Friday, 13 March 2015

विवादों की जड़ है 'लिव इन रिलेशनशिप"

    भले ही हमारे देश में कुछ लोग लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा दे रहे हों। भले ही इस संबंध को मान्यता देने की मांग की जा रही हो। भले ही इस तरह के संबंधों अपनाकर खुशी ढूंढी जा रही हो पर हमारा समाज इस तरह के संबंधों की इजाजत नहीं देता। जिसका परिणाम यह समाने आ रहा है कि इन संबंध से विवादों को जन्म हो रहा है। यही विवाद बाद में अपराध का रूप ले रहा है। यही वजह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर इस रिश्ते को रेप के दायरे से बाहर रखने से इनकार कर दिया। कोर्ट का मानना है कि ऐसा करने से इस रिश्ते को वैवाहिक दर्जा प्राप्त करना होगा। याचिका में अधिकतर मामले झूठे पाए जाने की दलील देते हुए कोर्ट से केंद्र आैर दिल्ली सरकार को यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रेप के आरोप से बरी व्यक्ति को मुआवजा प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार दिया जाए तथा कानून के दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ मामले दर्ज किए जाएं। इस तरह के फैसले एक तरह से इन संबंधों को अपनाने वाले लोगों को सचेत कर रहे हैं।
     बात कोर्ट की चल रही है तो हमें यह भी देखना होगा कि गत दिनों मद्रास हाईकोर्ट ने 'लिव इन रिलेशनशिप" में रहने वाले प्रेमी युगल को पति-पत्नी का दर्जा देने की बात कही थी। इन दोनों आदेशों से यह भी समझ में आ रहा है कि इन संबंधों अपनाने वाले लोग इन संबंधों को जायज ठहराने के लिए कोर्ट भी भी दबाव बना रहे हैं। भले ही दिल्ली हाईकोर्ट व मद्रा हाईकोर्ट के आदेश में विरोधाभाष देखा जा रहा हो पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के संबंध से अपनेआप विवादों की शुरुआत हो जाती है। इन युवाओं को यह देखना होगा कि पश्चिमी सभ्यता की होड़, आधुनिकता की दौड़ व भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात उनके लिए परेशानी ही लेकर ही आएगा। हालात पर नजर डाली जाए तो नैतिक मूल्यों का ह्मास करने वाली यह प्रवत्ति युवाओं को अपराध के दलदल में धकेल रही है। अक्सर देखा जाता है कि सामाजिक व पारिवारिक जिम्मेदारी को निभाने का साहस न जुटाने वाले स्वार्थी युवा ही ऐसे मामलों में लिप्त देखे जा रहे हैं।
     दरअसल राह से भटके कुछ युवाओं ने अय्याशी का एक नया रास्ता अपनाते हुए इस तरह की अनोखी परिपाटी को जन्म दिया है। भले ही कुछ लोग इसे भावनात्मक संबंधों के रूप में देखते हों पर इस तरह के संबंध मात्र एक-दूसरे की निजी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनाए जा रहे हैं। हम कितने भी आधुनिक हो जाएं हमें यह समझना होगा कि बिना सामाजिक बंधन के एक पुरुष व महिला का एक साथ रहना अपराध को न्योता देने जैसा है। आज के स्वार्थी माहौल में 'लिव इन रिलेशनशिप" में युवती के लिए सुरक्षा का माहौल बना रहना कैसे संभव है?
