा है।
    पार्टी महासचिव व प्रवक्ता रामगोपाल यादव का अखिलेश को अध्यक्ष पद हटाना नेताजी की गलती बताना अखिलेश के पाले में खड़ा कर रहा है । अमर सिंह का सियासी दलाल कहने वाले आजम खां मामले में तटस्थ की भूमिका निभाते हुए तमाशबीन की भूमिका में हैं। ये सब बातें अपनी-अपनी लॉबी को मजबूत करती दिख रही हैं। इन सबके बीच फंस गए हैं नेताजी। वैसे नाराजगी दिखाने व मनाने का दौर राजनीति में चलता रहता है।
    दरअसमल सपा में दो लॉबी बन गई हैं। एक में शिवपाल सिंह यादव व अमर सिंह दूसरी में अखिलेश यादव व रामगोपाल यादव। नेताजी के राजनीतिक करियर का यह समय सबसे चुनौतीपूर्ण है। मामले बेटे व भाई के बीच का है। नेताजी को जहां अपने बेटे के वजूद का ध्यान रखना और भाई की भावनाओं का भी। साथ विधानसभा चुनाव सिर पर। इस प्रकरण ने यह तो साफ कर दिया कि नेताजी पर अमर सिंह की पकड़ फिर से मजबूत हो गई है। आजकल वह रामगोपाल यादव व मो. आजम खां से अधिक बातें अमर सिंह की मान रहे हैं। यही वजह है कि अमर िसिंह ने मुलायम सिंह पार्टी, अखिलेश व अपना बाप तक कह दिया। पार्टी में इतने बड़े स्तर पर उभर कर आई इस तल्खी में पार्टी व सरकार फिर मुलायम सिंह के भरोसे है। मुलायम सिंह यादव ही हैं, अभी भी जिनका प्रभाव अखिलेश यादव व शिवपाल सिंह दोनों पर है। अमर सिंह की अति महत्वाकांक्षा का क्या होगा ? अमर सिंह चाह रहे हैं या तो पार्टी में उनका रुतबा मुलायम सिंह सरकार जैसा हो या फिर एक लॉबी को वह लीड करें। वह नेताजी व शिवपाल सिंह को अपने साथ देख रहे हैं। यही वजह है कि वह खुलकर खेल रहे हैं।
    हां खेल बहुत खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया है। मामला बाप-बेटे की प्रतिष्ठा का बन गया है। इस खेल के बाद घटते घटनाक्रम से देखने से तो यही लग रहा है कि कम से कम अखिलेश यादव अब अमर सिंह का चेहरा तो देखना नहीं चाहते। अमर सिंह भी मुलायम सिंह व शिवपाल सिंह के माध्यम से अखिलेश यादव को अपना वजूद दिखाने में लगे हैं।
    दरअसल लड़ाई भले ही दिखाई दे रही हो अखिलश व शिवपाल के बीच की पर लड़ाई है अखिलेश यादव व अमर सिंह के बीच। अखिलेश की समझ में यह आ गया है कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जब से अमर सिह पार्टी में आए हैं तब से शिवपाल सिंह ज्यादा मुखर हुए हैं। भले ही शिवपाल सिंह ने नेताजी की बात मानते हुए मुख्यमंत्री की बात मानने की बात कही है पर संगठन के माध्यम से वह अपना वजूद दिखाने तथा अखिलेश को नीचा दिखाने से बाज नहीं आएंगे। राजनीति का माहिर खिलाड़ी रहे नेताजी इतनी आसानी से पार्टी के दो फाड़ नहीं होने देंगे पर पार्टी में बन चुकी दो लॉबियों में नेताजी की क्या भूमिका है ? अब देखना यह है कि मुलायम सिंह इन लॉबियों को खत्म करते हैं या फिर खुद भी एक लॉबी में खड़े हो जाते हैं। वैसे शिवपाल सिंह को लेकर नेताजी संगठन को लेकर अखिलेश पर अपना गुस्सा जता चुके हैं।
    राजनीति में चतुर खिलाड़ी माने जाने वाले अमर सिंह आने वाले समय में अपने हिसाब से इस प्रकरण को जोड़ेंगे। यदि पार्टी में दो फाड़ होकर परिवार में बगावत होती है तो अपने अपमान का बदला लेने की बात कहते हुए अपनी भड़ास निकालने से बाज नहीं आएंगे। हां यदि इस प्रकरण से अखिलेश यादव का कद और बढ़ा तो अमर सिंह नई कहानी गढ़ सकते हैं। उस स्थिति में अमर सिंह पुन: सरकार बनाने के लिए अखिलेश यादव के चेहरे को निखारने के लिए यह सब रणनीति का हिस्सा बताते फिरेंगे। वैसे भी अखिलेश के हाथों वह अपमानित होना गलत नहीं मान रहे हैं।
