Friday, 27 September 2013

कहां है गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू!

      बात उन दिनों (1993 ) की है जब मैं नॉएडा में करियर बनाने आया था। नॉएडा से मोहननगर की बस देखता तो मन उसमें चढ़ लेने को करता। दरअसल मोहननगर से बिजनौर की बस मिलती थी।  जो सीधी मेरे गांव के पास होकर निकलती थी। जब कभी घर जाने का मौका मिल जाता तो मन करता कि हवा में उड़कर अपनों में पहुंच जाऊं और समय त्योहारों का हो तो उत्साह का  आलम यह होता कि बसों में कितनी भी भीड़ हो पर घर जाना जरुर होता था, वह भी परिजनों को लिए खरीदारी करके। मीडिया से जुड़ने के बाद भी लम्बे समय तक मेरा उत्साह कम नहीं हुआ। पत्रकारिता के साथ समाजसेवा से जुड़ा रहने के चलते गांव-देहात से मेरा नाता नहीं टूटा।  गांवों की मिट्टी की सोंधी खुशबु मुझे बरबस अपनी ओर खींच ही लेती।
      कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं जब बीमार पड़ता तो नॉएडा में सही होता ही नहीं। परेशान होकर गांव की ओर निकल पड़ता, यकीन कीजिये कि ज्यों-ज्यों मेरा गांव करीब आता जाता त्यों-त्यों मेरी तबीयत ठीक होती चली जाती। किसान परिवार में पैदा होने के कारण खेत-खलिहान से मेरा बड़ा लगाव रहा है पर कुछ दिनों से गांवों में भी आया परिवर्तन लगातार निराशा पैदा कर रहा है। मैं दूसरों की तो बता नहीं सकता पर मुझे जो लगा बता रहा हूं।  कई बार जब मैं अपने परिजनों, रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलने को आतुर रहता तो गांव चला जाता पर वहां के माहौल देखकर न केवल निराशा होती बल्कि पीड़ा भी। लोगों का रवैया ऐसा हो गया है कि शहरों की तरह ही गांवों में भी पैसों के लिए आपाधापी का माहौल है।
    प्यार-मोहब्बत की जगह द्वेष भावना ने ले ली है। रिश्ते स्वार्थ के होते जा रहे हैं। भाईचारा, चौपाल पर हंसी के ठहाके, बड़ों का सम्मान गांवों से भी खत्म होते जा रहे हैं। तीज त्योहारों पर गांवों में भी रोनक खत्म होती जा रही है। क्या यह महंगाई की मार है या फिर पैसों को कमाने की  मारामारी। सुख-चैन गांवों से भी खत्म  होता जा रहा है। मां का आंचल, पिता का संरक्षण, बड़े भाई का स्नेह, छोटे भाई का सम्मान, बहन की सुरक्षा, दोस्ती की कद्र जैसे शब्द हमारे समाज से लगभग खत्म होने लगे हैं । यह क्या मुझे ही लग रहा है या फिर वास्तव में समाज बरबादी की ओर अग्रसर है। देश का भविष्य माने जाने वाला युवा वर्ग अपने रास्ते से भटक गया लगता है। जहां इन लोगों को देश-समाज की सोचनी चाहिए वहां काफी संख्या में युवा ग्लैमर की चकाचौं में खोकर गलत रास्ता पकड़ ले रहे हैं। ये  कहना गलत न होगा कि अब गांव की मिट्टी सोंधी खुशबु अपना अस्तित्व खोती जा रही है। महानगरों का क्या हाल है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। तो क्या यह मान यह लिया जाए कि आपाधापी का यह आलम लगातार माहौल खराब करता रहेगा ?

Thursday, 26 September 2013

बेलगाम होते राजनीतिक दल



जनता को सुरक्षा का वादा देने के साथ विधानसभा व लोकसभा में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि खुद आपराधिक प्रवृत्ति के हों, इससे सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह स्थिति और ज्‍यादा भयावह है कि अदालत द्वारा सजा देने के बावजूद सरकार इनका बचाव करे। सरकार के जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन करने के लिए कैबिनेट में अध्‍यादेश पास कराने से तो ऐसा ही लग रहा है। अब यह अध्‍यादेश राष्‍ट्रपति के पास जाना है। हालांकि राष्ट्रपति महोदय ने इस मामले में नाराजगी जताई है लोकसभा में मुख्‍य विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा का भी इस मामले पर कोई ठोस रवैया नहीं है।

