भले ही मुलायम सिंह यादव जनता परिवार के मुखिया बनने जा रहे हों, भले ही पुराने समाजवादी एकजुट हो रहे हों, भले ही समाजवादी पार्टी इस दल में सबसे बड़ी पार्टी हो, भले ही इस परिवार में कई दल मिलने जा रहे हों, भले ही जनता परिवार मजबूत हो रहा है पर जो समीकरण उभर कर सामने आ रहे हैं उससे सपा में फूट पड़ने की आशंका बलवती हो गई है, जिसके चलते मुलायम सिंह खुद कमजोर हो सकते हैं। नवम्बर में बिहार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जहां पर सपा का कोई खास जनाधार नहीं है तो जाहिर है कि वह वहां पर चुनाव न के बराबर लड़ेगी। 2017 में उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनाव में राजद, जदयू भी टिकटों में भागीदारी मांगेंगी। इतना ही नहीं राज्यसभा आैर विधान परिषद में भी अपनी भागेदारी मांगेगी। इन सबके चलते मुलायम सिंह का उत्तर प्रदेश संगठन प्रभावित होगा, पदाधिकारी बदले जाएंगे। नए भी बनेंगे। जदयू, राजद के कार्यकर्ता भी समायोजित किया जाएंगे, जिन नेताओं के स्वार्थ सिद्ध नहीं होंगे वे ऐसे में अन्य दलों की ओर रुख कर सकते हैं।
यह नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक कुशलता ही है कि उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत मुलायम सिंह यादव को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की बात कही। वे जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष बनाने के बाद उनका अपने कार्यकर्ताओं को संभालना उनकी मजबूरी हो जाएगी। पार्टी प्रभावित होती है तो उसका असर उन पर ही पड़ेगा। सबसे पहले बिहार में चुनाव है। बिहार में चुनाव होते ही राजद व जदयू का स्वार्थ सिद्ध हो जाएगा। इन चुनाव में मतदाताओं पर मनोविज्ञान रूप से दबाव बनेगा। वैसे बिहार में राजद, जदयू, सपा के साथ कांग्रेस व वामपंथी भी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।
मुलायम सिंह की अगुआई में जदयू, सपा, राजद, इनेलो, समेत कई संगठनों ने मिलकर जनता परिवार बना तो लिया पर दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद नरेंद्र मोदी से आज भी बड़ा वर्ग प्रभावित है। जनता परिवार के एकजुट करने के साथ ही इन समाजवादियों को अपनी कार्यप्रणाली पर मंथन की जरूरत है। इन लोगों के समाजवाद पर आजकल परिवारवाद, वंशवाद, पूंजीवाद, जातिवाद आैर धर्मवाद हावी होने का आरोप लग रहा है। चाहे लालू प्रसाद यादव रहें, नीतीश कुमार रहे हों, शरद यादव रहे हों, या फिर मुलायम सिंह। इन सबने दूसरे नंबर के जमीनी समाजवादी तैयार किए ही नहीं। हां इनके भाई-भतीजे, पुत्र, पुत्रियां, व बहू जरूर दूसरे नंबर के समाजवादियों के गिनती में आ रहे हैं। ऐसे मे प्रश्न यह उठता है कि बिना संघर्ष के राजनीति कर रहे ये लोग बड़ा आंदोलन कैसे कर करेंगे ?
डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, आचार्य नरेंद्र देव जैसे प्रख्यात समाजवादियों के बनाए गए नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद में अब बड़े आंदोलन का दम नहीं आैर इनके परिजन इस माहौल में तैयार हुए नहीं तो मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए कौन आंदोलन करेगा ? ये वे समाजवादी हैं जो कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते-करते बड़े नेता बने, पर बाद में स्वार्थ या मजबूरी के चलते कांग्रेस से सट गए। 'नेताजी" का राजनीति तो कुछ समय से गजब तरह की रही है। वे गत यूपीए सरकार की नीतियों का विरोध भी करते रहे आैर समर्थन भी। यही हाल एनडीए सरकार में है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का जब सारा विपक्ष धरना-प्रदर्शन कर रहा है वहीं सपा कार्यकर्ता शांत हैं। लालू प्रसाद चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं।
ये लोग भ्रष्टाचार, महंगाई आैर किसानों की समस्याओं पर केंद्र सरकार को घेरने की बात कर रहे हैं। ऐसे में जब बिहार में जदयू की आैर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार होने के बावजूद यहां पर भ्रष्टाचार, महंगाई पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा हो। किसानों की समस्याओं का कोई खास समाधान नहीं निकल पा रहा हो, तो ये लोग केंद्र सरकार को घेरकर कैसे जनता को विश्वास में लेंगे। सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अराजक सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए किए गए जेपी आंदोलन में लोक नायक जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, मोराजी देसाई, चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज मौजूद थे। अस्सी के आंदोलन में बोफोर्स मुद्दे के साथ तत्कालीन रक्षा मंत्री वीपी सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी देवीलाल जैसे प्रख्यात समाजवादी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादियों को इतना भयभीत कर दिया है कि जहां
बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को कभी उनका घोर विरोध करने वाले लालू प्रसाद को गले लगाना पड़ रहा है। यही वजह है कि उन्होंने लालू प्रसाद को अपना समधी भी बना लिया। यह परिवार मजबूत होगा या कांग्रेस यह तो समय ही बताएगा पर कांग्रेस की संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने भी संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने का ऐलान किया है।
इस बार भी राजनीति की जननी रही बिहार से ही समाजवादियों के आंदोलन की रूपरेखा तैयार हुई है। समाजवादी मोदी के खिलाफ जेपी आंदोलन की तरह समाजवादियों को एकजुट करने में लग गए हैं। नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा एचडी देवगौड़ा, हरियाणा में अभय चौटाला व दुष्यंत चौटाला भी साथ आ गए हैं। इन नेताओं को यह भी देखना होगा कि जेपी आंदोलन में संघी भी इनके साथ थे, जबकि इस आंदोलन कांग्रेस उनके साथ नहीं है।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था, वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। ऐसे में ये समाजवादी अब कैसे जनता को विश्वास में लेंगे यह समझ से परे है।
भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले जनता परिवार के नेताओं को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव गत दिनों चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर किया करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूलखर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी-तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूहरचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। अब जब केंद्र में एनडीए की सरकार है तो स्वभाविक है कि वह भी ऐसा ही करेगी।
समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इसकी शुरुआत डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1935 में लखनऊ में हुए कांग्रेस का अधिवेशन में नेहरू विरोध से कर दी थी। लोहिया ने 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया था आैर इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा था। देश के आजाद होने के बाद लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही थी। लोहिया ने कांग्रेस सरकार में संसद में आवाज उठाई थी कि 18 करोड़ आबादी 'चार आने" पर जिंदगी काटने पर मजबूर है आैर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने पर प्रतिदिन 25 हजार रुपए खर्च कर रहे हैं।
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि बाद में इंदिरा गांधी ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को आगे कर समाजवादियों में फूट डाल दी थी। जब-जब समाजवादी मजबूत हुए तब-तब कांग्रेस समाजवादियों में फूट डालती रही है।
यह नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक कुशलता ही है कि उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत मुलायम सिंह यादव को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की बात कही। वे जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष बनाने के बाद उनका अपने कार्यकर्ताओं को संभालना उनकी मजबूरी हो जाएगी। पार्टी प्रभावित होती है तो उसका असर उन पर ही पड़ेगा। सबसे पहले बिहार में चुनाव है। बिहार में चुनाव होते ही राजद व जदयू का स्वार्थ सिद्ध हो जाएगा। इन चुनाव में मतदाताओं पर मनोविज्ञान रूप से दबाव बनेगा। वैसे बिहार में राजद, जदयू, सपा के साथ कांग्रेस व वामपंथी भी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।
मुलायम सिंह की अगुआई में जदयू, सपा, राजद, इनेलो, समेत कई संगठनों ने मिलकर जनता परिवार बना तो लिया पर दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद नरेंद्र मोदी से आज भी बड़ा वर्ग प्रभावित है। जनता परिवार के एकजुट करने के साथ ही इन समाजवादियों को अपनी कार्यप्रणाली पर मंथन की जरूरत है। इन लोगों के समाजवाद पर आजकल परिवारवाद, वंशवाद, पूंजीवाद, जातिवाद आैर धर्मवाद हावी होने का आरोप लग रहा है। चाहे लालू प्रसाद यादव रहें, नीतीश कुमार रहे हों, शरद यादव रहे हों, या फिर मुलायम सिंह। इन सबने दूसरे नंबर के जमीनी समाजवादी तैयार किए ही नहीं। हां इनके भाई-भतीजे, पुत्र, पुत्रियां, व बहू जरूर दूसरे नंबर के समाजवादियों के गिनती में आ रहे हैं। ऐसे मे प्रश्न यह उठता है कि बिना संघर्ष के राजनीति कर रहे ये लोग बड़ा आंदोलन कैसे कर करेंगे ?
डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, आचार्य नरेंद्र देव जैसे प्रख्यात समाजवादियों के बनाए गए नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद में अब बड़े आंदोलन का दम नहीं आैर इनके परिजन इस माहौल में तैयार हुए नहीं तो मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए कौन आंदोलन करेगा ? ये वे समाजवादी हैं जो कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते-करते बड़े नेता बने, पर बाद में स्वार्थ या मजबूरी के चलते कांग्रेस से सट गए। 'नेताजी" का राजनीति तो कुछ समय से गजब तरह की रही है। वे गत यूपीए सरकार की नीतियों का विरोध भी करते रहे आैर समर्थन भी। यही हाल एनडीए सरकार में है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का जब सारा विपक्ष धरना-प्रदर्शन कर रहा है वहीं सपा कार्यकर्ता शांत हैं। लालू प्रसाद चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं।
ये लोग भ्रष्टाचार, महंगाई आैर किसानों की समस्याओं पर केंद्र सरकार को घेरने की बात कर रहे हैं। ऐसे में जब बिहार में जदयू की आैर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार होने के बावजूद यहां पर भ्रष्टाचार, महंगाई पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा हो। किसानों की समस्याओं का कोई खास समाधान नहीं निकल पा रहा हो, तो ये लोग केंद्र सरकार को घेरकर कैसे जनता को विश्वास में लेंगे। सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अराजक सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए किए गए जेपी आंदोलन में लोक नायक जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, मोराजी देसाई, चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज मौजूद थे। अस्सी के आंदोलन में बोफोर्स मुद्दे के साथ तत्कालीन रक्षा मंत्री वीपी सिंह, चंद्रशेखर सिंह, चौधरी देवीलाल जैसे प्रख्यात समाजवादी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादियों को इतना भयभीत कर दिया है कि जहां
बिहार में धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद एक हो गए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले बैठे मुलायम सिंह यादव को कभी उनका घोर विरोध करने वाले लालू प्रसाद को गले लगाना पड़ रहा है। यही वजह है कि उन्होंने लालू प्रसाद को अपना समधी भी बना लिया। यह परिवार मजबूत होगा या कांग्रेस यह तो समय ही बताएगा पर कांग्रेस की संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने भी संसद में धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने का ऐलान किया है।
इस बार भी राजनीति की जननी रही बिहार से ही समाजवादियों के आंदोलन की रूपरेखा तैयार हुई है। समाजवादी मोदी के खिलाफ जेपी आंदोलन की तरह समाजवादियों को एकजुट करने में लग गए हैं। नीतीश कुमार आैर लालू प्रसाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा एचडी देवगौड़ा, हरियाणा में अभय चौटाला व दुष्यंत चौटाला भी साथ आ गए हैं। इन नेताओं को यह भी देखना होगा कि जेपी आंदोलन में संघी भी इनके साथ थे, जबकि इस आंदोलन कांग्रेस उनके साथ नहीं है।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आैर मुलायम सिंह यादव ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे हों। उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता आैर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी अपने-अपने तरके से मोदी की घेराबंदी के लिए आंदोलन की रूपरेखा बना रहे हैं। बसपा मुखिया मायावती तो पहले से ही मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश को खतरा बताती रही हैं। इन आम चुनाव में राजनीतिक समीक्षक भले ही हिन्दुओं के धुर्वीकरण की बात कर रहे हों पर मेरा मानना है कि जहां लोगों में महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ असंतोष था, वहीं लोहिया व जेपी की नीतियों पर काम करने का दावा करने वाले समाजवादियों का पथ से भटकना भी था। नरेंद्र मोदी ने जहां कांग्रेस के खिलाफ जनता में पनपे असंतोष को भुनाया वहीं वह लोगों को समाजवादियों के विचारधारा से भटकाव को भी बताने में सफल रहे। ऐसे में ये समाजवादी अब कैसे जनता को विश्वास में लेंगे यह समझ से परे है।
भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ने से पहले जनता परिवार के नेताओं को चुनावी प्रचार पर भी मंथन करना होगा। अपने को लोहिया का अनुयायी मानने वाले मुलायम सिंह यादव गत दिनों चुनाव प्रचार में उन पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, जिनकी आलोचना डॉ. राम मनोहर लोहिया पानी पी-पी कर किया करते थे। 'नेताजी" नेहरू का बीता जीवन कष्टमय बता रहे थे, जबकि लोहिया फिजूलखर्ची को लेकर सार्वजनिक मंच से नेहरू की ऐसी-तैसी करते थे। कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने आैर संविद सरकारों के संवाद से इस देश को परिचित कराने वाले समाजवादी 10 साल तक कांग्रेस व्यूहरचना में ऐसे फंसे रहे कि वे एकजुट नहीं हो पाए। यह कांग्रेस की रणनीति ही थी कि समर्थन वापसी की सूरत में उन्हें सीबीआई का डर सताता रहा। किसी पार्टी के मुखिया का अपने कार्यकर्र्ताओं से इस बाबत चर्चा करना उनको हतोत्साहित करना था। अब जब केंद्र में एनडीए की सरकार है तो स्वभाविक है कि वह भी ऐसा ही करेगी।
