(जयंती 23 जनवरी पर विशेष)
सुभाष चंद्र बोस का नाम आते ही हमारी आंखों के सामने एक ऐसे महानायक की तस्वीर सामने आने लगी है, जिन्होंने न केवल अपने देश बल्कि विदेश में भी जाकर भी अंग्रेजों को ललकारा। यह उनका संघर्ष ही था कि उन्होंने जापान में 'आजाद हिंद फौज" बनाकर अंडबान-निकोबार द्वीप समूह अंग्रेजों से छीन लिए। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी के अंत को लोगों के सामने जिस तरह से पेश किया गया, वह आज भी रहस्यमय पहेली बना हुआ है। यह लोगों की बढ़ती जिज्ञासा ही है कि पश्चिमी बंगाल के बाद अब मोदी सरकार उनकी मौत से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने जा रही है। इन फाइलों के सार्वजनिक होने से सुभाष चंद्र बोस की मौत की जुड़ी रहस्यमय पहेली सुलझे या न सुलझे पर उनकी मौत पर शुरू हुई बहस जो गति जोर पकड़ेगी उसके परिणाम निकलने की पूरी संभावना है। वह बात दूसरी है कि पश्चिमी बंगाल के साथ ही केंद्र सरकार भी इस मामले में भी वोटबैंक की राजनीति कर जाए।
18 अगस्त 1945 को विमान से मंचूरिया जाते समय लापता हुए नेताजी के मामले में देश में तीन आयोग गठित हुए पर इसके सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। सरकार ने आयोग गठित तो किए पर जांच को गंभीरता से नहीं लिया। इस मामले में 1956 आैर 1977 में दो आयोग गठित किए गए। आयोगों ने जांच में नेताजी के विमान दुर्घटना में शहीद होने की बात कही पर तत्कालीन ताइवान सरकार ने इसे नहीं माना। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बना। लंबी जांच के बाद 2005 में ताइवान ने आयोग को 1945 में वहां पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त न होने बताया। आयोग के केंद्र सरकार को पेश की गई रिपोर्ट में विमान दुर्घटनाग्रस्त का कोई सबूत न होने की बात कही गई पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने आयोग की इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सरकारें आयोग की रिपोर्ट पर विश्वास ही नहीं करतीं तो आयोग के गठन का आैचित्य क्या है या फिर मामला कुछ आैर तो नहीं ? वैसे भी 2005 में कांग्रेस की अगुआई में चल रही यूपीए सरकार थी आैर नेताजी को लेकर कांग्रेस पर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि देश में कांग्रेस के अलावा समाजवादियों व संघियों की भी सरकारें भी रही हैं।
सुभाष चंद्र बोस को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। गत दिनों उनके स्टोनोग्राफर श्याम लाल जैन के शाहनवाज समिति के सामने गवाही की बात सामने आई थी कि उनके अनुसार 1946 में पंडित नेहरू ने उन्हें तत्काल अपने घर बुलाया आैर उनसे ब्रिाटिश प्रधानमंत्री एटली के लिए एक पत्र डिक्टेट कराया, जिसमें नेहरू ने रूस के शासक स्टालिन के संदेश का हवाला देते हुए सुभाष चंद्र बोस जीवित होने आैर उनके कब्जे में होने की बात कही गई थी। ऐसे में सरकारों की नीयत इसलिए भी संदेह के घेरे में आती है क्योंकि नेताजी के मौत को सरकारों ने रहस्य ही बनाकर क्यों रखा ? पंडित नेहरू के स्टोनोग्राफर की गवाही से तो ऐसा ही लगता है कि पंडित नेहरू व स्टालिन के बीच ऐसा कुछ था, जिसे सार्वजनिक करने पर रूस व हमारे देश के संबंधों पर असर पड़ सकता है या फिर मामला कुछ आैर है। वैसे भी सुभाष चंद्र बोस व जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर के संबंधों को लेकर सटालिन बेहद नाराज थे।