      बात जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन की ही नहीं है। राजनीतिक दल तो हर व्‍यवस्‍था को अपनी ओर मोड़ने को आतुर हैं। भले ही देश व समाज हित में सर्वदलीय बैठक में एक राय न बनती हो पर जब बात राजनीतिक दलों के हितों की आती है तो सब एक हो जाते हैं। देश की सेवा करने के नाम पर स्‍वार्थ पूरे करने में लगे राजनीतिक दलों का आलम यह है कि वे किसी भी तन्‍त्र का अंकुश बर्दाश्‍त करने को तैयार नहीं हैं न तो चुनाव आयोग का न ही सूचना आयोग का और न ही उस जनता का, जिसके वोट से ये विधानसभा व लोकसभा तक पहुंचते हैं। यहां तक कि देश के सर्वोच्‍च न्‍यायालय सुप्रीम कोर्ट का भी। ये लोग न तो आरटीआई के दायरे में आने को तैयार हैं और न ही अपनी करतूतों पर किसी तरह का प्रतिबन्‍ध मानने को।

      सरकार की मनमानी देखिए कि राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम कसने के लिए न्‍यायपालिका की कोशिशों पर पानी फेरने के लिए दागी सांसदों व विधायकों की सदस्‍यता समाप्‍त करने के सुप्रीम कोर्ट के दस जुलाई के फैसले के खिलाफ दायर की गई पुनर्विचार याचिका पर खुद सुप्रीम कोर्ट के सख्‍त रवैये के बाद अब संशोधन अध्‍यादेश कैबिनेट में पास करा लिया गया है। सरकार का कहना है कि सांसदों या विधायकों को दोषी ठहराए जाते ही उनकी सदस्‍यता खत्‍म कर दी गई तो सदन को भंग करने की नौबत आ जाएगी और सदन का कार्यकाल पूरा करने के लिए दोषी करार दिए जाने के बावजूद सांसद या विधायक की सदस्‍यता बरकरार रखना जरुरी है। तो यह मान लिया जाए कि विधानसभा व लोकसभा अपराधियों से भरी हो? जनप्रतिनिधि कुछ भी करते रहें और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। उन पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध न लगे। देश उन्‍हें सब कुछ करने की आजादी दे दे भले ही वह हरकत कितनी घटिया और घिनौनी ही क्‍यों न हो। विपक्ष भी देखिए कि खाद्य सुरक्षा विधेयक व भूमि अधिग्रहण विधेयक के अलावा कितने मामलों में शोर मचाता रहा पर देश व समाज के हित में कोर्ट के लिए गए फैसले के विरोध में वह भी एक तरह से सत्‍तापक्ष के साथ है। यहां तक कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्‍द्र मोदी भी। तो यह मान लिया जाए कि अब ये दल अपने स्‍वार्थ के लिए किसी भी तंत्र को विफल करते रहेंगे।

      अभी हाल ही में चुनाव सुधार का समर्थन कर रहे एक एनजीओ ने पांच राज्‍यों में होने वाले विधानसभा चुनाव व आम चुनाव के मद्देनजर राष्‍ट्रव्‍यापी सर्वेक्षण में पाया कि करीब एक तिहाई सांसद व विधायकों पर आपराधिक आरोप हैं। लोकसभा में ५४३ सांसदों में से १६२ (३० फीसद) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। ठीक इसी तरह ३१ फीसद विधायक आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं।

      देश को आजाद कराने में भले ही कितने क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया हो। कितने नेताओं ने अपनी संपत्ति बेचकर देश की सेवा की हो। कितने नेता ईमानदारी व समर्पण की मिसाल बने हों। लेकिन आज की राजनीति का उद्देश्‍य किसी भी तरह से पॉवर व पैसा अर्जित करना रह गया है। भले ही इन्‍हें पैदा करने का तरीका कोई भी हो। यही वजह है कि विधानसभा व संसद में अधिकतर प्रॉपर्टी डीलर, बाहुबली व अपराधी किस्‍म के लोग विराजमान हैं। आज की तारीख में किसी भी तरह से पैसा कमाओ और चुनाव लड़कर बन जाओ जनप्रतिनिधि। कोई यह देखने को तैयार नहीं कि यह पैसा आया कहां से ?

    आरटीआई के दायरे में आने का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि हाल ही में एक अंतरराष्‍ट्रीय एनजीओ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि फ्रांस, इटली, जर्मनी एवं जापान समेत 40 देशों में राजनीतिक दलों को कानून के तहत अपनी आय के स्रोत, संपत्तियों एवं देनदारियों व अन्‍य रिकार्ड के साथ खुलासा करना होता है। कॉमनवेल्‍थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की रिपोर्ट के अनुसार स्‍वीडन एवं तुर्की जैसे देशों में राजनीतिक दलों में स्‍वैच्छिक व्‍यवस्‍था है। इस रिपोर्ट के अनुसार आस्ट्रिया, भूटान, ब्राजील, बुल्‍गारिया, फ्रांस, घाना, यूनान, हंगरी, इटली, कजाकिस्‍तान एवं किर्गिस्‍तान में कानून के तहत यह व्‍यवस्‍था है कि राजनीतिक दलों को अपनी वित्‍तीय सूचनाओं का समय रहते ही लोगों के समक्ष खुलासा करना होता है। साथ ही नेपाल, पोलैंड, रोमानिया, स्‍लोवाकिया, सूरीनाम, स्‍वीडन, कजाकिस्‍तान, तुर्की, यूक्रेन एवं उज्‍बेकिस्‍तान में भी राजनीतिक दलों को अपने वित्‍त पोषण का सार्वजनिक खुलासा करना होता है।

