इसे मोदी सरकार की मनमानी ही तो कहा जाएगा कि कोरोना कहर के बीच नरेन्द्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के दिन 26 मई को किसान काला दिवस मना रहे हैं। किसानों ने दिल्ली की सीमा पर एकत्र होकर फिर से मोदी सरकार को ललकारने की रणनीति बनाई है। कोरोना संक्रमण को झेलते हुए किसानों के इस जमावड़े को मोदी सरकार केे खिलाफ आरपार की लड़ाई के रूप में देखा जाना चाहिए। मोदी सरकार और उसका मीडिया भले ही कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए किसानों के इस कदम को देश के लिए घातक बता रहे हों पर क्या मोदी सरकार ने इन परिस्थितियों में किसानों को इस कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं किया है। जब लोग कोरोना संक्रमण के डर से अपने घरों से नहीं निकल रहे हैं तो ऐसे में किसान अपनी जान हथेली पर रखकर सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं तो यह माना जाए कि अब किसान निर्णायक मूड में आ गये हैं।
दरअसल मोदी सरकार लगातार किसानों की भावनाओं से खेल रही है। किसान अपनी मांगों को लकर चिल्लाते रहे पर सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। बैठकों के नाम पर किसान संगठनों को मात्र बेवकूफ ही बनाया गया। 26 जनवरी प्रकरण के बाद किसान संगठन लगातार मोदी सरकार को वार्ता के लिए लिख रहे हैं पर सरकार ने चुप्पी साध ली है। ऐसे में यही कहा जाएगा कि मोदी सरकार ने कोरोना कहर के बीच फिर से किसानों को फिर से जमावड़ा करने के लिए मजबूर कर दिया है। वैसे भी छह महीने से कोरोना को झेलते हुए किसान आंदोलन तो कर ही रहे हैं।
जो लोग किसानों के इस रुख को गलत ठहरा रहे हैं, उन्होंने इस आंदोलन में 200 से अधिक किसानों शहादत पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। किसान सर्दी, गर्मी और बारिश झेलते हुए अपनी आवाज बुलंद करते रहे किसी को उनकी बेबसी नहीं दखाई दी। क्या नये कानून किसान ही नहीं जनविरोधी नहीं हैं ? क्या इस देश में खाद्यान्न की छूट आत्मघाती कदम नहीं है ? क्या कांट्रेक्ट फार्मिंग किसानों की जमीन को हथियाने का षड्यंत्र नहीं है ? क्या इस कानून में किसानों से अदालत में भी जाने का अधिकार नहीं छीन लिया गया है ? मोदी सरकार इस कानून में किसानों को व्यापारी बनाने की बात कह रही है। उसके अनुसार इससे फसल खरीद में कम्पटीशन बढ़ेगा। यदि ऐसा है तो फिर एमएसपी खरीद पर कानून क्यों नहीं बनाया जा रहा है ? जिसे कम्पटीशन करना एमएसपी से ऊपर करे। मतलब इन नये कानूनों के माध्यम से न केवल किसान बल्कि जनता जनता के हाथ से भी रोटी उतारने की पूरी तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है। किसानों की खेती अडानी के हवाले करने का षड्यंत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रचे और किसान बोले भी न। आंदोलन भी न करें। वाह ही मोदी सरकार और गोदी मीडिया। यह आंदोलन मोदी सरकार को सबक सिखाने वाला माना जा रहा है।
किसानों इस ललकार के माध्यम से किसान प्रधानमंत्री को अपनी गलती का अहसास करा रहे हैं। अपना अहंकार छोड़कर जमीन पर आने का संदेश दे रहे हैं। हालांकि देश में विपक्ष के नाकारा होने की वजह से ही मोदी देश में नंगा नाच कर पा रही है फिर भी आंदोलन को कांग्रेस और सपा समेत 12 विपक्षी दलों का समर्थन मिलना आंदोलन को मजबूती देना ही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह का पंजाब में कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए किसानों से आंदोलन को खत्म करने की अपील उनकी अपनी सत्ता की मजबूरी है।
मोदी सरकार को इस ललकार पर किसान मोर्चा का कहना है कि उनके इस आंदोलन को शक्ति प्रदर्शन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह शक्ति दिखाना नहीं बल्कि गहरे असंतोष की सांकेतिक अभिव्यक्ति है। किसान संगठनों ने प्रदर्शन के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने की भी बात कही है।
किसान संगठनों के अनुसार 26 मई को दिल्ली की सीमा ही नहीं बल्कि पूरे देश में नये किसान कानूनों के विरोध में किसान विरोध प्रदर्शन करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य और क्रांतिकारी किसान यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष डॉ. दर्शन पाल का कहना है कि किसान गांवों में, शहरों में और दिल्ली की सीमा पर अपना विरोध प्रदर्शन करेंगे। प्रदर्शनकारी काली पगडिय़ां पहनेंगे, काले दुपट्टे ओढेंगे और काले कपड़े पहनकर विरोध दर्शाएंगे। किसान अपने घरों की छतों पर, अपने टैक्टरों पर काले झंड़े लगाएंगे। जगह-जगह मोदी सरकार के पुतले जलाए जाएंगे। किसान अलग-अलग स्थानों पर धरना देंगे। उनका कहना है कि इसमें कोई शक नहीं कि ये एक आंदोलन होगा, लेकिन इसमें लोगों को एकत्रित करने या संख्या बल बढ़ाने पर जोर नहीं होगा। इसका उद्येश्य शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अपना विरोध दर्ज कराना होगा। कोरोना संक्रमण के मुद्दे पर किसानों का कहना है कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी दुर्दशा की जिम्मेदारी लेने के कोई भी तैयार नहीं है। किसानों को अपनी जायज मांगों के लिए महामारी के काल में अपनी जान खतरे में डालकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वैसे भी आंदोलन में किसानों का बड़ा चेहरा बनते जा रहे भाकियू के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कह दिया है कि यह मोदी सरकार और किसानों के बीच कुश्ती है। इसमें एक जीतेगा और एक हारेगा।