    इस नए राजनीतिक प्रकरण से यह बात भी समझ में आ रही है कि नेताजी के वृद्ध होने की वजह से उनका उत्तराधिकारी बनाने की सियासी तैयारी चल रही हो। ये सब अखिलेश को पार्टी की बागडोर देने के लिए चल रहा हो। इतिहास बताता है कि राजनीति में पुत्र के सामने भाईयों का अस्तित्व कम हो जाता है। तो मुलायम सिंह अखिलेश यादव के सामने रामगोपाल या शिवपाल को पार्टी की बागडोर नहीं देना चाहेंगे।
उधर मो. आजम खां भी समय-समय पर अपने तेवर दिखाते रहते हैं। अमर सिंह भी जानते हैं कि अखिलेश यादव मुखिया की वजह से भले ही न माने पर पिता के नाते मुलायम सिंह यादव की बात नहीं टालेंगे। इस प्रकरण पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही है पर सब कुछ दूसरी बार सरकार बनाने को लेकर हो रही कवायद का हिस्सा है। यदि अखिलेश यादव इतने बड़ी निर्णय लेने वाले थे तो पहले क्यों नहीं लिए। अब चुनाव के समय ही उन्हें ये सब दिखाई दे रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुलायम सिंह अमर सिंह की लिखी स्प्रिप्ट में गायत्री प्रजापति, किशोर सिंह, दीपक सिंघल, शिवपाल सिंह यादव, अखिलेश यादव, रामगोपाल सिंह विभिन्न पात्रों की भूमिका में हैं।
    इसमें दो राय नहीं कि पार्टी को यहां तक पहुंचान में मुलायम सिंह और अमर सिंह की जोड़ी का अहम रोल रहा है। भले ही संगठन में बड़े स्तर पर अमर सिंह के अलोचक रहे हों पर नेताजी ने अमर सिंह को हमेशा से ही अपने दिल के करीब बताया है। नेताजी जानते हैं कि पार्टी के आगे बढ़ाने में अमर सिंह  क्या योगदान ? ऐसे ही नेताजी ने अमर ङ्क्षसह के कहने पर बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर, मो. आजम खां जैसे कद्दावर नेताओं को पार्टी से निकाल दिया था। वह बात दूसरी है कि बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खां फिर से पार्टी में आ गए हैं।
    हां अमर सिंह को यह भी नहीं भू्लना चाहिए कि नेताजी कभी भी किसी के भी उकसावे में अपने परिवार के किसी सदस्य को पार्टी से नहीं निकाल सकते। अखिलेश यादव तो उनका प्रिय पुत्र और उनका उत्तराधिकारी है। अमर सिंह को याद करना होगा कि रामगोपाल सिंह को पार्टी से निकलवाने के चक्कर में उन्हें खुद पार्टी से हाथ धोना पड़ा था

Saturday, 27 August 2016

मुर्दों की बेबसी पर हंसता संवेदनहीन समाज

   पहले दिल्ली और अब उड़ीसा में इंसानियत को झकझोर देने वाली खबरें पढ़ने को मिली। खबरें पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे कि शासन-प्रशासन में बैठे लोग तो जैसे न कभी मरेंगे और  न ही कभी उन्हें कोई परेशानी होगी। जैसे ये लोग तो पैसा खाकर-खाकर हमेशा के लिए अमर हो गए हैं। ये तो मानसिकता नेताओं व् नॉकरशाह की है पर उस जनता की क्या मानसिकता है जो हर समय व्यवस्था पर उंगली उठाती रहती है।