सदियों दिलों के अन्दर वो गूंजते रहेंगे

               जयंती (28 सितम्बर) पर विशेष 
    भगत सिंह का नाम आते ही हमारे जहन  में बंदूक से लैस किसी क्रांतिकारी की छवि उभरने लगती है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि २३ वर्ष की अल्पायु में भी वह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंग्ला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ, चिन्तक और विचारक तो थे ही, समाजवाद के मुखर पैरोकार भी थे। आज की व्यवस्था और राजनेताओं की सत्तालिप्सा को देखकर लोग अक्सर यह कहते सुने  जाते हैं कि इससे तो  बेहतर ब्रितानवी हुकूमत थी पर भगत सिंह ने 1930  में यह बात महसूस कर ली थी।  उन्होंने कहा था कि हमें जो आजादी मिलेगी, वह सत्ता हस्तांतरण के रूप में ही होगी।  गरीबी पर पर लोग भले ही महात्मा गांधी के विचारों को ज्यादा तवज्जो देते हों पर भगत सिंह ने छोटी सी उम्र में गरीबी को न केवल अभिशाप बताया था बल्कि पाप तक की संज्ञा दे दी थी।  भगत सिंह की शहादत को भले ही 82 साल बीत गए हों  पर आज भी वह अपने विचोरों की ताजगी से सामायिक  और प्रासंगिक ही लगते हैं।  आने वाले वक्त में भी वह उतने ही प्रासंगिक  रहेंगे क्योंकि मुश्किलों से  निजात पाने को हमने जो फार्मूला इजात किया,  उसमें हजारों-हजार चोर छेद हैं।
    भगत सिंह को अधिकतर लोग क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जानते हैं पर वह सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशील विचारक, कला के धनी,  दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और पत्रकार भी थे।  बहुत कम आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड  और रुस की क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था।  लाहौर के नेशनल कालेज से लेकर फांसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन लगातार जारी रहा कि औ यही अध्ययन था जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है कि उन्हें हम और क्रांतिकारी दार्शनिक के रूप में जानते हैं।  भगत सिंह के भीतर एक प्रखर अखबारनवीस भी था, जिसकी बानगी हम प्रताप जैसे अख़बारों के सम्पादन में देख सकते हैं।  यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि एक महान विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार देश के तथाकथित  कर्णधारों के षडयंत्र के फलस्वरूप अब तक उन लोगों तक नहीं पहुच पाए जिनके लिए वह शहीद हुए थे।
    सरकार का रवैया देखिये कि आजादी के लिए २३ साल की छोटी सी उम्र में फांसी के फंदे को  चूमने वाले शहीद आजम भगत सिंह को सरकार शहीद ही नहीं मानती है।  इस बात पर एक बारगी यकीन करना मुश्किल है पर सरकारी कागजों में यही दर्ज है। एक आरटीआई से इसका खुलासा भी हुआ है। आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल में गृह मंत्रालय ने साफ किया है कि ऐसा कोई रिकार्ड नहीं कि भगत सिंह को कभी शहीद घोषित किया गया था।

Friday, 20 September 2013

क्या प्यार इतना बड़ा गुनाह है ?

