Wednesday, 30 March 2016

पउप्र में सपा की नींद उड़ाएगा रालोद-जदयू गठबंधन!

    उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर रालोद व जदयू के गठबंधन की चल रही कवायद सपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विरोध झेल रही सपा के लिए पुराने साथियों के विरोध में आ जाना बड़ी परेशानी लेकर आना माना जा रहा है। सर्वे में बसपा को बढ़त दिखाना तथा आम चुनाव में भाजपा की एकतरफा जीत से दबाव में चल रही सपा के खिलाफ समान विचारधारा वाले दलों का ताल ठोक देना बड़ा झटका है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश (पउप्र) में गन्ना मूल्य, बकाया भुगतान, अलग राज्य की मांग से निपटना एक अलग चुनौती के रूप में उभरे हैं।
    आम चुनाव में पुप्र में भाजपा की एकतरफा जीत के चलते सभी दलों ने यहां पर विशेष ध्यान लगाया हुआ है। बसपा के बाद जहां सपा ने लगभग सभी सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं वहीं भाजपा प्रत्याशी चयन पर लगातार मंथन कर रही है। पउप्र के लोगों को रिझाने के लिए सभी दल अपने-अपने तरीके से प्रयास में लगे हंै। उत्तर प्रदेश पर राज कर रही सपा ने जहां बजट में किसानों के पक्ष  ढेर सारी योजनाएं घोषित कर अपने को किसान हितैषी दिखाने का प्रयास किया वहीं बसपा ने संसद में पउप्र को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाकर। भाजपा से प्रधानमंत्री नरंेद्र मोदी ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बहाने तो राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने गन्ना किसानों की समस्याओं को मुद्दा बनाकर। रालोद लगातार बकाया भुगतान व किसानों की समस्याओं को उठाता रहा है। पउप्र पर विशेष पकड़ के चलते ही जदयू रालोद से सट रहा है।
    जदयू-रालोद गठबंधन का सपा के नुकसानदायक होने का कारण जदयू के केसी त्यागी की पउप्र में अच्छी पकड़ होना तथा आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रधामनंत्री पद के दावेदार बनने पर एनडीए से नाता तोड़ने वाले नीतीश कुमार का मुस्लिमों पर अच्छा प्रभाव छोड़ने में सक्षम होना है। ईमानदार नेता की छवि रखने वाले शरद यादव की भाषा शैली पउप्र के लोगों को अलग प्रभावित करती है। उधर बसपा के अपने दम पर विस चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद कांग्रेस के रालोद व जदयू गठबंधन में शामिल होने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। वैसे भी जदयू व राजद के साथ बिहार चुनाव लड़ चुकी कांग्रेस के लिए यह गठबंधन फायदे का सौदा रहा है। उधर  नीतीश कुमार ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगने पर मोदी सरकार की निंदा कर कांग्रेस के पक्ष में होने के संकेत दे दिए हैं।
प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था, यादव सिंह प्रकरण में हुई फजीहत तथा भाजपा से सटने के लग रहे आरोप को झेल रहे सपा के लिए उसकी विचारधारा वाले दलों का विरोध में जाना बड़ी मुसीबत माना जा रहा है। जदयू प्रमुख शरद यादव, महासचिव केसी त्यागी व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व रालोद प्रमुख अजीत सिंह पुराने साथी रहे हैं। इन समाजवादियों ने एक साथ मिलकर जहां कांग्रेस का सामना किया वहीं कई बार साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ मोर्चा खोला। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के राष्ट्रवाद का राग अलापने, असहनशीलता पर बहस के इस दौर में इन लोगों के विरोध में आने से सपा का अलग-थलग होना माना जा रहा है।
   ज्ञात हो कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंंह का स्मृति स्थल बनाए जाने को लेकर दिल्ली में हुई किसान स्वाभिमान रैली में चौधरी चरण सिंह की विचारधारा के पोषक सियासी धुरंधरों के जुटने से नए समीकरण उभरे थे। मंच पर रालोद अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह, जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव, जनता दल (एस) अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, नीतीश कुमार, उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने एक साथ मिलकर केंद्र सरकार को ललकारा था। इन नेताओं ने चरण सिंह स्मृति स्थल बनाए जाने को साझा संघर्ष करने का संकल्प लिया था। बिहार में राजद-जदयू के मिलने के बाद हरियाणा में देवीलाल की जन्मशती पर समाजवादियों के जुटने के बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की अगुआई में जनता परिवार के एकजुट होने की कवायद ने जोर मारा था।
   हालांकि बिहार चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर नेताजी के पीछे हटने से इस गठबंधन के अस्तित्व में आने की संभावनाएं धूमिल हुर्इं तो सबसे अधिक नाराजगी नीतीश कुमार ने जताई थी। नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में जहां उनकी विचारधारा के लगभग सभी नेता वहां पहुंचे थे वहीं सपा के किसी कद्दावर नेता का मंच पर न दिखाई देना नीतीश व नेताजी के बीच बढ़ी दूरी को दर्शा रहा था। अब नीतीश कुमार अजित सिंह को साथ लेकर पउप्र से मुलायम सिंह को ललकारने की तैयारी मंे हैं।

