Saturday, 15 October 2016

मौत के सौदागर बने कोटा के कोचिंग सेंटर संचालक

इसे शिक्षा का व्यवसायीकरण कहें। युवा पीढ़ी का भटकाव या परिजनों की निगरानी में न रहना या फिर भ्रष्ट होती जा रही व्यवस्था में निराशा का माहौल वजह जो भी हो दूरदराज शहरों में भविष्य बनाने जा रहे युवाओं में से काफी मौत को गले लगा रहे हैं। रात-दिन मेहनत कर पैसे जुटाने वाले परिजन सदमे में जा रहे हैं। स्थिति यह है कि एजुकेशन हब के नाम से प्रसिद्ध हो चुके राजस्थान के कोटा में इस साल 16 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है। ये बात और दर्दनाक है कि इनमें से अधिकतर बिहार के हैं। हाजीपुर के अंकित गुप्ता ने चंबल नदी में छलांग लगाकर इसलिए आत्महत्या कर ली। क्योंकि वह मेडिकल में अपने माता-पिता के सपने को पूरा नहीं कर पा रहा था। गत दिनों एक छात्र ने 500 फुट इमारत से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। यह छात्र भी दो साल से मेडिकल की तैयारी कर रहा था। बताया जा रहा है कि वह डिप्रेशन में रहता था। अभी कुछ ही दिन पहले बिहार से डॉक्टर बनने का सपना लेकर कोटा आई एक छात्रा ने फंदे से लटकर आत्महत्या कर ली थी। यह छात्रा भी हॉस्टल में रहकर मेडिकल की कोचिंग कर रही थी। छात्रा स्वभाव से खुशमिजाज बताई जा रही है। पढ़ने में भी तेज बताई जा रही यह छात्रा सीन साल से मेडिकल की तैयारी कर रही थी। इस छात्रा की तीन साल से कोचिंग करने की वजह से या तो उसे परिजनों के खर्चे की चिंता सता रही हो या फिर साथियों या परिजनों/रिश्तेदारों के ताने। जिस वजह से उसने मौत को गले लगाया।
   बात कोटा की नहीं है कि विभिन्न शहरों में इस तरह की खबरे सुनने को मिल जाती है। गत दिनों नोएडा के एमिटी विश्वविद्यालय में एक छात्र ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसी उपस्थिति कम होने की वजह से उसे परीक्षा में नहीं बैठने दिया गया था। इन सब बातों को देखते हुए प्रश्न उठता है कि जीवन को उच्च स्तर का बनाने वाली शिक्षा को गृहण करते करते युवा आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? मामला इतना गंभीर है कि इन मामलों पर मंथन बहुत जरुरी हो गया है। क्या इन शिक्षण संस्थानों का माहौल ऐसा विषाक्त कर दिया गया है कि युवा इस माहौल में अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। या फिर बच्चों पर परिजनों के उच्च शिक्षा थोप देने की प्रवृत्ति या फिर रोजगार न मिलने की असुरक्षा। या फिर बात-बात पर समझौता करने वाली प्रवृत्ति के चलते युवा में समस्याओं से जूझने का कम हो रहा माद्दा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप में सत्र खत्म होने वाले सत्र में इस तरह के संवेदनशील मुद्दे नहीं उठाए जाते हैं। जो मां-बाप तरह-तरह की समस्याओं का सामना करते-करते बच्चों की परवरिश करते हैं। सीने पर पत्थर रखकर बच्चों कों अपने से दूर कर देते हैं। जब उनको बच्चों की मौत की खबर सुनने मिलती तो उनकी मनोदशा क्या होती होगी ? क्या इस बात को कभी शिक्षा का व्यापारियों ने समझने की कोशिश की है ? सरकारों को वोटबैंक की राजनीति के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। ये लोग तो वोट के लिए कभी आरक्षण की पैरवी करते हैं तो कभी जातिवाद धर्मवाद की और कभी क्षेत्रवाद की। बच्चों की भविष्य कैसे संवरे ? कैसे बच्चों में भाईचारा बढ़े। इससे न सरकारों को सरोकार है और न ही राजनीतिक दलों को। जिस देश का भविष्य ही दम तोड़ने लगे उसका दशा क्या होने वाली है बताने की जरूरत नहीं। कहीं आरक्षण के नाम पर जातिवाद का जहर। तो कहीं पर भेदभाव और कहीं पर क्षेत्रवाद। कभी कश्मीर में बच्चों के मरने की खबर सुनने को मिलती है तो कभी कर्नाटक में और कभी दिल्ली में। कुछ दिन तक राजनीति होती है और बाद में मामला शांत। जिसके घर से गया झेलता तो वह है। कब सुधरेगी यह व्यवस्था।
   राजनीति के बढ़ते वर्चस्व के चलते हर कोई राजनीति में जाना चाहता है। देश व समाज की सेवा करने नहीं बल्कि देश को लूटने। इस व्यवस्था में कहीं पर बच्चे अपराध की दलदल में फंसे जा रहे हैं तो कहीं पर टूटकर आत्महत्या कर ले रहे हैं। सरकारों व राजनीतिक दलों के साथ नौकरशाह को बस चिंता है तो बस लूटखसोट की। जब कोटा एक साल में इतने बड़े स्तर पर आत्महत्या के मामले सामने आए हैं तो सरकारी स्तर पर कोई जांच क्यों नहीं बैठाई गई। बच्चों के पढ़ने के बाद रोजगार ढूंढते समय तो आत्महत्या के मामले सुन लेते थे पर पढ़ाई करते समय आत्महत्या के बढ़ इन मामलों पर मंथन के साथ संबंधित शिक्षण संस्थानों में जांच कमेटी बैठाने की जरूरत है जो ईमानदारी से जांच रिपोर्ट सौंपे।

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