Sunday 1 March 2015

तो जेपी आंदोलन की तरह चलेगा अन्ना आंदोलन

    भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में दिल्ली जंतर-मंतर पर धरना देने वाले प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे का यह आंदोलन सामाजिक नहीं राजनीतिक होने वाला है। जिस तरह से इससे बातें निकल कर आ रही हैं उससे यह जेपी आंदोलन की तरह होने वाला है। इस आंदोलन में दो बातें मुख्य रूप से उभर कर आर्इं कि एक ओर जहां अन्ना हजारे ने साफ कह दिया है कि वह इस बार कोई अनशन नहीं करने वाले बल्कि उन्हें देश के लिए जिंदा रहते हुए जेल भरो आंदोलन शुरू करना है, दूसरा कि राजनीतिक दल अन्ना की अगुआई में इस आंदोलन को समर्थन दे सकता है।
      अन्ना आंदोलन से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल ने तो आंदोलन को अपना समर्थन दे भी दिया है। जिस तरह से  जनसंघ समेत सभी राजनीतिक दल कांग्रेस शासन के खिलाफ जेपी की अगुआई में आंदोलन में कूद गए थे, ठीक उसी प्रकार से इस आंदोलन का आह्वान किया जा रहा है। वैसे भी 24 तारीख के अन्ना के धरने में आप के अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, भाकपा से अतुल अंजान मंच पर मौजूद थे।
     यह आंदोलन वैसे भी इस वजह से भी बड़ा होने वाला है कि क्योंकि इस आंदोलन में एकता परिषद के संस्थापक, पीवी राजगोपाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता के रूप में जाने जाने वाली मेधा पाटेकर, जलपुरुष राजेंद्र सिंह समेत कई किसान संगठन हिस्सा ले रहे हैं। यह आंदोलन इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आंदोकारियों ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अध्यादेश वापस लेने के बावजूद यह आंदालन नहीं रुकेगा। किसानों की अन्य समस्याओं को लेकर आंदोलन चलता रहेगा। इस आंदोलन से जहांं भाजपा को नुकसान होने जा रहा है वहीं जनता परिवार के लिए भी यह बड़ी परेशानी बनने वाला है। एक ओर कभी नीतीश कुमार के घनिष्ट माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अलग पार्टी बनाने जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव के जनता परिवार को एकजुट करने की जिम्मेदारी के बावजूद सपा में इस मुद्दे पर बड़ा मतभेद है। वैसे भी मुलायम सिंह के पोते तेज प्रताप यादव के तिलकोत्सव में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गले लगाया पर इस समारोह में नीतीश कुमार नहीं आए। ऐसे में यदि अन्ना आंदोलन गति पकड़ता है तो जनता परिवार पीछे छुटता चले जाएगा।
    आज के बदलते राजनीतिक दौर में दलों को यह समझना होगा कि जनता को अब दिखावा मंजूर नहीं। जनता अब काम मांगती है। राजनेताओं को सोच में परिवर्तन होना बहुत जरूरी है। उन्हें समझना पड़ेगा कि आखिरकार लोग आंदोलन करने को क्यों मजबूर हो रहे हैं। बात भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की नहीं है, बल्कि किसानों के सामने इस समय बहुत सी समस्याएं हैं। देश में यदि कोई सबसे ज्यादा परेशान है तो वह किसान है। किसानों की आत्महत्याओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। देश में अन्ना एक ऐसी आवाज बन चुके हैं कि जहां खड़े हो जाएं उनके पीछे सामाजिक संगठनों के अलावा कई राजनीतिक दल भी आ जाएं।   इसमें दो राय नहीं कि देश में जनहित की बात करना वाला अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी कोई दूसरा दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। जब राजनीतिक दलों के साथ ही काफी संख्या में सामाजिक संगठन भी पैसा कमाने की होड़ में लगे हैं वहीं अन्ना हजारे निस्वार्थ सेवा भाव से देश व समाज की सेवा कर रहे हैं। यही वजह है कि उनके आवाज लगाते ही लोग उनके पीछे लग लेते हैं।