    इस तरह के युवाओं को यह समझना होगा कि बिना सामाजिक जिम्मेदारी को वहन किए सिर्फ एक-दूसरे की जरूरतों को पूरा करना कभी भी किसी अनहोनी का सबब बन सकता है, विशेषकर महिला वर्ग के लिए। मसलन रेप, गैंगरेप, ब्लेकमेलिंग आदि। इस तरह के मामलों में हत्या, आत्महत्या, भ्रूण हत्या जैसे अपराध का भी अंदेशा हमेशा बना रहता है। अक्सर देखा जाता है कि इस तरह के अनैतिक संबंधों में जब तक एक-दूसरे के स्वार्थ पूरे होते रहते हैं तब तक तो ठीक रहता है, जहां काम निकला कि संबंधों में दरारें आनी शुरू हो जाती हैं। स्वभाविक है कि झूठे वादों की बुनियादी पर बने इस तरह के संबंध झूठे आरोपों की झड़ी लगाएंगे ही।
     फिलहाल हाल के कई मामलों पर नजर दौड़ाई जाए तो यह मामला भी खुद ही दर्द देकर दवा करने जैसा लग रहा है। आए दिन लिव इन रिलेशनशिप में रह रही कोई युवती अपने प्रेमी पर रेप का आरोप लगा रही होती है तो कोई ब्लेकमेलिंग का। बात आम आदमी की ही नहीं है है गत दिनों चंदौसी सीट से महिला विधायक की कहानी कुछ इस तरह की देखने को मिली। वह लंबे समय तक अपने प्रेमी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रही, बाद में दोनों ने शादी भी कर ली। बाद में उनके पति ने आरोप लगाया है कि उसकी पत्नी बिना तलाक लिए किसी अन्य पुरुष के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही है। गुड़गांव में एक युवती ने युवक पर प्लॉट देने के नाम पर सालभर रेप करने का आरोप लगाया था। इस तरह के संबंध अपनाने वाले युवा मंथन करें तो उनकी समझ में आ जाएगा कि लिव इन रिलेशनशिप के इक्का-दुक्का मामले को छोड़ दें तो अधिकतर मामलों में लड़ाई-झगड़ा, तनाव, बहस, तनाव अलगाव व डिप्रेशन आम बात है।
     हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हर वस्तु अपनी बुनियाद पर टिकी हाती है। यही बात हमारे सामाजिक ढांचे पर भी लागू होती है। हमारे समाज की बुनियाद हमारी संस्कृति है। यदि हम अपने सामाजिक मयार्दाओं को ताक पर रखकर सिर्फ नकलचियों की तरह पश्चिमी देशों की चीजों को अपनाएंगे तो एक न एक दिन हमें इसका खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा, वह चाहे किसी रूप में क्यों न हो।

Tuesday, 10 March 2015

कहीं केजरीवाल का विकल्प न बन जाएं योगेंद्र यादव

     अन्ना आंदोलन के बल पर देश को अच्छी राजनीति देने के वादे के साथ दिल्ली को कब्जाने वाली आम आदमी पार्टी भी अन्य दलों के रास्ते पर चल पड़ी है। जिन कमियों को लेकर पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक दलों पर निशाना साधा था वह भी उन्हें अपनाने लगे हैं। आप में भी हाईकमान परिपाटी शुरू हो गई है। पार्टी को दिल्ली में प्रचंड बहुमत क्या मिला कि पार्टी ने दो दिग्गजों यागेंद्र यादव व प्रशांत भूषण को पीएसी से ही हटा दिया। इन नेताओं पर आरोप लगाया जा रहा है कि ये लोग पार्टी को दिल्ली में हराना चाहते थे। इन नेताओं को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है। इस प्रकरण में दिलचस्प बात यह है कि अरविंद केजरीवाल पर्दे के पीछे से काम कर रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति में पार्टी में इतना बड़ा फैसला ले लिया गया।
     योगेंद्र यादव आैर प्रशांत भूषण को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाने के लिए केजरीवाल के सिपहसालार लग गए हैं। मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, पंकज गुप्ता, गोपाल राय ने इन दोनों नेताओं को गद्दार तक कह दिया है। प्रशांत भूषण को अनुशासन समिति के अध्यक्ष पद से भी हटाने की तैयारी है। प्रकरण से आहत योगेंद्र यादव भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ पदयात्रा निकालने जा रहे अन्ना हजारे के साथ हो लिए हैं। वह किसान आंदोलन में भाग लेने जा रहे हैं। राजनीति में विरोध से नेता मजबूत होता है। नरेद्र मोदी विरोध से प्रधानमंत्री बने। अरविंद केजरीवाल विरोध से मुख्यमंत्री बने। अब आप नेता योगेंद्र यादव का जमकर विरोध कर रहे हैं। यदि योगेद्र यादव की किसान आंदोलन में सही रूप से भागेदारी हो गई तो कहीं वह अरविंद केजरीवाल के विकल्प के रूप में उभर आएं।
