Tuesday, 31 December 2013

आओ, नए साल के आगमन पर व्यवस्था बदलने का संकल्प लें

आज का दिन उतार-चढ़ाव का है, ढलने-उगने का दिन है। जी हां मैं 2013 के प्रस्थान और 2014 के आगमन की बात कर रहा हूं। अक्सर देखा जाता है कि नए साल के आगमन पर लोग तरह-तरह के संकल्पों की बात करते हैं। पुरानी बातों को भूलकर नए आगाज की तैयारी में  लग जाते हैं। बिल्कुल होना भी यही चाहिए हम नए साल में हम कुछ नया करने का संकल्प लें।
     मेरा मानना है कि आज देश जिस हालात से गुजर रहा है, ऐसे में हमें अपने से ज्यादा देश की चिंता करनी चाहिए। तो हम नए 2014 के साल के आगमन पर देश को भ्रष्टाचार, महंगाई से मुक्त कराने का संकल्प लें। विधायिका को लूटखसोट,  जात-पात व अवसरवादिता की राजनीति से  मुक्त कराने का संकल्प लें। कार्यपालिका, न्यायपालिका को भ्रष्टमुक्त बनाने का संकल्प लें। मीडिया को देश और समाज के लिए काम करने के लिए प्रेरित करने का संकल्प लें। लोगों के मर चुके जमीर को जगाने का संकल्प लें। देश को भुखमरी, गरीबी से मुक्त कराने का संकल्प लें। बच्चों को देशभक्त, संस्कारवान व मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने का संकल्प लें। ग्राम पंचायत के साथ ही विधानसभा और लोकसभा में ईमानदार और सच्चे जनप्रतिनिधि भेजने का संकल्प लें। देश की व्यवस्था बदलने का संकल्प लें।

Saturday, 28 December 2013

तो केजरीवाल सरकार में भी दिखेगा आप के आंदोलन का असर

दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविन्द केजरीवाल का राजनीति करने का  तरीका भी गज़ब का है। सत्ता मिलने के बाद भी वह आंदोलन की भाषा बोल रहे हैं। जिस तरह से उनका शपथ ग्रहण समारोह जनता को समर्पित रहा। वीआईपी लोगों को कोई तवज्जो नहीं मिली। इससे यह तो साबित हो गया है कि जहां वह पूंजीपतियों से दूर रहना चाहते हैं वहीं आम आदमी से जुड़कर ही सरकार चलाना चाहते हैं।
       अक्सर देखा गया है कि सरकार बनाने के लिए नेता जनता के खून पसीने से कमाया हुआ अरबों रुपए विधायकों की जोड़-तोड़ में लगा देते हैं। सरकार बनाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसे माहौल में
केजरीवाल का सत्ता मोह से दूर रहना जनता के लिए अच्छा संदेश है। जहां अन्य दल पूंजीपतियों के शिकंजे में फंसते जा रहे हैं वहीं आप जनता से जुड़कर राजनीति कर रही है। यह केजरीवाल की राजनीति ही है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह जनता से सीधे रूबरू हो रहे हैं। यह केजरीवाल का आंदोलन ही है कि नेताओं से घृणा करने वाला आम आदमी भी अब राजनीति करने की सोचने लगा है। आप की इस पहल से जहां वंशवाद पर लगाम कसी जाएगी वहीं युवाओं को भी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। इसमें दो राय नहीं कि अन्य राजनीतिक दलों में आप के राजनीति करने के तरीके से हड़कंप है।
      हां मैं यह जरुर कहना चाहूंगा कि आज जब केजरीवाल शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह से जीत का श्रेय बार-बार भगवान को देते दिखे उसमें उनका आत्मविस्वास कम होता दिखा। आदमी के आगे बढ़ाने में नसीब का बहुत बड़ा योगदान होता है पर भगवान भी तभी मदद करता है जब आदमी कर्म करता है। आप की जीत में  कार्यकर्ताओं 
व आम लोगों का योगदान सराहनीय है। समाजसेवी अन्ना हजारे के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है। अन्ना भले ही सक्रिय रूप से आप से न जुड़े रहे हों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ बनाए गए उनके माहौल का असर केजरीवाल के आंदोलन भी हुआ है।
      केजीवाल को आस्थावान होना चाहिए पर कर्म को ही प्रधान मानें और दिल्ली में कुछ ऐसे काम करें कि पूरे देश में अच्छा संदेश जाए। केजरीवाल से लोगों को बहुत अपेक्षाएं हैं, अब देखना यह है कि वह दिल्ली के लोगों की विश्वास पर कितना खरा उतरते हैं।

Friday, 20 December 2013

आखिर आरक्षण के नाम पर कब तक चलेगा वोटबैंक की राजनीति का खेल ?