   दिल्ली में ऑटो की चपेट में आया राहगीर घायल होकर तड़पता रहा और न तो उस ऑटो वाले ने उसे अस्पताल पहुंचाया जिसने उसे टक्कर मारी और न ही अन्य किसी व्यक्ति ने। हद तो तब हो गई जब एक व्यक्ति उसका पर्स और मोबाईल भी चोरी कर ले गया। उड़ीसा की खबरें तो इससे भी अधिक झकझोरकर रख देने वाली हैं। एक खबर में एक गरीब व्यक्ति एम्बुलेंस न मिलने की वजह से अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर डालकर अपने घर की ओर चल दिया तथा दस किलोमीटर तक का सफर उसने तय भी कर लिया। एक अन्य खबर में अस्पताल में शव को पोस्टमार्टम तक ले जाने के लिए जब एम्बुलेंस नहीं मिली तो एक कर्मचारी महिला के शव को कमर तक तोड़  देता है।
   दिल्ली की खबर को तो मीडिया ने मानवीय संवेदना के हिसाब से दिखाया है पर उड़ीसा की खबरों को मात्र एम्बुलेंस न मिलने की वजह से ऐसा हुआ दर्शाया गया। राजनीतिक दलों की जरा- जरा सी गतिविधियों पर बड़ी-बड़ी संपादकीय लिखने वाले संपादकों को ये खबरें शायद प्रभावित नहीं कर पाईं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि दिन भर में हम लोग भले ही कितने पैसे कमाते हों।  कितनी अय्याशी करते फिरते हों। कितने संसाधनों का दोहन करते हों । कितनी संपन्नता की शेखी बखारते हों।   अपने बच्चों को कितने बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ा रहे हों समाज में बैठकर कितनी डींगें हांक रहे हों। ये तीन खबर मात्र ही  देश और समाज की असलियत बयां कर रहीं हैं।
    जो व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर डालकर ले जा रहा था, क्या उसका कोई परिचित या कोई रिश्तेदार उसकी मदद नहीं कर सकता था ? कैसे एक महिला के शव को एक अस्पताल में तोड़ने दिया गया। क्या वहां कोई अन्य कर्मचारी और तीमारदार नहीं था ? इस व्यवस्था के लिए मैं शासन-प्रशासन और अमीरों से ज्यादा आम आदमी दोषी मानता हूँ।
   लोकतंत्र में संख्या बल शक्तिशाली माना जाता है। आम आदमी को समझना होगा कि पांच फीसद लोगों ने देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी है कि आम आदमी की दुर्दशा तो हो ही रही है। अब स्थिति यहां  तक पहूंच गई है कि आम आदमी के शवों की भी दुर्गतिं की जा रही है। ये सवाल प्रभावशाली लोगों को ही कटघरे में नहीं खड़ा करता है, इससे आम आदमी भी नहीं छुट सकता है। जब गरीब व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को कंधे पर डालकर ले जा रहा था तो कोई आम आदमी उसे नहीं देख रहा था क्या ? महिला के शव को तोड़ने वाला भी तो आम आदमी ही था। गरीब व्यक्ति पैसे कमाने की होड़ में अमीरों जैसा संवेदनहीन होता जा रहा है। यही वजह है कि आदमी तरह-तरह की परेशानियां सिर पर लिए घूम रहा है। हर कोई भाग चला जा रहा है। वह बात दूसरी है कि खुद उसे ही पता नहीं कि वह कहां जा रहा है। प्यार-मोहब्बत, लगाव, संवेदनशीलता, मानवता, भाईचारा जैसे  शब्द तो जैसे दिखावटी शब्द बनकर ही रह गए हैं।
   लोगों को यह देखना होगा कि हर व्यवस्था समाज पर निर्भर करती है। जिस दिन निजी स्वार्थों को त्यागकर लोग देश और समाज की सोचने लगेंगे, उस दिन न केवल शासन-प्रशासन ठीक हो जायेगा बल्कि समाज की गंदगी भी दूर हो  जाएगी। अपनी जिंदगी का फैसला करने का मौका दूसरों को मत दीजिये। जिस दिन व्यक्ति दूसरों की परेशानी को अपने पर रखकर सोचने लगेगा तथा जो दूसरों से जो चाहता है, वह व्यवहार दूसरों से करने लगेगा उस दिन सब कुछ सुधर जाएगा। 

Sunday, 31 July 2016

भड़ुओं को छोड़ अपने हक की लड़ाई लड़ें पत्रकार