नेताजी के अंगरक्षक रहे जगराम यादव के अनुसार सुभाष चंद्र बोस की हत्या की गई थी। उनका कहना है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद जब वे शरण लेने साइबेरिया रूस में पहुंचे तो एक बड़ी साजिश का शिकार हो गए। इसके पीछे उनका तर्क है कि 1949 में एक चीनी दूत चीन स्थित भारतीय दूतावास पहुंचा आैर नेताजी के रूस में होने की बात कही। वहां पर सैन्य अधिकारी ब्रिागेडियर ठक्कर उस दूत से मिले आैर नेताजी के जिंदा होने की सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। नेहरू ने ठक्कर को यह कहते हुए कि वह उस पद के योग्य नहीं हैं अगली उड़ान से भारत बुला लिया। भाजपा नेता बाल सुब्राह्मण्यम स्वामी भी नेताजी की रूस में हत्या होने का दावा कर रहे हैं। उनके अनुसार जब वह रूस में शरण मांगने गए तो वहां के तानाशाह स्टालिन ने उन्हें कैद कर लिया आैर 'वार क्रिमिनल" रूस में है कहकर सूचना पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। वह पंडित नेहरू की सहमति के बाद रूस में सुभाष चंद्र बोस की हत्या की बात कर रहे हैं।
नेताजी से जुड़ी फाइलों के सार्वजनिक करने की उनके लापता होने के समय से ही उठती रही हैं। ऐसे में पश्चिमी बंगाल में चुनाव करीब आते देख मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नेताजी के नाम को कैस कराने के मकसद से गत दिनों नेताजी से जुड़ी 64 फाइलें सार्वजनिक की, जिनमें 2013 से शुरू हुआ डिजिटलाइजेशन का काम बताया गया है। साथ ही उन्होंने 'नेताजी से जुड़े 1938-1947" के बीच के कैबिनेट के दस्तावेज भी सार्वजनिक किए हैं। ये दस्तावेज आजादी व अंग्रेज सरकार के लिए गोपनीय बताए जा रहे हैं। ममता बनर्जी ने कैबिनेट की 401 बैठकों के दस्तावेज की सूचनाओं वाली एक सीडी भी जारी की है, जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन तथा बंगाल का अकाल आैर बंगाल विभाजन जैसी घटनाएं बताई जा रही हैं। भले ही अब मोदी सरकार नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने कर नेताजी के प्रति आस्था दिखा रही हो पर ममता बनर्जी ने फाइलों को सार्वजनिक कर केंद्र सरकार को बैकफुट पर ला दिया आैर फाइलों को सार्वजनिक करने के लिए मजबूर कर दिया।
रूस दौरे पर जाने से पहले नेताजी के परिजनों ने भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मौत से जुड़ी फाइलों के बारे में चर्चा करने का आग्रह किया हो पर प्रधामंत्री इस मामले में अभी तक चुप्पी साधे बैठे थे। यदि नेताजी की जयंती पर उनकी फाइलें सावर्जनिक करने की रणनीति है दूरदर्शी सोच रखने वाले मोदी ऐसा कुछ जरूर करेंगे जो देश में बड़ी बहस को जन्म दे। इन फाइलों के माध्यम से जहां मोदी जनता की सहानुभूति बटोरने के प्रयास में हैं वहीं कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की उनकी तैयारी जरूर होगी। वैसे भी कांग्रेस के लंबे समय तक राज करने की वजह मोदी कांग्रेस को घरने से नहीं चूकेंगे साथ ही पश्चिमी बंगाल चुनाव में भी इसे प्रधानमंत्री इसे कैस कराएंगे। नेताजी के कद की बात करें तो उनका व्यक्तित्व देश हर स्वतंत्रता सेनानी पर भारी पड़ता है। वह नेताजी का बड़ा दिल ही था कि भले ही महात्मा गांधी उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने को बर्दाश्त न कर पाए हों पर उन्हें 'राष्ट्रपिता" का नाम उन्होंने ही दिया है। दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध में जब 'आजाद हिन्द फौज" ने जापानी सेना की मदद से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जीत लिए तो छह जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रोडियो पर भाषण करते हुए नेताजी ने गांधी जी को 'राष्ट्र-पिता" से संबोधित करते हुए जंग के लिए उनसे आशीर्वाद मांगा था।
बताया जाता है कि महात्मा गांधी उनकी कार्यशैली पसंद नहीं करते थे, 1938 में उन्होंने ही नेताजी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया आैर उन्होंने ही उन्हें पद से हटाने की ठान ली। सुभाष बाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने जो युद्ध का फायदा उठाते हुए आजादी की जंग तेज करे, पर गांधी जी इससे सहमत नहीं थे। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति नजर न आने पर नेताजी ने खुद कमाल संभाले रहने का निर्णय लिया। गांधी ने पट्टाभि सीता रमैया को अध्यक्ष पद के लिए चुनावी समर में उतारा। चुनाव में बोस को 1580 आैर सीता रमैया को 1377 मत मिले। गांधी जी की नाराजगी के चलते सुभाष बाबू ने इस्तीफा देकर तीन मई 1939 को कांग्रेस के अंतर्गत फारवर्ड ब्लॉक पार्टी बनाई। कुछ दिन बाद कांग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया, जिससे फारवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गई सुभाष बाबू ने विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही स्वतंत्रता संग्राम को अधिक तेज करने के लिए जनजागरण अभियान छेड़ दिया। अभियान से बौखलाकर अंग्रेजी हुकूमत ने सुभाष बाबू समेत पार्टी के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। जेल में आमरण अनशन पर उन्हें रिहा तो कर दिया पर घर में ही उन्हें नजरबंद कर दिया गया। पठान का वेश धारण कर वह 1941 में जियाउद्दीन नाम से घर से निकल भागे। भागने में शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उनकी मदद की। गोमोह से फ्रंटियर मेल से वे पेशावर पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात फारवर्ड ब्लॉक के मियां अकबर शाह से हुई। बाद में वह काबुल पहुंचे। बर्लिन में उन्होंने जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन" आैर 'आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की। इस दौरान वह 'नेताजी" नाम से जाने जाने लगे। इसी दौरान नेताजी की मुलाकात एडोल्फ हिटलर से हुई। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने ंिसंगापुर में 'अर्जी हुकूमत ए आजाद हिंद" की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आैर युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिंद फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। उसमें महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजिमेंट भी बनाई गई। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण कर वहां पर भारतीय लोगों से आजाद हिंद फौज में भर्ती होने व आर्थिक मदद का आह्वान किया। उन्होंने अपना मशहूर नारा 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" भी इस आह्वान में दिया था।
सुभाष चंद्र बोस का नाम आते ही हमारी आंखों के सामने एक ऐसे महानायक की तस्वीर सामने आने लगी है, जिन्होंने न केवल अपने देश बल्कि विदेश में भी जाकर भी अंग्रेजों को ललकारा। यह उनका संघर्ष ही था कि उन्होंने जापान में 'आजाद हिंद फौज" बनाकर अंडबान-निकोबार द्वीप समूह अंग्रेजों से छीन लिए। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी के अंत को लोगों के सामने जिस तरह से पेश किया गया, वह आज भी रहस्यमय पहेली बना हुआ है। यह लोगों की बढ़ती जिज्ञासा ही है कि पश्चिमी बंगाल के बाद अब मोदी सरकार उनकी मौत से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने जा रही है। इन फाइलों के सार्वजनिक होने से सुभाष चंद्र बोस की मौत की जुड़ी रहस्यमय पहेली सुलझे या न सुलझे पर उनकी मौत पर शुरू हुई बहस जो गति जोर पकड़ेगी उसके परिणाम निकलने की पूरी संभावना है। वह बात दूसरी है कि पश्चिमी बंगाल के साथ ही केंद्र सरकार भी इस मामले में भी वोटबैंक की राजनीति कर जाए।
18 अगस्त 1945 को विमान से मंचूरिया जाते समय लापता हुए नेताजी के मामले में देश में तीन आयोग गठित हुए पर इसके सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। सरकार ने आयोग गठित तो किए पर जांच को गंभीरता से नहीं लिया। इस मामले में 1956 आैर 1977 में दो आयोग गठित किए गए। आयोगों ने जांच में नेताजी के विमान दुर्घटना में शहीद होने की बात कही पर तत्कालीन ताइवान सरकार ने इसे नहीं माना। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बना। लंबी जांच के बाद 2005 में ताइवान ने आयोग को 1945 में वहां पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त न होने बताया। आयोग के केंद्र सरकार को पेश की गई रिपोर्ट में विमान दुर्घटनाग्रस्त का कोई सबूत न होने की बात कही गई पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने आयोग की इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सरकारें आयोग की रिपोर्ट पर विश्वास ही नहीं करतीं तो आयोग के गठन का आैचित्य क्या है या फिर मामला कुछ आैर तो नहीं ? वैसे भी 2005 में कांग्रेस की अगुआई में चल रही यूपीए सरकार थी आैर नेताजी को लेकर कांग्रेस पर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि देश में कांग्रेस के अलावा समाजवादियों व संघियों की भी सरकारें भी रही हैं।