     अरविंद केजरीवाल को यह समझना होगा कि प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव पार्टी के वह स्तंभ हैं जिनसे पार्टी को न केवल मजबूत आधार मिला बल्कि वे विरोधियों से बचाने के लिए उनके लिए ढाल के रूप में काम करते रहे। प्रशांत भूषण ही हैं जिनकी वजह से अरविंद केजरीवाल के खिलाफ होने वाला हर कानूनी वार विफल कर दिया गया। योगेंद्र यादव को पार्टी का थिंक टैंक माना जाता है। यह थिंक टैंक पार्टी के खिलाफ खड़ा हो गया तो वैचारिक शक्ति क्या होती है यह कई बार साबित हो चुका है।
     दरअसल यह लड़ाई योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के बीच की मानी जा रही है। अरविंद केजरीवाल ने पहले योगेंद्र यादव को हरियाणा का प्रभारी बनाया। उन्हें हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत भी किया गया। जब उन्होंने जमीन तैयार करने का प्रयास किया तो अरविंद केजरीवाल ने हरियाणा में चुनाव न लड़ने का निर्णय ले लिया। अरविंद केजरीवाल के विश्वसनीय माने जाने वाले नवीन जयहिंद ने योगेंद्र यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसी बीच केजरीवाल के अति विश्वसनीय माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र यादव पर केजरीवाल को कमजोर करने का आरोप लगाया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में  प्रचंड बहुमत के बाद शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल ने अन्य राज्यों में चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया। अब अरविंद केजरीवाल ने अपने विश्वसनीय लोगों को तो दिल्ली में समायोजित कर लिय है। योगेंद्र यादव की सोच है कि पार्टी अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ेगी तो अन्य कद्दावर नेताओं को उभरने का अच्छा मौका मिल जाएगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद केजरीवाल दिल्ली में ही व्यस्त रहंेगे। ऐसे में वह जनता आैर कार्यकर्ताओं में अपनी पैठ बना सकते हैं। इसलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश व बिहार में भी चुनाव लड़ने की बात कही। अरविंद केजरीवाल के समर्थकों को लगा कि यह केजरीवाल के निर्णय का विरोध है।
     प्रशांत भूषण का यह कहना कि अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के नाते संयोजक पद छोड़ देना चाहिए, केजरीवाल समर्थकों को बहुत खला। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब केजरीवाल मुख्यमंत्री बन ही गए तो उन्होंने खुद आगे आकर संयोजक पद क्यों नहीं छोड़ दिया। पार्टी की गतिविधयों पर नजर डाली जाए तो अब तक देखा गया है कि केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के लिए गए निर्णय ही लागू होते हैं। इन तीनों लोगों ने ही परिवर्तन नामक एक सामाजिक संगठन बनाया था। ये ही तीनों आप में सबसे मजबूत देखे गए।
कुमार विश्वास का कद बढ़ा तो उन्हें आम चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़ा कर अलग-थलग कर दिया गया। साजिया इल्मी तिकड़ी के कहने पर नहीं चलीं तो उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। अब प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव ने अपनी आवाज उठाई तो उन्हंे भी पीएसी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अरविंद केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार मुकाबला प्रशांत भूषण आैर योगेंद्र यादव से है। एक कानून का विशेषज्ञ तो दूसरा विचार का। प्रशांत भूषण भले ही राजनीतिक संघर्ष न कर पाएं पर योगेंद्र राजनीतिक रूप से संघर्षशील व्यक्ति रहे हैं। वह न केवल राजनीतिक विश्लेषक बल्कि समाजवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। उनके इस बयान ने कि अब गांवों में जाकर किसानों के लिए संघर्ष करेंगे उन्हें किसान नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा है।
     जहां तक प्रशांत भूषण की बात है केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पार्टी को खड़ा करने में प्रशांत भूषण आैर शांति भूषण का बड़ा योगदान है। न केवल आर्थिक बल्कि कानूनी व मनोबल के मामले में भी इस परिवार ने पार्टी को बड़ा सहयोग दिया है। यह सहयोग यदि योगेंद्र यादव को मिल गया तो केजरीवाल के लिए बड़ी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के पीएसी से बाहर करने के बाद सबसे ज्यादा विरोध उत्तर प्रदेश में देखा गया। दरअसल उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता 2017 के विधानसभा चुनाव में अपना भविष्य देख रहे हैं। यदि योगेंद्र यादव उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए अड़ गए तो उत्तर प्रदेश में एक बड़ा तबका योगेंद्र यादव के साथ आ सकता है। यह हाल बिहार में भी देखने को मिलेगा। हरियाणा में तो बड़े स्तर पर कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के साथ हैं ही। अरविंद केजरीवाल दिल्ली तक सिमट कर रहना चाहते हैं तो योगेंद्र यादव अन्य प्रदेशों में चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं। ऐसे में यादव अन्य प्रदेशों में कार्यकर्ताओं की सहानुभूति बटोर सकते हैं।