वोटबैंक के लिए आरक्षण खेल कब तक चलेगा ? कोई दल नोकरी के बाद अब प्रमोशन में भी दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कई पिछड़ों को दलितों के श्रेणी में लाने की पैरवी कर रहा है। कभी आरक्षण के नाम पर दलितों को रिझाने  वाली कांग्रेस अब जाटों को केन्द्रीय सेवाओं में भी आरक्षण देने जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दल वास्तव में ही इन जातियों का भला चाहते हैं। ये सब वोटबैंक के लिए हो रहा है। ये दल इन जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आरक्षण नाम की बैसाखी इन लोगों के हाथों में थमा दे रहे हैं।
    दरअसल आजादी के बाद समाज में ऐसा महसूस  किया गया कि दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। उस समय दलित दबे-कुचले माने जाते थे तो इन लोगों के लिए 10 साल के लिए दलितों के लिए आरक्षण कर दिया गया। आज के हालत में भले ही कुछ दल डा भीम राव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति कर रहे हों पर डा अम्बेडकर का भी मानना था कि ज्यादा समय तक आरक्षण देने से दलितों के लिए यह बैसाखी का रूप धारण कर लेगा। इसके लागू होने के 10 साल बाद जब इसकी समय सीमा पर विचार करने का समय आया तो तब तक कांग्रेस के लिए आरक्षण ने वोटबैंक का रूप धारण कर लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम व ब्राह्मणों के साथ आरक्षण में नाम पर दलितों को अपना वोटबैंक बना लिया। तब प्रख्यात समाजवादी डा राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के मुस्लिम, ब्राह्मण व दलित गठबंधन की तोड़ के लिए पिछड़ों का गठबंधन तैयार किया था।  हालांकि कुछ समाजवादी दल पिछड़ों के इस गठबंधन को आरक्षण का रूप देकर राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं।
      आरक्षण की समय सीमा पर निर्णय लेने का समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में आया तो उन्होंने भी अपने पिता के पद चिह्नों पर  चलते हुए उसकी समय सीमा बढ़ा दी। उसके बाद 80  के दशक में वीपी सिंह ने पिछड़ों को अपना वोटबैंक बनाने ले लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी। आरक्षण की पैरवी करने वाले दलों से मेरा सवाल है कि क्या आरक्षण से देश का विकास प्रभावित नहीं हो रहा है ? क्या इस व्यवस्था से प्रतिभा का दमन नहीं हो रहा है ? क्या गरीब सवर्णों में नहीं हैं ? क्या दलितों व पिछड़ों में सभी को ही आरक्षण की जरूरत है ? मेरा तो मानना है कि आरक्षण का फायदा संपन्न लोग ही उठा रहे हैं जिन लोगों को इसकी जरूरत है उन लोगों को आज भी इसका उतना फायदा नहीं मिल पा रहा है।