हम आधुनिकता की बातें चाहे जितनी कर भी लें। कुरीतियों व रूढ़िवादिता को खत्म करने की जितनी भी कसम खा लें,  गांवों में आए परिवर्तन की चाहे जितनी भी डुगडुगी पीट लें। सच तो यह है कि परिवर्तन की राह पर हम उतने आगे नहीं बढ़ पाए हैं जितना अपेक्षित था। क्या गांव क्या शहर, प्रेम करना आसानी से लोग पचा नहीं पाते और इस अपाच्य का शिकार होते हैं युगल। लोग झूठी शान के लिए कुछ भी कर बैठते हैं, कानून को ताक पर रखकर अपने बच्चों का कत्ल भी। गत दिनों हरियाणा के रोहतक जिले के गरनावठी गांव में एक प्रेमी युगल के शादी कर लेने पर परिजनों के हत्या कर देना इसका जीता-जागता उदाहरण है इंतहा तो तब हो गई जब समाज में भय का मैसेज देने के लिए लड़के के शव के टुकड़ों को उसके ही घर के सामने फ़ेंक दिया गया।
    वैसे तो झूठी शान के लिए हत्या जैसे मामले पूरे उत्तर भारत में हो रहे हैं पर हरियाणा, प. उत्तर प्रदेश, दिल्ली व  पंजाब में इस  तरह की वारदात आम बात हो गई है। यहां खुले विचारों के लिए स्पेस कम से कम है। अक्सर लड़कियों की आजादी को लेकर पंचायतों में तरह-तरह के फरमान जारी दिए जाते हैं मसलन, जींस न पहनो, मोबाईल का इस्तेमाल हरगिज न करों और पार्क में सुबह या शाम हवाखोरी को अकेले बिल्कुल मत जाओ।  प्रेम-प्रसंग को लोग अपनी इज्जत से जोड़कर देखने लगते हैं।  जहां जरा सा मामला हुआ कि निकल गई तलवारें।  भले ही कानून के अनुसार २१ वर्ष की उम्र में लड़के व १८ वर्ष में लड़की अपनी पसंद से शादी करने के हकदार माने जाते हों पर कितने मामले ऐसे हुए कि प्रेम को गुनाह मानते हुए सर कलम कर दिए गए।  कहीं लड़के, कहीं लड़की तो कहीं दोनों को अपनी जान गंवानी पड़ी।  ऐसे मामलों में अक्सर देखने में आता है कि लड़की पक्ष के लोग ही वारदात को अंजाम देते हैं।  हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश  में भले ही एक विशेष वर्ग सगोत्र को लेकर बवाल मचाता हो पर हाल ही में एक सामाजिक संगठन के किये गए सर्वे के अनुसार इस तरह के मामलों में ७२ फीशद  अंतरजातीय विवाह, १५ अपनी ही जाति के, तीन फीसद  सगोत्र और एक फीसद  अंतर्धार्मिक शादियां कारण रहीं।
     अक्सर देखने में आता है कि एक विशेष वर्ग में सगोत्र विवाह के खिलाफ तालिबानी झंडा बुलंद कर दिया जाता है।  दरअसल इस तरह के लोग आज भी रूढ़िवादी समाज का हिस्सा बने हुए हैं।  ये लोग आधुनिक समाज की बदलती विचारधारा में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। हरियाणा, दिल्ली व  प. उत्तर प्रदेश में लिंगानुपात की स्थिति ख़राब है। रूढ़िवादी लोग तर्क देते हैं कि सगोत्र में जन्में सभी व्यक्ति एक ही आदि पुरुष की संताने हैं।  वे समगोत्री विवाह को वर्जित मानते हैं।  ऐसे लोगों को देखना चाहिए कि 1950 में बंबई उच्च न्यायालय में हरिलाल कनिया और गजेंदर गडकर की दो सदस्यीय पीठ ने सगोत्र हिन्दू विवाह को कुछ शर्तों के साथ वैध ठहराया था।
सगोत्र विवाह का विरोध खप पंचायतों में जयादा देखने को मिलता है।  ये पंचायतें हर्षवर्धन के काल में सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में आयी थीं।  प्राचीनकाल में प. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का व्यक्ति ही पंचायत का महामंत्री हुआ करता था। अंग्रेजी हुकूमत में सबसे बड़ी खाप पंचायत मुजफ्फरनगर की ही हुआ करती थी। खाप पंचायतों ने देश में बड़ी पंचायतें कर देश व समाज हित में भी निर्णय लिए हैं। युद्ध के दौरान भी खाप पंचायतों ने देशभक्ति की मिसाल पेश की थी प्राचीनकाल में भी इन महापंचायतों ने युद्ध के दौरान राजाओं-महाराजाओं की मदद की। हां देश में परिवार की ज्जत के लिए कत्ल की परिपाटी पुरानी है। भले ही हमारे समाज में इस तरह के मामले रोकने के लिए तरह-तरह के कानून बने हों पर समाज का संवेदनशील मुद्दा होने के कारण सरकारें  भी इन मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही हैं।  हमें यह भी देखना होगा कि समाज के ठेकेदार भले ही महिलाओं के अधिकार के लिए तरह-तरह के दावे करते हों पर आज भी पुरुष प्रधान समाज में लड़की के अपने जीवन साथी चुनने पर परिजन इसे अपनी इज्जत के साथ खिलवाड़ मानते हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि ऐसी वारदात को रोकने के लिए देश में कोई प्रयास नहीं हो रहा है।  सरकार के स्तर पर अंतरजातीय अथवा दूसरे धर्म में विवाह करने वाले लोगों के लिए विशेष विवाह अधिनियम के तहत दी जाने वाले ३० दिनों की नोटिस अवधि को भी समाप्त करने पर विचार किया जा रहा है।  हॉल ही में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने  पी. चिदंबरम की अगुआई में इस बाबत आठ सदस्यीय मंत्री समूह का गठन किया है।  केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय अलग से एक विशेष समिति का गठन कर रहा है।