     अरविंद केजरीवाल को समझना होगा कि किसी भी समस्या को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में जाना जरूरी होता है। आखिरकार सरकार बनते ही पार्टी में ऐसी स्थिति क्यों आ गई कि दो दिग्गजों के खिलाफ इनता बड़ा निर्णय लेना पड़ा। याद कीजिए भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आप के आंदोलन के बल पर जब पहली बार  दिल्ली में आप की सरकार बनी तो देश का युवा नरेंद्र मोदी से ज्यादा प्रभावित अरविंद केजरीवाल से था, पर वोटबैंक की राजनीति कर अरविंद केजरीवाल ने यह सब माहौल खत्म कर दिया था। अब फिर से दिल्ली की जनता से उन पर विश्वास जताया तो पार्टी में ऐसी स्थिति उनको कमजोर कर सकती है। यदि योगेंद्र यादव ने अपने को इस आंदेालन में पूरी तरह से सक्रिय कर लिया तो वह बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभर सकते हैं। यह आंदोलन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चलाया जा रहा है। किसानों से संबंधित होने की वजह से इस आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर छाने के पूरे आसार हैं।

Sunday, 1 March 2015

तो जेपी आंदोलन की तरह चलेगा अन्ना आंदोलन

    भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में दिल्ली जंतर-मंतर पर धरना देने वाले प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे का यह आंदोलन सामाजिक नहीं राजनीतिक होने वाला है। जिस तरह से इससे बातें निकल कर आ रही हैं उससे यह जेपी आंदोलन की तरह होने वाला है। इस आंदोलन में दो बातें मुख्य रूप से उभर कर आर्इं कि एक ओर जहां अन्ना हजारे ने साफ कह दिया है कि वह इस बार कोई अनशन नहीं करने वाले बल्कि उन्हें देश के लिए जिंदा रहते हुए जेल भरो आंदोलन शुरू करना है, दूसरा कि राजनीतिक दल अन्ना की अगुआई में इस आंदोलन को समर्थन दे सकता है।
      अन्ना आंदोलन से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल ने तो आंदोलन को अपना समर्थन दे भी दिया है। जिस तरह से  जनसंघ समेत सभी राजनीतिक दल कांग्रेस शासन के खिलाफ जेपी की अगुआई में आंदोलन में कूद गए थे, ठीक उसी प्रकार से इस आंदोलन का आह्वान किया जा रहा है। वैसे भी 24 तारीख के अन्ना के धरने में आप के अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, भाकपा से अतुल अंजान मंच पर मौजूद थे।
     यह आंदोलन वैसे भी इस वजह से भी बड़ा होने वाला है कि क्योंकि इस आंदोलन में एकता परिषद के संस्थापक, पीवी राजगोपाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता के रूप में जाने जाने वाली मेधा पाटेकर, जलपुरुष राजेंद्र सिंह समेत कई किसान संगठन हिस्सा ले रहे हैं। यह आंदोलन इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आंदोकारियों ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अध्यादेश वापस लेने के बावजूद यह आंदालन नहीं रुकेगा। किसानों की अन्य समस्याओं को लेकर आंदोलन चलता रहेगा। इस आंदोलन से जहांं भाजपा को नुकसान होने जा रहा है वहीं जनता परिवार के लिए भी यह बड़ी परेशानी बनने वाला है। एक ओर कभी नीतीश कुमार के घनिष्ट माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अलग पार्टी बनाने जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव के जनता परिवार को एकजुट करने की जिम्मेदारी के बावजूद सपा में इस मुद्दे पर बड़ा मतभेद है। वैसे भी मुलायम सिंह के पोते तेज प्रताप यादव के तिलकोत्सव में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गले लगाया पर इस समारोह में नीतीश कुमार नहीं आए। ऐसे में यदि अन्ना आंदोलन गति पकड़ता है तो जनता परिवार पीछे छुटता चले जाएगा।