सुभाष चंद्र बोस को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। गत दिनों उनके स्टोनोग्राफर श्याम लाल जैन के शाहनवाज समिति के सामने गवाही की बात सामने आई थी कि उनके अनुसार 1946 में पंडित नेहरू ने उन्हें तत्काल अपने घर बुलाया आैर उनसे ब्रिाटिश प्रधानमंत्री एटली के लिए एक पत्र डिक्टेट कराया, जिसमें नेहरू ने रूस के शासक स्टालिन के संदेश का हवाला देते हुए सुभाष चंद्र बोस जीवित होने आैर उनके कब्जे में होने की बात कही गई थी। ऐसे में सरकारों की नीयत इसलिए भी संदेह के घेरे में आती है क्योंकि नेताजी के मौत को सरकारों ने रहस्य ही बनाकर क्यों रखा ? पंडित नेहरू के स्टोनोग्राफर की गवाही से तो ऐसा ही लगता है कि पंडित नेहरू व स्टालिन के बीच ऐसा कुछ था, जिसे सार्वजनिक करने पर रूस व हमारे देश के संबंधों पर असर पड़ सकता है या फिर मामला कुछ आैर है। वैसे भी सुभाष चंद्र बोस व जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर के संबंधों को लेकर सटालिन बेहद नाराज थे।
नेताजी के अंगरक्षक रहे जगराम यादव के अनुसार सुभाष चंद्र बोस की हत्या की गई थी। उनका कहना है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद जब वे शरण लेने साइबेरिया रूस में पहुंचे तो एक बड़ी साजिश का शिकार हो गए। इसके पीछे उनका तर्क है कि 1949 में एक चीनी दूत चीन स्थित भारतीय दूतावास पहुंचा आैर नेताजी के रूस में होने की बात कही। वहां पर सैन्य अधिकारी ब्रिागेडियर ठक्कर उस दूत से मिले आैर नेताजी के जिंदा होने की सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। नेहरू ने ठक्कर को यह कहते हुए कि वह उस पद के योग्य नहीं हैं अगली उड़ान से भारत बुला लिया। भाजपा नेता बाल सुब्राह्मण्यम स्वामी भी नेताजी की रूस में हत्या होने का दावा कर रहे हैं। उनके अनुसार जब वह रूस में शरण मांगने गए तो वहां के तानाशाह स्टालिन ने उन्हें कैद कर लिया आैर 'वार क्रिमिनल" रूस में है कहकर सूचना पंडित जवाहर लाल नेहरू को दी। वह पंडित नेहरू की सहमति के बाद रूस में सुभाष चंद्र बोस की हत्या की बात कर रहे हैं।
नेताजी से जुड़ी फाइलों के सार्वजनिक करने की उनके लापता होने के समय से ही उठती रही हैं। ऐसे में पश्चिमी बंगाल में चुनाव करीब आते देख मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नेताजी के नाम को कैस कराने के मकसद से गत दिनों नेताजी से जुड़ी 64 फाइलें सार्वजनिक की, जिनमें 2013 से शुरू हुआ डिजिटलाइजेशन का काम बताया गया है। साथ ही उन्होंने 'नेताजी से जुड़े 1938-1947" के बीच के कैबिनेट के दस्तावेज भी सार्वजनिक किए हैं। ये दस्तावेज आजादी व अंग्रेज सरकार के लिए गोपनीय बताए जा रहे हैं। ममता बनर्जी ने कैबिनेट की 401 बैठकों के दस्तावेज की सूचनाओं वाली एक सीडी भी जारी की है, जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन तथा बंगाल का अकाल आैर बंगाल विभाजन जैसी घटनाएं बताई जा रही हैं। भले ही अब मोदी सरकार नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने कर नेताजी के प्रति आस्था दिखा रही हो पर ममता बनर्जी ने फाइलों को सार्वजनिक कर केंद्र सरकार को बैकफुट पर ला दिया आैर फाइलों को सार्वजनिक करने के लिए मजबूर कर दिया।