Tuesday, 17 September 2013

हिन्दुत्व को कैस कराने के लिए मोदी को कमान

गुजरात दंगों व भाजपा के खेवनहार माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी को दरकिनार करते हुए पार्टी ने आखिरकार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र  मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना ही दिया। यह कोई अचानक नहीं हुआ है।  लम्बे समय से इसकी तैयारी चल रही थी। गुजरात में मोदी के सत्ता की हैट्रिक बनाते ही भाजपा में उनकी अगुआई में लोस चुनाव लड़ने की बात उठने लगी थी।  मोदी के प्रचार से जहां काफी हिन्दू वोटबैंक भाजपा से सटेगा वहीं बड़े स्तर पर मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में होना लगभग तय है।  मोदी की कट्टरता से आशंकित मुस्लिम अब प्रत्याशी नहीं बल्कि सरकार बनाने वाली पार्टी को देखेंगे।  ऐसे में कोई पार्टी कांग्रेस का विकल्प नहीं दिखाई देती।  वैसे भी २००९  के लोस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी के चलते काफी मुस्लिम वोटबैंक का धुर्वीकरण कांग्रेस में हुआ था।  मोदी का आक्रामक रुख क्षेत्रीय दलों की परेशानी बढाने वाला है।  विशेषकर मुस्लिम वोटबैंक को लेकर सपा की।  वैसे भी मुजफ्फरनगर दंगों के चलते पार्टी का  मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खां पार्टी से नाराज चल रहे हैं। सपा के लिए परेशानी का कारण यह भी है कि यूपी में १९९१  का माहौल दोहराने के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी का दाहिना हाथ माने जाने वाले अमित शाह को पहले ही उत्तर प्रदेश का प्रभारी  बना दिया है। हां  इस बार हालात भाजपा के उतने अनुकूल नहीं हैं।  न तो आरक्षण की आग है और न ही मंदिर की लहर।
      भाजपा भले ही यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटालों का आरोप लगाकर आंदोलन चलाती आ रही हो पर पार्टी ने नरेंद्र मोदी के सहारे चुनाव में फिर से हिदुत्व कार्ड  चल दिया है।  दरअसल जब-जब चुनाव आतें हैं तब-तब भाजपा को १९९१ का माहौल दिखाई देने लगता है।  भाजपा वह  सब हथकंडे अपनाना चाहती  है, जिनके बल उसने सत्ता हथियाई थी।  पार्टी में हिन्दुत्व का नारा  बुलंद करने वाले सभी पात्र पहले ही इकठ्ठा कर लिए गए हैं।  १९९१ और २०१४ के चुनाव में मात्र  अंतर इतना है कि तब लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह और उमा भारती की तिकड़ी चुनाव की अगुआई कर रही थी तो इस बार नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह की।
   दरअसल भाजपा की समझ में यह आ गया है कि वह उत्तर प्रदेश और हिन्दुत्व ही है जिसके बलबूते पर पार्टी फिर से अपना पुराना वजूद हासिल कर सकती है।  तभी तो पार्टी दंगाग्रस्त मुज्फ्फरनगर में जल्द ही मोदी की  रैली कराने की बात क रही है।  हमें यह देखना होगा कि वह हिन्दुत्व का प्रभाव ही था कि  ९० के दशक में राम मंदिर आन्दोलन के बलबूते भाजपा  ने पार्टी को बुलंदी पर पहुंचाया था। राम मंदिर आन्दोलन चरम पर रहने के समय १९९१ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में ३१.४५  प्रतिशत मतों  के साथ २११ सीटें मिली थीं और  उसी साल हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी  ने ३२.२८  प्रतिशत मतों के साथ ८५ में से ५१ सीटें हसिल की थी।  यह राम मंदिर आन्दोलन का असर ही था कि १९९६ के लोकसभा चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में और इजाफा हुआ  पार्टी ने ५२ सीटें जीती। भाजपा का मत प्रतिशत हो गया ३३.४४।  १९९३ में विधानसभा चुनाव में सीटें घटकर १७७ रह गई पर मत प्रतिशत ३३.३ था।  आंकड़े बताते हैं कि १९९८ में भाजपा ने हिदुत्व के नाम पर लोकसभा की ८५ में से ५७ सीटें हासिल की और मत प्रतिशत ३६.