Monday, 21 March 2016

खुद्दारी व संघर्ष के पर्याय थे लोहिया

   जब हमारे देश में समाजवाद की बात आती है तो डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम अग्रिम पंक्ति में सबसे पहले लिया जाता है। आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को कांग्रेस मुक्त करने का दंभ भर रहे हों पर वह लोहिया ही थे, जिन्होंने 50 के दशक में ही गैर कांग्रेसवाद का नारा दे दिया था। लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाते हुए 70 के दशक में इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुआई में समाजवादियों ने मोर्चा संभाला दी। वह लोहिया की ही विचारधारा है कि बिहार से लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर छाए तो मुलायम सिंह यादव ने कई साल तक उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया । वह बात दूसरी है कि आज के दौर में इन नेताओं का परिवारवाद, जातिवाद, पूंजीवाद व अवसरवाद लोहियावाद पर भारी पड़ रहा है।
   विचारधारा की बात की जाए तो यह ही कहा जाएगा कि लोहिया एक ऐसी अनोखी फिजा के निर्माता थे, जिमसें सम्पूर्ण आजादी, समता, सम्पन्नता, अन्याय के विरुद्ध जज्बा आैर समाजवाद का रंग घुला हो। लगन, ओजस्विता आैर उग्रता-प्रखरता लोहिया के विचारों में थी। राजनीतिक विचारक, चिंतक आैर स्वप्नदृष्टा रहे डॉ. राम मनोहर लोहिया का चिंतन राजनीति तक कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिंतन धारा की विशेषता मानी जाती रही है। वह ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जिनमें राजनीति के साथ ही संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहास, भाषा  पर पकड़ कूट-कूट कर भरे थे। लोहिया देश से आगे बढ़कर विश्व की रचना आैर विकास के बारे में सोचते थे। उन्होंने सदा ही विश्व नागरिकता का सपना देखा था। वह ऐसे समाजवादी पुरोधा थे जिन्होंने एशिया के समाजवादियों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया था। भाईचारे के वह इस कदर समर्थक थे कि उन्हें एक से दूसरे देश में आने-जाने के लिए किसी तरह की कानूनी रुकावट पसंद न थी। अपनी प्रखरता ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार आैर व्यापक गुणों के चलते वह अच्छे-अच्छे लोगों की पकड़ से बाहर रहे। दरअसल जो लोग लोहिया के विचारों गंभीरता से नहीं लेते थे उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं।
   लोहिया गांधी के सत्याग्रह आैर अहिंसा के अखंड समर्थक तो थे पर गांधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे। वे समाजवादी तो थे पर माक्र्स को एकांगी मानते थे। वे राष्ट्रवादी थे पर विश्व सरकार का सपना देखते थे। उनकी विचारधारा गजब की थी कि वह आधुनिकतम विद्रोही व क्रांतिकारी थे पर शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक भी। लोहिया मानते थे कि पूंजीवाद आैर साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी एकांगी आैर हेय हैं। इससे छुटकारा दिलाने के का एकमात्र माध्यम वह समाजवाद को मानते थे। बिना प्रजातंत्र के वह समाजवाद को अधूरा मानते थे। वह प्रजातंत्र आैर समाजवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। लोहिया ने माक्र्सवाद आैर गांधी को मूल रूप से समझा आैर दोनों को अधूरा पाया। इसका कारण वह इतिहास की गति के दोनों को छोड़ देना मानते थे। वह माक्र्स पश्चिमी तथा गांधी पूर्व का प्रतीक मानते थे। वह लोहिया ही थे जो पश्चिमी व पूर्व की खाई को पाटना चाहते थे। वह मानवता के दृष्टिकोण के साथ पूर्व-पश्चिमी-काला-गोरा, अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा व नरी-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।
    लोहिया अनेक सिद्धांतों, कार्यक्रमों आैर क्रांतियों के जनक हैं। वह सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ बोलने की क्षमता रखे थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। उन्होंने नरी-नारी की समता के लिए, चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक आैर दिमागी असमानता के खिलाफ, संस्कारगत, जन्मजात जाति-प्रथा के खिलाफ आैर पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए, गुलामी के खिलाफ आैर स्वतंत्रता तथा विश्व लोकराज के लिए। निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ आैर आर्थिक समानता के लिए तथा योजना के पैदावार बढ़ाने के लिए, निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ आैर लोकतंत्री पद्धति के लिए, अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ आैर सत्याग्रह के लिए क्रांतियों का आह्वान किया।