रूस दौरे पर जाने से पहले नेताजी के परिजनों ने भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मौत से जुड़ी फाइलों के बारे में चर्चा करने का आग्रह किया हो पर प्रधामंत्री इस मामले में अभी तक चुप्पी साधे बैठे थे। यदि नेताजी की जयंती पर उनकी फाइलें सावर्जनिक करने की रणनीति है दूरदर्शी सोच रखने वाले मोदी ऐसा कुछ जरूर करेंगे जो देश में बड़ी बहस को जन्म दे। इन फाइलों के माध्यम से जहां मोदी जनता की सहानुभूति बटोरने के प्रयास में हैं वहीं कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की उनकी तैयारी जरूर होगी। वैसे भी कांग्रेस के लंबे समय तक राज करने की वजह मोदी कांग्रेस को घरने से नहीं चूकेंगे साथ ही पश्चिमी बंगाल चुनाव में भी इसे प्रधानमंत्री इसे कैस कराएंगे। नेताजी के कद की बात करें तो उनका व्यक्तित्व देश हर स्वतंत्रता सेनानी पर भारी पड़ता है। वह नेताजी का बड़ा दिल ही था कि भले ही महात्मा गांधी उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने को बर्दाश्त न कर पाए हों पर उन्हें 'राष्ट्रपिता" का नाम उन्होंने ही दिया है। दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध में जब 'आजाद हिन्द फौज" ने जापानी सेना की मदद से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जीत लिए तो छह जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रोडियो पर भाषण करते हुए नेताजी ने गांधी जी को 'राष्ट्र-पिता" से संबोधित करते हुए जंग के लिए उनसे आशीर्वाद मांगा था।
बताया जाता है कि महात्मा गांधी उनकी कार्यशैली पसंद नहीं करते थे, 1938 में उन्होंने ही नेताजी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया आैर उन्होंने ही उन्हें पद से हटाने की ठान ली। सुभाष बाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने जो युद्ध का फायदा उठाते हुए आजादी की जंग तेज करे, पर गांधी जी इससे सहमत नहीं थे। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति नजर न आने पर नेताजी ने खुद कमाल संभाले रहने का निर्णय लिया। गांधी ने पट्टाभि सीता रमैया को अध्यक्ष पद के लिए चुनावी समर में उतारा। चुनाव में बोस को 1580 आैर सीता रमैया को 1377 मत मिले। गांधी जी की नाराजगी के चलते सुभाष बाबू ने इस्तीफा देकर तीन मई 1939 को कांग्रेस के अंतर्गत फारवर्ड ब्लॉक पार्टी बनाई। कुछ दिन बाद कांग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया, जिससे फारवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गई सुभाष बाबू ने विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही स्वतंत्रता संग्राम को अधिक तेज करने के लिए जनजागरण अभियान छेड़ दिया। अभियान से बौखलाकर अंग्रेजी हुकूमत ने सुभाष बाबू समेत पार्टी के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। जेल में आमरण अनशन पर उन्हें रिहा तो कर दिया पर घर में ही उन्हें नजरबंद कर दिया गया। पठान का वेश धारण कर वह 1941 में जियाउद्दीन नाम से घर से निकल भागे। भागने में शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उनकी मदद की। गोमोह से फ्रंटियर मेल से वे पेशावर पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात फारवर्ड ब्लॉक के मियां अकबर शाह से हुई। बाद में वह काबुल पहुंचे। बर्लिन में उन्होंने जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन" आैर 'आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की। इस दौरान वह 'नेताजी" नाम से जाने जाने लगे। इसी दौरान नेताजी की मुलाकात एडोल्फ हिटलर से हुई। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने ंिसंगापुर में 'अर्जी हुकूमत ए आजाद हिंद" की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आैर युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिंद फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। उसमें महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजिमेंट भी बनाई गई। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण कर वहां पर भारतीय लोगों से आजाद हिंद फौज में भर्ती होने व आर्थिक मदद का आह्वान किया। उन्होंने अपना मशहूर नारा 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" भी इस आह्वान में दिया था।
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