Monday, 9 December 2013

केजरीवाल ने देश की राजनीति को दी नई दिशा

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सशक्त  जनलोकपाल बनवाने को लेकर अन्ना आंदोलन के बाद बने माहौल को भांपकर राजनीतिक क्षेत्र में कूदे ब्यूरोक्रेट से समाजसेवी बनने वाले अरविन्द केजरीवाल ने आप नामक पार्टी बनाकर कुछ ही महीनों में जिस तरह से दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को  हराकर व 70 में से 2८ सीटें जीतकर आम आदमी की ताकत का अहसास कराया है, उसने देश की राजनीति की दिशा ही बदल कर रख दी है। आप के प्रदर्शन से अब ईमानदार और स्वच्छ छवि के वाले लोगों के राजनीति में आने की सम्भावना बलवति हो गई है। बाहुबलियों व पूंजीपतियों की बपौती मानी वाली राजनीति में अब आम आदमी भी जनप्रतिनिधि बनने की सोच सकेगा।
      केजरीवाल के संघर्ष ने जाति व धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों को सोचने को मजबूर कर दिया है। अच्छे लोगों से विधानसभाएं व लोकसभा सुसज्जित होने के आसार जगने लगे हैं। दिल्ली में आप के प्रदर्शन का असर लोककसभा चुनाव में चल रहे समीकरणों को भी प्रभावित किया है। अब तक कांग्रेस को टारगेट मानकर रणनीति  बना रही भाजपा के लिए आप भी रणनीति का  हिस्सा बन गई है। जिन युवाओं को भाजपा वोटबैंक के रूप  में देख रही थी वे अब आप में राजनीतिक भविष्य तलाश सकते हैं। जाए कहना गलत न होगा कि लोकसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल नरेंद्र मोदी के लिए खतरा बन जाए।
     देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने कि लिए देश को सशक्त जनलोकपाल देने के लिए 2011 में अन्ना हजारे की अगुआई में जब आंदोलन किया तब ही राजनीतिक गलियारों में आंदोलन को राजनीतिक संगठन में बदलने की चर्चाएं होने लगी थी। राजनीतिक पंडित अरविन्द केजरीवाल की राजनीतिक महत्वकांक्षा को भांपने लगे थे । हुआ भी यही, आंदोलन के कुछ ही दिन चलने के बाद अन्ना हजारे के विरोध के बावजूद केजरीवाल ने आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कुछ सहयोगियों को साथ
लेकर  26 नवम्बर 2012 को जंतर-मंतर आप नामक राजनीतिक संगठन की घोषणा कर दी। पूर्व आईपीएस किरण बेदी को छोड़कर अन्ना आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण और कुमार विस्वास समेत कई सहयोगी राजनीति करने के लिए केजरीवाल खेमे में आ गए। समाजवादी विचारधारा वाले राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव को भी केजरीवाल पार्टी में ले आए। योगेन्द्र यादव ने ही पार्टी का संविधान तैयार किया।
     अरविन्द केजरीवाल ने आंदोलन छेड़कर भ्रष्टाचार में संलिप्त राजनीतिक दलों का विकल्प देने की कोशिश की। आप ने दिल्ली को टारगेट कर विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। पार्टी ने आंदोलन में सरकार एवं पूंजीपतियों की सांठगांठ से बिजली-पानी आदि के मूल्यों में वृद्धि एवं यौन उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त कानून बनाने की मांग प्रमुखता से उठाई गई थी। विधानसभा चुनाव में आप को झाड़ू चुनाव चिह्न मिलने पर केजरीवाल ने सूझबूझ की राजनीति का परिचय देते हुए चुनाव चिह्न को ही भ्रष्टाचार रूपी गंदगी दूर करने का प्रतीक बना दिया। आप की आम आदमी की लड़ाई ने ही पार्टी को दिल्ली में दूसरे नंबर की पार्टी बना दिया।
    अन्ना आंदोलन के बाद दिल्ली में आप के प्रदर्शन के बाद अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में बन रहे माहौल की तुलना जेपी आंदोलन से की जा सकती है। सत्तर के दशक में भी कांग्रेस की अराजकता के खिलाफ खड़े हुए समाजवादी आंदोलन के  चलते जिस तरह से देश का युवा लोकनायक जय प्रकाश नारायण के पीछे खड़ा हो गया था। इस बार भले ही अब तक युवाओं का रुझान नरेंद्र मोदी के पक्ष में देखा जा रहा हो पर दिल्ली में आप के प्रदर्शन के बाद आप युवाओं के लिए राजनीतिक मंच के रूप में देखी जा रही है।

Saturday, 7 December 2013

ब्याजमुक्त कर्ज मिलों को मिल सकता है तो किसानों के लिए क्यों नहीं ?

     गन्ना किसानों का बकाया देने के बहाने केंद्र सरकार चीनी मिलों को 7200 करोड़ रुपए का कर्जा ब्याज मुक्त उपलब्ध कराने जा रही है। बताया जा रहा है कि मिलों पर जो 12  फीसद ब्याज लगेगा, उसमें से सात फीसद गन्ना विकास कोष तथा पांच फीसद केंद्र सरकार वहन करेगी। उत्तर प्रदेश में गन्ने की पेराई शुरू करने के लिए सरकार पहले ही प्रवेश व क्रय कर के अलावा कमीशन छूट की बात मानकर निजी चीनी मिलों को राहत दे चुकी है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यह सब कुछ मिलों के लिए ही क्यों ? गन्ना किसानों के लिए सरकारों ने क्या किया ?
      मिलों की जिद के सामने तो सरकारें झुक गईं पर क्या किसानों का कई सालों का बकाया अब वास्तव में ही उन्हें मिल जाएगा ? मिल भी गया तो उन्हें बकाए पर ब्याज क्यों नहीं ? वैसे भी कर्जा मिलने के बाद भी मिलें किसानों को बकाया कब देंगी कहा नहीं जा सकता। अक्सर देखा जाता है कि सरकारों को मिलों की समस्याएं तो दिखाई देती हैं पर किसानों की नहीं ? किसानों का बकाया देने में असमर्थता व्यक्त करने पर केंद्र सरकार मिलों को तो ब्याज मुक्त कर्जा उपलब्ध करा रही है पर किसान समय पर कर्ज न चुकाए तो उसे तीन की जगह 12 फीसद ब्याज भरना पड़ता है और न भर पाये तो उसकी आरसी काट दी जाती है। जेल में ठूंस दिया जाता है। यही सब वजह है कि परेशान होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यदि किसानों के बेटे नौकरी न कर रहे हों तो आत्महत्या की संख्या और बढ़  जाए।  हालात ऐसे हैं कि किसान दयनीय जिंदगी जीने को मजबूर है और मिल मालिकों के लिए हर सुविधा उपलब्ध है। दरअसल कर्षि मंत्री शरद पवार भी कई चीनी मिलों के मालिक हैं।
      अब तो ऐसा लगने लगा है कि सरकारें जनता के लिए नहीं कार्पोरेट घरानों के लिए काम कर रहीं हैं। करें भी क्यों नहीं। कभी राजनीतिक दल जनता से चंदा लेकर चुनाव लड़ते थे और अब कार्पोरेट घराने चुनाव लड़ाते हैं। जब चुनाव लड़ाएंगे, जिताएंगे तो कैश भी कराएंगे। यही हो रहा है देश में। विधानसभा व लोकसभा में पहुंचने वाले लोग जनप्रतिनिधि न होकर कार्पोरेट प्रतिनिधि बनकर रह गए हैं।