   कर्म के क्षेत्र में अखंड प्रयोग आैर वैचारिक क्षेत्र में निरंतर संशोधन के नवनिर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील भी लोहिया का एक अलग रूप माना जाता है। उनका एक आदर्श विश्व संस्कृति की स्थापना का संकल्प भी था। लोहिया को भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम था। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं आैर अध्यात्मकिता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व दृष्टि विकसित की। आज की दुनिया की दो-तिहाई आबादी का दर्द आैर गरीबी व विपप्न्नता की जड़ से मिटाना आैर समस्त विश्व को युद्ध आैर विनाश की बीमारी से मुक्त करने का निदान लोहिया ने बताया था।  निदान सही होने पर भी संस्कार में फैला स्वार्थ आैर लोभ उन्हें मंजूर न था। यही वजह थी कि आजादी में कांग्रेसियों की सत्तालोलुपता से दुखी लोहिया उस आजादी से संतुष्ट न थे। लोहिया की आत्मा विद्रोही थी। अन्याय का तीव्रतम प्रतिकार उनमें कर्मांे व सिद्धांतों की बुनियाद रही। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ-साथ उनके पास असमी धैर्य आैर संयम भी था। बार-बार जेल जाने-अपमान सहने व अप्रिय अनुभवों के बावजूद अन्याय के लिए अपनी दृढ़ता के कारण वे फिर से ऐसे कटु अनुभव को आमंत्रित करते रहे।
   शायद लीक पर चलना लोहिया के स्वभाव में न था। यही वजह थी कि वह प्रवाह के साथ  कभी न रहे। प्रचलित प्रवाह के उलटे तैरने के प्रयोग में उनके विचारों को प्रचार के लिए देश के मीडिया ने कभी सहयोग न किया। हां उपेक्षा भ्रामक प्रचार आैर लोहिया के विचारों को दबाने की सदा कोशिश की गई। दूसरों आैर हर झूठ का बराबर खंडन करते रहना तथा सफाई देना स्वाभिमानी लोहिया के स्वाभव के खिलाफ था। वह लोहिया थे, जिन्होंने सबसे पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू की विदेश नीतियों का विरोध किया था। वह लोहिया की भाषा पर पकड़ ही थी कि संसद में उनके बोलने के दिन पंडित नेहरू होम वर्क करके आते थे। संसद में लोहिया की तीन आना बनाम पंद्रह आना बहस बहुचर्चित रही। वह लोहिया ही थे जिन्होंने 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन" छेड़ने के बाद शीर्षस्थ नेतृत्व के गिरफ्तार हो जाने पर भूमिगत रहते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लाहौर जेल की उस कोठरी में रखा गया था, जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। वह लोहिया थे, जिनसे अंग्रेज सरकार सबसे अधिक घबराती थी। यही कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर गांधी जी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं को तो छोड़ दिया गया, पर लोहिया को काफी दिन बाद छोड़ा गया। वह लोहिया थे जब आगरा जेल में रहते हुए उनके पिता के देहांत होने पर अंग्रेज सरकार उन्हें पेरोल पर छोड़कर उनके पिता के अंतिम संस्कार के लिए भेजना चाहती थी तो उन्होंने अंग्रेजों की किसी भी तरह की कोई सहानुभूति लेने से इनकार कर दिया।
    वह लोहिया ही थे, जिन्होंने हर बार देश को संभाला। 1946 को जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के तो नवाखाली, कलकत्ता, बिहार दिल्ली समेत कई जगहों पर लोहिया, गांधी जी के साथ मिलकर सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। नौ अगस्त, 1947 से हिंसा रोकने का काम युद्धस्तर से शुरू हो गया। 14 अगस्त की रात को 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" के नारे के साथ लोहिया ने सभा की। स्वतंत्रता मिलने के बाद 31 अगस्त को माहौल फिर बिगड़ गया। गांधी जी अनशन पर बैठ गए। उस समय लोहिया ने दंगाइयों के हथियार इकट्ठे कराए आैर उनके प्रयास से 'शांति समिति" की स्थापना हुई। देश में लोकतंत्र स्थापित करने में भी लोहिया का विशेष योगदान रहा है। आजादी मिलने के बाद रियासतों को खत्म करने का श्रेय भले ही सरदार बल्लभभाई पटेल को जाता हो पर लोहिया की प्रेरणा से 650 रियासतों की समाप्ति का आंदोलन समाजवादियों ने चलाया था।