समाजवादियों के राजनीतिक इतिहास पर गौर की जाए तो इन लोगों ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपना वजूद बनाया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया हों या लोक नायक जयप्रकाश नारायण या आचार्य नरेन्द्र देव- सभी ने मिलकर कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इसकी शुरुआत डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1935 में लखनऊ में हुए कांग्रेस का अधिवेशन में नेहरू विरोध से कर दी थी। लोहिया ने 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू का खुलकर विरोध किया था आैर इसके बाद अल्मोड़ा में जिला सम्मेलन में नेहरू को 'झट से पलटने वाला नट" कहा था। देश के आजाद होने के बाद लोकसभा में लोहिया की 'तीन आना बनाम पंद्रह आना" बहस बहुत चर्चित रही थी। लोहिया ने कांग्रेस सरकार में संसद में आवाज उठाई थी कि 18 करोड़ आबादी 'चार आने" पर जिंदगी काटने पर मजबूर है आैर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने पर प्रतिदिन 25 हजार रुपए खर्च कर रहे हैं।
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो कांग्रेस के खिलाफ सारे समाजवादियों ने एकजुट होकर आंदोलन छेड़ा था। इन समाजवादियों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने जाने पर मजदूरों के नेता के रूप में उभरे जार्ज फर्नांडीस ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व नीतीश कुमार इस आंदोलन से ही उभरे थे। इसी आंदोलन की बदौलत 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी आैर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि बाद में इंदिरा गांधी ने राज नारायण आैर चौधरी चरण सिंह को आगे कर समाजवादियों में फूट डाल दी थी। जब-जब समाजवादी मजबूत हुए तब-तब कांग्रेस समाजवादियों में फूट डालती रही है।
स्वभाविक है कि भाजपा भी समाजवादियों की अति महत्वाकांक्षा का फायदा उठाना चाहेगी। अस्सी के दशक में बोफोर्स मामला सतह पर आने के बाद देश के राजनीतिक पटल पर छाए वीपी सिंह, चौधरी देवीलाल व चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी फिर से एकजुट हुए थे । 1989 में फिर से समाजवादियों ने सरकार बनाई थी। यह समाजवादियों का आंदोलन ही था कि देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह अग्रणी जाति से थे तो बिहार में लालू प्रसाद आैर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव पिछड़ी जाति से मुख्यमंत्री बने थे। बिहार में लालू प्रसाद ने कांग्रेस का विरोध कर ही अपने को खड़ा किया था, वह बात दूसरी है कि काफी समय से उनकी विचारधारा कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही थी। पिछली सरकार में वह रेल मंत्री थे। जदयू का वजूद बनाने वाले जार्ज फर्नांडीस व शरद यादव हमेशा कांग्रेस के खिलाफ ही झंडा थामे रहे। आज के समीकरण ठीक इसके उलट हैं। इस बार समाजवादी भाजपा के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं ।
हां, समाजवादियों का साथ संघियों ने कई बार दिया आैर बिहार में भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में संघियों का बड़ा हाथ रहा है। देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।
हां, समाजवादियों का साथ संघियों ने कई बार दिया आैर बिहार में भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में संघियों का बड़ा हाथ रहा है। देश में जब-जब कांग्रेस की अराजकता बढ़ी तब-तब समाजवादी एकजुट हुए आैर संघ उनके साथ रहा। यह पहली बार हुआ था कि समाजवादी अलग-थलग आैर स्वकेंद्रित दिख रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हंे आम चुनाव में भुगतना पड़ा। आज के हालात में यह समाजवादियों की मजबूरी ही है कि कभी कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन करने में उनका साथ देने वाले संघियों के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलना है। हां राम मंदिर निर्माण के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे आैर 2002 में गुजरात दंगे समाजवादियों के लिए भाजपा के विरोध में माहौल बनाने में साथ देते रहे हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि समाजवादी प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुए मोदी को कितना डिगा पाते हैं आैर कितना अपने को मजबूत कर पाते हैं।
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