Monday, 21 March 2016

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

   जब हमारे देश में समाजवाद की बात आती है तो डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम अग्रिम पंक्ति में सबसे पहले लिया जाता है। आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को कांग्रेस मुक्त करने का दंभ भर रहे हों पर वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में ही गैर कांग्रेसवाद का नारा दे दिया था। लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाते हुए 70 के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुआई में समाजवादियों ने मोर्चा संभाला दी। वह लोहिया की ही विचारधारा है कि बिहार से लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर छाए तो मुलायम सिंह यादव ने कई साल तक उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया । वह बात दूसरी है कि आज के दौर में इन नेताओं का परिवारवाद, जातिवाद, पूंजीवाद व अवसरवाद लोहियावाद पर भारी पड़ रहा है।
   विचारधारा की बात की जाए तो यह ही कहा जाएगा कि लोहिया एक ऐसी अनोखी फिजा के निर्माता थे, जिमसें सम्पूर्ण आजादी, समता, सम्पन्नता, अन्याय के विरुद्ध जज्बा आैर समाजवाद का रंग घुला हो। लगन, ओजस्विता आैर उग्रता-प्रखरता लोहिया के विचारों में थी। राजनीतिक विचारक, चिंतक आैर स्वप्नदृष्टा रहे डॉ. राम मनोहर लोहिया का चिंतन राजनीति तक कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिंतन धारा की विशेषता मानी जाती रही है। वह ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जिनमें राजनीति के साथ ही संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहास, भाषा  पर पकड़ कूट-कूट कर भरे थे। लोहिया देश से आगे बढ़कर विश्व की रचना आैर विकास के बारे में सोचते थे। उन्होंने सदा ही विश्व नागरिकता का सपना देखा था। वह ऐसे समाजवादी पुरोधा थे जिन्होंने एशिया के समाजवादियों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया था। भाईचारे के वह इस कदर समर्थक थे कि उन्हें एक से दूसरे देश में आने-जाने के लिए किसी तरह की कानूनी रुकावट पसंद न थी। अपनी प्रखरता ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार आैर व्यापक गुणों के चलते वह अच्छे-अच्छे लोगों की पकड़ से बाहर रहे। दरअसल जो लोग लोहिया के विचारों गंभीरता से नहीं लेते थे उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं।
   लोहिया गांधी के सत्याग्रह आैर अहिंसा के अखंड समर्थक तो थे पर गांधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे। वे समाजवादी तो थे पर माक्र्स को एकांगी मानते थे। वे राष्ट्रवादी थे पर विश्व सरकार का सपना देखते थे। उनकी विचारधारा गजब की थी कि वह आधुनिकतम विद्रोही व क्रांतिकारी थे पर शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक भी। लोहिया मानते थे कि पूंजीवाद आैर साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी एकांगी आैर हेय हैं। इससे छुटकारा दिलाने के का एकमात्र माध्यम वह समाजवाद को मानते थे। बिना प्रजातंत्र के वह समाजवाद को अधूरा मानते थे। वह प्रजातंत्र आैर समाजवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। लोहिया ने माक्र्सवाद आैर गांधी को मूल रूप से समझा आैर दोनों को अधूरा पाया। इसका कारण वह इतिहास की गति के दोनों को छोड़ देना मानते थे। वह माक्र्स पश्चिमी तथा गांधी पूर्व का प्रतीक मानते थे। वह लोहिया ही थे जो पश्चिमी व पूर्व की खाई को पाटना चाहते थे। वह मानवता के दृष्टिकोण के साथ पूर्व-पश्चिमी-काला-गोरा, अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा व नरी-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।
    लोहिया अनेक सिद्धांतों, कार्यक्रमों आैर क्रांतियों के जनक हैं। वह सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ बोलने की क्षमता रखे थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। उन्होंने नरी-नारी की समता के लिए, चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक आैर दिमागी असमानता के खिलाफ, संस्कारगत, जन्मजात जाति-प्रथा के खिलाफ आैर पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए, गुलामी के खिलाफ आैर स्वतंत्रता तथा विश्व लोकराज के लिए। निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ आैर आर्थिक समानता के लिए तथा योजना के पैदावार बढ़ाने के लिए, निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ आैर लोकतंत्री पद्धति के लिए, अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ आैर सत्याग्रह के लिए क्रांतियों का आह्वान किया।