४९ हो गया।  उसी काल में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी।  वाजपेयी सरकार में राम मंदिर का निर्माण न होने से हिन्दू वोटबैंक भाजपा से नाराज हो गया और इसके बाद प्रदेश में पार्टी का पराभव शुरू  हो गया।  यह इसका ही परिणाम था कि १९९९ के लोकसभा चुनाव में पार्टी की सीटें घटकर २९ रह गई और मत प्रतिशत घटकर २७.६४।  लोकसभा के २००४ और  २००९ के चुनाव में पार्टी को २२.१७ और १७.५४ प्रतिशत मतों के साथ ८० में से १०-१० सीटें मिली।  यह हिन्दुओं की नाराजगी ही थी कि २०१२ के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हालत बहुत कमजोर हो गई और १५ प्रतिशत मतों के साथ ४७ विधायक ही बने।  पार्टी अब कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा माने  जाने मोदी के बलबूते १९९८ की स्थिति में ले जाना चाहती है।
   इसमें  दो राय नहीं कि गुजरात में दो लोकसभा व चार विधानसभा सीटों के जीतने पर मोदी का आत्मविश्वाश सातवें आसमान पर है पर मोदी को  समझने की जरूरत है कि कर्नाटक और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में उनके प्रचार के बावजूद पार्टी चुनाव हार गई थी।  उन्हें यह भी समझना होगा कि भाजपा अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं कर सकती। उन्हें सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना भी जरूरी है।  मोदी की  परेशानी यह भी है कि धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने पर उनका अपना वोटबैंक छिटकता है तो कट्टर छवि से सहयोगी दल। सहयोगी दलों के नाम पर भाजपा के साथ आजकल मात्र अकाली दल व शिवसेना हैं। हां जयललिता एनडीए के पक्ष में देखी जा रही हैं।  सपा भले ही कांग्रेस विरोध कर रही हो पर मुस्लिम वोटबैंक के चलते वह राजग का हिस्सा नहीं बन सकती। ममता बनर्जी के लिए पश्चिमी बंगाल में भाजपा से अधिक कांग्रेस फायदा का सौदा है।  बसपा चुनाव में किसी पार्टी से गठबंधन नहीं करती।  रालोद पहले ही यूपीए का हिस्सा है।
   माहौल को भांपकर देश की दोनों बड़ी सियासी पार्टियां अनुभव से सीख लेते हुए एक-एक कदम बड़े ही सोच-समझ कर उठा रही हैं। दरअसल दोनों ही पार्टियों को अपने पुराने दोस्तों पर यकीन नहीं रह गया है। कांग्रेस जानती है कि मायावती और मुलायम सिंह किंग मेकर और किंग बनने का ख्वाब पाले बैठे हैं।  ये दोनों ही पार्टियां यूपीए में हैं तो मजबूरीवश। इन सबके के चलते ही कांग्रेस ने बिहार को विशेष पैकेज देकर नीतीश कुमार को चुग्गा डाला है ।  एम कनिमोझी को राज्यसभा में भजकर कांग्रेस  ने एक तरह से डीएमके  को मना लिया है।  झारखंड में शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाकर कांग्रेस ने झामुमो को अपने साथ कर लिया है। 
   दूसरी ओर मोदी के लिए यह भी बड़ी परेशानी है कि पार्टी का करिश्माई चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी  बुढ़ापे और बीमारी की वजह से मंजर-ए - गायव हैं तो  दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी उनसे नाराज।  मोदी की छवि सख्त शासक की रही है। ऐसे में सबको साथ लेकर चलना उनके लिए मुश्किल भरा काम है। लोस चुनाव में अब उन्हें अपने को गुजरात के बाहर भी साबित करना है।  देश में  हर जगह वोटों को धुर्वीकरण करना आसान काम नहीं है।  गुजरात में राजधर्म न निभाने का आरोप झेलने वाले मोदी के लिए गठबंधन धर्म निभाना अग्नि परीक्षा के समान है। अलग-अलग विचारधारा को लेकर एक  साथ लेकर चलना उनके लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा है।  बात अंतरराष्ट्रीय  प्रभाव की करें तो यूरोप में भले ही उनके शासन को सराहा गया हो पर अमेरिका ने उन्हें अपना वीजा तक नहीं दिया है।  बिर्टेन ने १० साल तक उनसे रिश्ते तोड़े रखें।