    जरूरतमदों की आवाज उठाने का दावा करने वाले पत्रकारों की हालत यह है कि  वे लोग अपनी लड़ाई नहीं लड़ पा रहे हैं। कुछ स्वार्थी, लालची व कायर पत्रकारों ने मीडिया में ऐसा माहौल बनाकर रख दिया है कि जो जितना बड़ा दलाल उतना ही बड़ा पत्रकार। स्वाभिमान, ईमानदार व कर्मठ पत्रकारों को या तो काम नहीं करने दिया जाता या फिर उनको नकारा साबित कर दिया जाता है। इन सबसे यदि ये लोग उबर गए तो इनका इतना दमन किया जाता है कि इन्हें इसका विरोध करना पड़ता है। विरोध का नतीजा यह होता है कि उन्हें नौकरी  से हाथ  धोना  पड़ता है।     टीवी चैनलों व अखबारों में बड़ी बातें कही जाती हैं छापी जाती हैं पर जमीनी हकीकत यह है कि यदि कहीं सबसे ज्यादा शोषण है तो वह मीडिया है। इसके लिए मालिकों से ज्यादा जिम्मेदार बेगैरत, चाटुकार, चरित्रहीन व कमजोर प्रवत्ति के वे अधिकारी हैं जो अपने फायदे के लिए कुछ भी दांव पर लगा देते हैं। युवाओं में भले ही मीडिया के प्रति आक्रषण बढ़ रहा हो। मीडिया की चमक-दमक से भले ही लोग चौंधिया जा रहे हों पर स्थिति यह है कि मीडियाकर्मी दयनीय जीवन बिताने को मजबूर हैं। हां दलाल मीडियाकर्मी जरूर मजे में हैं। मैं मीडिया में शोषण के लिए मीडियाकर्मियों को भी बहुत हद तक जिम्मेदार मानता हूं। विभिन्न मीडिया संस्थानों में विभिन्न कारणों से बड़े स्तर पर पत्रकारों को बर्खास्त कर दिया गया। निलंबित कर दिया गया। स्थानांतरण कर दिया गया। कितने संस्थानों में कई-कई महीने से सेलरी नहीं मिल रही है। राष्ट्रीय सहारा इसमें प्रमुख है। यहां 12-16 महीने की सेलरी बकाया है।
    गत दिनों कुछ कर्मचारियों ने हिम्मत कर बकाया वेतन की मांग उठाई तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। इन कर्मचारियों का मात्र दोष इतना था ही इन लोगों ने तीन माह का बकाया वेतन तथा पीडीसी मांगे थे। हालांकि राष्ट्रपति महोदय से इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगने तथा मामला पीएमओ तक पहुंचाने तथा गेट पर प्रदर्शन करने के बाद प्रबंधन को बकाया वेतन देना पड़ा। मैं सहारा प्रबंधन की निरंकुशता के लिए यहां पर काम कर रहे कर्मचारियों को भी दोषी मानता हूं। यदि बर्खास्त कर्मचारियों के साथ ये लोग भी बकाया वेतन के लिए अड़ जाते तो प्रबंधन को बर्खास्त कर्मचारियों को तो वापस लेना ही पड़ता। साथ ही इन लोगों को भी काफी बकाया वेतन मिल जाता। प्रबंधन की मजबूरी यह थी क्योंकि काम ठप था। इस प्रकरण में कुछ लोगों ने जो गद्दारी की है, वह सहारा क्रांति में काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा। इसी तरह का हाल दैनिक जागरण का है बड़े स्तर पर कर्मचारी बर्खास्त व निलंबित होकर सड़कों पर घूम रहे हैं और ये लोग जिनकी लड़ाई लड़ रहे थे वे प्रबंधन के दबाव में काम कर रहे हैं।
   मैं मीडिया में जिस तरह से दबाव में काम कराया जा रहा है उसे बंधुआ मजदूरी की संज्ञा देता हूं। मैं एक ऐसे साथी का उदाहरण दे रहा हूं, जिससे भले ही बेगैरत लोगों पर कुछ असर नहीं पड़े पर जो लोग संवेदनशील हैं उनके रोंगटे खड़े हो जायेंगे।  हमारा एक साथी ओमपाल शर्मा एक अख़बार में कार्यरत था। लंबे समय तक वेतन न मिलने की स्थिति में एक हादसे का शिकार होकर घायल हो गया था। उचित इलाज न होने पर उसका निधन हो गया। इस गम में उसकी मां भी गुजर गई। बाद में उसे  किसी तरह की मदद न मिलने पर उसकी पत्नी ने भी दम तोड़ दिया। इस साथी के छोटे-छोटे बच्चे हैं। ओमपाल शर्मा तो मात्र उदाहरण है, ऐसे कितने ओमपाल इस व्यवस्था में दम तोड़ रहे हैं और बेगैरत पत्रकार प्रबंधन से मिलकर अपने साथियों के शोषण में भागीदारी निभा रहे हैं। आज यदि सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने की जरूरत है वह मीडिया है।