आज भले ही मोदी सरकार के बनाये गये इस माहौल में आंदोलन किसानों को आतंकवादी, नक्सली, देशद्रोही नकली किसान की संज्ञा दी जा रही है पर यह भी जमीनी हकीकत है कि कृषि प्रधान देश में किसान हमेशा ही ठगे गये हैं। देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को किसान तो बेचारा ठगा ही जाता रहा है।
जो लोग किसानों के इस रुख को गलत ठहरा रहे हैं, उन्होंने इस आंदोलन में 200 से अधिक किसानों शहादत पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। किसान सर्दी, गर्मी और बारिश झेलते हुए अपनी आवाज बुलंद करते रहे किसी को उनकी बेबसी नहीं दखाई दी। क्या नये कानून किसान ही नहीं जनविरोधी नहीं हैं ? क्या इस देश में खाद्यान्न की छूट आत्मघाती कदम नहीं है ? क्या कांट्रेक्ट फार्मिंग किसानों की जमीन को हथियाने का षड्यंत्र नहीं है ? क्या इस कानून में किसानों से अदालत में भी जाने का अधिकार नहीं छीन लिया गया है ? मोदी सरकार इस कानून में किसानों को व्यापारी बनाने की बात कह रही है। उसके अनुसार इससे फसल खरीद में कम्पटीशन बढ़ेगा। यदि ऐसा है तो फिर एमएसपी खरीद पर कानून क्यों नहीं बनाया जा रहा है ? जिसे कम्पटीशन करना एमएसपी से ऊपर करे। मतलब इन नये कानूनों के माध्यम से न केवल किसान बल्कि जनता जनता के हाथ से भी रोटी उतारने की पूरी तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है। किसानों की खेती अडानी के हवाले करने का षड्यंत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रचे और किसान बोले भी न। आंदोलन भी न करें। वाह ही मोदी सरकार और गोदी मीडिया। यह आंदोलन मोदी सरकार को सबक सिखाने वाला माना जा रहा है।
किसानों इस ललकार के माध्यम से किसान प्रधानमंत्री को अपनी गलती का अहसास करा रहे हैं। अपना अहंकार छोड़कर जमीन पर आने का संदेश दे रहे हैं। हालांकि देश में विपक्ष के नाकारा होने की वजह से ही मोदी देश में नंगा नाच कर पा रही है फिर भी आंदोलन को कांग्रेस और सपा समेत 12 विपक्षी दलों का समर्थन मिलना आंदोलन को मजबूती देना ही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह का पंजाब में कोरोना संक्रमण का हवाला देते हुए किसानों से आंदोलन को खत्म करने की अपील उनकी अपनी सत्ता की मजबूरी है।
मोदी सरकार को इस ललकार पर किसान मोर्चा का कहना है कि उनके इस आंदोलन को शक्ति प्रदर्शन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह शक्ति दिखाना नहीं बल्कि गहरे असंतोष की सांकेतिक अभिव्यक्ति है। किसान संगठनों ने प्रदर्शन के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने की भी बात कही है।
किसान संगठनों के अनुसार 26 मई को दिल्ली की सीमा ही नहीं बल्कि पूरे देश में नये किसान कानूनों के विरोध में किसान विरोध प्रदर्शन करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य और क्रांतिकारी किसान यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष डॉ. दर्शन पाल का कहना है कि किसान गांवों में, शहरों में और दिल्ली की सीमा पर अपना विरोध प्रदर्शन करेंगे। प्रदर्शनकारी काली पगडिय़ां पहनेंगे, काले दुपट्टे ओढेंगे और काले कपड़े पहनकर विरोध दर्शाएंगे। किसान अपने घरों की छतों पर, अपने टैक्टरों पर काले झंड़े लगाएंगे। जगह-जगह मोदी सरकार के पुतले जलाए जाएंगे। किसान अलग-अलग स्थानों पर धरना देंगे। उनका कहना है कि इसमें कोई शक नहीं कि ये एक आंदोलन होगा, लेकिन इसमें लोगों को एकत्रित करने या संख्या बल बढ़ाने पर जोर नहीं होगा। इसका उद्येश्य शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अपना विरोध दर्ज कराना होगा। कोरोना संक्रमण के मुद्दे पर किसानों का कहना है कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी दुर्दशा की जिम्मेदारी लेने के कोई भी तैयार नहीं है। किसानों को अपनी जायज मांगों के लिए महामारी के काल में अपनी जान खतरे में डालकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वैसे भी आंदोलन में किसानों का बड़ा चेहरा बनते जा रहे भाकियू के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कह दिया है कि यह मोदी सरकार और किसानों के बीच कुश्ती है। इसमें एक जीतेगा और एक हारेगा।
आज भले ही मोदी सरकार के बनाये गये इस माहौल में आंदोलन किसानों को आतंकवादी, नक्सली, देशद्रोही नकली किसान की संज्ञा दी जा रही है पर यह भी जमीनी हकीकत है कि कृषि प्रधान देश में किसान हमेशा ही ठगे गये हैं। देश में किसानों की दुर्दशा नई नहीं है। किसानों का शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जम कर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए। ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ नहीं करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि इन योजनाओं का फायदा या तो बैंकों को मिला या फिर बिचौलियों को किसान तो बेचारा ठगा ही जाता रहा है।
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