    यदि इस आंदोलन आैर 2011 के आंदोलन की तुलना की जाए तो वह भ्रष्टाचार को लेकर था तो यह किसानों की समस्या को लेकर। उस आंदोलन में एनजीओ के लोग थे, तो इस आंदोलन में किसान पृष्ठभूमि से के अलावा राजनीतिक, उस आंदोलन में अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे तो इस आंदोलन में पीवी. राजगोपाल, मेधा पाटेकर, राजेंद्र सिंह, सुनीता गोदारा के अलावा कई सामाजिक व किसान संगठन। उस आंदोलन ने लोगों को जागरूक किया तो आंदोलन देश को क्या देगा यह तो समय ही बताएगा। हां किसानों का कुछ जरूर भला होने वाला है। अन्ना आंदोलन के दबाव में केंद्र सरकार ने कानून में संशोधन करने की बात कहनी शुरू कर दी है। काफी किसान संगठन केंद्र सरकार के संपर्क में हैं
उनका कहना है कि केंद्र सरकार जल्दबाजी में यह अध्यादेश लाई है। इसमें काफी बातें किसान के हित में नहीं हैं। केंद्र सरकार अब इसमें संशोधन करने वाली है। वित्त मंत्री अरुण जेटली की लगातार किसान संगठनों से बातें चल रही हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऐसी कौन सी देश में विपदा आ गई थी कि सरकार को अध्यादेश के माध्यम से भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करना पड़ा।
    दरअसल जिस तरह से भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, उससे इन लोगों के दिमाग में यह बैठ गया था कि वह जो भी करेंगे जनता सिर झुकाकर उसे स्वीकार करेगी। जिस तरह से उन्होंने चुनाव में जनता को बरगलाकर बेवकूफ बना दिया, उसी तरह से वह लगातार बेवकूफ बनाते रहंेगे। इस सरकार ने शुरुआती दिनों से ही दिखाना शुरू कर दिया था, यह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है। यह स्वभाविक भी है क्योंकि चुनाव प्रचार में भाजपा ने पानी की तरह पैसा बहाया।
     सर्वविदित है कि यह सब पैसा कारपोरेट घरानों का था। अब उन लोगों को वह पैसा वसूलना है। पर यह किसी के दिमाग में नहीं था कि ये लोग इतनी जल्दी से कारपोरेट घरानों के पक्ष में निर्णय लेना शुरू कर देंगे। अन्ना हजारे ने कह दिया है कि जब तक यह अध्यादेश वापस नहीं होगा तब तक वह आंदोलन वापस नहीं लेगा। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले की फांस बन गया है। यदि वह वापस लेते हैं तो उनकी फजीहत होगी आैर यदि वापस नहीं लेते तो आने वाले समय में बिहार, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अन्ना हजारे का आंदोलन बहुत नुकसान पहुंचा सकता है।
   इसमें भी दो राय नहीं कि यदि समय रहते केंद्र सरकार ने यह अध्यादेश वापस नहीं लिया तो बिहार व उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना संजो रही भाजपा की इन प्रदेशों में वह दुर्गति होगी जो उसने सोचा भी नहीं होगा। इस आंदालन में देशभर के किसान संगठन भाग ले रहे हैं तो स्वभाविक है कि भजापा के पूरे देश के वोटबैंक पर असर पड़ेगा।
    हां अन्ना को यह देखना होगा कि राजनीतिक दलों के मंच पर आने से भाजपा को आंदोलन को कमजार करने का मौका मिल गया है। विशेष रूप से अरविंद केजरीवाल के मंच पर आने से। अब भाजपा इस आंदोलन को आम आदमी पार्टी
को मजबूत करने वाला कहेगी। 2011 के आंदोलन के बाद अन्ना के हिसाब से जन लोकपाल न बनने का असर भी इस आंदोलन पर पड़ेगा।  जन लोकपाल का क्या हुआ। जो सरकार बना रही है वह कितना कारगर होगा।

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