Saturday, 4 April 2015

एक आैर पार्टी की ओर आप का बिखराव

     अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली में राजनीति शुरू की उससे लोगों में बदलाव की एक उम्मीद जगी थी। लोगों को लगने लगा था कि देश में एक नई तरह की राजनीति जन्म ले रही है। ऐसे में आम आदमी भी चुनाव लड़ सकता है। लोगों को लगने लगा था कि अब आम आदमी सुनवाई होने लगेगी। यही वजह थी कि अन्य दल भी कुछ अच्छा करने लगे थे। पर जिन खामियों को गिना-गिनाकर यह पार्टी अपने अस्तित्व में आई अब इस पार्टी में वे सब खामियां दिखाई देने लगी हैं, जिनके चलते आम आदमी राजनीति से घृणा करने लगा था। इसे सत्ता का नशा कहा जाए या पद के लिए आपाधापी या फिर वर्चस्व की लड़ाई कि अब इस पार्टी में दो खेमे बंट गए हैं।
     एक  ओर अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, आशुतोष व खेतान का तो दूसरा योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण व प्रो. आनंद कुमार का। प्रख्यात समाजसेवी मेधा पाटेकर का पार्टी से इस्तीफा देना कहीं न कहीं योगेंद्र एंड पार्टी को समर्थन देना माना जा रहा है। जिस तरह से योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण ने अपने समर्थकों की बैठक बुलाकर आप का रास्ते से भटकना आैर आप को कोर्ट में घसीटने की बात कही है उससे आप से एक आैर पार्टी निकलने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी 14 अप्रैल को इन लोगों ने अपने समर्थकों की बैठक बुलाई है जिसमें सभी विकल्पों पर चर्चा होगी।
     गत दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में दिल्ली में किसान आंदोलन तथा अन्ना हजारे की होने वाली पदयात्रा तथा कई प्रदेशों में महापंचायत देश को बड़े आंदोलन की ओर ले जा रही है। यही वजह है कि योगेंद्र यादव किसान आंदोलन को लीड करने के लिए उत्साहित देखे जा रहे हैं। इस आंदोलन में पहले से ही मेधा पाटेकर, पीवी राजगोपाल व कई किसान नेता शामिल हैं। वैसे भी 24 फरवरी को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए किसान आंदोलन में अन्ना हजारे के सहयोगी व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मंच पर चढ़ने का जहां विरोध किया गया था वहीं कई नेता मंच से गायब हो गए थे। देश में अन्ना हजारे एक ऐसा चेहरा बन गया है कि जहां खड़े हो जाएं अपने आप में एक आंदोलन शुरू हो जाता है।
आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती रही है। जो भी नेता उभरा उसे दबा दिया गया या फिर अन्य संगठन के चेहरे इस पार्टी में लिए ही नहीं गए। भले ही आजकल कुमार विश्वास केजरीवाल के सुर में सुर मिला रहे हों पर पर गत लोकसभा चुनाव में वह इलाहाबाद से चुनाव लड़े तो उन्हें चुनावी समर में अकेला छोड़ दिया गया। अपनी बात रखने पर साजिया इल्मी को पार्टी छोड़नी पड़ी। आम चुनाव का टिकट मांगने पर विनोद कुमार बिन्नी की बलि ले ली गई। वह बात दूसरी है कि खुद अरविंद केजरीवाल वाराणसी से आम चुनाव लड़े। योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बना गया पर चुनाव लड़ने का नंबर आया तो वहां पर चुनाव नहीं लड़ा गया। राजनीतिक हल्के में यह माना गया कि योगेंद्र यादव के कद को रोकने के लिए यह किया गया।
      योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्षधर थे तो केजरीवाल ने शपथ ग्रहण समारोह में ही दिल्ली में ही रहकर काम करने की घोषणा कर दी। इसी बीच में मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल के संयोजक पद छोड़ने की बात शुरू हो गई। क्योंकि दिल्ली में अब आम आदमी पार्टी की सरकार है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ता निजी स्वार्थ के चलते केजरीवाल की ओर लपकेगें ही। वैसे भी दो नेता दिल्ली से राज्यसभा में जाने वाले हैं। इसलिए कुमार विश्वास, संजय सिंह, आशुतोष व खेतान जमकर केजरीवाल के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं। यह भी हो सकती है कि इन चारों में से दो को राज्यसभा मिलने के बाद दो प्रशांत भूषण खेमे में चले जाएं। जो कार्यकर्ता अपमान का घूंट पीकर रह रहे थे, वे अब प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के खेमे में आ गए हैं।
