भले ही देश की सत्ता बदल चुकी हो पर व्यवस्था नहीं बदली है। आज भी मुट्ठी भर लोगों ने देश की व्यवस्था ऐसे कब्जा रखी है कि आम आदमी सिर पटक-पटक रह जाता है पर उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही है अौर देश को चलाने का ठेका लिए बैठे राजनेता वोटबैंक की राजनीति करने में व्यस्त हैं। मेरा मानना है कि यह व्यवस्था बदल सकती है तो देशभक्ति से बदल सकती है। लोगों के मरते जा रहे जमीर को जगाकर कर बदल सकती है। जब देशभक्ति की बात आती है तो सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब पड़ोसियों के घर में भगत सिंह के पैदा होने की सोच से काम नहीं चलेगा। अब देश के लिए हर मां को भगत सिंह पैदा करना होगा। भगत सिंह ऐसे नायक थे, जिनकी सोच यह थी कि उनकी शहादत के बाद ही युवाओं में देश की आजादी के प्रति जुनून जगेगा। हुआ भी यही भगत सिंह के फांसी दिए जाने के बाद देश का युवा अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आया और अंग्रेजों को खदेड़ कर ही दम लिया।
भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930 में यह बात महसूस कर ली थी। उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी। गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी। आज भी भगत सिंह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक और प्रासंगिक ही लगते हैं।
भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी, दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे। बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था। लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि और यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं। भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है। इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।
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