Friday, 11 March 2016

Thursday, 3 March 2016

आरक्षण ने बिगाड़ा उत्तर भारत का भाईचारा

   हरियाणा में हुए हिंसक हुए आंदोलन से जाटों को आरक्षण मिले या न मिले पर जातीय वैमनस्यता जरूर मिल गई। आंदोलन में विशेष जाति के हुए भारी नुकसान से उपजा आक्रोश जाटों के खिलाफ लामबंदी का रूप ले रहा है बल्कि उन्हें आरक्षण न देने देने के लिए माहौल बना रहा है। आरक्षण का लाभ ले रही जातियां कोटा कम होने की डर से जहां एकजुट हो रही हैं वहीं कई जातियां पिछड़ों में शामिल होने के लिए सड़कों पर उतर गई हैं। आरक्षण को लेकर हो रही विभिन्न जातियों की गोलबंदी जातीय टकराव का रूप ले रही हैं। जिस तरह से हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान में अन्य जातियां आंदोलन की आलोचना कर आरक्षण पर अपना हक जताने के लिए मैदान में उतरी हैं, उससे उत्तर भारत में बड़े संघर्ष की आशंका बलवती हो गई है। किसी समय पंजाब गुजरात आए पटेल समुदाय को आरक्षण दिलाने के लिए पहले ही हिंसक आंदोलन हो चुका है। इस आंदोलन की लपटें बिहार तक पहुंची थी। आंदोलन से हुए नुकसान की टीस लोगों में बरकरार है। जाट महासभा ने बैठक कर हिंसा पर माफी तो मांगी पर सीबीआई की जांच मांग करते हुए हिंसा में जाट समुदाय का हाथ न होने का प्रयास किया। साथ ही हरियाणा व केंद्र सरकार को आरक्षण न मिलने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी भी। उधर गुजरात में पाटीदार अमानत आंदोलन समिति (पीएएसएस) के नेताओं ने जेल में कैद अपने नेता हार्दिक पटेल से मुलाकात कर गुजरात सरकार को धमकी दी कि यदि 10 दिनों के अंदर पटेल समुदाय को आरक्षण नहीं दिया गया तो वे फिर से आंदोलन शुरू कर देंगे।
   आजादी के समय दबे-कुचलों को उभारने के लिए 10 वर्ष तक बनाई गई आरक्षण नाम की इस व्यवस्था वह जातीय रूप ले लिया कि संपन्न जातियां भी इसे पाने के लिए मैदान में कूद पड़ीं। वर्ष 1989 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने पर गुर्जर व यादव आरक्षण में क्या आए कि जाटों को भी आरक्षण की जरूरत महसूस होने लगी। आंदोलन के बल पर इन लोगों ने राजस्थान व उत्तर प्रदेश में आरक्षण हासिल कर भी लिया। जाटों के वजूद को देखते हुए वर्ष 2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने केंद्र में भी आरक्षण की सिफारिश कर दी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया। हरियाणा व केंद्र में आरक्षण के लिए हिसार से शुरू हुए जाटों के आंदोलन ने वह रूप लिया कि उसकी लपटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड तक फैल गई। आंदोलन में प्रभावशाली नेतृत्व न होने के की वजह से आंदोलन ने ऐसा हिंसक  रूप लिया कि हरियाणा में 30 मौतें तथा लगभग 35 हजार करोड़ की संपत्ति का नुकसान हो गया।
   आंदोलन खत्म होने के बाद ऐसा माहौल बना कि पूरे उत्तर भारत में अन्य जातियां जाटों के खिलाफ एकजुट होना शुरू हो गर्इं। हरियाणा में भिवानी, करनाल गुड़गांव व नारनौल के साथ कई जिलों में 35 बिरादरियों ने प्रदर्शन कर जाटों के खिलाफ एकजुट होने का आाह्वान किया। माहौल को भांपकर कुरुक्षेत्र में  रोड़, बिश्नोई, त्यागी व जट सिखों ने भी प्रदेश और केंद्र सरकार की ओर से आरक्षण के लिए बनाई गई कमेटी से आरक्षण की मांग कर दी। गत दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सरधना में दलितों व मुस्लिमों ने जाट आरक्षण में हुई हिंसा के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया। जाटों को आरक्षण मांगते देख राजस्थान में राजपूतों को आरक्षण दिलाने के लिए करणी सेना मैदान में उतर गई। दरअसल पिछड़ों में शामिल जातियां अपना कोटा कम होने की आशंका से जाटों को आरक्षण न देने देने पर अड़ रही हैं। हालांकि हरियाणा सरकार पिछड़ों के आरक्षण में छेड़छाड़ न करने की बात कर रही है।
   दरअसल उत्तर भारत में जातीय वर्चस्व का बड़ा महत्व है। हर जाति अपने-अपने हिसाब से अपना दबदबा बनाए रखना चाहती है। यही वजह है कि हर चुनाव जमीनी मुद्दों को छोड़कर अंतत: जातीय आधार पर आ जाता है। हरियाणा में भी यही हुआ। हरियाणा की राजनीति पर दबदबा रखने वाले जाटों को सत्ता से फिसलना  अखर रहा था। यही वजह रही कि आंदोलन में आरक्षण की मांग कम आैर सत्ता जाने का आक्रोश ज्यादा देखने को मिला। आरक्षण मामले में बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड में भी हरियाणा व उत्तर प्रदेश की तरह जातीय आंकड़े हैं। जिस तरह से विभिन्न जातियां आरक्षण की मांग को लेकर आगे आई हैं उससे इन प्रदेशों में भी