   जो पत्रकार सरकारों की तारीफ में लिखते रहते हैं, उनके लिए मैं लिखना चाहता हूं। जो सरकारें अपने वोटबैंक के लिए सातवां वेतनमान आयोग लागू कर रही हैं उन सरकारों को मीडियाकर्मियों के लिए गठित मजीठिया आयोग नहीं दिखाई दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मीडिया समूहों के मालिकों के दबाव में सरकारें अभी तक मजीठिया आयोग लागू नहीं करा पाई हैं। मेरा सभी मीडिया साथियों से कहना है कि अब समय आ गया है कि हम लोग अपने मान-सम्मान व अधिकार के लिए खड़े हो जाएं। जो भडुवे पत्रकार हैं उन्हें छोड़ दो। मीडियाकर्मियों की लड़ाई लड़ने के लिए एक फेडरेशन की जरूरत है। सोचो कि  हम लोगों की ओर जरूरतमंद लोग भी आशा भरी निगाहों से देखते हैंं। जब हम लोग अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ सकते तो हमें पत्रकार कहने को कोई अधिकार नहीं ?

Friday, 29 July 2016

उप्र चुनाव : मायावती को मिला मजबूत हथियार

स्वामी प्रसाद मौर्य व आरके चौधरी की बगावत के बाद लगातार दलितों के निशानों को झेल रहीं मायावती को भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह के 'वेश्याÓ संबंधी बयान ने उत्तर प्रदेश चुनावी दंगल में जोर आजमाइश का एक मजबूत हथियार दे दिया है। जिस हथियार बल पर मायावती ने दलितों को एकजुट किया था, वही हथियार उनके हाथ में उस समय थमा दिया गया, जब दलितों के दिग्गज नेता पार्टी छोड़कर उन पर पार्टी के संस्थापक कांशीराम की नीतियों से भटकने तथा टिकट बेचने का आरोप लगा रहे हैं।
   अपनों के आरोपों से जूझ रहे मायावती ने बड़ी चालाकी से दलितों के अपमान का हवाला देकर पार्टी से छिटके दलितों को सवर्णांे के खिलाफ भड़का दिया है। भले ही बसपा नेताओं ने दयाशंकर सिंह के परिजनों को भद्दी-भद्दी गालियां दे दी हों। भले ही नसीमुद्दीन सिद्धिकी की गिरफ्तारी को लेकर भाजपा सड़कों पर हो पर मायावती के दांव के सामने भाजपा के सभी दांव फेल होते नजर आ रहे हैं।
    भाजपा को यह सोचना होगा कि जो माहौल भाजपा दलित-बनाम सवर्ण बनाने का प्रयास कर रही है। वही कार्ड कांग्रेस ने भी खेला है। कांग्रेस ने जहां ब्राह्मण चेहरे के रूप में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया है। वहीं ठाकुर चेहरा संजय सिंह को चुनाव समिति के चीफ बनाया है। प्रमोद तिवारी पहले ही एक ब्राह्मण चेहरा मौजूद है। सपा में भी ठाकुर व ब्राह्मण बहुतायत में हैं। इतना ही नहीं मायावती से टिकट मांगने वाली लाइन में सबसे अधिक सवर्ण ही हैं। ऐसे में इस प्रकरण से भाजपा को फायदा हो या न हो पर मायावती इस मुद्दे को कैश करा ले जाएंगी। मौके की नजाकत को भांपते हुए इस प्रकरण में दिलचस्पी ले रही सपा को भी कुछ सूझ नहीं रहा है।