Sunday, 1 December 2013

गन्ना किसानों के पक्ष में मुखर होने की जरूरत

आजकल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्याओं पर जमकर राजनीति हो रही है। जहां निजी चीनी मिलें गत साल के मूल्य पर भी गन्ना खरीदने को तैयार नहीं हैं वहीं राजनीतिक दल इस मुद्दे में वोटबैंक टटोल रहे हैं। सरकार ने वैसे तो मिलों को 4 दिसम्बर तक चलाने का अल्टीमेटम दे दिया है। जो मिलें पेराई शुरू नहीं कर रही हैं उन पर केस भी दर्ज किया गया है। बकाया भुगतान के लिए आरसी काटने की तैयारी है।  इन सबके बावजूद मिल प्रबंधनों  ने सरकार के दबाव में  आने से इनकार किया है। मिल प्रबंधनों का कहना है कि निर्धारित गन्ना मूल्य पर वह भारी घाटा उठाने को तैयार नहीं हैं।
      मिलें 230-240 रुपए प्रति क्विंटल  से ज्यादा मूल्य पर गन्ना खरीदने को तैयार नहीं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब हरियाणा व पंजाब में 300 रुपए से अधिक मूल्य पर गन्ना खरीद कर भी मिलें लाभ कमा रही हैं तो उत्तर प्रदेश में यह जिद क्यों ? बकाया भुगतान व चीनी मिलें न चलने पर किसान सड़कों पर आ गए हैं। जगह-जगह धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। गन्ना जलाया जा रहा है। किसान आत्मदाह करने पर उतारू हैं, आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
    दरअसल गन्ना किसानों की ये समस्याएं हर साल की हैं पर राजनीतिक दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इस पर वोटबैंक की राजनीति करते हैं। बात गन्ना किसानों की ही नहीं है हर फसल का ही यही हाल है जब फसल किसान के पास होती है तो उसका मूल्य बहुत कम होता है और वही फसल जब अन्न का रूप ले लेती है और व्यापारी के पास पहुंच जाती है तो इसकी कीमत आसमान छूने लगती है। हालात यह हैं कि किसान की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। यही वजह है कि किसान अपने पेशे से मुंह मोड़ रहे हैं। जरा सोचिए जब किसान अन्न पैदा ही नहीं करेगा तो लोग खाएंगे क्या ? सरकारों की गलत नीतियों के चलते किसान के हालत ऐसे हैं कि भले ही एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी आलिशान मकान बना रहा हो पर किसान आज भी छप्परों वाले घरों में रहने को मजबूर हैं। भले ही छोटे  से छोटा पेशा करने वाला व्यक्ति मोटा मुनाफा कमा रहा हो पर किसान आज भी कर्ज के बोझ तले दबता चला जा रहा है। मेरा मानना है कि आज यदि हम किसानों के पक्ष में मुखर नहीं हुए तो एक दिन ऐसा आ जाएगा कि कोई खेती करेगा ही नहीं। जब कोई खेती नहीं करेगा तो क्या होगा, बताने की जरूरत नहीं है। आज पत्रकार, लेखक, वकील और सामाजिक संगठनों को किसानों के पक्ष में लामबंद होने की जरूरत है।