   कर्म के क्षेत्र में अखंड प्रयोग आैर वैचारिक क्षेत्र में निरंतर संशोधन के नवनिर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील भी लोहिया का एक अलग रूप माना जाता है। उनका एक आदर्श विश्व संस्कृति की स्थापना का संकल्प भी था। लोहिया को भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम था। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं आैर अध्यात्मकिता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व दृष्टि विकसित की। आज की दुनिया की दो-तिहाई आबादी का दर्द आैर गरीबी व विपप्न्नता की जड़ से मिटाना आैर समस्त विश्व को युद्ध आैर विनाश की बीमारी से मुक्त करने का निदान लोहिया ने बताया था।  निदान सही होने पर भी संस्कार में फैला स्वार्थ आैर लोभ उन्हें मंजूर न था। यही वजह थी कि आजादी में कांग्रेसियों की सत्तालोलुपता से दुखी लोहिया उस आजादी से संतुष्ट न थे। लोहिया की आत्मा विद्रोही थी। अन्याय का तीव्रतम प्रतिकार उनमें कर्मांे व सिद्धांतों की बुनियाद रही। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ-साथ उनके पास असमी धैर्य आैर संयम भी था। बार-बार जेल जाने-अपमान सहने व अप्रिय अनुभवों के बावजूद अन्याय के लिए अपनी दृढ़ता के कारण वे फिर से ऐसे कटु अनुभव को आमंत्रित करते रहे।
   शायद लीक पर चलना लोहिया के स्वभाव में न था। यही वजह थी कि वह प्रवाह के साथ  कभी न रहे। प्रचलित प्रवाह के उलटे तैरने के प्रयोग में उनके विचारों को प्रचार के लिए देश के मीडिया ने कभी सहयोग न किया। हां उपेक्षा भ्रामक प्रचार आैर लोहिया के विचारों को दबाने की सदा कोशिश की गई। दूसरों आैर हर झूठ का बराबर खंडन करते रहना तथा सफाई देना स्वाभिमानी लोहिया के स्वाभव के खिलाफ था। वह लोहिया थे, जिन्होंने सबसे पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू की विदेश नीतियों का विरोध किया था। वह लोहिया की भाषा पर पकड़ ही थी कि संसद में उनके बोलने के दिन पंडित नेहरू होम वर्क करके आते थे। संसद में लोहिया की तीन आना बनाम पंद्रह आना बहस बहुचर्चित रही। वह लोहिया ही थे जिन्होंने 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन" छेड़ने के बाद शीर्षस्थ नेतृत्व के गिरफ्तार हो जाने पर भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया था, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। वह लोहिया थे, जिनसे अंग्रेज सरकार सबसे अधिक घबराती थी। यही कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को काफी दिन बाद छोड़ा गया। वह लोहिया थे जब आगरा जेल में रहते हुए उनके पिता के देहांत होने पर अंग्रेज सरकार उन्हें पेरोल पर छोड़कर उनके पिता के अंतिम संस्कार के लिए भेजना चाहती थी तो उन्होंने अंग्रेजों की किसी भी तरह की कोई सहानुभूति लेने से इनकार कर दिया।
    वह लोहिया ही थे, जिन्होंने हर बार देश को संभाला। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो नवाखाली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत कई जगहों पर लोहिया, गांधी जी के साथ मिलकर सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। नौ अगस्त, 1947 से हिंसा रोकने का काम युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात को 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को माहौल फिर बिगड़ गया। गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए आैर उनके प्रयास से 'शांति समिति" की स्थापना हुई। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में भी लोहिया का विशेष योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद रियासतों को खत्म करने का श्रेय भले ही सरदार बल्लभभाई पटेल को जाता हो पर लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आंदोलन समाजवादियों ने चलाया था।

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