Friday, 13 September 2013

बढ़ते अपराधों की जिम्‍मेदारी


युवाओं में लगातार बढ़ रही आपराधिक प्रवृत्ति समाज के लिए बड़ा खतरा है। कभी-कभी कुछ गैर जिम्‍मेदार व लापरवाह लोग इनकी करतूतों को अनदेखा कर इन्‍हें बिगड़ने में सहायक बन रहे हैं। मामला तब और संगीन लगता है जब दूर-दराज गांव से महानगरों में भविष्‍य बनाने आ रहे अनेक छात्र आपराधिक गतिविधियों में शामिल होकर अपने अभिभावकों के अरामानों पर पानी फेर देते हैं। पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा में पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भराने आए तीन छात्रों द्वारा लूटपाट की वारदात इसी तरह की घटना है। इन छात्रों ने कैशियर से नकदी लूटने का प्रयास किया और सफल नहीं हुए तो कार्ड स्‍वाइप मशीन ही लूट ले गए। लेकिन पेट्रोल पंप मालिक ने इस मामले में इनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की सक्रियता नहीं दिखा। क्‍या यह स्थिति इन छात्रों को और बड़े अपराध के लिए नहीं उकसाएगी?

            दरअसल आधुनिकता की दौड़ में शामिल तमाम युवा महंगे शौक पाल रहे हैं। गर्ल फ्रेंड को महंगे गिफ्ट, दोस्‍तों पर रौब गाठने के लिए बढ़िया मोबाइल, बड़ी-बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड कपड़े व नशे की लत इन्‍हें अपराध की दुनिया में धकेल रही है। अपनी इन बेतहाशा जरुरतों के लिए ये चेन स्‍नेचिंग, लूटपाट जैसी वारदातों को अंजाम देते फिर रहे हैं। बच्‍चों में अच्‍छे संस्‍कारों का अभाव भी कहीं न कहीं अपराध को बढ़ावा दे रहा है। हो भी क्‍यों न। उन्‍हें संस्‍कारवान बनाने वाली शिक्षा का व्‍यावसायीकरण जो हो गया है और अभिभावकों के पास बच्‍चों के लिए समय नहीं है। परिणामस्‍वरुप काफी संख्‍या में बच्‍चे युवा होते-होते अपराध की दुनिया के राही बन जाते हैं। गत दिनों दिल्‍ली स्‍कूल स्‍वास्‍थ्‍य योजना के तहत 24 निजी व 12 सरकारी स्‍कूलों के 11,234 बच्‍चों पर हुए एक अध्‍ययन में 12 फीसद बच्‍चों ने नशे की लत व आपराधिक गतिविधियों में लिप्‍त होने की बात सामने आई। स्‍वाभाविक है ये बच्‍चे युवा होते-होते अपराध भी करने लगेंगे। कहना गलत न होगा कि लोगों की समझौतावादी मानसिकता अपराध के बढ़ने में सहायक हो रही है। बात सार्वजनिक जगहों की हो, ट्रेनों की हो या फिर ऑफिसों की, हम हर जगह सब कुछ समझते हुए भी गलत होते देख रहे हैं। नैतिक साहस का अभाव व गिरते जमीर के चलते लोगों की चल छोड़ यार वाली प्रवृत्ति बढ़ रही है। हां जब उनके किसी अपने पर बीतती है तो बात समझ में आती है। ऐसी व्‍यवस्‍था में कितने कानून बन जाएं, कितनी ही सजा सख्‍त हो जाए। जब तक आम आदमी स्‍वार्थ छोड़कर सही व गलत का अंतर समझना व कहना शुरु नहीं करेगा, तब तक अपराध पर अंकुश लगाना संभव नहीं है।


१० सितम्बर २०१३ को दैनिक राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पृष्ठ पर

Thursday, 12 September 2013

सियासत समझें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग


इसे वोटबेंक की राजनीति कहें या फिर बनाये गये हालात मुजफ्फनगर के दंगे से यह साबित हो गया कि सियासत ने अपना काम शुरू कर दिया है लड़की के साथ छेड़छाड़ के बाद लड़के की धुनाई उसके बाद लड़की के सगे भाई व मामा के लड़के की हत्या। फिर एक पक्ष की जनसभा उसके जवाब में दूसरे पक्ष की महापंचायत। ये सब दंगे की पटकथा नहीं थी तो क्या थी। धारा १४४ लगने के बावजूद महापंचायत में मुजफ्फनगर जिले के दूरदराज गांवों के अलावा आसपास के जिले सहारनपुर, बिजनौर, शामली, मेरठ, मुरादाबाद, बागपत व उत्तराखंड और हरियाणा प्रदेश से विशेष दलों के नेताओं समेत लगभग एक लाख लोग मुजफ्फनगर आये और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा इसे क्या कहेंगे ? यह प्रशासन की लापरवाही और सियासत का रंग ही था कि गांव जौली, भोपा, तिस्सा, भोकरहेड़ी से आये लोगों पर योजनाबद्ध तरीके से हमला हुआ और कई की मौत के बाद जिले में जो दंगा हुआ उसने कितने लोगों की जान ले ली। आज की तारीख में फिर से महेंद्र सिंह टिकैत की याद आ रही है। १९८९ में भोपा क्षेत्र में नईमा कांड के बाद टिकैत ने हिन्‍दू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल कायम की थी वह सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वालों के मुंह पर तमाचा था। उस समय लड़की के पक्ष में ४० दिन आन्दोलन चला था। नईमा के न्याय की लड़ाई हिन्‍दुओं ने लड़ी थी। तब भोपा नहर पर नईमा की मजार बनाई गई थी। वह दौर राम मंदिर आन्दोलन का थाकितनी जगह दंगे हुए थेसांप्रदायिक दंगों की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी ईं थीं। अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के दंगे चुनाव के समय ही क्‍यों होते हैं ?
दरअसल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, बिजनौर, शामली, मेरठ, मुरादाबाद व बागपत जिले संवेदनशील माने जाते हैं। वोट के लिए चुनाव के समय इन जिलों में माहौराब कर वोट हथियाने का प्रयास किया जाता है और काफी नेता लोगों की लाशों पर चुनाव लड़ने का प्रयास करते हैं। वैसे तो मुस्लिमों को वोटबैंक मानने वाले दलों को यह समझना चाहिए कि जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी हिन्द, आल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुसवरत संगठनों ने साझा प्रेस कांफ्रेस कर दंगों के लिए दो विशेष दलों को जिम्मेदार ठहराया है। कुछ नेताओं के उकसावे में आने वाले लोगों को यह समझना होगा कि दंगों में हर वर्ग का नुकसान होता है। आगजनी होती है तो हर किसी का घर जलता है। दंगों में सबसे ज्‍यादा प्रभावित होता है गरीब। गरीब को हर दिन कमा कर लाना होता है तो स्‍वाभाविक है कि दंगों की चपेट में वही ज्‍यादा आता है। लोगों को समझना होगा कि बिजनौर, अलीगड़, मेरठ,  मुरादाबाद में दंगे कराकर क्या-क्या स्वार्थ साधे गए थे।
ज्ञात हो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर हैं और बरसात में काम न होने की वजह से असामाजिक तत्त्व सक्रिय हो जाते हैं ऎसे लोग मौकों की तलाश में रहतें हैं ये लोग जरा-जरा से मामले को तिल का ताड़ बनाने में माहिर होतें हैं लोगों को इनको चिन्हित करना होगा किसी भी तरह इन्हें सक्रिय नहीं होने देना है