    आज के बदलते राजनीतिक दौर में दलों को यह समझना होगा कि जनता को अब दिखावा मंजूर नहीं। जनता अब काम मांगती है। राजनेताओं को सोच में परिवर्तन होना बहुत जरूरी है। उन्हें समझना पड़ेगा कि आखिरकार लोग आंदोलन करने को क्यों मजबूर हो रहे हैं। बात भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की नहीं है, बल्कि किसानों के सामने इस समय बहुत सी समस्याएं हैं। देश में यदि कोई सबसे ज्यादा परेशान है तो वह किसान है। किसानों की आत्महत्याओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। देश में अन्ना एक ऐसी आवाज बन चुके हैं कि जहां खड़े हो जाएं उनके पीछे सामाजिक संगठनों के अलावा कई राजनीतिक दल भी आ जाएं।   इसमें दो राय नहीं कि देश में जनहित की बात करना वाला अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी कोई दूसरा दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। जब राजनीतिक दलों के साथ ही काफी संख्या में सामाजिक संगठन भी पैसा कमाने की होड़ में लगे हैं वहीं अन्ना हजारे निस्वार्थ सेवा भाव से देश व समाज की सेवा कर रहे हैं। यही वजह है कि उनके आवाज लगाते ही लोग उनके पीछे लग लेते हैं।
    यदि इस आंदोलन आैर 2011 के आंदोलन की तुलना की जाए तो वह भ्रष्टाचार को लेकर था तो यह किसानों की समस्या को लेकर। उस आंदोलन में एनजीओ के लोग थे, तो इस आंदोलन में किसान पृष्ठभूमि से के अलावा राजनीतिक, उस आंदोलन में अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे तो इस आंदोलन में पीवी. राजगोपाल, मेधा पाटेकर, राजेंद्र सिंह, सुनीता गोदारा के अलावा कई सामाजिक व किसान संगठन। उस आंदोलन ने लोगों को जागरूक किया तो आंदोलन देश को क्या देगा यह तो समय ही बताएगा। हां किसानों का कुछ जरूर भला होने वाला है। अन्ना आंदोलन के दबाव में केंद्र सरकार ने कानून में संशोधन करने की बात कहनी शुरू कर दी है। काफी किसान संगठन केंद्र सरकार के संपर्क में हैं
उनका कहना है कि केंद्र सरकार जल्दबाजी में यह अध्यादेश लाई है। इसमें काफी बातें किसान के हित में नहीं हैं। केंद्र सरकार अब इसमें संशोधन करने वाली है। वित्त मंत्री अरुण जेटली की लगातार किसान संगठनों से बातें चल रही हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऐसी कौन सी देश में विपदा आ गई थी कि सरकार को अध्यादेश के माध्यम से भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करना पड़ा।
    दरअसल जिस तरह से भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, उससे इन लोगों के दिमाग में यह बैठ गया था कि वह जो भी करेंगे जनता सिर झुकाकर उसे स्वीकार करेगी। जिस तरह से उन्होंने चुनाव में जनता को बरगलाकर बेवकूफ बना दिया, उसी तरह से वह लगातार बेवकूफ बनाते रहंेगे। इस सरकार ने शुरुआती दिनों से ही दिखाना शुरू कर दिया था, यह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है। यह स्वभाविक भी है क्योंकि चुनाव प्रचार में भाजपा ने पानी की तरह पैसा बहाया।
     सर्वविदित है कि यह सब पैसा कारपोरेट घरानों का था। अब उन लोगों को वह पैसा वसूलना है। पर यह किसी के दिमाग में नहीं था कि ये लोग इतनी जल्दी से कारपोरेट घरानों के पक्ष में निर्णय लेना शुरू कर देंगे। अन्ना हजारे ने कह दिया है कि जब तक यह अध्यादेश वापस नहीं होगा तब तक वह आंदोलन वापस नहीं लेगा। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले की फांस बन गया है। यदि वह वापस लेते हैं तो उनकी फजीहत होगी आैर यदि वापस नहीं लेते तो आने वाले समय में बिहार, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अन्ना हजारे का आंदोलन बहुत नुकसान पहुंचा सकता है।
   इसमें भी दो राय नहीं कि यदि समय रहते केंद्र सरकार ने यह अध्यादेश वापस नहीं लिया तो बिहार व उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना संजो रही भाजपा की इन प्रदेशों में वह दुर्गति होगी जो उसने सोचा भी नहीं होगा। इस आंदालन में देशभर के किसान संगठन भाग ले रहे हैं तो स्वभाविक है कि भजापा के पूरे देश के वोटबैंक पर असर पड़ेगा।
    हां अन्ना को यह देखना होगा कि राजनीतिक दलों के मंच पर आने से भाजपा को आंदोलन को कमजार करने का मौका मिल गया है। विशेष रूप से अरविंद केजरीवाल के मंच पर आने से। अब भाजपा इस आंदोलन को आम आदमी पार्टी
को मजबूत करने वाला कहेगी। 2011 के आंदोलन के बाद अन्ना के हिसाब से जन लोकपाल न बनने का असर भी इस आंदोलन पर पड़ेगा।  जन लोकपाल का क्या हुआ। जो सरकार बना रही है वह कितना कारगर होगा।