उत्तर भारत में मजबूत पकड़ बनाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे अजित सिंह की राजनीतिक हैसियत का हाल यह हो गया कि राज्यसभा के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। आलम यह है कि वह जिस दल से गठबंधन की बात करते हैं वह उनकी पार्टी का अपने में विलय चाहता है। यह अजित सिंह का गिरता राजनीतिक स्तर ही है कि उन्हें उस पार्टी से मिलने से कोई उरेज नहीं कि जो उनके हरित प्रदेश के मुद्दे के सख्त खिलाफ है। कभी जदयू तो कभी भाजपा आैर कभी सपा से गठबंधन करने को बेताब अजित सिंह का हाल त्रिशंकू वाला हो गया है। आम चुनाव में अस्तित्व बचाने में नाकाम रहे छोटे चौधरी की सत्तालोलुपता के चलते देश के समाजवादियों को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत दांव पर लग गई है।
संघमुक्त भारत का नारा देकर देश को विकल्प देने देने निकले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौधरी चरण सिंह का नाम भुनाने के लिए अजित सिंह को साथ लेना चाहा। मामले को लेकर कई दौर की वार्ता भी चली। उत्तर प्रदेश चुनाव में जयंत चौधरी को चेहरा बनाने की तैयारी थी। खतरे को भांपकर नीतीश कुमार का खेल बिगाड़ने के लिए अमित शाह ने अजित सिंह को राज्यसभा का लालच दिया। जब अजित सिंह नीतीश कुमार से अलग होकर भाजपा से सट गए तो उन्होंने रालोद के भाजपा में विलय की शर्त रख दी। भाजपा में बात न बनती देख अजित सिंह मुलायम की शरण में गए। सपा महासचिव शिवपाल सिंह यादव से उनकी कई दौर की वार्ता चली। अजित सिंह की फितरत से वाकिफ मुलायम सिंह ने भी विलय के बाद ही राज्यसभा भेजने की बात कही। अजित सिंह का राजनीतिक इतिहास रहा है कि सत्ता के लिए उन्होंने किसी भी दल से गठबंधन किया तथा किसी का भी साथ छोड़ दिया। यही वजह रही कि चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत लगातार सिमटती गई।
जगजाहिर है कि मुलायम सिंह को अपना सबसे प्रिय शिष्य मानने वाले चरण सिंह अंतिम समय में पुत्र मोह के चलते अपनी राजनीतिक विरासत अजित सिंह को सौंप गए थे। अजित सिंह की संगठन पर पकड़ इतनी ढीली थी कि 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे पर विधायकों ने मुलायम सिंह को अपना नेता चुना। वह बात दूसरी है कि 1992 में मुलायम सिंह यादव अलग होकर अपनी पार्टी (सपा) बना ली। यह समय की नजाकत ही है कि जिस अजित सिंह को मुलायम सिंह यादव अपने में मिलाना चाहते हैं उनके ता चौधरी चरण सिंह की स्वीकार्यता व लोकप्रियता का आलम यह है कि यादव बहुल आजमगढ़ जिले से उनके भारतीय क्रांति दल को सन 1969 में 14 में से 14 विधानसभा सीटें मिली थी।
आज जो भाजपा चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को अपने में मिलाने की बात कर रही है इसके गठन से पहले ही चरण सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे। वह चरण सिंह ही थे जिन्होंने कांग्रेस के ब्रााह्मण, मुस्लिम व दलित वोटबैंक के विरोध में 'अजगर" बनाने का आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि अहीर, जाट, राजपूत व गुर्जरों का मुख्य पेशा खेती है तो इन लोगों के एकजुट होने ने किसान हित की लड़ाई लड़ना आसान हो जाएगा। आज के दौर में भले ही पिछड़ों की राजनीति आरक्षण व जातिवाद पर टिकी हो पर चौधरी चरण सिंह ने लोगों से रोजी-बेटी का रिश्ता जोड़ने को कहा। इसकी पहल उन्होंने स्वयं से की थी। यही वजह थी कि एक बेटी को छोड़ उन्होंने सभी बेटियों का विवाह अंतरजातीय किया। भले ही आज पिछड़ों के हितैषी होने का दंभ मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, शरद यादव व नीतीश भर रहे हों पर यादवों के उत्थान की पैरवी सबसे पहले चौधरी चरण सिंह ने की थी। यही वजह थी कि उन्हें तबके पूर्वांचल के कद्दावर नेता बनारस, गाजीपुर आैर आजमगढ़ समेत कई जिलों में चौधरी चरण सिंह यादव कहकर नारे लगाते थे।
गुर्जर भले ही रामचंद्र विकल को अपना नेता मानते हों पर गुर्जरों के उत्थान के लिए रामचंद्र विकल से ज्यादा चरण सिंह ने किया। सन 1969 में विधानसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश से चरण सिंह की बीकेडी से 11 विधायक गुर्जर बिरादरी से बने थे। यह चरण सिंह की विचारधारा ही थी कि वर्तमान की उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का दंभ भर रही है तो उनके पुत्र आैर रालोद प्रमुख अजीत सिंह उनके नाम का सुख भोग रहे हैं। आज भले ही उनके शिष्य जातिवाद व परिवारवाद की चपेट मे आ गए हों। इनके समाजवाद पर अवसरवाद आैर पूंजीवाद हावी होता दिख रहा है पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद आैर परिवारवाद के घोर विरोधी थे। हालांकि उन पर भी अंत समय में पुत्र मोह के जागने का आरोप लगता रहा है। वह चरण सिंह ही थे कि उत्तर प्रदेश में नक्सलवाद जड़ंे न जमा सका। जमींदारी उन्मूलन कानून से उन्होंने जमीन का सामाजिक बंटवारा किया। वह राजनीतिक लड़ाई संकल्पों के सहारे जीतने का माद्दा रखते थे, यही वजह रही कि उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया तो उसे पूरा भी किया। शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
चरण सिंह के वजूद की बात करें तो सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन में अग्रिम भूमिका निभाने वालों में से चरण सिंह भी एक थे। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। मोरारजी देसाई, मधु लिमये के साथ चौधरी चरण सिंह जयप्रकाश के कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन की अगुआई की। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री। हालांकि बाद में संजय गांधी ने ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को बरगलाकर समाजवादियों में फूट डाल दी। राजनीतिक जानकार चौधरी चरण सिंह की यह पहली आैर अंतिम गलती मानते हैं। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर वह संसद में नहीं जा सके।
चरण सिंह के संघर्ष का असर अजित सिंह से ज्यादा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पर पड़ा। अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सिमट कर रह गए आैर मुलायम सिंह तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने आैर अब उनके पुत्र अखिलेश यादव प्रदेश की बागडोर संभाले हुए हैं। नेताजी चौधरी चरण सिंह की वजह से अजित सिंह को भी साथ लेकर चलते रहे हैं पर अजित सिंह की सत्तालोलुपता के चलते हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में नेताजी अजित सिंह को कोई मौका देने को तैयार नहीं।
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