       इसमें दो राय नहीं कि अब पार्टी दो खेमों में बंट गई है। एक सत्तापक्ष तो दूसरा पार्टी में भी विपक्ष। हां यह जरूर है कि राजनीति में विरोध से नेता उभरता है आैर आजकल प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव का जमकर विरोध हो रहा है। ऑडियो स्टिंग में केजरीवाल का योगंेद्र यादव व प्रशांत भूषण को गलियाना। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव पार्टी को अन्य पार्टियों की तरह से कहना। प्रशांत भूषण को पीएसी व राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाया जाना। बैठक में मारपीट व योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण की बातों को नजरंदाज करना अब पार्टी को दो भागों में बांटने के लिए काफी है। वैसे भी बातचीत के सभी प्रयास विफल हो चुके हैं। अब दोनों खेमे एक-दूसरे को गलत साबित कर अपने को सही साबित करने में तुले हैं। अरविंद केजरीवाल के पास पांच साल तक सत्ता है तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पास बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल जैसे राज्य में चुनाव लड़ाने का भरोसा। केजरीवाल खेमे के पास सत्ता का मजा लूटने का मौका है तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पास संघर्ष का बड़ा रास्ता। हां यदि इस संघर्ष ने बड़ा रूप लिया तो प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव खेमा बड़ी पार्टी को जन्म दे सकता है। ऐसे में केजरीवाल एंड टीम दिल्ली तक ही सिमट कर रह जाएगी। केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब उनकी टीम हताशा में थी तो प्रशांत भूषण ही योगेंद्र यादव को लाए थे आैर उन्होंने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया था।
     बात केरजीवाल के काम करने के तरीके की करें तो गत दिनों आम आदमी पाटी में बूथ से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन के पुनर्गठन की बात कही गई। यह संगठन बनाने की बात चली तो चुनाव लड़ने की क्यों नहीं। क्या अन्य प्रदेशोें के नेता चुनाव लड़ना नहीं चाहंेगे। गत लोकसभा चुनाव में आवेदन के नाम पर टिकट देने का वादा करने वाले अरविंद केजरीवाल पर  आरोप लगे कि उन्होंने आवेदनों को कचरे की टोकरी में फेंककर सेलिब्रोटी आैर विशेष लोगों को ही टिकट दिए। उनके पार्टी के ही कार्यकर्ताओं ने उन पर आरोप लगाए कि पार्टी के खड़ी होते ही वह पुराने साथियों को भूल गए आैर पैसे वाले नेताओं को तवज्जो देने लगे। मुंबई में उन्होंने 20,000 रुपए देने वाले लोगों के साथ डिनर किया। मुस्लिम वोटबैंक के लिए उन्हें साम्प्रदायिकता भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा दिखाई देने लगा। ऐसे में अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर सवाल उठना स्वभाविक था। पर अगले चुनाव में दिल्ली में प्रचंड बहुमत से सरकार बनने से ये सभी आरोप पीछे चले गए।
     दरअसल अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि कुछ विशेष उनके करीबी लोगों के अलावा अन्य कार्यकर्ता गली-मोहल्ले की राजनीति तक ही सीमित रहंे। संगठन में ऐसा लगने लगा था कि कभी सामाजिक संगठन परिवर्तन के उनके साथी रहे संजय सिंह आैर मनीष सिसोसिया को साथ लेकर उन्होंने जैसे पार्टी कब्जा ली हो। ऐसा लगने लगा था कि आम आदमी की बात करने वाले अरविंद केजरीवाल कुछ खास किस्म के व्यक्ति हो गए हों। कुछ ड्रामे को छोड़ दें तो आम आदमी को वह सटने ही नहीं दे रहे थे। हां कुछ नामी-गिरामी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर,  अंजली दमानिया, पत्रकार आशुतोष, आशीष खेतान, जनरैल सिंह, फिल्मी हस्ती भगवंत मान, गुल पनांग जैसे लोग पार्टी जुड़े पर उनका मकसद संगठन में काम करने का कम चुनाव लड़ने का ज्यादा दिखा। आप में भ्रष्टचार के खिलाफ हुए आंदोलन से जुड़े लोग लगातार पिछड़ते चले गए। यही वजह रही कि एनसीआर में जबर्दस्त माहौल होने के बावजूद पार्टी माहौल को बरकरार नहीं रख पाई।