     सपा ने ठाकुरों को रिझाने के लिए दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वामी सिंह के पक्ष में बलिया से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह के पुत्र नीरज शेखर को लगा दिया है। ये लोग यह भूल गए हैं कि ये वही मायावती हैं कि जिन्होंने 'तिलक तराजू और तलवार इनके मारो जूतें चारÓ का नारा देकर दलितों को एकजुट किया था। भले ही दयाशंकर के परिवार के साथ सपा नेता नीरज शेखर समेत कई सामाजिक संगठन आ गए हों पर दयाशंकर की एक भूल ने मायावती की पौ बारह कर दी है। मायावती अब इस मुद्दे को चुनाव में कैश कराने में युद्ध स्तर पर जुट गई हैं। अब वह दलितों के अपमान से जोड़ते हुए उत्तर प्रदेश में रैलियां करने जा रही हैं। इसकी पहल वह आगरा से कर रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों की संख्या बहुतायत में है, जिन्हें उकसाने के लिए उनके लिए यह मुद्दा बहुत है।     
     भाजपाइयों को यह समझना होगा कि गुजरात में बच्चों व मध्य प्रदेश में महिलाओं की पिटाई मामले को मायावती ने पूरी तरह से सुलगाकर दलितों में मैसेज दे दिया है। समझने की बात यह है कि उत्तर प्रदेश चुनाव ही नहीं मायावती इस मामले को पंजाव व उत्तरांचल चुनाव में भी लेकर जाएंगी। भले ही दयाशंकर सिंह के परिवार की तहरीर पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया हो। बिहार में भी एक मामला दर्ज करा दिया गया हो पर इस वोटबैंक की राजनीति में मायावती ने बढ़त बना ली है।
    मायावती की चतुराई देखिए कि माहौल को देखते हुए उन्होंने दलितों की न कहकर अपने को गरीबों की देवी बताया। इस प्रकरण से जहां भाजपा के दलितों को संगठन से जोड़ने के अभियान को झटका लगा है वहीं आरएसएस के दलितों के रिझाने का प्रयास भी कमजोर हुआ है। उत्तर प्रदेश चुनाव को देखते हुए जो भाजपा दलित कार्ड खेलने के फिराक थी, मायावती ने उसकी हवा ही निकाल दी है। इसके लिए भाजपा हाईकमान की संगठन पर नियंत्रण न रहना भी कहा जा सकता है।
    भले ही अभी जल्दबाजी लग रही हो पर जो गलती आरएसएस ने बिहार चुनाव में आरक्षण का मुद्दा छेड़कर लालू प्रसाद को एक मजबूत हथियार दे दिया था। ठीक उसी तरह से दयाशंकर सिंह ने मायावती को लेकर आपत्तिजनक बयान देकर मायावती का एक मजबूत हथियार दे दिया है। आरक्षण वाला बयान भी भावनाओं से जुड़ा था और दयाशंकर का आपत्तिजनक बयान भी भावनाओं से जुड़ा है। भावनाओं से जुड़ा बयान दयाशंकर सिंह के परिजनों को गाली देना वाला भी है पर आज की तारीख में जो जागरूकता दलितों में वह सवर्ण में नहीं दिखाई दे रही है।
   उधर मायावती को फॉर्म में आती देख नेताजी के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। कांशीराम की नीतियों से भटकने का आरोप लगाकर मायावती को कटघरे में खड़ा कर रहे दलित नेताओं के बयानों से जो नेताजी मन ही मन मुस्करा रहे थे, वे अब बसपाईयों के दलितों के अपमान का हवाला देकर आक्रामक रुख अपमाने पर असहज महसूस कर रहे हैं। जगजाहिर है कि देश में एकमात्र मायावती ही ऐसी नेता हैं जो अपने वोटबैंक को किसी भी पार्टी में कंवर्ट करा सकती हैं। कहना गलत न होगा कि मायावती ने एक दांव से ही उत्तर प्रदेश चुनाव में बढ़त बना ली है। भले ही संसद में भाजपा के दिग्गजों ने मायावती से माफी मांग ली हो। भले ही बसपाईयों के उग्र रूप धारण कर लेने पर भाजपा और सपा लगातार मायावती पर निशाना साध रही हो। भले ही दयाशंकर सिंह के परिवार मायावती के विरोध और दयाशंकर के पक्ष में सड़कों पर उतर आया हो पर मायावती ने अपनी गति पकड़ ली है। यदि चुनाव में सपा व भाजपा को कोई मजबूत मुद्दा न मिला तो मायावती की रफ्तार को रोकना मुश्किल लग रहा है।