Friday, 6 September 2013

खेती से मोहभंग खतरे की घंटी




किसी कृषि प्रधान देश के लिए इससे बुरी खबर नहीं हो सकती कि उस देश के किसान अपने पेशे से पलायन करने लगें। जी हां, किसानों के खेती से मुंह मोड़ने की बात अब तक मीडिया में ही पढ़ने को मिलती थी। अब केन्‍द्रीय कृषि मंत्रालय की स्‍थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यह बात मान ली है। इसे सरकार की उदासीनता कहें या फिर बदलती परिस्थितियां कि किसान अपनी उपज से लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं।
     खेती से किसानों का मोहभंग का हाल क्‍या है इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे जो 2011 में घट कर 11 करोड़ 87 लाख रह गए। किसानों का खेती छोड़ने का कारण सरकारों का उपक्षित रवैया और योजनाओं में बढ़ती दलाली तो है ही, प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की खति तथा ॠणों का बढ़ता बोझ भी खेती से मोहभंग के बड़े कारण हैं। वैसे तो किसान हर प्रदेश में खेती छोड़ रहे हैं पर गत दशक के दौरान महाराष्‍ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार किसानों ने खेती छोड़ी है। राजस्‍थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्‍तराखण्‍ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्‍या कम हुई है। सरकार रुपए की गिरती कीमत के चलते धान की फसल पर भले ही टकटकी लगाए बैठी हो पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्‍ययन पर यकीन करें तो धान की खेती की उपज भी लगातार घट रही है। वर्ष 2020 तक सिंचित धान की उपज में लगभग चार, 2050 तक सात तथा वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। वर्षा आधारित धान की उपज में 2020 तक छह फीसद की कमी हो सकती है।
     देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्‍होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्‍त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को। हां, किसानों के माथे से डिफाल्‍टर का धब्‍बा हटने की रफ्तार में तेजी जरुर आ गई। अभी हाल ही में कैग रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है। 2008 में यूपीए सरकार की ओर से लाई गई कृषि माफी योजना में भारी घोटाला देखने को मिला। 25 राज्‍यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियों मिली हैं। आंध्र के गई गरीब किसान किडनी बेच कर सरकारी कर्ज उतारने के लिए मजबूर हो गए। उत्‍तर प्रदेश का हाल यह है कि भले ही वह किसानों के ॠण माफ करने का दावा करती हो पर नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्‍यूरो के अनुसार 2012 में लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में 225 लोगों ने खुदकुशी की, जिसमें 119 किसान थे। किसानों की आत्‍महत्‍याओं के आंकड़ें देखें तो एक बात साफ समझ में आती है। वह यह कि मनरेगा, सहकारी समितियां, कृषि ॠण, ॠण माफी योजनाएं किसानों के लिए बेकार साबित हो रही हैं। किसान के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सच्‍चाई तो यह है कि देश का किसान हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी कर्जे के बोझ तले दबता चला जा रहा है। देखने की बात यह है कि कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा। विपक्ष ने काफी शोर-शराबा किया। प्रधानमंत्री ने भी जांच कर दोषियों को कड़ी सजा देने की बात कही। पर क्‍या हुआ?