    दरअसल अरविंद केजरीवाल को भ्रष्ट हो चुकी देश की व्यवस्था के खिलाफ हुए आंदोलन का फायदा मिला। यदि आंदोलन पर नजर डाले तो इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ पांच अप्रैल 2011 को प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने मोर्चा खोला था आैर जनलोकपाल बनाने को लेकर पूरे देश में भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था को बदलने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर, रामलीला मैदान के अलावा पूरे देश में बड़ा आंदोलन हुआ तो लोगों में बदलाव की आस जगी थी। अन्ना हजारे ने इस आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा दी थी। भ्रष्ट व्यवस्था से तंग युवा अन्ना के एक आह्वान पर सड़कों पर आ गया था। दिल्ली जंतर-मंतर आैर रामलीला मैदान में उमड़े जन समूह से न केवल तत्कालीन केंद्र सरकार बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक लोगों की चूलें हिल गई थी।
    आंदोलन के बीच में ही अन्ना हजारे व पूर्व आईपीएस किरण बेदी के न चाहते हुए आंदोलन में अन्ना के सारथी माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने कुछ आंदोलनकारियों को साथ लेकर 'आम आदमी पार्टी" नाम से एक राजनीतिक दल बना लिया। अरविंद केजरीवाल ने मूल्य पर आधारित आैर ईमानदारी व सच्चाई की राजनीति के नाम पर सभी दलों को निशाना बनाया। अन्ना आंदोलन के बल पर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा। चुनाव परिणाम के दिन जब आम आदमी पार्टी ने 70 में से 28 सीटें जीती तो देश भौचक्का रह गया था।
      दरअसल देश की दोनों बड़ी पार्टियां ही आप द्वारा किए गए वादों को पूरा करने के तरीके को देखना चहती थीं। आप ने पहली बार जनमत संग्रह कराकर जनता की राय से दिल्ली में सरकार बनाई थी। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद लोगों में अरविंद केजरीवाल से काफी उम्मीदें जगी थी। अरविंद केजरीवाल के भरोसे दिल्ली ही नहीं पूरे देश में लोगों में बदलाव की एक आस जगी थी पर जिस तरह से अरविंद केजरीवाल का लोकपाल मामले में भाजपा व कांग्रेस के साथ न देने पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना लोकसभा चुनाव में आवेदन पत्र मामले में अपनी बात पर खरा न उतरना, काफी संख्या में दागी प्रत्याशियों को चुनावी समर में उतारना, पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना तथा आप के बिना सरकार न बनने की बात करना, गैस के दाम न बढ़ने देने पर भाजपा में शामिल होने की बात करना संगठन को कुछ विशेष लोगों के कब्जाने के आरोप लगना कहीं न कहीं मुद्दे से भटकना रहा।
     गत दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस का केजरीवाल का निशाना साधना भारी पड़ा ज्यों-ज्यों केजरीवाल का विरोध हुआ त्यों-त्यों पार्टी चुनाव में मजबूत होता गया। जैसे आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को विरोध का फायदा मिला, ठीक उसी तरह से ही दिल्ली में केजरीवाल दिल्ली में मजूबत हुए। इसी तरह से योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण को विरोध का फायदा मिल सकता है। अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार कल की बनी पार्टी में एकदम बगावत क्यों हो गई। दूसरी पार्टियों में कमी निकालने वाली पार्टी में एकदम से इतनी कमी कैसे हो गई।

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