Sunday, 3 July 2016

दांव पर चरण सिंह की राजनीतिक विरासत


   उत्तर भारत में मजबूत पकड़ बनाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे अजित सिंह की राजनीतिक हैसियत का हाल यह हो गया कि राज्यसभा के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। आलम यह है कि वह जिस दल से गठबंधन की बात करते हैं वह उनकी पार्टी का अपने में विलय चाहता है। यह अजित सिंह का गिरता राजनीतिक स्तर ही है कि उन्हें उस पार्टी से मिलने से कोई उरेज नहीं कि जो उनके हरित प्रदेश के मुद्दे के सख्त खिलाफ है। कभी जदयू तो कभी भाजपा आैर कभी सपा से गठबंधन करने को बेताब अजित सिंह का हाल त्रिशंकू वाला हो गया है। आम चुनाव में अस्तित्व बचाने में नाकाम रहे छोटे चौधरी की सत्तालोलुपता के चलते देश के समाजवादियों को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत दांव पर लग गई है।
   संघमुक्त भारत का नारा देकर देश को विकल्प देने देने निकले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौधरी चरण सिंह का नाम भुनाने के लिए अजित सिंह को साथ लेना चाहा। मामले को लेकर कई दौर की वार्ता भी चली। उत्तर प्रदेश चुनाव में जयंत चौधरी को चेहरा बनाने की तैयारी थी। खतरे को भांपकर नीतीश कुमार का खेल बिगाड़ने के लिए अमित शाह ने अजित सिंह को राज्यसभा का लालच दिया। जब अजित सिंह नीतीश कुमार से अलग होकर भाजपा से सट गए तो उन्होंने रालोद के भाजपा में विलय की शर्त रख दी। भाजपा में बात न बनती देख अजित सिंह मुलायम की शरण में गए। सपा महासचिव शिवपाल सिंह यादव से उनकी कई दौर की वार्ता चली। अजित सिंह की फितरत से वाकिफ मुलायम सिंह ने भी विलय के बाद ही राज्यसभा भेजने की बात कही। अजित सिंह का राजनीतिक इतिहास रहा है कि सत्ता के लिए उन्होंने किसी भी दल से गठबंधन किया तथा किसी का भी साथ छोड़ दिया। यही वजह रही कि चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत लगातार सिमटती गई।
जगजाहिर है कि मुलायम सिंह को अपना सबसे प्रिय शिष्य मानने वाले चरण सिंह अंतिम समय में पुत्र मोह के चलते अपनी राजनीतिक विरासत अजित सिंह को सौंप गए थे।  अजित सिंह की संगठन पर पकड़ इतनी ढीली थी कि 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे पर विधायकों ने मुलायम सिंह को अपना नेता चुना। वह बात दूसरी है कि 1992 में मुलायम सिंह यादव अलग होकर अपनी पार्टी (सपा) बना ली। यह समय की नजाकत ही है कि जिस अजित सिंह को मुलायम सिंह यादव अपने में मिलाना चाहते हैं उनके ता चौधरी चरण सिंह की स्वीकार्यता व लोकप्रियता का आलम यह है कि यादव बहुल आजमगढ़ जिले से उनके भारतीय क्रांति दल को सन 1969 में 14 में से 14 विधानसभा सीटें मिली थी।
आज जो भाजपा चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को अपने में मिलाने की बात कर रही है इसके गठन से पहले ही चरण सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे। वह चरण सिंह ही थे जिन्होंने कांग्रेस के ब्रााह्मण, मुस्लिम व दलित वोटबैंक के विरोध में 'अजगर" बनाने का आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि अहीर, जाट, राजपूत व गुर्जरों का मुख्य पेशा खेती है तो इन लोगों के एकजुट होने ने किसान हित की लड़ाई लड़ना आसान हो जाएगा। आज के दौर में भले ही पिछड़ों की राजनीति आरक्षण व जातिवाद पर टिकी हो पर चौधरी चरण सिंह ने लोगों से रोजी-बेटी का रिश्ता जोड़ने को कहा। इसकी पहल उन्होंने स्वयं से की थी। यही वजह थी कि एक बेटी को छोड़ उन्होंने सभी बेटियों का विवाह अंतरजातीय किया। भले ही आज पिछड़ों के हितैषी होने का दंभ मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, शरद यादव व नीतीश भर रहे हों पर यादवों के उत्थान की पैरवी सबसे पहले चौधरी चरण सिंह ने  की थी। यही वजह थी कि उन्हें तबके पूर्वांचल के कद्दावर नेता बनारस, गाजीपुर आैर आजमगढ़ समेत कई जिलों में चौधरी चरण सिंह यादव कहकर नारे लगाते थे।
गुर्जर भले ही रामचंद्र विकल को अपना नेता मानते हों पर गुर्जरों के उत्थान के लिए रामचंद्र विकल से ज्यादा चरण सिंह ने किया। सन 1969 में विधानसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश से चरण सिंह की बीकेडी से 11 विधायक गुर्जर बिरादरी से बने थे। यह चरण सिंह की विचारधारा ही थी कि वर्तमान की उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का दंभ भर  रही है तो उनके पुत्र आैर रालोद प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम का सुख भोग रहे हैं। आज भले ही उनके शिष्य जातिवाद व परिवारवाद की चपेट मे आ गए हों। इनके समाजवाद पर अवसरवाद आैर पूंजीवाद हावी होता दिख रहा है पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे। हालांकि उन पर भी अंत समय में पुत्र मोह के जागने का आरोप लगता रहा है। वह चरण सिंह ही थे कि उत्तर प्रदेश में नक्सलवाद जड़ंे न जमा सका। जमींदारी उन्मूलन कानून से उन्होंने जमीन का सामाजिक बंटवारा किया। वह राजनीतिक लड़ाई संकल्पों के सहारे जीतने का माद्दा रखते थे, यही वजह रही कि उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया तो उसे पूरा भी किया। शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
चरण सिंह के वजूद की बात करें तो सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन में अग्रिम भूमिका निभाने वालों में से चरण सिंह भी एक थे। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। मोरारजी देसाई, मधु लिमये के साथ चौधरी चरण सिंह जयप्रकाश के कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन की अगुआई की। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री। हालांकि बाद में संजय गांधी ने ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को बरगलाकर समाजवादियों में फूट डाल दी। राजनीतिक जानकार चौधरी चरण सिंह की यह पहली आैर अंतिम गलती मानते हैं। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर वह संसद में नहीं जा सके।
चरण सिंह के संघर्ष का असर अजित सिंह से ज्यादा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पर पड़ा। अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सिमट कर रह गए आैर मुलायम सिंह तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने आैर अब उनके पुत्र अखिलेश यादव प्रदेश की बागडोर संभाले हुए हैं। नेताजी चौधरी चरण सिंह की वजह से अजित सिंह को भी साथ लेकर चलते रहे हैं पर अजित सिंह की सत्तालोलुपता के चलते हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में नेताजी अजित सिंह को कोई मौका देने को तैयार नहीं।